________________ प्रस्तुत सूत्र के पदों का प्रमाण समवायांग सूत्र में संख्येय लाख पद बताया है और उसकी वृत्ति में छयालीस लाख और आठ हजार (46,080,00) पद बताए हैं। नन्दी सूत्र के मूल में संख्येय हजार पद बताए हैं / वत्ति में भी संख्येय हजार पद प्राप्त होते हैं। धवला तथा जय-धवला में 92,44,000 (बानवें लाख चवालीस हजार) पदपरिमारण बतलाया गया है / राजवार्तिक में पद संख्या का कहीं उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत अनुत्तरौपपातिक सूत्र की स्थिति प्राचीन अनुत्तरोपपातिक सूत्र से कुछ भिन्न है / प्रथम वर्ग में 10 अध्ययन हैं, द्वितीय वर्ग में 13 अध्ययन हैं, और ततीय वर्ग में 10 अध्ययन हैं। इस प्रकार तीनों वर्गो की अध्ययन संख्या 33 होती है। प्रत्येक अध्ययन में एक एक महापुरुष का जीवन परिणत है। प्रथम वर्ग प्रथम वर्ग में-जालि, मयालि, उपजालि, पुरुषसेन, वारिसेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, विहल्ल, बेहायस और अभयकूमार इन दश राजकुमारों का, उनके माता-पिता. नगर. जन्म आदि का तथा वहाँ के राजा. उद्यान परिचय दिया गया है तथा उक्त दशों राजकुमार भगवान महावीर के पास संयम स्वीकार करके तथा उत्कृष्ट तप त्याग की आराधना कर अनुत्तर विमान में देव हए और वहां से चयकर मानव शरीर धारण कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त होंगे। द्वितीय वर्ग द्वितीय वर्ग में दीर्घ सेन, महासेन, इष्टदन्त, गूढदन्त शुद्धदन्त, हल, द्रम, द्रुमसन, सिह, सहस और पुष्यसेन- इन तेरह राज कुमारों के जीवन का वर्णन भी जालिकुमार के जीवन की भांति ही संक्षेप में किया गया है। इस वर्ग में वाणित महापुरुषों का जीवन भोगमय तथा तपोमय था, और सभी राजकुमार अपनी तप:साधना के द्वारा पाँच अनुत्तर विमानों में गए हैं, तथा वहाँ से चयकर मनुष्य जन्म पाकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होगे। तृतीय वर्ग तृतीय वर्ग में-धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र चन्द्रिक, पृष्टिमातृक, पेढालपुत्र, पोट्टिल्ल तथा वेहल्ल-इन दश कुमारों के भोगमय जीवन के पश्चाद्वर्ती तपोमय जीवन का सुन्दर चित्रण किया गया है। उक्त दश कुमारों में धन्यकुमार का वर्णन विस्तार पूर्वक है / अनुत्तरौपपातिक सूत्र का प्रमुख पात्र धन्यकुमार काकन्दी की भद्रा सार्थवाही का पुत्र था / अपरिमित धनधान्य और सुख-उपभोग के साधनों से संपन्न था। धन्यकुमार का लालन-पालन बड़े ऊंचे स्तर पर हुआ था। वह सांसारिक सूखों में लीन था। एक दिन श्रमण भगवान महावीर के त्याग-वैराग्य संयुक्त दिव्य पावन प्रवचन सुनकर वैराग्य की भावना जागृत हो गई, और तदनुसार वह अपने विपुल वैभव को छोड़कर मुनि बन गया / मुनिजीवन प्राप्त करने के पश्चात् जो त्याग और तपोमय जीवन का प्रारम्भ हुआ वह श्रमणसमुदाय में अदभुत था / तपोमय जीवन का ऐसा अद्भुत और सर्वांगीण वर्णन श्रमण-साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता तो इतर साहित्य में तो उपलब्ध हो ही कैसे सकता है ! अनगार बनते ही धन्य ने जीवन भर के लिए छठ-छठ के तप से पारणा करने की प्रतिज्ञा की। पारणा में प्राचाम्ल व्रत अर्थात केवल रूक्ष भोजन करते थे। इसमें भी अनेकानेक प्रतिबन्ध उन्होंने स्वेच्छया स्वीकार किए थे। इस प्रकार उत्कृष्ट तप करने से उनका शरीर केवल अस्थिपंजर रह गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org