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________________ वह व्यक्ति विविध प्रकार के प्रयोग कर जीवन का अन्त करता है। वह आत्महत्या करता है। उसके अन्तर्मानस में भय, कामनाएं, वासनाएं, उत्त जनाएं और कषाय रहा हुआ होता है। किन्तु संथारे में इन सभी का प्रभाव होता है, आत्मा के निज-गुणों को प्रकट करने की तीव्रतर भावना होती है। इसीलिये यदि पूर्व काल में किसी / दुर्भावनाएं या बैमनस्य हुया हो तो वह स्वयं क्षमा-याचना करता है और अपनी ओर से क्षमा प्रदान भी करता है। संथारे में न किसी प्रकार की कीति की कामना ही होती है और न कोई चाहना ही होती है. इसलिये वह प्रात्महत्या नहीं है। अपितु साधना का मंगलमय पावन पथ है।६६ प्रस्तुत आगम की भाषा और विषय अत्यधिक सरल होने के कारण उस पर न नियुक्तियाँ लिखी गयीं, न भाष्य लिखा गया और न चणियाँ ही। सर्वप्रथम प्राचार्य अभयदेव ने ही इस पर संस्कृत भाषा में वत्ति लिखी है, जो शब्दार्थप्रधान और सूत्रस्पर्शी है, वृत्ति का ग्रन्थमान 192 श्लोक प्रमाण है। वह वत्ति सन 1920 में पागमोदय समिति सूरत से प्रकाशित हुई और उसके पूर्व सन् 1875 में कलकत्ता से धनपतसिंह ने प्रकाशित की थी। इस पागम का अंग्रेजी अनुवाद 1907, L.D. BarNett से प्रकाशित हया है। पी. एल. बैद्य ने प्रस्तावना के साथ सन् 1932 में इस का प्रकाशन करवाया। सन् 1921 में इस का केवल मूलपाठ आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। विक्रम संवत् 1990 में भावनगर से ही अभयदेववृत्ति के साथ गुजराती अनुवाद का एक संस्करण निकला / वीर संवत-२४४६ में प्राचार्य अमोलक ऋषि ने हिन्दी में बत्तीस प्रागमों के प्रकाशन के साथ इसका भी प्रकाशन करवाया था। 1940 में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने जैन साहित्य प्रकाशन समिति अहमदाबाद से और श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर, बम्बई से इस के मूल के साथ प्रकाशित हुए हैं। प्राचार्य श्री घासीलालजी म. ने संस्कृत टीका के साथ हिन्दी और गुजराती अनुवाद सन् 1959 में जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट (सौराष्ट्र) से प्रकाशित करवाया / प्राचार्य श्री आत्माराम जी म. ने विवेचन युक्त एक शानदार संस्करण 'जैन शास्त्रमाला कार्यालय लाहोर,' से सन् 1936 में प्रकाशित किया है। श्री विजयमुनिशास्त्री ने मूल हिन्दी टिप्पण व वृत्ति के साथ सम्पादित कर एक मनमोहक संस्करण प्रकाशित किया है। इस प्रकार आज तक अनुत्तरोषपातिकदशा के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं जिनको अपनी महत्ता है। प्रस्तुत संस्करण अनुत्तरोपपातिकदशा का एक अभिनव संस्करण है / इसमें शुद्ध मूलपाठ है; अर्थ तथा संक्षेप में विवेचन भी है, जो अागम के मूलभाव को स्पष्ट करता है। परिशिष्ट में टिप्पण दिये गये हैं जो बहुत ही सम्पूर्ण हैं / पारिभाषिक-शब्दकोष, अव्ययपद, क्रियापद, शब्दार्थ देने से आगम के गुरुगंभीर रहस्य सहज रूप से समझे जा सकते हैं। परमविदुषी साध्वीरत्न स्वर्गीया महासती श्री उज्ज्वलकुमारीजी के नाम से जैन समाज भलीभांति परिचित है। उन्हीं को सुशिष्या हैं धर्मभगिनी साध्वी मुक्तिप्रभाजी। मुरुगी की तरह उनमें भी प्रतिभा है। उनके द्वारा सम्पादित प्रस्तुत प्रागम में उनकी प्रतिभा यत्र-तत्र प्रस्फुटित हुई है। इस संस्करण की अपनी एक विशिष्टता है / इसमें परमादरणीय युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी की मधुर परिकल्पना को मूर्तरूप देने का सफल प्रयास किया गया है। बहिन मुक्तिप्रभा जी का यह प्रथम प्रयास प्रशंसनीय है। इसमें विदवद्वरेण्य कलमकलाधर श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का प्रकाण्ड पाण्डित्य भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हया है। श्रमरण-संघ के मनीषी मूर्धन्य मुनिगणों की वर्षों से यह परिकल्पना थी कि आगम के गुरुगंभीर रहस्यों को युगानुकूल सरस-सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाय / प्रागम-बत्तीसी को शानदार रूप से प्रकाशित किया 89. देखिए लेखक का जनप्राचार-ग्रन्थ में संलेखना लेख (अप्रकाशित)। [ 17 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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