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________________ भले ही वे दिलचस्प न हों पाठकों के मन को भले ही पकड़कर न रखते हों किन्तु उनमें जीवनोत्थान की प्रशस्त प्रेरणाएं रही हुई हैं, वे सांस्कृतिक दृष्टि से अपूर्व धरोहर के रूप में हैं। प्रस्तुत प्रागम विषय-विभाग की दृष्टि से धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत आता है। यों चरणकरणानुयोग का भी प्रतिनिधित्व करता है / प्रस्तुत प्रागम में जैन-परम्परा के अनुसार तप का विश्लेषण किया गया है। जैन संस्कृति में तप की उत्कष्ट-साधना प्रधान रही है। जितने भी तीर्थकर हए हैं वे तप के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं,८६ तप के साथ ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करते हैं और तप के साथ ही अपना प्रथम उपदेश प्रारम्भ करते हैं ! भगवान् महावीर तपोविज्ञानी अद्वितीय महापुरुष थे। उन्होंने अपने समय में प्रचलित कोई देहदमन रूप बहिर्मुख तप का ग्रान्तरिक साधना के साथ सामजस्य स्थापित किया था। महावीर ने स्वयं भी और उनके शिष्यों-शिष्याओं ने भी उत्कृष्ट तप की पाराधना की थी। उसका उल्लेख हम इस पागम में पाते हैं और अन्य प्रागमों में भी। यही कारण है कि महावीर के शिष्यों के लिये बौद्ध वाङमय में तपस्वी और दीर्घतपस्वी विशेषण मिलते हैं। आवश्यकनियुक्ति में८७ अनगार को तप में शूर कहा है। सुप्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि ने तप की परिभाषा करते हुए लिखा है-जो पाठ प्रकार के कर्म को तपाता है-उसे नष्ट करने में समर्थ होता है वह तप है। तप से कर्म नष्ट होते हैं और प्राच्छन्न शक्तियाँ प्रगट हो जाती हैं। दाक्षिणात्य पवन चलते ही अनन्त गगन में मण्डाराती हुई काली कजराली घटाएं, एक क्षण में छिन्न-भिन्न हो जाती हैं वैसे ही तप रूपी पवन से कर्म रूपी बादल छंटने लगते हैं। प्रस्तुत आगम में अनशन तप का उत्कृष्ट क्रियात्मक चित्रण हुआ है। अनशन तप वही साधक कर सकता है जिसकी शरीर पर प्रासक्ति कम हो। अनशन में अशन का त्याग तो किया ही जाता है, साथ ही इच्छायों, कषायों और विषय-वासनाओं का त्याग भी किया जाता है। प्रारम्भ में साधक कुछ समय के लिये आहार आदि का परित्याग करता है जो इत्वरिक तप के नाम से विश्र त है। जीवन के अन्तिमकाल में वह जीवन पर्यन्त के लिये आहार आदि का परित्याग कर देता है जो यावत्कथित तप कहलाता है। धन्य अनगार और अन्य अनगारों ने इन दोनों ही प्रकार के तपों की आराधना की थी। संलेखना जैन-साधना-विधि की एक प्रक्रिया है / जिस साधक ने अध्यात्म की गहन साधना की है, भेदविज्ञान की बारीकियों को अच्छी तरह से समझा है, वही संलेखना और समाधि के द्वारा मरण को वरण कर सकता है / मरण के समय जो आहार आदि का त्याग किया जाता है, उस परित्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती। संयमी साधक की सभी क्रियाएँ संयम के लिए होती हैं। जो शरीर साधना में सहायक न रह कर बाधक बन गया हो, जिसको वहन करने से प्राध्यात्मिक गुणों की शुद्धि और वृद्धि न होती हो वह त्याज्य बन जाता है / उस समय स्वेच्छा से मरण को वरण किया जाता है। एक भ्रान्त धारणा है कि संथारा आत्महत्या है पर यह सत्य नहीं है। प्रात्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीडित है, जिसकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती हो, जिसका घोर अपमान हृया हो, या कलह हा हो और जो तीव्र क्रोध के कारण विक्षिप्त-सा हो गया हो। 86, क-समवायांग-१, 9-8. __ ख-आवश्यक नियुक्ति गाथा-१५०. ग---उत्तरापुराण-५१/७० पृष्ठ-३० 87. तवसूरा अरणगारा-पावश्यकनियुक्ति गा. 450. 58. पावश्यक मलयगिरि वत्ति, खण्ड-२ अध्याय-१. [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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