________________ तृतीय वर्ग] पाने वाले तथा दूसरों को बोध देने वाले, स्वयं मुक्त तथा दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं तिरे हुए तथा दूसरों को तारने वाले, तथा उपद्रव रहित, अचल, रोग-रहित, अन्त-रहित अक्षय, बाधा-रहित एवं पुनरागमन से रहित, सिद्धिगतिनामक स्थान को समीचीनता से प्राप्त करने वाले श्रमण भगवान् महावीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के तृतीय वर्ग का यह अर्थ कहा है। परिशेष अणुत्तरोववाइयदसाणं एगो सुयक्खंधो। तिणि धग्गा। ति चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति / तत्य पढमे वग्गे दस उद्देसगा। विइए वग्गे तेरस उद्देसगा। तइए वग्गे दस उद्देसगा। सेसं जहा नायाधम्मकहाणं तहा नेयन्वं / / अनुत्तरौपपातिक दशा का एक श्रु त-स्कन्ध है / तीन वर्ग हैं / तीन दिनों में उद्दिष्ट होता हैअर्थात् पढ़ाया जाता है। उसके प्रथम वर्ग में दश उद्देशक हैं, द्वितीय वर्ग में तेरह उद्देशक हैं, तृतीय वर्ग में दश उद्देशक हैं। शेष वर्णन जो प्रस्तुत अंग में साक्षात् रूप से नहीं कहा गया है, उसे ज्ञाताधर्मकथासूत्र के समान समझ लेना चाहिए / विवेचन--यहाँ कहना केवल इतना ही है कि प्रस्तुत आगम में बार-बार स्कन्दक अनगार की उदाहरण-रूप में उपस्थित किया गया है / उनका वर्णन हमें कहाँ से प्राप्त हो ? तथा थावच्चापुत्र के विषय में भी यही कहा जा सकता है। उत्तर यह है कि प्रथम अर्थात् स्कन्दक मुनि का वर्णन पञ्चम अङ्ग भगवती के द्वितीय शतक में पाया है और थावच्चापुत्र का वर्णन छठे अङ्ग के पञ्चम अध्ययन में है। यह 'अनुरोपपातिक सूत्र' नौवाँ अङ्ग है / अतः सूत्रकार ने उसी वर्णन को यहाँ पर दोहराना उचित न समझ कर केवल दोनों का उल्लेखमात्र करके बात समाप्त कर दी है। पाठकों को इनके विषय में पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिये उक्त सूत्रों का अवश्य अध्ययन करना चाहिये / यहां श्री श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म-कथा सुनने को जाना, वहाँ वैराग्य की उत्पत्ति, दीक्षामहोत्सव, परम उच्चकोटि का तपः कर्म, शरीर का कृश होना, उसी के कारण अर्ध रात्रि में धर्म गरण करते हा अनशन व्रत की भावना का उत्पन्न होता. अनशन कर सर्वार्थ-सिद्ध विमान में उत्पन्न होना, भविष्य में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध-गति प्राप्त करना इत्यादि विषयों का संक्षेप में कथन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org