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________________ 50] [ अनुत्तरौपपातिकदशा जिसको प्राप्त कर आत्मा सिद्ध-पद में अपने प्रदेश में स्थित हो जाता है। भगवान को 'अप्रतिहतज्ञान-दर्शन-धर' भी बताया गया है / उसका अभिप्राय यह है (अप्रतिहते कटकुड्यपर्वतादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वा क्षायित्वाद् वरे-प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति-अप्रतिहतवरज्ञान-दर्शनधरस्तेन) अर्थात् किसी प्रकार से भी स्खलित न होने वाले सर्वोत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान की जब शुद्ध चित्त से भक्ति की जायेगी तो ग्रात्मा अवश्य ही निर्वाण-पद प्राप्त कर तन्मय हो जायेगा / ध्यान रहे कि इस पद की प्राप्ति के लिये सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र के सेवन की अत्यन्त आवश्यकता है। जब हम किसी व्यक्ति की भक्ति करते हैं तो हमारा ध्येय सदैव उसीके समान बनने का होना चाहिए / तभी हम उसमें सफल हो सकते हैं। पहले कहा जा चुका है कि कर्म ही संसार का कारण हैं। उनका क्षय करना मुमुक्षु का पहला ध्येय होना चाहिए। जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं तब तक निर्वाण-रूप अलौकिक पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। उन का क्षय या तो विपाकानुभव (उपभोग) से होता है या तप रूपी अग्नि के द्वारा। उपभोग के ऊपर ही निर्भर रहा जाय तो उन का सर्वथा नाश कभी नहीं हो सकता। क्योंकि उनके उपभोग के साथ-साथ नये-नये कर्म सञ्चित होते रहते हैं। अत: तपोऽग्नि से ही उन का क्षय करना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन के साथसाथ सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र का तथा विशेषतः तप का प्रासेवन आवश्यक है। इस प्रकार ज्ञान और चारित्र की सहायता से धन्य अनगार और उन के समान अन्य महापुरुष या तो सम्पूर्ण कर्मों के क्षीण होने पर मुक्ति प्राप्त करते हैं अथवा कुछ कर्म शेष रह जाएँ और आयुष्य समाप्त हो जाए तो अनुत्तर विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। जो इन विमानों में उत्पन्न होते हैं वे अवश्य ही एक-दो भवों में मोक्ष-गामी होते हैं। अतएव प्रस्तुत आगम में उन्हीं महान् व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, जो उक्त विमानों में उत्पन्न हुए हैं। इस सूत्र से अन्तिम शिक्षा यह प्राप्त होती है कि उक्त महषियों ने महाघोर तप करते हुए भी एकादशाङ्ग सूत्रों का अध्ययन किया। अत: प्रत्येक साधक को योग्यतापूर्वक शास्त्राध्ययन में प्रयत्नशील होना चाहिए, जिससे वह अनुक्रम से निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सके ! निक्षेप ___२२---एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरणं आइगरणं तित्थगरणं सयंसंबुद्ध णं लोगणाहेणं लोगप्पदीवेणं लोगप्पज्जोयगरणं अभयदएणं सरणदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मवरचाउरतचक्कट्टिणा अप्पडिहय-वर-णाण-दसणधरणं जिणेणं जावएणं बुद्ध णं बोहएणं मुत्तेणं मोयएणं तिण्णेणं तारएणं, सिवं प्रयलं अरुयं प्रणतं अक्खयं अव्वाबाहं अपुणरावत्तयं सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्ते। आर्य सुधर्मा ने कहा- "हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयं ही सम्यग् बोध को पाने वाले, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरण के दाता, नेत्र देने वाले, धर्म-मार्ग के दाता, धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के उत्तम आचरण द्वारा चार गति का अन्त करने वाले धर्म-चक्रवर्ती, अप्रतिहत तथा श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धर्ता, स्वयं राग-द्वोष के विजेता, अन्यों को राग-द्वेष पर विजय दिलाने वाले, स्वयं बोध को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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