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________________ तृतीय वर्ग] [ 27 धर्म वाला (त्याग देने-फेंक देने योग्य) ग्रहण करना कल्पता है, अनुज्झित धर्म वाला नहीं कल्पता / उसमें भी वह भक्त-पान कल्पता है, जिसे लेने की अन्य बहुत से श्रमण, माहण (ब्राह्मण), अतिथि, कृपण, और वनीपक (भिखारी) इच्छा न करें।" धन्य अनगार से भगवान् ने कहा---'हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुखकर हो, वैसा करो, परन्तु प्रमाद मत करो।" __अनन्तर वह धन्य अनगार भगवान महावीर से अनुज्ञात होकर यावत् हर्षित एवं तुष्ट होकर जीवन-पर्यन्त निरन्तर षष्ठ तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन--इस सूत्र में धन्य अनगार की आहार और शरीर विषयक अनासक्ति का तथा रसनेन्द्रियसंयम का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है / वे दीक्षा प्राप्त कर इस प्रकार धर्म में तल्लीन हो गये कि दीक्षा के दिन से ही उनकी प्रवृत्ति उग्र तप करने की ओर हो गई। उसी दिन निर्णय कर उनने भगवान से निवेदन किया कि-भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा से जीवन भर षष्ठ (बेले) तप का आयंबिल-पूर्वक पारणा करूं। उनकी इस तरह की धर्मरुचि देख कर थी भगवान् ने अनुमति दे दी / धन्य अनगार ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तप अंगीकार कर लिया। ___ 'उज्झित-धर्मिक' उसे कहते हैं, जिस अन्न को विशेषतया कोई नहीं चाहता हो। टीका में कहा है-"उज्झिय-धम्मियं ति, उज्झितं-परित्यागः स एव धर्म:--पर्यायो यस्यास्तीति उज्झितधर्मः" अर्थात् जो अन्न सर्वथा त्याग कर देने योग्य या फेंक देने के योग्य हो, वह 'उज्झित-धर्म' होता है। आयंबिल के दिन धन्य अनगार ऐसा ही आहार किया करते थे। ७-तए णं से धणे अणगारे पढमछट्ठखमणपारणय सि पढमाए पोरिसीए सम्झाय करेइ / जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, जाव [बीयाए पोरिसीए झाणं झियायइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तिय पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणाई पमज्जइ, पज्जित्ता भायणाई उग्गहेइ उग्महित्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अभणुण्णाए छट्टक्खमणपारणगंसि काय दीए नयरोए उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए / प्रहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंध / तए णं धणे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाम्रो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए विट्ठीए पुरो रिय सोहमाणे सोहमाणे] जेणेव काय दो णगरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता काय दीए गयरीए उच्च० जाव [नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुयाणस्स भिक्खायरिय] अडमाणे प्राय बिलं, नो अणाय बिलं जाव' नावखंति / तए णं से धणे अणगार ताए अन्भुज्जयाए पययाए पयत्ताए पग्गहियाए एसणाए एसमाणे जइ भत्तं लभइ, तो पाणं न लभइ, अह पाणं लभइ तो भत्तं न लभइ / तए णं से धण्णे अणगार प्रदोणे अविमणे अकलुसे अविसादी अपरितंतजोगी जयणघडणजोग१. अणुतरोववाइय वर्ग 3, सूत्र 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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