________________ प्रकाशकीय पागम प्रकाशन समिति किस पावन अवसर पर किस शुभ उद्देश्य से अस्तित्व में आई और किस प्रकार उसके द्वारा जिनागम-प्रकाशन-ग्रन्थमाला आरम्भ की गई, इसका संक्षिप्त उल्लेख पूर्व प्रकाशित आगमों के प्रकाशकीय निवेदन में किया जा चुका है। पाठकों को भलीभांति विदित है कि अब तक समिति ने प्राचारांग (दो भागों में), उपासकदशांग और ज्ञाताधर्मकथांग जैसे महान् प्रागमग्रन्थों का प्रकाशन किया है। सन्तोष का विषय है कि समाज ने इन प्रकाशनों को प्रेम और श्रद्धा से अपनाया है तथा जैन-जनेतर विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से इनकी प्रशंसा की है। इससे हमारे उत्साह में वृद्धि हुई है। ज्ञाताधर्मकथा के प्रकाशन के पश्चात् स्वल्प समय में ही अन्तकृद्दशांग और अनुत्तरोपपातिकदशांग का प्रकाशन लगभग साथ-साथ ही हो रहा है। सूत्रकृतांगसूत्र का मुद्रण आगरा में तथा स्थानांगसूत्र का मुद्रण अजमेर में चल रहा है / आशा है निकट भविष्य में ही ये दोनों आगम मुद्रित और प्रकाशित होकर आगमप्रेमी पाठकों के हाथों में आ जाएँगे। समवायांग अनूदित और सम्पादित होकर तैयार है। स्थानांग के पश्चात् वह प्रेस में दिया जाएगा / व्याख्याप्रज्ञप्ति विशालकाय आगम है / वह कई भागों में प्रकाशित किया जा सकेगा। उसका प्रथम भाग, जिसमें लगभग चार शतकों का समावेश होगा, शीघ्र प्रेस में देने की स्थिति में आ रहा है / अन्य आगमों के सम्पादन और अनुवादन का कार्य भी चालू है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org