________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा स्थविर, वृद्ध / शास्त्रों में तीन प्रकार के स्थविर कहे गए हैं(१) वयःस्थविर--६० वर्ष या इससे अधिक की आयु वाला भिक्षु वयःस्थविर है / (2) प्रव्रज्यास्थविरः-२० वर्ष या इससे अधिक दीक्षापर्याय वाला भिक्षु प्रव्रज्यास्थविर है। (3) व तस्थविर स्थानांग, समवायांग आदि के ज्ञाता भिक्षु को श्रु तस्थविर कहते हैं। सिलेस-गुलिया : श्लेष-गुटिका ___श्लेष' शब्द का वास्तविक अर्थ है–चिपकना, चोंटना। जब किसी कागज के दो टुकड़ों को चिपकाना होता है, तब गोंद अादि का उपयोग किया जाता है / वह श्लेष है / प्रतीत होता है, कि प्रस्तुत प्रसंग में 'श्लेष' शब्द का अर्थ गोंद आदि चिपकाने वाली वस्तु है। 'श्लेष' अर्थात् गोंद की गुटिका अर्थात् वटिका (बत्ती)। इसका अर्थ हुग्रा-गोंद की लम्बी-सी बत्ती। यह अर्थ यहाँ पर संगत बैठता है। टीकाकार ने इसका 'श्लेष्मणो गुटिका' अर्थ किया है। इसके अनुसार यदि 'कफ की गुटिका अर्थ' प्रस्तुत में लागू करना हो तो इस प्रकार घटाना होगा-- जैसे कफ की कोई लम्बी बत्ती-सी गुटिका कहीं पड़ी हुई फीकी-सी होती है, वैसे ही धन्यकुमार के होंठ हो गए थे। किन्तु 'श्लेष' शब्द, कफ अर्थ का वाचक नहीं मिलता। अमरकोषकार ने तथा प्राचार्य हेमचन्द्र ने कफ के जो पर्याय बताएँ हैं, वे इस प्रकार हैंमायुः पित्त कफः श्लेष्मा / -द्वि. कां. 16, मनुष्य वर्ग श्लोक 62. पित्त मायुः कफ: श्लेष्मा वलाश: स्नेहभूः खरः। -अभि. मर्त्य का., श्लोक 462. प्राचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार-कफ, श्लेष्मन्, वलाश, स्नेहभू और खर, ये पाँच नाम श्लेष्म के हैं / इसमें 'श्लेष' शब्द नहीं पाया है। धन्य अनगार : धन्यदेव मनुष्य गति या तिर्यंच गति से जो प्राणी देवगति में जन्म लेता है, उसका वहाँ कोई नया नाम नहीं होता / परन्तु उसके पूर्व जन्म का ही नाम चलता रहता है। धन्य मुनि का नाम धन्य देव पड़ा। दर्दु र मर कर देव हुआ, तो उसका नाम भी दर्दुर देव हुआ / मालूम होता है, कि देव जाति में मानव जाति के समान नामकरण-संस्कार की कोई प्रथा नहीं है / वहाँ पर मनुष्य-कृत अथवा पशुयोनि-प्रसिद्ध नाम का ही प्रचलन है / चाउरंत : चतुरन्त 'चाउरंत' शब्द का अर्थ है--चार अन्त / सारी पृथ्वी चार दिशाओं में आ जाती है। जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा क्षत्रिय-धर्म का उत्तम रीति से पालन करता हुआ, उन चारों दिशाओं का अन्त करता है-चारों दिशाओं पर विजय पाता है, सारी पृथ्वी पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर ने चार अन्त वाले-मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंचगति और नरकगति रूपसंसार पर, वास्तविक लोकोत्तर धर्म का पालन करते हुए विजय प्राप्त की / उस लोकोत्तर क्षात्र-धर्म से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org