________________ दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अद्भुत उपक्रम था। आगमों का यह प्रथम सम्पादन वीरनिर्वाण के 680 या 663 वर्ष पश्चात् सम्पन्न हुआ। पुस्तकारूढ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित होगया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, आन्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से प्रागम ज्ञान की शुद्ध धारा, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। आगमों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ़ अर्थ छिन्न-विच्छिन्न होते चले गये। जो अागम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते थे। उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे / अन्य भी अनेक कारणों से आगम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल बाद पुनः उसमें भी व्यवधान आगए। साम्प्रदायिक द्वष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों की भाषाविषयक अल्पज्ञता प्रागमों की उपलब्धि तथा उनके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विध्न बन गए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को सूविधा हई। आगमों की प्राचीन टीकाएँ, चणि व निर्यक्ति जब प्रकाशित हई तथा उनके आधार पर आगमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हा तो आगमज्ञान का पठनपाठन स्वभावतः बढ़ा, सैंकड़ों जिज्ञासुत्रों में आगम स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान् भी आगमों का अनुशीलन करने लगे। आगमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा- मनीषी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है। फिर भी मैं स्थानकवासी परम्परा के कुछ महान् मुनियों का नाम ग्रहण अवश्य ही करूंगा। पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज स्थानकवासी परम्परा के वे महान् साहसी व दृढ़ संकल्पबलो मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अनूदित करके जनजन को सुलभ बना दिया / पूरी बत्तीसी का सम्पादन-प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी व तेरापंथी समाज उपकृत हुआ। गुरुदेव पूज्य स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प : ___ मैं जब गुरुदेव स्व. स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज के तत्त्वावधान में आगमों का अध्ययन कर रहा था तब अागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ अागम उपलब्ध थे। उन्हीं के अाधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे। उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रम-साध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शुद्ध भी हैं, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं / मूल पाठ में एवं उसकी वृत्ति में कहीं-कहीं अन्तर भी है, कहीं वृत्ति बहुत संक्षिप्त है। गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज स्वयं जैन-सूत्रों के प्रकाण्ड पंडित थे / उनकी मेधा बड़ी व्युत्पन्न व तर्कणा-प्रधान थी। आगम साहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि आगमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org