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________________ 20 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा कणग०जाव संतसारसावएज्ज, अलाहि जाव प्रासत्तमानो कुलवंसानो पकामं दाउं, पकाम भोत्तु, पकामं परिभाएउं। तए णं से धन्ने कुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयइ, एगमेगं सुवष्णकोडि दलयइ, एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ, एवं तं चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारि दलयइ, अण्णं वा सुबहुं हिरणं वा जाव परिभाएउं / तए णं से धन्ने कुमारे उघि पासाय] जाव' फुट्टतेहि जाव' विहरइ। अनंतर धन्यकुमार को बाल-भाव से उन्मुक्त जानकर, यावत् विज्ञान जिसका शीघ्रता से परिपक्व अवस्था में पहुँच गया है, यौवनावस्थाशाली हुआ, 72 कलाओं में विशेष रूप से निष्णात हुआ, जिसके नौ अंग (दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र, एक जीभ एक स्पर्शन एवं एक मन) व्यक्तजागृत हो गए, अठारह प्रकार की भाषाओं में विशारद हुअा, गीत एवं रति में अनुरागयुक्त हुअा, गान्धर्व गान में-एवं नाटय क्रिया में पारङ्गत हा, तथा शृङ्गार के गह की तरह सून्दर वेष से युक्त हुअा, समुचित चेष्टा में समुचित विलास में-नेत्रजनित विकार में, समुचित संलाप में-एवं समुचित काकुभाषण में दक्ष हुअा, तथा-समुचित व्यवहारों में कुशल हुआ, अश्वयुद्ध करने में कुशल हुआ, गजयुद्ध करने में कुशल हुअा, रथयोधी हुआ, बाहुप्रयोधी हुआ, वाहुप्रमर्दी हुा-वाहु से भी कठोर वस्तु को चूर-चूर करने में समर्थ हुआ, तथा भोग में समर्थ हुअा, ऐसा जानकर भद्रा सार्थवाही ने बत्तीस सुन्दर प्रासाद बनवाए जो विशाल और उत्त ङ्ग थे। __ [वे भवन अपनी उज्ज्वल कान्ति के समूह से हँसते हुए से प्रतीत होते थे। मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से विचित्र थे। वायु से फहराती हुई और विजय को सूचित करने वाली वैजयन्तीपताकामों से तथा छत्राति-छत्रों (एक दूसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से युक्त थे। वे इतने ऊँचे थे कि उनके शिखर प्राकाशतल को उल्लंघन करते थे। उनकी जालियों के मध्य में रत्नों के पंजर ऐसे प्रतीत होते थे, मानों उनके नेत्र हों। उनमें मणियों और कनक की थूभिकाएँ (स्तूपिकाएँ) वनी थीं। उनमें साक्षात् अथवा चित्रित किये हुए शतपत्र और पुण्डरीक कमल विकसित हो रहे थे। वे तिलक रत्नों एवं अर्द्धचन्द्रों-एक प्रकार के सोपानों से युक्त थे, अथवा भित्तियों में चन्दन आदि के आलेख (हाथे) से चचित थे / नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत थे। भीतर और बाहर से चिकने थे। उनके प्रांगन में सुवर्ण की रुचिर बालुका बिछी थी / उनका स्पर्श सुखप्रद था। रूप बड़ा ही शोभन था। उन्हें देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती थी। यावत् वे महल प्रतिरूप थे—अत्यन्त मनोहर थे। उन प्रासादों के मध्य में एक उत्तम भवन का निर्माण करवाया जो अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित था। उसमें लीलायुक्त अनेक पुतलियाँ स्थापित की हुई थीं। उसमें ऊँची और सुनिर्मित वज्ररत्न की वेदिका थी और तोरण थे। मनोहर निर्मित पुतलियों सहित उत्तम, मोटे एवं प्रशस्त वैडूर्य रत्न के स्तम्भ थे-वह विविध प्रकार के मणियों सुवर्ण तथा रत्नों से खचित होने के कारण उज्ज्वल दिखाई देता था। उसका भूमिभाग बिलकुल सम, विशाल, पक्का और रमणीय था। उस भवन में ईहामृग, वृषभ, तुरग, मनुष्य, मकर आदि के चित्र चित्रित किये हुए थे। स्तम्भों पर बनी 1-2. अणुत्तरोववाइयदशा सूत्र 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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