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________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा ___ इस प्रकार सूत्रकार ने धन्य अनगार के पैर से लेकर शिर तक सब अङ्गों का वर्णन कर दिया है इसमें विशेषता केवल इतनी ही बतलाई गई है कि उदर-भाजन, जिह्वा, कान, और अोठों के साथ अस्थि शब्द का अन्वय नहीं करना चाहिए क्योंकि इनमें अस्थियां नहीं होती है। शेष सब अंगों के साथ सुक्क, लुक्खं, णिम्मसं, इत्यादि सब विशेषणों का प्रयोग करना चाहिए। धन्य मुनि की आन्तरिक तेजस्विता १५--धण्णे णं अणगारे सुक्केणं भुक्केणं लुक्खेणं पायघोरुणा, विगयतडिकरालेणं कडिकडाहेणं, पिट्टिमवस्सिएणं उदरभायणेणं जोइज्जमार्गाह पासुलियकडएहि, अवखसुत्तमाला इव गणेज्जमाणेहि पिट्टिकरंडगसंधीहि, गंगातरंगभूएणं उरकडग-देशभाएणं, सुक्कसप्पसमाईि बाहाहि, सिढिलकडालो विव लंबतेहि य अग्गहत्थेहि, कंपणवाइए विव वेवमाणीए सीसघडीए पच्वायवयणकमले उन्भडघडमुहे उच्छुद्धणयणकोसे जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा / जहा खंदग्रो तहा, जाव' हुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्णे तवेणं तेएणं अईव अईव तबतेयसिरीए उपसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिठ्ठ। __ घोर तपस्वी वह धन्य अनगार मांस आदि के अभाव के कारण सूखे, और भूख के कारण वभक्षित एवं पैर आदि अवयवों के कृशतर हो जाने के कारण रूक्ष दिखाई देते थे। उनका क कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजनविशेष-कढ़ाई) सरीखा विकृत एवं मांसहीन होने के कारण हड्डियां ऊपर दिखाई देने से विकराल दृष्टिगोचर होता था। मांस-मज्जा और शोणित के अभाव में पीठ से लगे पेट से, निर्मास होने के कारण स्पष्ट दिखलाई देने वाली पसलियों से, मांस और मज्जारहित होने से रुद्राक्ष की माला के मणकों के समान स्पष्ट गिने जाने योग्य पृष्ट-करंडग (रीढ़) की सन्धियों से, गङ्गा की तरङ्गों के तुल्य स्पष्ट दिखने वाली अस्थियों के कारण उनके वक्षस्थल का भाग दीख पड़ता था। उनकी भुजाएँ, सूखे हुए सर्प के तुल्य लम्बी एवं सूखी थीं। लोहे की घोड़े की लगाम के तुल्य उनके अग्रहस्त कांपते हुए थे। कम्पनबात-ग्रस्त रोगी के तुल्य उनका मस्तक कांपता रहता था। उनका मुख-कमल म्लान हो गया था। होठों के सूख जाने से उनका मुख टूटे मुखवाले घड़े के समान विकृत दृष्टिगोचर होता था। उनके नयनकोष अन्दर की ओर धंस गये थे / दीर्घ तप से इस प्रकार क्षीण होकर वह धन्य अनगार अपने शरीर के वल से नहीं; परन्तु अपने ग्रात्मबल से ही गमन करते थे। अपने आत्मबल से ही खड़े होते थे और वैठते थे। भाषा बोलकर वे थक जाते थे, वोलते सयय भी उन्हें थकावट का अनुभव होता था, यहाँ तक 'मैं बोलूगा इस विचार मात्र से ही वे थक जाते थे। जिस समय वह चलते तो उनके शरीर की हड्डियां ऐसा शब्द करती थीं जैसे कोई कोयलों से भरी गाड़ी हो, इत्यादि / ___ जो दशा स्कन्दक की हो गई थी, वही दशा धन्य अनगार की भी हो गई थी। फिर भी वे राख के ढेर से ढंकी आग के समान अन्दर ही अन्दर आत्म-तेज से प्रदीप्त हो रहे थे। वह धन्य अनगार तप से, तेज से और तपस्तेज की शोभा-आभा से अत्यन्त सुशोभित होकर (अपनी साधना में स्थिर थे, अडिग थे और अडोल थे)। 1. देखिए अणुत्तरोववाइयदसा वर्ग 3, सूत्र 8. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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