________________ तृतीय वर्ग] एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्मे वयह, जं] नवरं अम्मयं भई सत्थवाहि पापुच्छामि। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव [मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं] पव्वयामि / प्रहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध / जाव जहा जमाली तहा प्रापुच्छइ [तए णं से धण्ण कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्व-तु? समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो जाव णमंसित्ता, जाव जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मा-पियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्म-याओ! मए समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिथं धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए / तए णं धण्णं कुमारं अम्मा-पियरो एवं बयासी-धण्णे सि णं तुम जाया ! कयत्थे सि णं तुम जाया ! कयपुण्णे सि णं तुमं जाया ! कयालक्खणे सि णं तुम जाया! जं णं तुमे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मे णिसंते, से वि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तए णं से धण्णे कुमारे अम्मा-पियरो दोच्चंपि तच्चं पि एवं वयासी-एवं खलु मए अम्मयानो ! समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, जाव अभिरुइए। तए णं अहं अम्मायाप्रो ! संसारभउबिग्गे, मीए जम्म-जरा-मरणेणं, तं इच्छामि गं अम्म-यानो! तुन्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवरो महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पव्वइत्तए। उस काल और उस समय में श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर काकंदी नगरी में पधारे / परिषद् निकली। कोणिक की तरह जितशत्रु राजा भी दर्शनार्थ निकला। जमाली के समान धन्यकुमार भी साज-सज्जा के साथ निकला। विशेष यह है कि धन्यकुमार पैदल चल कर ही भगवान की सेवा में पहुँचा। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास धर्म सुनकर और हृदय में धारण करके धन्यकुमार हर्षित और सन्तुष्ट हृदय वाला हुया यावत् खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया और इस प्रकार कहा "हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर विश्वास करता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर रुचि करता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार प्रवृत्ति करने को तत्पर हुआ हूँ। हे भगवन् ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, तथ्य है, असंदिग्ध है, जैसा कि आप कहते हैं। हे भगवन् ! मैं अपनी माता-भद्रा सार्थवाही की आज्ञा लेकर, गृहवास का त्याग करके, मुण्डित होकर आपके पास अनगार-धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ।" For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org