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________________ | अनुत्तरौपपातिकदशा चतुर्दशपूर्वी और द्वादशांग वाणी के प्रणेता गणधर गौतम ने कहा-मैंने नरक तो नहीं देखे, किन्तु यही नरक है।" -विपाकसूत्र गौतम के सम्बन्ध में एक और घटना प्रचलित है, जिसका उल्लेख मूल में तो नहीं, किन्तु उत्तरकालीन साहित्य में है। उत्तराध्ययन सूत्र के 10 वें अध्ययन की नियुक्ति में भगवान महावीर के मुख से इस प्रकार कहलवाया गया है कि "अष्टापद सिद्ध पर्वत है, अतः जो चरम शरीरी है, वही उस पर चढ़ सकता है, दूसरा नहीं." भगवान का उक्त कथन सनकर जब देव समवसरण से बाहर निकले, तब सिद्ध पर्वत हैं' ऐसी आपस में चर्चा कर रहे थे। गौतम गणधर ने देवों की यह बातचीत सुनी। गणधर गौतम द्वारा प्रतिबोधित शिष्यों को केवलज्ञान हो जाता था, पर गौतम को नहीं होता था, इससे गौतम खिन्न हो गए। तब भगवान ने कहा- 'गौतम ! मेरे शरीर त्याग के पश्चात् मैं और तुम समान हो जाएंगे / तू अधीर मत बन / ' इस प्रकार भगवान् के कहने पर भी गौतम को संतुष्टि न हुई, अधृति बनी ही रही / भगवान् की उक्त बात सुनने पर भी गणधर गौतम अष्टापद पर गए, और जब वहाँ से लौटकर भगवान् के पास आए, तब भगवान् ने कहा - "कि देवाणं बयणं गिझ अहवा जिणवराणं?" अर्थात् देवों का वचन मान्य है, अथवा जिनवरों का ? भगवान् के इस कथन को सुनकर गौतम ने अपने आचरण के लिए क्षमा मांगी। -पाइय टीका, पृ. 323 उत्तराध्ययन के टीकाकार प्राचार्य नेमिचन्द्र ने भी गौतम की अष्टापद-सम्बन्धी उक्त कथा का अवतरण लिया है। उसमें लिखा है कि-"तत्थ गोयमसामिस्स सम्मत्तमोहणीयकम्मोदयवसेण चिता जाया "मा ण न सेज्झिज्जामि" ति।' नेमिचन्द्र टीका, पृ. 154 भगवान के निश्चित प्राश्वासन देने पर भी गणधर गौतम को सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के उदय से इस प्रकार की चिन्ता हो गई थी, कि कदाचित् मैं सिद्ध पद न पा सकूगा / उक्त चिन्ता के निवारण के लिए ही वे अष्टापद पर गए / गणधर गौतम के जीवन-सम्बन्ध में अनेक वर्णन उपलब्ध हैं। विद्वान् विचारकों एवं संशोधकों को उक्त प्रसंगों के तथ्यातथ्य का ऐतिहासिक दृष्टि से अनुसंधान करना चाहिए / कुछ भी हो, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि इन्द्रभूति गौतम सत्य के महान् शोधक थे। अपना सब कुछ भूलकर वह भगवान् के चरणों में ही सर्वतोभाव से समर्पित हो गए थे। चेल्लणा राजा श्रेणिक की रानी और वैशाली के अधिपति चेटक राजा की पुत्रो। चेल्लणा सुन्दरी, गुणवती, बुद्धिमती, धर्मप्राणा नारी थी। श्रोणिक राजा को धार्मिक बनाने में-जैनधर्म के प्रति अनुरक्त करने में चेल्लणा का बहुत बड़ा योग था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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