________________ तृतीय वर्ग] [ 31 धन्य अनगार के पैरों का तपोजनित रूप-लावण्य (देखाव) इस प्रकार का हो गया थाजैसे-वृक्ष की सूखी छाल हो, काठ की खड़ाऊं हो अथवा पुराना जूता हो। इस प्रकार धन्य अनगार के पैर सूखे थे-रूखे थे और निर्मास थे / अस्थि (हड्डी), चर्म और शिराओं से ही वे पहिचाने जाते थे। मांस और शोणित (रक्त) के क्षीण हो जाने से उनके पैरों की पहिचान नहीं होती थी। धन्य अनगार के पैरों की अंगुलियों का तपोजनित रूप लावण्य इस प्रकार हो गया थाजैसे-कलाय (मटर) की फलियाँ हो, मूग की फलियाँ हों, उड़द की फलियाँ हों, और इन कोमल फलियों को काटकर धूप में डाल देने पर जैसे वे सूखी और मुर्भायी हो जाती हैं, वैसे ही धन्य अनगार के पैरों की अंगुलियाँ भी सूख गई थीं, रूक्ष हो गई थी और निर्मास हो गईं थी, अर्थात् मुरझा गई थीं। उनमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें (प्रायः) नहीं रह गया था। विवेचन--यहाँ सूत्रकार ने धन्य अनगार की शारीरिक दशा में कितना परिवर्तन हो गया था, इस विषय का प्रतिपादन किया है। तप करने से उनके दोनों चरण इस प्रकार सूख गये थे जैसे सूखी हुई वृक्ष को छाल, लकड़ी की खडाऊं अथवा पुरानी सूखी हुई जूती हो / उनके पैरों में मांस और रुधिर नाम मात्र के लिए भी दिखाई नहीं देता था। केवल हड्डी, चमड़ा और नसें ही देखने में आती थी। पैरों की अंगुलियों की भी यही दशा थी / वे भी कलाय, मूग या उड़द की उन फलियों के समान हो गई थी जो कोमल-कोमल तोड़ कर धूप में डाल दी गई हों---मुरझा गई हों। उनमें भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था / धन्य मुनि को जंघाएँ, जानु एवं ऊर ११-धण्णस्स अणगारस्स जंघाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहानामए काकजंघा इ वा, कंकजंघा इ वा, ढेणियालियाजंघा इ वा जाव [सुक्कामो लुक्खाम्रो निम्मंसानो अद्विचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंस] सोणियत्ताए। धण्णस्स अण्णगारस्स जाणणं अयमेयारूवे जाव तवरूवलावणे होत्था--से जहानामए कालिपोरे इ वा मयूरपोरे इ वा ढेणियालियापोरे इ वा एवं जाव [धपणस्स अणगारस्स जाणू सुक्का निम्मंसा अट्टिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंस] सोणियत्ताए। धण्णस्स उरुस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था-से जहानामए बोरीकरीले इ वा सल्लइकरीले इ वा, सामलिकरोले इ वा, तरुणिए उण्हे जाव [दिण्णे सुक्के समाणे मिलायमाणे] चिट्ठइ, एकामेव धण्णस्स अणगारस्स ऊरू जाव [सुक्का लुक्खा निम्मंसा अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव ण मंस] सोणियत्ताए। धन्य अनगार की जंघाओं (पिंडलियों) का तपोजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-काक पक्षी को जंघा हो, कंक पक्षी की जंघा हो, ढेणिक पक्षी (टिड्ढे) की जंधा हो / यावत् [धन्य अनगार की जंघा सूख गई थीं रूक्ष हो गई थीं, निर्मांस हो गई थी अर्थात् मुरझा गई थीं। उनमें अस्थि चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें प्रायः नहीं रह . गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org