________________ तृतीय वर्ग] [47 संयम तथा तप से प्रात्मा को भावित कर विचरण करने लगा। अनन्तर वह सुनक्षत्र मुनि उस उदार तप से स्कन्दक की तरह कृश हो गया। विवेचन-यहां से सूत्रकार तीसरे वर्ग के शेष अध्ययनों का वर्णन करते हैं। इस सूत्र में सुनक्षत्र अनगार का वर्णन किया गया है। सूत्र का अर्थ मूलपाठ से ही स्पष्ट है। उदाहरण के लिये सूत्रकार ने थावच्चापूत्र और धन्य अनगार को लिया है। पाठकों को थावच्चापत्र के विषय में जानने के लिये 'ज्ञाताधर्म-कथाडसत्र के पांचवें अध्ययन का अध्ययन करना चाहिए। धन्य अनगार का वर्णन इसी वर्ग के प्रथम अध्ययन में आचुका है। _इस सूत्र में प्रारम्भ में ही “उक्खेवप्रो-उत्क्षेपः" पद पाया है। उसका तात्पर्य यह है कि इसके साथ के पाठ का पिछले सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए अर्थात् उसके स्थान पर निम्न-लिखित पाठ पढ़ना चाहिए : जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेरणं जाव संपत्तणं नवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते नवमस्स गं भंते ! अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स वितियस्स अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णते ? इस प्रकार का पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारंभ में आता है। इसे 'उक्खेवरो या उत्क्षेप' कहते हैं, जिसका प्राशय है भूमिका या प्रारंभ ! पाठ को संक्षिप्त करने के लिये यहाँ 'उक्खेवो' पद दे दिया जाता है / दूसरे सूत्रों में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने पारणा के दिन ही आचाम्लव्रत धारण किया था इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी किया। जिस प्रकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के द्वितीय शतक में स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान के पास दीक्षित होकर तप द्वारा अपना शरीर कृश किया था उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया। इस सूत्र से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब कोई अपना समीचीन लक्ष्य स्थिर कर ले तो उसकी प्राप्ति के लिये उसको सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये और दृढ संकल्प कर लेना चाहिये कि वह उस पद की प्राप्ति करने में बड़े से बड़े कष्ट को भी तुच्छ समझेगा और अपने प्रयत्न में कोई भी शिथिलता नहीं ग्राने देगा। जब तक कोई ऐसा दृढ़ संकल्प नहीं करता तब तक वह लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। किन्तु जो अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये एकाग्र चित्त से प्रयत्न करता है वह अवश्य और शीघ्र ही सफलता प्राप्त कर लेता है / 20 तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए / सेणिए राया। सामो समोसढे / परिसा निग्गया। राया निग्गयो। धम्मकहा / राया पडिगो / परिसा पडिगया। तए णं तस्स सुणक्खत्तस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म-जागरियं जहा खंदयस्स / बहु वासा परियानो। गोयम-पुच्छा। तहेव कहेइ जाव सम्वदसिद्ध विमाणे देवत्ताए उबवणे / तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई / से णं भंते ! जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ। उस काल और उस समय में राजगह नाम का एक नगर था / गुणशिलक नामक चैत्य था / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org