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[४४] श्री नन्दीसूत्रम्
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"नन्दीसूत्र" मूलं एवं वृत्ति:
[हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
jain_e_library's Net Publications
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति::
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आगम
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
....मूलं [-1 / गाथा ||HI
(४४)
प्रत
N
सुत्रांक
गाथा
ARACTICWACHAR2CW2CAPACHARONGHAWACHANComal
श्रीनन्दीसूत्रस्य हारिभद्रीया वृत्ति :। प्रकाशिका-बुहारीवास्तव्यश्रेष्ठिझवरचंदपन्नाजीवितीर्णकिंचित्साहाय्येन
श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांवर संस्था, रतलाम ।
मुद्रयिता-जैनबन्धुमुद्रणालयाधिपः श्रीजुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा इन्दौर वीर सं. २४५४ विक्रम सं. १९८४ क्राइष्ट सन १९२८ पण्यं १-१२-.
||-11
ठकाळ8
IRCRAMOCRAwes
दीप अनुक्रम
H
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: | ... 'नन्दीसूत्र'-हारिभद्रिया वृत्ते: मूल टाईटल पेज
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मूलाका: ५९+९०
नन्दी चूलिका-सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा:
पृष्ठांक
पृष्ठांक:
००६
०२५
मूलांक: | विषय:
पृष्ठांक: → मतिश्रुत ज्ञान वर्णनं ०६२ → अङ्गप्रविष्ठसूत्र
००६
मूलांक: | विषयः ००१-- नन्दी -सूत्रं --१६३ → वीरस्तुति
→ संघस्तुति → जिनवंदना, → स्थविरावली
मूलांक: | विषयः
→ श्रोता, पर्षदा → ज्ञानस्य भेदा: → अवधिज्ञान वर्णनं → मन:पर्यवज्ञान-वर्णनं → केवलज्ञान-वर्णन
०११
०३४
०२८ | | ०४७
०५३
अनुज्ञानन्दी - परिशिष्ठं xxx योगनन्दी- परिशिष्ठं xxx
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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[ नन्दीसूत्र - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा
यह प्रत सबसे पहले “नन्दीसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में ऋषभदेव केशरीमलजी संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | मूल संपादकश्रीने तो यहां दो प्रत को मिलाकर एकसाथ मुद्रण करवाया था, (१) चूर्णि और (२) वृत्ति | मगर हमने हमारे प्रकाशनमे चूर्णि को चूर्णि के विभागमे रख दिया और वृत्ति को यहां "आगम- सुत्ताणि-सटीकं प्रताकार net publications भाग-2 मे स्थान दे दिया |
ये 'हारिभद्रीया-वृत्ति' तो कदमे छोटी है, मगर 'नन्दीसूत्र' पर मलयगिरिजी रचित वृत्ति बहोत बड़ी है, जो हमारे "आगम-सुत्ताणि-सटीकं" प्रताकार net publications भाग- 1 मे हम मुद्रित करवा चुके है ।
* हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके |
हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है| हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है |
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
मुनि दीपरत्नसागर
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
...........मूलं [-]/गाथा ||-||
प्रत सूत्रांक
गाथा
11-11
मुद्रितपूर्वग्रन्थाः ।
मुद्रयिष्यमाणाः- प्रतिपादितः, तथा च श्रीमतो हरिभद्रसरे दशबैकालिकचूर्णिः
पूर्वगतकतिचित्स्त्रार्थधारकता या श्रीमऐन्द्रस्तुतयः
उत्तराध्ययनचूर्णिः
द्भिरभयदेवसूरिभिः पंचाशकस्तो गदिता प्रकरणसमुच्चयः
आचारांगचूर्णिः
सावितथैव, एवं च तेषां पूर्वगतकालासअनुयोगद्वाराणां चूर्णिः वृत्तिश्च२-०-०
सूत्रकृतांगचूर्णिः
बकालभावितया श्रीवीरहायनः पंचपंचाज्योतिष्करण्डकवृत्तिः ३-८-० प्राप्तिस्थान
शदधिकवर्षसहस्रलक्षण एवं सत्तासमयो पंचाशकाद्यष्टशाखीमूलं
श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, योग्यः,एकादशशताब्द्यां माचिनो जिनभद्रा प्रत्याख्यानादि १-४-०
पेढी रतलाम./
| ध्यानशतकादिविधायिभ्योऽन्ये एवेति श्री
धर्मसागरैः स्वयमेव सत्रैव पट्टावल्या मुद्यमाणाः
श्रीहरिभद्रसूरिसमयप्रकाशः ख्यातं तत्र दृष्टचरं कैश्चित्तदाश्रयं, नन्दीआवश्यकचूर्णिः
श्रीमता हरिभद्रसूरिणा पूर्वगतव्या- चूर्णिकालस्तु लेखकादिलिखित इति न वन्दारुवृतिः
ख्याने पूर्वगतानां प्रायो व्यवच्छिन्नत्वम-विश्वासाहे, नस अन्धमध्ये अन्ध कृल्लिखिता -- -
भिहितं, परिकादीनां च समूल उच्छेदः | इति ने बाधः इति शापयत्यानन्दसामरः
दीप अनुक्रम
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः | ... पूज्यपाद् आनंदसागरसूरीश्वरेण दर्शित: हरिभद्रसूरे: काल-समय
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
मूलं H / गाथा ||-||
..............
प्रत सूत्रांक
श्रीमद्धरिभद्रसूरिसूत्रिता नन्दीवृत्तिः
-
गाथा ||-||
॥ नमः सर्वज्ञाय ।। नन्दीहारिभद्रीय
सा प्रस्तावना वृत्ती ॥१॥
जयति भुवनैकभानुः सर्वत्राविहतकेवलालोकः । नित्योदितः स्थिरस्तापवर्जितो वर्द्धमानजिनः॥१॥
इह सर्वेणैव संसारिणा सत्त्वेन नारकतिर्यनरामरगतिनिबन्धनानेकशारीरमानसातितीव्रतरदुःखौघसङ्घातपीडितेन जातिजराXमरणशोकरोगापुपद्रवव्रातरहितनिरतिशयालोकसुखस्वभावापवर्गगतिसम्भवे सति पीडानिर्वेदात् तत्परित्यागाय निरतिशयालोक-पटू | सुखाभिलाषाच्च तदवाप्तये आत्मपरतुल्यचित्चेन सर्वथा स्वपरोपकाराय प्रवर्चिाव्यमिति, तत्रान्यपरिरक्षणादिना परोपकारपूर्वक | एवात्मोपकार इति विशेषतस्तत्र, स पुनः परोपकारो द्विघा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो भोजनादिविचित्रविभवप्रदानजनिता, अयं चानकान्तिकोऽनात्यन्तिकच, भावतस्तु सद्धर्मप्रदानजनितः, अयं चैकान्तिकस्तथा आत्यन्तिकच, सद्धर्मश्च श्रुतधर्मचारित्रधर्मभेदादू द्विमेदः, तत्र श्रुतधर्मो जिनवचनस्याध्यायः, चारित्रधर्मस्तु तदुक्तः श्रमणधर्म इति, उक्तश्च-"सुयधम्मो समाओ चरि-
I धम्मो समणधम्मो।" तत्र श्रुतधर्मसम्पत्समन्विता एव प्रायश्चारित्रधर्मग्रहणपरिपालनसमर्थो भवन्तीति तनदानमेवादो न्याय्य-15 | मिति, तत्रापि श्रुतप्रदाने सत्यपि नाविनातार्थादेव तस्मादभिलाषितार्थावाप्तिःप्राणिनामित्यतः प्रारम्यते अर्हद्वचनानुयोगः, अयं च
दीप अनुक्रम
H
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: |... वर्द्धमानजिनेश्वरस्य स्तुतिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं H / गाथा ||-||
प्रता
सूत्रांक
- गाथा ||-||
नन्दी- परमपदप्राप्तिहेतुत्वाच्छ्योभूतो वर्त्तते, श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति, यथोक्तम्-"श्रेयांसि बहुविनानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि | हारिभाद्रपद प्रवृत्तानां, कापि यान्ति विनायका ॥१॥' इति, अतोऽस्य प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलाधिकारे नन्दिर्वक्तव्यः । अथ शम्दार्थ: नन्दिरिति का शब्दार्थः?, उच्यते, 'दु णदि समृद्धा' वित्यस्य धातोः 'इदितो नुम् धातो' रिति (७-१-५८) नुमि विहितेनुबन्ध
निक्षेपाव काही लोपे च कृते उणादिकः इन् प्रत्ययो विधोयते, 'इन् सर्वधातुभ्य' इति वचनाद्, अनुबन्धलोपे च कृते सति नन्दि, सो रुत्वं विस
हजनीयश्चेति नन्दिः, नन्दनं नन्दिः नन्दन्त्यनेनेति वा नन्दन्त्यस्मिन्निति वा नन्दयतीति वा तदभेदोपचारामन्दिः हर्षः प्रमोद
का इत्यनर्थान्तरं, 'ताम्यामन्यत्रोणादय' इति वचनात् ताभ्यामिति सम्प्रदानापादानाम्यां अन्यत्र उणादयः प्रत्यया भवन्ति, अन्ये तु12 दिनन्दीत्यभिदधति, तत्रापि नन्दिस्थिते 'इक् कृष्यादिभ्य' इति (उणा.) इक् प्रत्ययः, स च कृत्यलुटो बहुल' (३-३-११३)मिति
वचनादावे करण वा अवगन्तव्य इति, ततः 'कृदिकारावक्तिनः, (वार्तिक) 'सर्वतोऽक्तिनादित्येक' इति खीप्रत्ययः, अस्य। भावार्थः कृदिकारान्तो यः शब्दः क्तिन्वर्जितस्तस्मात् स्त्रीप्रत्ययो भवति, अपरे तु सर्वतः अक्तिमादिकारान्तात् स्त्रीप्रत्ययो भवतीति मन्यन्ते, अनुवन्धलोपे चकते 'यस्ये' (६-४-१४८) तीकारलोपे च नन्दीति रूपं भवति, नन्दन नन्दी नन्दन्त्यनयेति वा भव्याः। प्राणिन इति नन्दी, इत्यलमप्रस्तुतातिप्रसनेनेति।
___ अयं च नन्दिश्चतुर्विधः, तद्यथा- नामनन्दिः स्थापनानन्दिः द्रव्यनन्दिः भावनन्दिश्चेति, तत्र नामस्थापने प्रकटार्थे, द्रव्यनहन्दिर्बिंधा-आगमतो नोआगमतब, तत्रागमतो नन्दिपदार्थः तत्र च अनुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात्, नोआगमतस्तु
शरीरद्रव्पनन्दिः भव्यशरीरद्रव्यनन्दिः शरीरमव्यशरीरव्यातिरिक्तश्च द्रव्यनन्दिः, तत्र शरीरद्रव्यनन्दिः नन्दिपदार्थज्ञस्य
दीप अनुक्रम
5
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ... नन्दीसूत्रस्य अर्थ एवं निक्षेपाः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं H I गाथा ||१||
प्रत सूत्रांक
नन्दीहारिमद्रिय वृतो
क
॥३
॥
गाथा ||१||
शरीरं जीवविप्रमुक्त अनुभूतनंदिभावत्वात्, पश्चात्कृतभावस्य द्रम्पत्वात्, यथोक्तम्-"भूतस्य भाविनी वा भावस्य हि |
नन्या कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तखः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ १ ॥' भव्यशरीरद्रव्यनंदिव नन्दिपदार्थपरिज्ञानमाव- निक्षेपाः | योग्यं वालादिशरीरं, पुरस्कृतभावत्वादस्य, व्यतिरिक्तः पुनः क्रियाविष्टो द्वादशविधस्तूर्याङ्गसखातोऽयम्-तयथा-'भमा १ मउंद । २ महल ३ कडंच ४ बल्लरि ५ हुडक्क ६ कंसाला ७ । काहल ८ तलिमा ९ वसो १० संखो ११ पणवो १२ य पारसमो ॥१॥ मावनन्दिरपि द्विविधैव-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमतो भावनन्दिा नन्दिपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भाव'इविकृत्वा, नोआगमतस्तु भावनन्दिः पञ्चप्रकारशानसमुदायः, नोशब्दो देशवचनः, अथवा पञ्चप्रकारज्ञानस्वरूपप्रतिपादकोऽध्ययनविशेषः,४ नोशब्दो देशवचन एव । अयं चाध्ययनविशेषः श्रुतांशन सर्वश्रुताभ्यन्तरभूतो वर्तते, अत एव सर्वधुतारम्भेष्वेव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलार्थमभिधीयत इति, अस्य च मंगलस्थानावसरप्राप्तस्य सत आचार्याः विनेयानां सूत्रार्थगौरवोत्पादनार्थमविच्छेदेन सन्तानागतस्त्रार्थपददर्शनार्थ चादावेवावलिकामभिधाय व्याख्यानाय यतन्ते, सर्वे श्रुतार्थाश्च यतस्तीर्थकरप्रभवा अतः | प्रज्ञापकश्रावकपाठकाः अभिलपितार्थसिद्धये प्रवर्तमानाः प्रधानोपायत्वाद्भगवद एव नमस्कारपूर्वकं प्रवर्त्तन्त इत्यत आह ग्रंथकार:
जयति गाथा(१-२ पत्रे)। इन्द्रियविषयकषायपातिकर्मभवोपग्राहिकर्मशत्रुगणजयाज्जयतीत्युच्यते, किंविशिष्टो जयति?जगज्जीक्योनिविज्ञायका, इह जगच्छब्देन सकलधर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायपरिग्रहः, जीवशब्देन तु सकलजीवास्तिकायपरिग्रहः, उक्तं च-"जगन्ति जंगमान्याहुः जगद् श्रेयं चराचरम्"योनया-सचित्ताद्याः,उक्तञ्च-सचित्तशीतसंपत्तेतरमिश्रास्तधोनया (तस्व०२-३३
दीप अनुक्रम
RRRRRECTRESS
॥
वर
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः | ... अत्र मूल नन्दीसूत्रस्य आरंभ: जिन-स्तुति द्वारा क्रियते
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
||||
दीप अनुक्रम
[3]
नन्दीहारिभद्रीय
वृचों
॥ ४ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१||
जीवोत्पत्तिस्थानानीत्यर्थः, 'यु मिश्रणे' युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्तः ओदारिकादिशरीरेण मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनिः उक्तञ्च 'जोएण कम्मएणं आहारेह अणंतरं जीवो। तेण परं मीसणं जाव सरीरस्स निष्कत्ती ॥ १ ॥ ततश्व जगच्च जीवाश्च योन| यश्च जगज्जीवयोनयः विविधम्-अनेकधोत्पादाद्यनन्तधर्मात्मकं जानातीति विज्ञायकः जगज्जीवयोनीनां विज्ञायक २ इति समासः, अनेन केवलज्ञानप्रतिपादनात् स्वार्थसम्पदमाह । तथा जगद् गृणातीति जगद्गुरुः यथोपलब्धजगद्वतेति भावना, अनेनापि स्वासम्पदमेवाह । तथा जगदानन्दः इह जगच्छब्देन संझिजङ्गमपरिग्रहः, तेषां सद्धर्मदेशनाद्वारेणानन्दहेतुत्वादैहिकामुष्मिकप्रमोदकारणत्वात् जगदानन्द इत्यनेन परार्थसम्पदमाह, तथा 'जगन्नाथ' इह जगच्छब्देन सकलचराचरपरिग्रहः तस्य यथावस्थित-स्वरूपप्ररूपणद्वारेण वितथप्ररूपणापायेभ्यः पालनात् नाथवनाथ इति, अनेनापि परार्थसम्पदमिति । तथा जगद्वन्धुः इह जगच्छब्देन सकलप्राणिपरिग्रहस्तदव्यापादनोपदेशप्रणयनेन सुखस्थापकत्वाद् बन्धुवत् बन्धुः, तथा चोक्तम्- 'सब्वे पाणा सब्वे भूया सब्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परितावेयव्वा ण उबदवेयच्या, एस धम्मे धुवे णितीय सासते समेच्च लोग खुदण्णेहिं पवेदिते' इत्यादि, अनेनापि परार्थसम्पदमिति । तथा 'जयति जगत्पितामह' इति इह जगच्छब्देन सकलसत्वपरिग्रह एव तेषां च कुगतिगमनभयापायरक्षणात् पिता धर्मो वर्त्तते, अतो जगत्पितामहः, तथोक्तम्- दुर्गतिप्रसृतान् जीवान्, यस्माद्वारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १ ॥ तस्यापि चार्थप्रणेतृत्वेन भगवान् पिता वर्तते, अतो जमत्पितामह इति, स्तवाधिकाराच पुनः क्रियाभिधानमदुष्टं, उक्तञ्च- 'सज्झायझाणतवओसहेसु उवएसथुइपूयाणेसु । सन्तगुणकितणेसु य न होंति पुणरुत्तदोसा भो || १ ||' अनेनापि परार्थसम्पदमाह । भगवानिति भगः समत्रैश्वर्यादिलक्षणः, तथा चोक्तम्
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
~9~
जिन
स्तुतिः
॥ ४ ॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
॥२॥
दीप
अनुक्रम
[२]
नन्दी
हारिभूद्रीय
वृचौ
॥ ५ ॥
Xx
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२||
'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगना ||१||' भगो ऽस्यास्तीति भगवानिति, अनेन चोभयसम्पदमाह, स्वपरोपकारित्वादैश्वर्यादेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ १ ॥ ' व्याख्यानयन्ति केचित् स्तुतिमेनामन्यथापि | विद्वांसः । तत्राप्यपौनरुत्यं सूक्ष्मधिया चिन्तनीयमिति ॥ १ ॥ एवं तावदनादिमन्तो मतास्तीर्थकरा इति ज्ञापनार्थं सामान्येन 'नमस्कारमभिधाय साम्प्रतमासनोपकारित्वात् सकलदुःखपरमौषधभूतप्रवचनप्रणेतृत्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधिपतेः नमस्कारं प्रतिपादयग्राह
जयति सु० गाहा ॥ (*२-१५) ॥ जयतीति पूर्ववत् श्रुतानां आचारादिभेदभिन्नानां प्रभवः प्रभवन्त्यस्मादिति प्रभवः, तदर्थाभिधायकत्वात्, कारणमित्यर्थः, ऋषभादयोऽप्येवंभूता एवं अत आह-तीर्थकराणामपश्चिमो जयति, तत्र तीर्थकरणशीलास्तीर्थकरास्तेषां तीर्थकराणां भरते अधिकृतावसर्पिण्यां पश्चिम एवानिष्टशब्दपरिहारार्थमपश्चिम इत्युच्यते, पञ्चानुपूर्व्या वा पश्चिम इति, जयति गुरुलोंकानां गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः, लोकानां इति सच्चानां जयति महात्मा अनन्तज्ञानवीर्ययुक्तत्वान्महानारमा यस्य स महात्मा, महावीर इति 'सूर वीर विक्रान्ता' विति कषायादिशभुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः, 'ईर गतिप्रेरणयो' रित्यस्य वा विपूर्वस्य विशेषेण ईश्यति कर्म गमयति याति वेह शिवमिति वीरः, महाँवासी वीरश्र महावीर इति गाथार्थः ॥ पुनरस्यैवातिशयप्रदर्शनद्वारेण स्तुतिमभिधित्सुराह
भर्द्द॰गाहा(*३-२३)‘भद्रं' कल्याणं भवतु, कस्य ?- सर्वजगदुद्योतकस्येत्यनेन ज्ञानातिशयमाह, इह च "चतुर्थी चाशिष्यायुव्यमद्र भद्रकुशलसुखार्थहितै" रिति (२-३-७३) वचनात् षष्ठयपि भवत्येव यथा आयुष्यं देवदत्तायायुष्यं देवदत्तस्येति, एवं भद्रादिष्वपि
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ... अत्र वीर जिनेश्वरस्य स्तुतिः क्रियते
~10~
श्री
वीरजिन स्तुतिः
॥५॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
||3||
दीप
अनुक्रम
[3]
9-पा
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [-] / गाथा ||३||
वृत्ता
11 & 11
नन्दी- वक्तव्यमिति, भद्रं जिनस्य 'जिं जये' अस्य औणादिकन कप्रत्ययान्तस्य जिन इति भवति, रागादिजयाज्जिन इति, अनेनापायाहरिभद्रीय तिशयमाह, अपायो-विश्लेषः रागादिभिः सार्द्धमात्यन्तिकवियोग इत्यर्थः, आह-अपायातिशये सति ज्ञानातिशयभावाद् व्यतिक्रमः किमर्थ १, फलप्रधानाः समारम्भा इति ज्ञापनार्थ, भद्रं सुरासुरनमस्कृतस्येत्यनेन पूजातिशयमाह नहि विभवानुरूपां पूजामकस्वैव सुरासुरा नमस्कारक्रियायां प्रवर्तन्त इति उक्तं च "अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्वामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ १॥ इति, पूजातिशयान्यथाऽनुपपत्त्यैव वागतिशयो गम्यते, भद्रं घुतरजस इत्यनेन सकलसंसारिक्लेशविनिर्मुक्तां सिद्धावस्थामेवाह, यतो बध्यमानं कर्म रजो भव्यते, तदभावस्त्वयोगिसिद्धानामेव, न पुनरन्येषां यत णं एस जीवे ताव णं अविबंध वा वा इत्यादि, तत्थ "सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवज्जगाणं तु । तह सुदुमसम्पराया छव्त्रित्रधा विणिदिट्ठा ||१२|| मोहाउगबज्जाणं पगडी ते उ बंधगा भणिया । उवसन्तखीणमोहा केवलियो एगविहबंधा ||२|| ते उण दुसमयठितस्स बंधगा ण उण संपरायस्स । सेलेसिं पडिवचा अबंधूगा हाँति- विक्रेया ||३||" आह-भगवतः संसारातीतत्वात् परमकल्याणरूपत्वात् किमेवमुच्यते-भद्रं भवतु, न च स्तोत्रा भणितं सर्वमेव भवतीति, अत्रोच्यते, सत्यमेतत्, तथापि कुशलमनोवाक्कायप्रवृत्तिकारणत्वान्न दोष इत्यले प्रसङ्गेनेति माथार्थः ||२|| एवं तावतीर्थकर नमस्काराः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं तीर्थंकरानन्तरः सङ्घ इतिकृत्वा तीर्थान्तरग्रामव्युदासेन नगररूपकेण तत्संस्तवं कुर्वन्नाह
गुण० गाहा (* ४-४२) 'गुणभवनगहन' इह गुणाः पिण्डविशुद्धयादयः उत्तरगुणा अभिगृह्यन्ते यथोक्तम्- “पिंडस्व
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~11~
सर्वजिनस्तुतिः
॥ ६॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
|18-4||
दीप
अनुक्रम [४-५ ]
नन्दीहारिभद्रीय वृचौ
11 11
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [-] / गाथा ||४.५||
जा विसोही समितीओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहानिय उत्तरगुणमो वियाणाहि || १ ||” एत एव भवनानि एभिर्गह- प्रचुरत्वादुत्तरगुणानामेभिः संकुलं, सङ्घन गरमभिगृह्यते, तस्यामन्त्रणं हे गुणभवनगहन !, तथा अतरनभृत् श्रुतान्येव आचारादीनि निरुपमसुखहेतुत्वाद्रत्नानि तैर्मृत-पूरितमित्यर्थः तस्यामन्त्रणं, तथा दर्शनविशुद्धरध्याक, इह दर्शनं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यग्दर्शनं गृह्यते तच्चोपशमिकादिभेदात् पञ्चविधं, तथा चोक्तम्-"तं च पंचधा सम्मं-उवसमं सासापण वयोवसमियं वेदयं खइयं" ति, दर्शनमेवासारमिथ्यात्वादिकचवर रहिता शुद्धा रथ्या यस्य तत्तथाविधं तस्यामन्त्रणं, 'संघनगर' सङ्घः चातुर्वर्णः श्रमणादिसंघातः स नगरभिव संघनगरं तस्यामन्त्रणं, यथा पुरुषोऽयं व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः, उक्तश्च- “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोग " ( २-१-५६) भद्रं कल्याणं तव भवतु, अखण्डचारित्रप्राकार! चारित्रं- मूलगुणा अखण्डम् अविराधितं चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथाविधं तस्यामन्त्रणमिति गाथार्थः ||४|| संसारोच्छेदित्वात् संघस्यैव चक्ररूपकेण स्तवं कुर्वन्नाह-
संयम० गाहा (* ५-४३ ) संयमत पस्तुम्वारकाय नमः संयमश्च तपांसि च संयमतपांसि तुम्बं च अरकाश्च तुंबारकाः, तत्र यथासंख्यं संयमतपांस्येव तुम्वारका यस्य तत् तथाविधं तस्मै नमः, तत्र संयमः 'पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिवेति संयमः सप्तदशभेदः ॥ १॥ तपो द्वादशप्रकारं बाह्यमभ्यन्तरं च तत्र वा परिवधं यथोक्तम्- "अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम् || १|| अभ्यन्तरमपि षड्विधम् उक्तञ्च प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्यं स्वाध्यायो ध्यानं व्युत्सर्गथे” ति, सम्मत पारियल्लस्सात्त पारियां बाह्यपृष्ठकस्य बाह्या अमिरुच्यते, ततश्च सम्य
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी -रचिता वृत्तिः ••• अथ विविध उपमायाः 'संघ' स्तुतय: आरभ्यते
~ 12 ~
संघस्य
नगरतया 'स्तुतिः
॥ ७ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
मूलं / गाथा ||५-८||
प्रत सूत्रांक
गाथा |५-८||
नन्दी
संघस्य क्वाखभ्रमिणे नमः, व्याख्यातं गाथार्थ, चरकादिमिरतुल्यत्वानास्य प्रतिचक्रं विद्यते इत्यप्रतिचक्रं तस्य जयो भवतु इति, सुप्रणि-15 हारिभद्रीय
चक्रतया वृत्ती | धानमेतत् , सदा सर्वकालं, संघश्चक्रमिव संघचक्रं तस्येति गाथार्थः ॥५।। इदानी संघस्यैव मार्गगामित्वतो रथरूपकेण स्तवं कुर्वमाह
| पद्यतया भई गाहा (*६-४३) भद्रं कल्याण भवतु, कस्य !-संघरथस्य, भगवत इति योगः, किंविशिष्टस्य :-शीलोच्छ्रितप- चस्वका ॥८ ॥
ताकस्य, प्राकृतशैल्याऽन्यथोपन्यासः, शीलग्रहणात अष्टादशशीलासहस्रपरिग्रहः, तथा तपोनियमतुरगयुक्तस्य तप:| संयमाचयुक्तस्येत्यर्थः स्वाध्यायो-वाचनादिः, यथोक्तम्-"वाचना प्रच्छना परावर्चना अनुप्रेक्षा धर्मकथा "ति, तत्र स्वाध्याय एव | शोभनो नन्दिघोषतूर्यरवो 'सुनेमियोसस्स'ति नेमिनिर्घोषो वा यस्य स तथाविधो यस्य, इह च शीलांगनिरूपणे सत्यपि
| तपोनियमनिरूपणं प्रधानपरलोकांगत्वख्यापनार्थम, अस्ति चायं न्यायो यदुत सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषाII भिधानमिति, यथा ब्रामणा आयाता पशिष्टोऽप्यायात इति, एवमन्यत्रापि योजनीयमित्यले प्रसंगेनेति गाथार्थः ॥ संघस्यैव
लोकासंश्लिष्टत्वतः पद्मरूपकेण स्तवं प्रतिपादयन्नाहकम्मरय० गाहा ॥ (*७-४४॥) सावय गाहा।। *(८-४४ ॥) संघपद्मस्य भद्रं-माल भवत्वितिक्रिया, किम्भूतस्य:कर्मरजोजलीयविनिर्गतस्य इह ज्ञानावरणादिलक्षणं कर्म तदेव अनेकधा जीवगुण्डनाद्रजो भण्यते तदेव भवकारणत्वाज्जलीघः तस्मा-131 ॥८॥ द्विनिगत इव विनिर्गतः, तथा चाविरतसम्यग्दृष्टेरप्यपार्द्धपद्गलपरावर्चः परः संसार उक्त इत्यतो विनिर्गतस्तस्य, श्रुतरस्नमेव दीप-पल नालं. यस्य सः, तद्वलादेव निर्गत इति भावनीय, पंच महाव्रतानि-प्राणातिपातादिविनिवृत्तिलक्षणानि तान्येव स्थिरा-रढा कर्णिका
+
दीप अनुक्रम [५-८]
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं H| गाथा ||८-१०||
प्रत सूत्रांक
नन्दी- हारिभद्रीय
वृत्तौ । ॥९॥
गाथा ||८-१०||
समय
मध्यमण्डिका यस्य, गुणा-उत्तरगुणाः त एव तत्परिकरत्वात् केसराणि यस्य विद्यन्ते इति गुणकेसरवत् तस्य गुणकेसरवतः, श्रा-IM
संघस्य वकजनमधुकरीपरिवृतस्येति प्रकटार्थ, नवरमभ्युपेत्य सम्यक्त्वं प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात् साधूनाम
पचन्द्रमारिणां च समाचारी शृणोतीति श्रावकः, उक्तं च-"योऽह्यभ्युपेतसम्यक्त्यो, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम् । शृणोति धर्मसम्बद्धाम-14
तया स्तव: सो श्रावक उच्यते ॥१॥” जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य केवलज्ञानभास्करविशिष्टसंवेदनप्रभवधर्मदेशनाबुद्धस्यति भावार्थः, श्रमणगणसहस्रपत्रस्येति प्रकटार्थमेव, नवरं श्राम्यतीति श्रमणः 'कृत्यलुटो बहुल' मितिवचनात् कर्तरि ल्युद, श्राम्यतीति तपस्थति, एतदुक्तं भवति-प्रवज्यादिवसादारभ्य सकलसावययोगविरतो गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्क्याऽप्राणोपरमात्तपश्चरतीति श्रमणः, उक्तं च"यः समः सर्वभूतेषु, स्थावरेषु त्रसेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः।।१।। इति गाथाद्वयार्थः । इदानी सङ्घस्यैव सौम्यतया चन्द्ररूपकेण स्तवमाह
तवसंघमगाहा ॥१९-४५॥ तपःसंयममृगलाञ्छन तपःसंयममृगचिन्ह-अक्रियाराहुमुखदुष्पधृष्या इह अक्रिया| शब्देन नास्तिका गृह्यन्ते, अनभ्युपगमाद्, अविद्यमानपरलोकक्रियाः अक्रियाः त एव राहुमुखं तेन दुष्प्रधृष्य:-अनभिभवनीयस्त| स्यामन्त्रण, नित्यमिति सदा जय सपचन्द्र!, निर्मलसम्यक्त्वविशुद्धज्योत्स्नाक इह मिथ्यात्वभावतमोरहितं निर्मलं सम्य| स्वमुच्यते तदेव विशुद्धा-निमला ज्योत्स्ना-चन्द्रिका यस्य स तथाविधः तस्यामन्त्रणमिति गाथार्थः ।। अधुना समस्यैव प्रकाशकत| या सूर्यरूपकेण स्तवमाह
परतिस्थिय गाहा ।।(*१०-४५)। परतीर्घकग्रहमभानाशकस्य इह परतीथिकाः-कपिलकणभक्षाक्षपादादिमताबल
355AR
दीप अनुक्रम [८-१०] |
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||१०
१२||
दीप अनुक्रम
| [१०-१२]
नन्दीहारिभूद्रीय
वृता
॥ १० ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [-] / गाथा || १०-१२||
स्विनःत एव ग्रहास्तेषां प्रभा-एकदुष्णयज्ञानलक्षणा तां नाशयति अनन्तनय संकुलप्रवचनसमुत्थज्ञानालोकेन अपनयतीति समासस्तस्य तपस्तेजोदीसलेश्यस्य तपस्तेज एवं दीप्ता-उज्ज्वला लेश्या दीर्घितयो यस्य, ज्ञानोयोतस्प्रेति गतार्थ, जगति लोके भद्रं मङ्गलं भवतु कस्य दमस सूर्यस्य दमः- उपशमो भण्यते तत्प्रधानः सङ्घसूर्यः दमसङ्घसूर्यस्तस्येति गाथार्थः । । साम्प्रतं सङ्घस्यैव महत्तया समुद्ररूपकेण स्तवमाह
भई० गाहा ॥ (*११-४५) । सङ्घसमुद्रस्य भद्रं भवत्विति क्रिया, किम्भूतस्य धृतिवेलापरिगतस्य धृतिः - आत्मपरि णामः सैव वेला-वेदिका जलान्तररमणलक्षणा मर्यादा वा तथा परिगतस्तस्य, स्वाध्याययोगमकरस्य कर्मविदारणमहाशक्तियुक्तत्वात् स्वाध्याय एव मकरो यस्मिंस्तस्य, अक्षोभ्यस्य परीषहोपसर्गसम्भवे निष्प्रकम्पस्य भगवतः समत्रैश्वर्यादियुक्तस्य, रुन्द्रस्येति विस्तीर्णस्येति गाथार्थः । इदानीं सङ्घस्यैव स्थिरतयाऽचलेन्द्ररूपकेण स्तुतिं कुर्वन्नाह
सम्मर्द्दसण॰गाहा।।(*१२--४५) । सम्यग् अविपरीतं दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेव प्रथमं मोक्षाङ्गत्वात् सारत्वाद्वजं सम्यग्दर्श | नवज्रं तदेव हढं रूढं गाढं अवगाढं पीठं यस्य सङ्घ महामन्दर गिरेः स सम्यग्दर्शनवजदृढरूढगाढावगाढपीठस्तस्य, 'वंदे' चि द्वितीयार्थे षष्ठी प्राकृतशैल्या आपत्वाच्च तं वन्दे इत्यर्थः, तत् सम्यग्दर्शनवज्रपीठं, दृढमिति निष्प्रकम्पं शङ्कादिशल्यरहितत्वात्, रूढमिति वृद्धिमुपगतं, प्रतिसमयं विशुध्यमानत्वात्, प्रशस्ताध्यवसायस्थानेषु वर्तनात्, गाढमिति निविडं तीव्रतत्त्वरूचिरूपत्वात्, सुष्ठुश्रद्धानरूपत्वादित्यर्थः, अवगाढमिति निमग्नं, जीवादिपदार्थेषु सम्यगवबोधरूपतया प्रविष्टमित्यर्थः, धर्मवरेत्यादि धारयतीति धर्मः
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संघस्य सूर्यसमुद्रतया स्तवः
112 11
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं H I गाथा ||१२-१४||
प्रत सूत्रांक
नन्दी
गाथा । ||१२१४||
धर्म एव वररत्नमण्डिता प्रधानरत्नमण्डिता चामीकरमेखला यस्य स धर्मवररत्नमाण्डितचामीकरमेखलाकः, क्रियायोजना पूर्ववदे-हैं।
सूर्यस्याहारिभद्रीय
व अवसेया, इह धर्मो द्विविधा, मूलगुणोचरगुणरूपः, तत्रोचरगुणधर्मो रत्नानि मूलगुणधर्मस्तु चामीकरमेखलेति, तथा च न राजते चलेन्द्र वृत्ती मूलगुणधर्मचामीकरमेखलोत्तरगुणधर्मरत्नभूषणविकलेति गाथार्थः ॥
- स्तवः नियमूसियगाहा १३-४५)।इहोत्सृतशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः, ततवैवं भवति-नियम एव कनकशिलातलानि-15 ॥११॥
नियमकनकचिलातलनि तेचितानि उज्ज्वलानि ज्वलन्ति चिन्तान्येव प्राकृतशैल्या कूटानि यस्मिन् स तथाविधः, इह च नियमः इन्द्रियनोइन्द्रियनियमः परिगृधते, उत्सृतानि अशुभाध्यवसायपरित्यागात् , उज्ज्वलानि प्रतिसमयं कर्ममलविगमात्, ज्वलन्ति सदा सूत्रार्थानुस्मरणरूपत्वात्, चिन्त्यते यैस्तानि चित्तानि, उक्तं च-"चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषित | दौस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ १॥" इति, वनं वृक्षसमुदायः, नन्दनं च तदनं च नन्दनवन, तत्र नन्वन्ति यत्र सुरसिद्धदैत्य४ विद्याधरादयस्तचंदनं चनमित्यशोकसहकारादिजालं, मनो हरतीति मनोहरं,लतावितानविविधपुष्पफलप्रवालायुपपेतस्यात्,नन्दनवन च ल तन्मनोहरं चेति 'विशेषण विशेष्येण बहुल मिति समासः, तस्य, सुरभिश्चासौ शीलगन्धश्च सुरभिशीलगन्धः तेनाध्मातः-व्याप्तो यः स 8
तथाविधस्तस्य क्रिया पूर्ववत् , इह च संघमंदरगिरेः सन्तोष एव नन्दनवनं, तथाहि-नन्दन्ति तत्र साधव इति, तदेव विविधामोषध्या४ दिलब्ध्युपतत्वान्मनोहरं तस्य सुरभिशीलगन्ध एचति, अथवा मनोहरत्वं सुरभिशीलगन्धविशेषणमिति गाथार्थः ॥
जीवदय० गाहा (१४-४५॥ जीवदयव सुन्दराणि स्वपरनिवृत्तिहेतुत्वात् कन्दराणि वस्तुतस्तपस्विनिलयत्वात् ,
दीप
अनुक्रम [१२-१४]
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं H I गाथा ||१४-१६||
प्रत
सूर्यस्यालन्द्रतया
सूत्रांक
गाथा । ॥१४१६||
नन्दी
तथाहि-अहिंसाव्यवस्थितः तपस्थीति, मुनिवरा एष शाक्यादिमृगपराजयान्मृगेन्द्राः मुनिवरमृगेन्द्राः, उत्पाबल्येन दर्पिताः उद्दर्पिताः, हारिभद्रीय
महकमेशत्रुजयं प्रति उर्पिताश्च मुनिवरमृगेन्द्राश्चेति विशेषणसमासः, जीवदयासुन्दरकन्दरेषु उद्दर्पितमुनिवरमृगेन्द्रास्तैः आकीर्णो-च्याप्तो
* यस्तस्येति, हेतुशत इत्यादि, प्रगलन्ति च तानि रत्नानि च प्रगलद्रत्नानि निस्यन्दवन्ति चन्द्रकान्तादीनि परिगृधन्ते, धातवः। ॥१२॥1| कनकादिधातवो गृह्यन्ते, धातवश्च प्रगलद्रत्नानि च धातुप्रगलद्रत्नानि, दीप्ताश्च ता औषधयश्च दीप्तौषधयः, धातुप्रगलद्रत्नानि
इच दीप्तौषधयश्च, ताः गुहासु यस्य स तथोच्यते, इह च संघमंदरगिरी हेतुशतान्येव धातवः, अन्वयव्यतिरेकलक्षणा हेतवो गृधन्ते,
प्रगलद्रनानि तु बायोपशमिकमावनिष्यन्दवन्ति श्रुतरत्नानि गृह्यन्ते, दीप्तोषधयस्तु विशुद्धा आमषिध्यादयो गृह्यन्ते, गुहास्तु
समवायाः प्ररूपणगुहा वा गृह्यन्ते, इति गाथार्थः॥ . द्वि संवर० गाहा (*१५-४६)। संवरश्चासौ वरश्च संवरवरः, संवरम्-प्रत्याख्यानरूपः सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपत्वाकरः
असावेव कर्ममलक्षालनाज्जलमिव जलं संवरवरजलं तस्मात् प्रगलितं च तदुज्झरं च संवरवरजलप्रगलितोमरं, तथा च संवरवरजलादुपचारतः प्रगलति श्रुतज्ञानायुज्मरमिति, तदेव प्रविराजमानः हारो यस्य स तथाविधः, 'सावगजणे'त्यादि, रवन्तश्च ते मयूराव खन्मयूराः प्रचुराश्च ते रवन्मयूराब २ श्रावका एव जनास्त एष प्रचुरवन्मरास्तनृत्यन्तीव कुहराणि यस्येति समासः, यह च स्तुतिस्तोत्रगन्धर्वादि रवणं कुहराणि शास्त्रमण्डपादीनि गाथाः ।।
विणयगाहा।।(*१६-४६) स्फुरन्तश्च ता विद्युतश्च स्फुरद्वितः, विनयेन नताः विनयनताः विनयनताश्च ते प्रवरमुनिवराश्चेति,
दीप
ॐ4%
अनुक्रम [१४-१६]
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[-]
गाथा
॥१६
२१||
दीप
अनुक्रम
|[१६-२१]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
॥ १३ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूल [-] / गाथा ||१६-२१||
त एव स्फुरद्वियुज्ज्वलन्ति शिखराणि यस्येति समासः इह च विनयस्यान्तरतपोभेदत्वात् पांस्येव स्फुरन्ति प्रावचनिकाश्च | विशिष्टाचार्यादयः शिखराणि, 'विविधगुणे'त्यादि, विविधा गुणा येषां ते विविधगुणाः, विशेषणान्यथाऽनुपपच्या साधवो ४ गृह्यन्ते, त एव विशिष्टकुलोत्पन्नत्वात् सत्त्वसुखहेतुधर्मफलप्रदानाच्च कल्पवृक्षकाः विविधगुणकल्पवृक्षकाः, फलभरच कुसुमानि च २ विविधगुणकल्पवृक्षकाणां फलमरकुसुमानि २ तंबाकुलानि वनानि यस्येति समासः इह च फलभरो धर्मफलभरो गृह्यते, कुसुमानि ऋद्धयो, वनानि गच्छा इति माथार्थः ॥
णाण॰गाहा ||(*१७-४६)। ज्ञानं च तद्वरं च २ परमनिर्वृत्सिंहतुत्वात् तदेव रत्नं दीप्यमानत्वात् कान्ता विमला वैचूडा यस्य स तथाविधः, दीप्यते यथावस्थितजीवादिपदार्थस्वरूपोपलम्भात् कान्ता भव्यजनमनोहारित्वाद्, विमला तदावरणाभावाद्, बन्देति विनयप्रणतसंघ महामन्दरगिरेर्यन्माहात्म्यमिति, कर्मणि वा षष्ठीति गाथार्थः ॥ एवं संघनमस्कारा अपि प्रतिपादिताः, साम्प्रतमावलिका प्रतिपाद्यते सा च त्रिविधा तीर्थकरावलिका गणधरावलिका स्थविरावालिका च तत्र तीर्थकराव|लिकां प्रतिपादयत्राह -
वंदे० गाहा, विमल० गाहा ।। #१८/१९-४७) ।। गाथाद्वयमपि निगदसिद्धं । गणधरावलिका तु या यस्य तीर्थकृतः सा ॥ १३ ॥ प्रथमानुयोगानुसारेण द्रष्टव्येति, महावीरवर्द्धमानस्य पुनरियम्- पढमेत्थ इंदभूई बीओ पुण होइ अग्गिभूइति । तइए य वाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥ १ ॥ मंडिय मोरियपुत्ते अंकपिए चेव अयलभाया य। मेयज्जे य पभासे गण
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः ... अथ गणधर आवलिका दर्शयते
सूर्यस्या
चलन्द्रत या स्तवः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं H | गाथा ||२२-२४||
प्रत सूत्रांक
करावलिका
स्तवः ।
गाथा | ||२२२४||
नन्दी- ताहरा हुंति धारस्स ॥२॥' साम्प्रतं वर्तमानतीर्थाधिपतेः स्थविरावलिको प्रतिपादयभतिशयभक्त्या सामान्यतस्तच्छासनस्तवं 18| तीर्थहारिभद्रायाः प्रतिपादयबाहवृत्ती
शासनPा निवुइपहरूपकं ॥(०२२-४८)। निर्वृत्तिपथशासनकमित्यत्र यद्यपि सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि निर्वाणमार्गस्तथा॥१४॥ ४ाप्यनेन दर्शनचरणपरिग्रहः, यत आह-जयति सदा सर्वभावदेशनक, सर्वभावप्ररूपकमित्यर्थः, अनेन तुझानपरिग्रहः, अथवा
|निचिपथशासनकमित्यनेन सम्पूर्णनिर्वाणमार्गकथनमेवेति गृह्यते, जयति सदासर्वभावदेशनकमित्यनेन तु विधिप्रतिषेधद्वारेण न निवृत्तिमार्गव्यतिरेकेण किचिदस्तीति ख्याप्यते, यत एवंभूतमत एव कुसमयमदनाशनकं कुसिद्धान्तावलेपनाशनकामत्यर्थः, जिनेन्द्रवरवीरशासनकं चरमतीर्थकरप्रवचनमिति हृदयं, अयं रूपकार्थः ।। अधुना यैरविच्छेदेन स्थविरैः क्रमेणैदयुगीनानामानीतं तदावलिका प्रतिपादयमाह
सुधम्म० गाहा ।।(*२३-४८)। इह स्थविरावलिका सुधर्मस्वामिनः प्रवृत्ता, उक्तं च-"तित्थं च सुधम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेस" ति, अतस्तमेव पुरस्कृत्येयं प्रतिपाद्यते सुधर्म भगवद्गणधरं अग्निवैशायनमित्यग्निवैशायनसगोत्रं, तथा तच्छिष्य जम्बुनामानं च काश्यपं काश्यपगोत्र, तस्मात् प्रभषं तच्छिष्य प्रभवनामानं कात्यायनमिति कात्यायनसगोत्रं, वंदे इति क्रिया प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तथा तच्छिम्यं 'वच्छ' मिति वत्ससगोत्र सव्यम्भवं तथेति गाथायः॥
जसभर गाथा (७२४-४९॥ शय्यंभवशिष्यं यशोभद्रं तुहिक' मिति तुङ्गिकगणं व्याघ्रापत्यसगोत्रं बन्दे, अस्य च
ॐ3
दीप
अनुक्रम [२२-२४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः |... अथ सुधर्मस्वामी आदि स्थविरावली प्रस्तूयते
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं H | गाथा ||२४-२७||
प्रत
सूत्रांक
नन्दी- वृत्ती
गाथा | ||२४२७||
CAKACAChotSociet
द्वौ प्रधानांशष्यो बभूवतुः, तद्यथा--सम्भूतविजयो माढरसगोत्रः, भद्रबाहुब प्राचीनसगोत्र इति, तथा चाह-सम्भूतं चैव माढरं भद्रबाहुं प्राचीनमिति, तत्र सम्भूतस्य विनेयः स्पलभद्रो गौतमसगोत्र आसीद.आह च-स्थलभद्रं च गौतममिति गाथार्थः।।
| गणधरा
चलिका पलावळच गाहा ॥(०२५-४९)। स्थूलभद्रस्यापि द्वावेब प्रधान शिष्यो, तद्यथा-एलापत्यसगोत्रो महागिरिः ब
मास्थीविरा|शिष्टसगोत्रः सुहस्ती च, यत आह-एलापत्यसगोत्र वन्दे महागिरि, सुहस्तिनं च, तत्र सुहस्तिनः सुस्थितसुप्रतिबुद्धादिक्रमे- बलिका काणावलिका यथा सासु तथैव दरम्या, न तयेहाधिकारः, महागिर्यावलिकयेहाधिकारः, वत्र महागिरेहुलबलिस्सही कौशिकसगो
त्री जमलभातरौ द्वौ प्रधानशिप्यो बभूवतुः, तयोरपि बलिस्सहः प्रावचनीय आसीदत आह-ततः कौशिकगोत्रं बहुलस्य सदृशव है यर्स, यमलत्वात् , वन्द इति गाथार्थः।।
हारिय०गाहा ॥(०२६-४९।। बलिस्सहशिष्यं हारीतसगोत्र स्वाति च वन्दे, तथा स्वातिशिष्यं हारीतं च हारीतसगो४ात्रमेव श्यामार्य, शिष्य च बन्दे कौशिकसगोत्रं साण्डिल्यं, किम्भूत'-आर्यजीतधरं आराघातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्य, जीत
मिति सूत्रं, जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प इति पर्यायाः, मर्यादादिकारणं च सूत्रमिति भावनीय, धारयतीति धरः, आयंजीतस्य धरः २ तं, अन्ये तु व्याचक्षते-किल साण्डिल्यस्य शिष्यः आर्यसगोत्रो जीतधरनामा सरिरासीदिति गाथार्थः ॥ । * ॥१५॥ . तिसमुह गाहा || (२७-४९० ।। साण्डिल्यशिष्यं वन्दे, आर्यसमुद्रमिति क्रिया, किम्भूती-त्रिसमुद्रख्यातकीर्ति पू.| वेदक्षिणापरास्त्रयः समुद्राः उत्तरतस्तु हिमवान् वैतादयो वेति, अत्रान्तरे प्रचितकीर्तिमित्यर्थः, द्वीपसमुद्रेषु गृहीतप्रमाणं अति
दीप
अनुक्रम [२४-२७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
॥२७
३०||
दीप अनुक्रम [२७-३२]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
।। १६ ।।
54454
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूल [-] / गाथा ||२७-३०||
शयेन द्वीपसागरप्रज्ञप्तिविज्ञायकमिति भावः, अक्षुभितसमुद्रवद् गम्भीरो २ अतस्तमिति गाथार्थः ॥
भणग० गाहा ।। (*२८-५०)।। आर्यसमुद्रशिष्यं वन्दे आर्यमङ्गुमिति योगः किम्भूतं भणकं कालिकादिसूत्रार्थं भणतीति भणः स एव प्राकृतशैल्या भणकस्तं, कारकं कालिकादिसूत्रोक्तमेवोपधिप्रत्युपेक्षणादिक्रियाकलापं करोतीति कारकस्तं, ध्यातारं धर्मध्यानं ध्यायतीति ध्याता तं, इहौघतः कारकमित्युक्ते प्रधानपरलोकांगताख्यापनार्थं ध्यानस्य ध्यातारमिति विशेषाभिधानं, यत इत्थंभूतः अत आह-प्रभावकं ज्ञानदर्शन गुणानां यथावस्थितपदार्थावबोधादीनाम्, एकग्रहणात्तज्जातीयग्रहणाच्चरणपरिग्रहः, श्रुतसागरपारगं धीरमिति गाथार्थः । ●
णामि गाहा ( * २९-५०) आर्यमंगुशिष्यं आर्यनन्विलक्षपणं शिरसा वन्दे, प्रसन्नमनसं किम्भूतं ? -ज्ञाने दर्शने च तपसि विनये च, अनेन चरणमाह, नित्यकाल उद्युक्तम् अप्रमादिनमिति गाथार्थः ॥
बगाहा (* ३०-५०) वर्द्धतां वृद्धिमुपयातु, कोऽसौ ?-- वाचकवंशः, तत्र विनेयेभ्यः पूर्वगतं सूत्रमन्यच्च वाचयन्तीति वाचकाः तेषां वंशः भाविपुरुषपर्वप्रवाहः किम्भूतः १-यशोवंशः अनेन विपक्षव्यवच्छेदमाह, तथा बलमयशः प्रधानस्य संसारहेतोः परममुनि विधृतलिंगविडम्बकस्य पृथ्ध्येति केषां सम्बन्धिसम्भूतः ? - आर्यनन्दिलक्षपणशिष्याणां आर्यनागहस्तिनां, किम्भूतानां १ - व्याकरण भंगिककर्मप्रकृतिप्रधानानां तत्र व्याकरण- प्रश्नव्याकरणं शब्दप्राभृतं वा करणं-पिण्डविशुध्ध्यादि, उक्त च- 'पिंडविसोही समिती भावण पडिमा य इंदियणिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चैव करणं तु || १ ||" भंगिका:- चतुर्भ
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः अत्र दुवे प्रक्षेपे गाथे वर्तते. ते गाथे मत्संपादित “आगमसुत्ताणि" मूलं एवं सटीकं द्वयोः अपि पुस्तके मुद्रिते ।
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गणधरावलिका स्थीविराबलिका
॥ १६॥
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[-]
गाथा
||३०
३३||
दीप अनुक्रम [३३-३५]
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्ती
॥ १७ ॥
156450*36*R
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूल [-] / गाथा ||३०-३३||
गिकाद्यास्तच्छ्रुतं वा कर्मप्रकृतिः प्रतीता एतेषु प्ररूपणामधिकृत्य प्रधानानामिति गाथार्थः ॥
जच्चधणधाउसम पहाण० गाहा (* ३१-५१) जात्यश्चासावंजनधातुश्चेति समासः तदसमा प्रभा देहच्छाया येषां ते तथाविधास्तेषां मा भूदत्यन्तकृष्णसम्प्रत्ययस्तव आह---मुद्रिका कुवलयनिभानां पक्कसरसद्राक्षानीलोत्पलनिभानामित्यर्थः, रत्नविशेषः कुवलयमित्यन्ये, तथाऽप्यविरोधः, वर्द्धतां वाचकवंशः, केषां ?-आर्यनागहस्तिशिष्याणां रेवतिनक्षत्रनाम्नां रेवतिवाचकानामिति गाथार्थः ॥
अचलपुरा० गाहा (# ३२-५१) अचलपुरात् निष्क्रान्तान् कालिकश्रुतानुयोगेन नियुक्ताः कालिकश्रुतानुयोगिकास्तान् यद्वा कालिकश्रुतानुयोग एषां विद्यत इति समासस्तान् कालिकश्रुतानुयोगिनः, धीरान् स्थिरान् ब्रह्मद्वीपिकान् सिंघान् ब्रह्मद्वीपिकशाखोपलक्षितान् सिंघाचार्यान् रेवतिवाचक शिष्यान्, वाचकपदं तत्कालापेक्षया उत्तमं प्रधानं प्राप्तानिति गाथार्थः ||
जेसिं० गाथा ( * ३३-५१) येषामयमनुयोगः प्रचरति अद्याप्यर्द्ध भरते वैतायादारतः, बहुनगरेषु निर्गतं प्रसिद्धं यशो येषां ते बहुनगर निर्गतयशसः तान् वन्दे, सिंघवाचकशिष्यान् स्कन्दिलाचार्यान्, कहं पुण तेसिं अणुओगो १, उच्यते, बारससंवच्छरिए महन्ते दुम्भिक्खे काले भत्तट्ठा फिडियाणं गहणगुणणणुप्पेहाऽभावतो सुतं विप्पणई, पुणो सुभिक्खे काले जाते महु| राए महन्ते समुदए खंदिलायरियप्पमुहसंघेण जो जं संभरइति एवं संघडितं कालियं सुर्य, जम्हा एवं महुराते कयं तम्हा माहुरा वायणा भन्नति, सा य खंदिलायरियसम्मत चिकाउं तस्संतिओ अणुओगो भण्णति, अभे भणंति-जहा सुयं णो गई, तम्मि दुम्भ
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स्थविरावलिका
॥ १७ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं H | गाथा ||३३-३६||
नन्दी
प्रत सूत्रांक
हारिभद्रीय
वृत्ती
गाथा ||३३३६||
क्खकाले । जे अने पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलायरिए संधरे, तेण महुराए पुणो अणुओगो पतिओचि महुरा
स्थविराचायणा मामबइ, तस्सतिओ अणुओगो भण्णइत्ति गाथार्थः ।।
वलिका ततो गाहा (* ३५-५१) ततः स्कन्दिलाचार्यशिष्यं हिमवन्तं वन्दे शिरसेति क्रिया, किम्भृत-हिमवन्महाविक्रम है। हिमवत इव महाविक्रमो-विहारव्याप्त्यादिलक्षणो यस्य स तथाविधस्तं 'धीपरकममणत' न्ति अनन्तधृतिपराक्रम, प्राकृतशैल्या तु अन्य लोपन्यासः, अनन्तः धृतिप्रधानः पराक्रमः कर्मक्रियता वा (शत्रुजये) यस्य स तथाविधस्तं 'सज्झायमणतघरं ति: अजन्तस्वध्वाध्यायधर, धरतीति धरः अनन्तगमपर्यायत्वादनन्तं-पुत्र तद्विषयः स्वाध्यायस्तस्य धर इति समासः तामिति गाथार्थः ॥
का लिय० गाहा (* ३५-५२) मिउ० गाहा ( ३६-५२) कालिकथुतानुयोगस्य धारकान , धारकांच पूर्वाणां-II उत्पादाद दीनां, हिमवतक्षमाश्रमणान् चन्दे, तथैतच्छिम्यानेव वन्दे नागार्जुनाचार्यानिति गाथार्थः ।। किंभूतान् ?-मृदुमावसम्पन्नवान् उपलक्षणत्वान्मृदुत्वस्य, कान् ?-क्षमामार्दवार्जवसन्तोषसम्पमानित्यर्थः, आनुपूर्त्या वयःपर्यायकालगोचरया वाचकत्वं प्राप्तान, ऐदंयुगीनानामपि सामाचारीप्रदर्शनपरमेतत्, न चायुक्तं द्वितीयपदमाश्रित्यैदयुर्मानानामपि युज्यते | कालोचिचतानुपूर्वी विहाय कचिदप्याचार्यत्वाधारोपणं, महापुरुषाणां गौतमादीनामाशातनाप्रसंगात, कृतं प्रसंगेन, संसार एच दण्डो भगवदाज्ञाचितथकारिणां इति, ओघधुतसमाचरकान् ओघश्रुतम्-उत्सर्गथुतं तत् समाचरन्ति ये ते तथाविधास्तान् । नागार्जुनझवाचकान् वन्दे हात गाथार्थः ॥
REMEEBASSAGE
दीप
अनुक्रम
[३६-३८]
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||३७
४१||
दीप अनुक्रम
| [३९-४३]
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्ती
॥ १९ ॥
PRAS
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [-] / गाथा ||३७-४१||
वरकणग० अड० भूअहिपय० ॥ (* ३७ । ३८ । ३९-५२ ) ॥ इदं गाथाश्रयमपि प्रायो निगदसिद्धमेव, नगरं भव्यजनहृदयदपितान् मन्यजनहृदयवल्लभान् तथा सुविज्ञातवहुविधस्वाध्यायप्रधानान् बहुविध आचारादिभेदात् स्वाध्यायः, अनुयोजिता यथोचिते वैयावृत्यादी वरवृषभाः सुसाधवो यैस्तान् नागेन्द्र कुलवंशनन्दिकेरानिति प्रमोद करानित्यर्थः, भूतहितप्रगल्भान् भूतदिभाचार्यान् इत्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः, भवभयव्यचच्छेदकरानिति सदुपदेशादिना संसारभयव्यवच्छेदकरणशीलान् ।
उद् सुमृणिच० ।। । ॥ गाहा ( * ४० ) ॥ अनेकधा सवहितनिपुणानिति भावः, वन्देऽहं भूतदिनाचार्यशिष्यं वन्देऽहं लोहियामिति क्रिया, किम्भूतं -सुष्ठु विज्ञातं नित्यानित्यं येन स तथाविधस्तं, किं ज्ञातं ?, विशेषणान्यथाऽनुपपत्तेः वस्तु इति यथा 'सवच्छा धेनु' रित्युक्ते गोडवाया विशेषणायोगादिति, तच्च वस्तु सचेतनाचेतनं, तत्र सचेतनभात्मा चेतनत्वाद्यपेक्षया नित्यः नारकतिर्यङ्नरामरपर्यायापेक्षया चानिष्यः, एवमचेतनमप्यण्वादि विज्ञातव्यं, तथाहि--परमाणुरजीवत्वमूर्त्त| त्वादिभिर्नित्यः, वर्णादिभिर्व्यणुकादिभिस्त्वनित्य इति, उक्तश्च - सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योश्चित्य| पचित्योराकृतिजातिव्यवस्थाना ॥ १ ॥ दित्यत्र बहु वक्तव्यं तच्च नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्, गमनिकामात्रप्रधानोऽयमारंभ इति, अनेन न्यायवेदित्वमाह, सुविज्ञातसूत्रार्थधारकमित्यनेन स्वोषत एव स्वभ्यस्तसूत्रार्थधारकामेति सद्भावोद्भावना, तथ्यमित्यसम्यकरूपकत्वमाहेति गाथार्थः ॥
अत्थमहत्थकुवाणी० गाहा।। (*४१-५२) ।। लोहित्यशिष्यं प्रयतः सन् अनुत्सृष्टप्रयत्नपरः सन्नित्यर्थः, प्रणमामि दुष्य
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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स्थावराafoet
॥ १९ ॥
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आगम
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं H / गाथा ||४१-४४||
प्रत
सूत्रांक
गाथा ॥४१४४||
नन्दी- गणिनमिति क्रिया, किम्भूतं ?-अर्थमहार्थखानि खानिरिव खानिः अर्थमहार्थानां खानिः २ तं, तत्र भाषाऽमिधयाः अर्थाः अनुयोग
घर हारमद्राबाद विभाषावार्तिकगोचरा महार्थी इति, सुश्रमणव्याख्यानकथने निवृत्तिर्यस्य स तथाविधस्त, तत्र व्याख्यानं प्रतीतं कथन-संशये | सति पिनेयप्रश्नोत्तरकालभावि व्याकरण, अथवा व्याख्यानम्-अनुयोगः कथनमोघतो धर्मस्य, धर्मकथेत्यर्थः, प्रकृल्या स्वभा-1
नमस्कारः
योग्यायो॥२०॥ बेन मधुरवाचं मधुरगिरमिति गाथार्थः॥
ग्यविचार सुकुमालकोमल गाहा ।।(*४२-५४)॥ निगदसिद्धा, एवं आवालिकाक्रमेण महापुरुषाणां स्तवमभिधाय साम्प्रतं सामा-18 न्येनैव श्रुतधरनमस्कार प्रतिपिपादयिषुराह
जे अन्ने भगवते ॥(*४३-५४)। ये चान्येऽवीता भाविनश्च भगवन्तः, श्रुतरत्नोपपेतत्वात् समग्रेश्वर्यादिमन्त इत्यर्थः, कालिकश्रुतानुयोगिनो धीराः सत्त्ववन्तस्तान् प्रणम्य शिरसा उत्तमाङ्गेन ज्ञानस्य-आभिनिबोधिकादेः प्ररूपणं वक्ष्ये, क एव-14 माह-दृष्यगणिशिष्यो देववाचक इति गाथार्थः । इदं च पश्चप्रकारं ज्ञानम्, एततप्रतिपादकं चाध्ययनं योग्येभ्य एव विनेयेभ्यो दीयते, नायोग्यभ्य इत्यतो योग्यायोग्यविभागोपदर्शनार्थमेव तावदिदमाह
सेलघण० गाहा ॥(४४-५४)। आह-शुभाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थितानां सर्वसत्त्वहितायोद्यताना महापुरुषाणां | अलं योग्यायोग्यविभागनिरीक्षणेन, न हि परहितार्थमिह महादानोद्यता महीयांसोऽर्थिगुणमपेक्ष्य प्रदानक्रियायां प्रवर्त्तन्ते दयालव ॥२०॥ इति, अत्रोच्यते, ननु यत एवं शुमाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थिताः सर्वसत्त्वहितायोधता महापुरुषाश्च गुरव। अत एव
ASCHERASAISUUSAASAS***
दीप
कक्कर
अनुक्रम [४४-४६]
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||४४||
दीप अनुक्रम [४६]
नन्दीहारिभूद्रीय
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूल [-] / गाथा ||४४||
॥ २१ ॥
योग्यायोग्यविभागोपदर्शनं न्याय्यं मा भूदयोग्यप्रदाने तत्सम्यग्नियोगाक्षमार्थिजनानर्थ इति, न खलु तत्त्वतोऽनुचितप्रदानेनायासहेतुनाऽविवेकिनमर्थिजनमनुयोजयन्तोऽप्यनवगतपरार्थसम्पादनोपाया भवन्ति दयालब इत्यवधूय मिध्याभिमानमालोच्यतामे७५ तदिति । आह-क इवायोग्यप्रदाने दोष इति उच्यते, स ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पमनेकमवशतसहस्रोपात्तानिष्टदृष्टाष्टफर्मराशिजनितदौर्गत्यविच्छेदकमपीदमयोग्यत्वादवाप्य न विधिवदासेवते, लाघवं चास्य समापादयति, ततो विधिसमासेवकः कल्याणमिव महदकल्याणमासादयति, उक्तं च- 'आमे घडे निहतं जहा जलं तं घर्ड विणासेर। इस सिद्धतरहस्सं अप्पाहारं विणासेई ॥१॥' इत्यादि, अतोऽयोग्यदाने दातृकृतमेव वस्तुतस्तस्य तदकल्याणामिति, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्राधिकृतगाथां प्रपञ्चतः आवश्यकानुयोगे व्याख्यास्यामः इह पुनः स्थानाशून्यार्थ भाष्यगाथाभिर्व्याख्यायुत इति ॥
उल्लेऊण न सको गज्जर इय मुग्गसेलओ रने । तं संवगमेहो सोउं तस्सोवरिं पड६ ॥ १ ॥ रविओति ठिओ मेहो उल्लो मि णवत्ति गज्जइ य सेलो । सेलसमं गाहेस्सं निब्विज्जइ गाहगो एवं || २ || आयरिए सुतंमि य परिवाओ सुत्तअत्थपालमंथो । अनसिंपि य हाणी पुट्ठावि न दुद्धया वंशा ।। ३ ।। बुट्ठेऽवि दोणमेहे ण कण्हभोमाउ लोट्टए उदगं । गहणधरणासमत्थे इस देयमछित्तिकारिम्मि || ४ || भाविय इयरे य कुडा अपसत्थ पसत्थ भाविया दुविहा । पुप्फाईहि पसत्था सुरतेल्लाहिं अपसत्था ||५|| | वम्मा य अवम्मानिय पसत्थवम्मा य होति अग्गेज्झा । अपसत्थअवम्मावि य तप्पडिवक्खा भवे गेज्झा || ६ || कुप्पचयणओसनहि भाविया एवमेव भावकुडा । संविग्गेहिं पसत्था वम्माऽवम्मा य तह चैव ॥ ७ ॥ जे पुण अभाविया खलु ते चतुधा अथविमो गमो अम्रो । छिद कुड भिन्न खंडे सगले व परूवणा तेसिं ॥ ८ ॥ सेले य छिड्ड चालिणि मिहो कहा सोडमुट्ठियाणं तु । छिट्टाऽऽह
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योग्यायोग्याः
॥ २१ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं H I गाथा ||४||
...........
योग्या
योग्या:
प्रत सूत्रांक
वृत्ती
S4
नन्दी-६ तत्व रिठ्ठो सुमरिंसु सरामिणेदाणि ॥९॥ एगेण विसइ बीएण णीइ कण्णण चालणी आह । धन उत्थ आह सेलो जे पविसति | हारिभद्रीयता नीति वा तुज्या ॥१०॥ तावसखउरकिढिणर्य चालणिपडिवक्खि ण संदद दवपि । परिपूर्णगम्मि य गुणा मलति दोसाय चिट्ठति
॥११॥ सम्वन्नुप्पाममा दोसा हुन सति जिणमते केई। जे अणुवउत्तकहणं अपत्तमासज्ज व हविज्ज ॥ १२ ॥ अंबत्तण ॥२२॥
जीहाए कृचिया होइ खीरमुदगम्मि । इंसो मोत्तूण जलं आवियइ पयं तह सुसीसो ।। १३ ॥ सयमवि न पियइ महिसो ण य जूह पियइ लोलियं उदगं । विग्गहक्किहाहि तहा अथकपुच्छाहि य कुसीसो ॥ १४ ॥ अवि गोपयंमिवि पिए सुढिओ तणुयत्तण तोंडस्स । न करेइ कलुसतोयं मेसो एवं मुसीसोवि ॥ १५॥ मसउच्च तुर्द जच्चादिएदि निच्छु भए कुसीसो उ । जलुगा व अद्मितो पियह मुसीसोवि सुयणाणं ।। १६ ॥ छडेउ भूमीए खीरं जह पियइ दुहमज्जारी । परिसुट्टियाण पासे सिक्खर एवं विणय
भंसी ॥ १७ ॥ पाउं थोवं थोवं खीरं पासाई जाहओ लिहइ । एमेव जिय काउं पुच्छह मइमं न खिज्जेइ ।। १८ ।। अण्णो दोज्झिहि ४ कई णिरत्थयं किं वहामि से चारि । चउचरणगवी उ मता अवन हाणी य बडगाण ॥१९ ।। मा मे होज्ज अवण्णो गोबज्या
मा पुणो व न दलिज्जा । वयमचि दोज्झामो पुणो अणुग्गहो अबढेऽपि ॥ २० ॥ सीसा पडिच्छगाणं भरोत्ति तेऽविर सीस । गभगोत्ति । ण करेंति सुत्तहाणी अमत्थवि दुभ तेसि ।। २१ ॥ कोमुदिया तह संगामिया य उम्भूतिगा उ तिमि मेरीओ।
कण्हस्सासी उ (ए) तया असिवोषसमी चउत्थी उ ।। २२ ॥ सकपसंसा गुणगाहि केसवा मिचंद सुणदन्ता । आसरयणस्स दाहरण कुमार भंग य पुयजुझं ॥ २३ ॥णेहि जिओमित्ति अहं असिवोवसमीइ संपयाण च । छम्मासिय घोसणया पसमह ण य
जायए अण्णो ॥ २४ ॥ आगंतु वाधिखोमे महिहि मोल्लेण कंथ दंडणता । अट्ठमाराहण अनमेरि अनस्स ठवणं च ॥ २५ ॥
SANSWERSEAR
गाथा ||४४||
दीप अनुक्रम [४६]
॥२२॥
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||४५
४७||
दीप
अनुक्रम [४७-५२]
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [-] / गाथा ||४५-४७||
नन्दी- मुकं तया अगहिते दुपरिग्गहियं कयं तथा कलहो । पिट्टण अइचिर विकय गतेसु चोरा य ऊनग्धं ।। २६ ।। मा भिण्डव इय दातुं हारिभद्रीय १ उचजुंजिय देहि किं विचितेसि। विच्चामेलियाने किलिस्ससी तं चऽहं चैव ॥ २७ ॥ भणिया जोग्गा २ सीसा गुरवो य तत्य वृत्ती
॥ २३ ॥
दोपि । नेपालियगुणदोसो जोगो जोगस्स भासेज्जा ।। २८ ।।
एवं तावद्विभागतो योग्यायोग्यविनयविभागोपदर्शनं कृत्वा साम्प्रतं सामान्ये॒न पर्षदं प्ररूषयन्नाह—
सा समासओ तिविहा पन्नत्तेत्यादि, सा पर्षत् समासतः संक्षेपेण त्रिविधा त्रिप्रकारा प्रज्ञप्ता प्ररूपिता, कैः ? - तीर्थकरगणधरीति गम्यते, 'तयथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'शिके'त्यत्र 'झा अवबोधन' इत्यस्य 'इगुपधज्ञाटकरः क' इति ( ३-१-१३५ ) कप्रत्ययः, 'आतो लोप इटि च किश्ती त्या (६-४-६४) कारलोपः परगमनं टापू जानातीति ज्ञा कप्रत्ययः 'प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्मात इदाप्यसुप' इति ( ७-३-४४ ) इवं शिका-परिज्ञानवती, न झिका अशिका तद्विलक्षणा, दुर्विदग्धा मिथ्यावलेपगर्भा । तरिथमा जाणिया- 'गुणदोसविसेसण्णू अणभिग्गहिया व कुस्मुत्तिमएस । एसा जाणगपरिसा गुणतचिल्ला अगुणवज्जा ॥ ॥ १ ॥ इमा तु अयाणिया पमतीमुद्ध अवाणिय मिगछावयसीहकुक्कुडयभूया । रयणमिव असंठविया सुहसमच्या गुणसमिद्धा | ॥ २ ॥ इमा पुण दुब्बियडिया किंचिम्मसग्गाही पडवगाही य तुरियगाही य । दुवियडिया उ एसा भणिया तिविदा भवे परि ॥ ३ ॥ साम्प्रतमिष्टदेवतास्तनादिसम्पादितसकलसाहित्यो देववाचकोऽधिकृताध्ययनषिपयभूतस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां कुर्वमिदमाह -
'णाणं पंचविहं पण्णत्तं' इत्यादि, (सूत्रम् १-६५) ज्ञातिः ज्ञानं ' कृत्यल्युटो बहुलं ' इति वचनाद्भावसाधनः, संविदि
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः •••• पर्षदायाः भेदानां वर्णनं क्रियते
~28~
पर्षद्भेदाः
॥ २३ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) ........ मूलं [१] / गाथा ||४७...||
प्रत
सूत्रांक
गाथा ॥४५
नन्दी- त्यर्थः, ज्ञायते वाऽनेनेति (अस्मादिति वा) ज्ञानं तदावरणक्षयोपशमादेव, ज्ञायतेऽस्मिमिति क्षयोपशमे सति, ज्ञानमात्मैव विशिष्ट-18ज्ञानभेदाहारिभद्रीय क्षयोपशमयुक्तो जानातीति वा ज्ञानं तदेव स्वविषयसंवेदनरूपत्वात् तस्य, पंचाविधमित्यत्र पञ्चेति संख्यावाचकः विधानं विधेत्यत्र
नामुद्देशः 'डुधाञ् धारणपोषणयो' रित्यस्यानुवन्धलोपे कृते विपूर्वस्य स्त्रियां वर्तमानायां 'पिद्भिदादिभ्योऽङि' ति (३-३-१०४) | वर्त्तमाने 'आतश्योपसर्गे (३-१-१३६ ) इत्यनेन अप्रत्ययः अनुबंधलोपे कृते आतो लोप इति च किती ( ६-४-६४ ) त्यनेन | चाकारलोपे कृते परगमने च 'अजाधतष्टापिति (४-१-४) टापप्रत्ययोऽनुवन्धलोपः परगमनं विधा, पंच विधा अस्यति समासो 'इस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्येति (१-२-४७) वर्तमाने 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्ये(१-२-४८)त्यनेन इस्वत्वं, सुअम्भावः पंचविघंपंचप्रकारमित्येतदेवमनवचं, कुव्याख्याव्यपोहाथै चैतदेवं निदर्शितमित्यलं प्रसंगेन, प्रज्ञप्त-प्ररूपितं, कै?-अर्थतस्तीर्थकरैः सू तो ४ गणधरैरिति, उक्तं च--"अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गथंति गणहरा णिउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुतं पवत्तइ ॥ १॥"
इत्यनेन स्वमनीपिकाव्यपोहमाह, अथवा प्रासादाप्तं प्राज्ञाप्तं, तीर्थकरादाप्तमिति प्राप्त गौतमादिभिः, अथवा प्राज्ञैरान प्राज्ञाप्त ट्र गौतमादिभिः, प्रज्ञया वाऽऽसं प्रज्ञाद्वाऽऽप्तं प्रज्ञाप्त, सर्वेरेव संसारिभिरिति, तथाहिन प्रज्ञाविकलैरिदमवाप्यते इति भावनीय र
तयथत्युदाहरणोपन्यासार्थः, आमिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं चेति, तत्रार्थाभिमुखो नियतो | बोधोऽभिनिबोधः स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनियोधिक, अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वेत्यामि
॥२४॥ &ानिबोधिक, अभिनिबुध्यते वा तदित्याभिनिबोधिः-अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वादभेदोपचारादित्यर्थः | अभिनिबोध्यतेऽनेनेत्याभिनिवोधिक-तदावरणक्षयोपशम इति भावार्थः, अभिनिबुध्यतेऽस्मादिति वा आभिनिबोधिक-तदावरणकमे
SAEYSERECENT
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४७||
दीप
अनुक्रम [४७-५३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[8] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ... अथ नन्दीसूत्रस्य प्रथम-सूत्र आरभ्यते, तदन्तर्गत: ज्ञानस्य भेआनां वर्णयते
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
..... मूलं [१] | गाथा ||४७...||
प्रत सूत्रांक
[१]
गाथा ॥४७..||
नन्दी- क्षयोपशम एव, अभिनिबुद्धयतेऽस्मिमिति वा क्षयोपशमे सत्याभिनिबोधिकं, आत्मैव वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादभिनि- ज्ञानभेदाहारिभद्रीय |बुध्यत इति, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चाभिनियोधिकज्ञानं १ तथा श्रूयते इति श्रुतं-शब्द एव, भालश्रुतकारणत्वात् कारणे | नामुदेशः
कार्योपचारादिति भावार्थः, श्रूयते वा अनेनेति श्रुतं-तदावरणक्षयोपशम इति हृदयं, श्रूयतेऽस्मादिति वा श्रुतं-तदावरणक्षयोपशम ॥ २५॥
एव, श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशमे सति श्रुतं, आत्मैव श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वाच्छृणोतीति, श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञान 18| तथाऽवधीयतेऽनेनेत्यवधिः, अवधीयत इत्यधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते मयोदया वेति अवधिज्ञानावरणकमक्षयोपशम एव, तदुपयोग-15
हेतुत्वादित्यर्थः, अवधीयतेऽस्मादित्यवधिस्तदावरणकर्मक्षयोपशम एव, अवधीयते तस्मिमिति वेत्यवधिर्भावार्थः पूर्ववदेव, अवधान | वा अवधिः, विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, अवधिश्चासौ ज्ञान च अवधिनानं ३,. तथा मनःपर्यायज्ञानमित्यत्र परिः सर्वतो भावे अयनं | अयः गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अयः पर्ययः, पर्ययनं पर्यय इत्यर्थः, मनसि मनसो वा पर्ययो मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परि-18
च्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, अथवा मनसः पर्याया मनःपर्याया धर्मा बाझवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यनों-1 अन्तरं तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, इदं चाईतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्तिसंज़िमनोगतद्रव्यालम्बनमेवेति भावार्थः ४, तथा केवलम्-असहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं, शुद्धं वा केवलमावरणमलकलंकांकरहितं, सकलं वा केवलं तत्-18 प्रथमतयेवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलं अनन्यसदृशामिति दय, ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं वा केवल INT॥२५॥ | यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावाविर्भासीति भावना, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानं ५ ।। आह-एषां ज्ञानानामित्थदमुपन्यासे किं प्रयोजनमिति, उच्यते, इह स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधम्योत् तद्भावे च शेषज्ञानभावादादावेव मतिश्रुत
36.54
दीप अनुक्रम [१३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१] / गाथा ||४७...||
हारिभद्रीय
वृत्ता
HERE
नामुद्दया
॥ २६॥
प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥४७..||
ज्ञानयोरुपन्यास इति, तथाहि-य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य, 'जत्थ मतिणाणं तस्थ मुयणाणं' ति वचनात् , तथा| यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य, प्रवाहापेक्षया अतीतानानागतवर्तमानः सर्व एव, अप्रतिपतितेकजीवापेक्षया च षट्पष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, उक्तं च भाष्यकारेण-"दो बारे विजयाइK गयस्स तिमऽन्ते अहव ताई । अइरेग नवियं गाणाजीवाण सम्बद्धं ॥१॥" यथा मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानमादेशतः। सर्वव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि, यथा मतिज्ञानं परोक्ष एवं श्रुतज्ञानमपीति, तथा मतिज्ञानथुतज्ञानयोरेव अवध्यादिज्ञानभावादिति । आह-एवमपि मतिज्ञानमादौ किमर्थमिति, उच्यते, मतिपूर्वकत्वाद्विशिष्टमत्यंशरूपत्वाद्वा श्रुतस्यादौ मतिज्ञानमिति, उक्तं च "मतिपुच्वं जेण सुयं तेणादीए मती विसिट्ठो वा । मतिभेओ व सुयं तो मतिसमणतरं भणियं ॥१॥" इति, पर्याप्तं विस्तरेण । तथा कालविपर्ययस्वामिलामसाधर्म्यान्मतिश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानस्योपन्यासः, तथाहि-यावानेव मतिबानश्रुतज्ञानयोः स्थितिकाल: प्रवाहापेक्षया अतिपतितैकसत्वाधारापेक्षया च तावानेवावधिज्ञानस्यापि अतः स्थितिसाधर्म्य, तथा यथैव मतिज्ञानश्रुतज्ञाने विपर्ययज्ञाने भवत एवमिदं मिथ्यादृष्टेर्विमंगज्ञानं भवतीति विपर्ययसाधर्म्य, तथा य एवं मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः स्वामी स एवावधिज्ञानस्यापि (इति) भवति स्वामिसाधर्म्य, तथा विभंगज्ञानिनखिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्ती युगपदेव ज्ञानत्रयलाभसम्भवाल्लाभसाधर्म्य । तथा छबस्थविषयमावाध्यक्षसाधादवधिज्ञानानन्तरं मनःपर्यायज्ञानस्योपन्यासः, तथाहि-यथाऽवधिज्ञान छबस्थस्य भवत्येवं मनःपर्यायज्ञानमपि छबस्थस्यैवेति छमस्थसाधमे, तथा यथाऽवविज्ञान रूपिद्रव्यविषयमेवं मनःपर्यायज्ञानमपि सामान्येनेति विषयसाधर्म्य, तथा यथाऽवधिज्ञानं बायोपशमिके भावे तथा मन:
२६
दीप अनुक्रम [१३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[२-३]
गाथा
||86..||
दीप
अनुक्रम [५४-५५]
नन्दीहारिभद्रीय
वृचौ
॥ २७ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२३] / गाथा ||४७... ||
पर्यायज्ञानमपि इति भावसाधर्म्य, तथा यथा अवधिज्ञानं प्रत्यक्षमेवं मनःपर्यायज्ञानमपीत्यध्यक्षसाधर्म्य । तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानस्योपन्यासः, तस्य सकलज्ञानोत्तमत्वात्, तथा अप्रमत्तयतिस्वामिसाधर्म्यात्, तथाहि यथा मनःपर्यायज्ञानमप्रमत्तयतेरेव भवति एवं केवलज्ञानमपि अप्रमत्तभावयतेरेवेति साधर्म्य, तथाऽवसानलाभाच्च, यो हि सर्वज्ञानानि समासादयति स खल्वन्त एवेदमामोतीति भावना विपर्ययाभावसाधर्म्याच्च तथाहि यथा मनःपर्यायज्ञानं विपरीतं न भवत्येवं केवलमपि इति साधर्म्य, अलं विस्तरेणेति सूत्रार्थः,
'तं समासतो दुविहं पन्नन्त' मित्यादि (२-७१) तत् पंचप्रकारं ज्ञानं समासतः संक्षेषेण द्विविधमिति द्वे विधे अस्येति द्विविधं द्विप्रकारं प्रज्ञतं प्ररूपितं तथेत्युदाहरणोपन्यासार्थम्, प्रत्यक्षं च परोक्षं च तत्र प्रत्यक्षमित्यत्र जीवोऽक्षः, कथं?', 'अव्याप्तावित्यस्य ज्ञानात्मनाऽनुवेऽर्थानित्यक्षः, व्यामोतीत्यर्थः, 'अश भोजन' इत्यस्य वाऽश्नाति सर्वाऽथानित्यक्षः, पालयति संके चेत्यर्थः, तमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं, आत्मनः अपरनिमित्तमवध्याद्यतीन्द्रियमिति भावार्थः, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शन परः, विचित्रतां चास्योत्तरत्र वक्ष्यामः, परोक्षं चेत्यत्राक्षस्य- आत्मनः द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमन पुद्गलमयत्वात् पराणि वर्तन्ते, पृथगित्यर्थः, तेभ्योऽक्षस्य यत् ज्ञानमुत्पद्यते तत् परोक्षे, परनिमित्तत्वाद्भूमादनिज्ञानवद्, अथवा परैरुक्षा-संबंधनं विषयविषयी भावलक्षणमस्येति परोक्षं, चशब्दः पूर्ववद् एवमन्यत्राप्युत्प्रेक्ष्य चशब्दार्थो वक्तव्य इति सूत्रार्थः ॥ एवं भेदद्वये उपन्यस्ते सत्यनयोः सम्यक्स्वरूपमनवगच्छवाह चोदकः
'से किं पच्चवं १० (३-७५) सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दार्थे वर्तते, स च प्रक्रियादिवाचकः, यथोक्तं
2364-304
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः •••• ज्ञानस्य संक्षेप्तः वे भेदे प्रदर्शयते
~32~
प्रत्यक्ष
परोक्षे
॥ २७ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [३,४] / गाथा ||४७...||
प्रत
सूत्रांक
RESECREC
4645
[३-४] गाथा ॥४७..||
नन्दी- 18. 'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमंगलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु' इहोपन्यासार्थः, किमिति परिप्रश्ने, तत् प्रागुपदिष्टं प्रत्यक्षमिति हारिभद्रीय सूत्रार्थः ॥ एवं चोदकेन प्रश्ने कृते सति न्यायप्रदर्शनार्थमाचार्यः चोदकोक्तानुवादद्वारेण निर्वचनमभिधातुकाम आहवृत्ती
'पच्चक्खं दुविहं पन्नत्त'मित्यादि, एवमन्यत्रापि यथायोगं प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां पातनिका कार्येति, प्रत्यक्षं द्विविध | प्रज्ञप्तं, तद्यथा-इन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च, इन्द्रियाणां प्रत्यक्षं इन्द्रियप्रत्यक्षं, इहेन्द्रः स्वरूपतो ज्ञानाद्यैश्वर्ययुक्तत्वादात्मा तस्येदमिन्द्रियं तच्च द्विधा-द्रव्येन्द्रियं च भावेन्द्रियं च,तत्र पुद्गलै ह्यसंस्थाननिवृत्तिः कदम्बपुष्पाद्याकृतिविशिष्टोपकरणं च द्रव्येन्द्रिय, 'निवृत्त्युपकरण द्रव्येन्द्रिय मिति(तत्त्वा.२-१७) वचनात् , श्रोत्रन्द्रियादिविषया सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणक्षयोपशमलन्धिरुपयोगश्च है। भावेन्द्रियं, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रिय' मिति(तत्त्वा.२-१८) वचनात्, इन्द्रियप्रत्यक्षं न भवतीति नोइन्द्रियप्रत्यक्षं, नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे ॥ ___से किं तमित्यादि (४-७६) अथ किं तदिन्द्रियप्रत्यक्षं , तत् इन्द्रियप्रत्यक्ष पञ्चविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमित्यादि, श्रोत्रन्द्रियस्य श्रोत्रन्द्रियप्रधान वा प्रत्यक्षं २, श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तमित्यर्थः, एवं शेषेष्वपि वक्तव्यम्, एतच्चोपचारतः प्रत्यक्षं, न परमार्थतः, कथं ज्ञायत इति चेत् सूत्रप्रामाण्या , वक्ष्यति च-"परोक्खं दुविहं पबतं, तंजहा-आभिणियोहियणाणपरोक्खं च सुयणाणपरोक्खं च" न च मतिश्रुताभ्यामिन्द्रियमनोनिमित्तमन्यदस्ति यत् प्रत्यक्षमञ्जसा भवेत् , भावे च षष्ठज्ञान-18 प्रसंगाद् विरोध इति, तस्मात् परोक्षमेवेदं तत्त्वत इति, आह-इह लोके लिंग परोक्षमिति प्रतीतमिति, उच्यते, इह यदिन्द्रियमनो-13 भिवाह्यलिंगप्रत्ययमुत्पद्यते तदेकान्तेनैवेन्द्रियाणामात्मनश्च परोक्षं, परनिमित्तत्वाभूमादग्निज्ञानवदित्यतः परोक्षमिति प्रतीतिः,
॥ २८॥
दीप अनुक्रम [५५-५६]
CA
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
~33.
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [४-6] / गाथा ||४७...||
वृत्ता
प्रत सूत्रांक [४-७] गाथा ॥४७..||
नन्दी
| यत्पुनः साक्षादिन्द्रियमनोनिमित्तं तत्तेषामेव तत्प्रत्यक्षम् , अलिंगत्वाद, आत्मनोऽवध्यादिवत् , न त्वात्मनः, आत्मनस्तु तत्र हारिभद्रीय
का अवधेर| परोक्षमेव, परनिमित्तत्वाल्लैंगिकवत् , इन्द्रियाणामपि तदुपचारतः प्रत्यक्षं, न परमार्थतः, कथम्?, अचेतनत्वादित्यत्र बहु वक्तव्य
ताधिकार | तच्चान्यत्र वक्ष्यामा, मा भूत प्रथमग्रन्थ एव प्रतिपत्तिगौरवमित्यलं विस्तरेण, आह--'स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणी' ति | ॥२९॥ क्रमः, अयमेव च ज्यायान् , पूर्वपूर्वलाभ एवोत्तरोत्तरलाभाद्, अतः किमर्थमुत्क्रमः, उच्यते, पश्चानुपादिन्यायज्ञापनार्थ,
| स्पष्टसंवेदनद्वारेण सुखप्रतिपत्त्यर्थ चेति, इह मनोज्ञानयपीन्द्रियज्ञानतुल्ययोगक्षेममेव द्रष्टव्यं, तथा चाभिनिबोधिकज्ञानप्ररूपणायां प्रत्यक्षत इति सेतं इदियपञ्चक्खं तदेतदिन्द्रियप्रत्यक्षम् ॥
से कितं णोइंदियपचक्रव०(५-७६ ) अथ किं तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्ष? नोइन्द्रियप्रत्यक्ष त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अवधिज्ञान-1 प्रत्यक्षं इत्यादि । 3 से किं तं'इत्यादि (६-७६) अथ किं तदवधिज्ञानप्रत्यक्षं १,२ द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-भवप्रत्ययं च बायोपशमिकं च,
तत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः पाणिन इति भवः-नरकादिजन्मेति भावः, भव एव प्रत्ययः-कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययं, च पूर्ववत्, | तथा क्षयोपशमश्च क्षयोपशमी ताभ्यां निवृत्तं क्षायोपशामिकं ॥ तत्र यद्येषां भवति तत्तेषामुपदर्शाह--
२९॥ ___दोण्ह'मित्यादि (७-७६ ) द्वयोर्जीवसमूहयोः भवप्रत्ययं, तद्यथा-देवानां नारकाणां च, तत्र दीव्यन्तीति देवाः, निरुपमक्रीडामनुभवन्तीत्यर्थः, तेषां, तथा नरान् कायन्तीति नरकाः, योग्यतया शब्दयन्तीत्यर्थः, ते मवा नारकास्तेषां ।। अत्राह-न
EKAKKARKESA
दीप अनुक्रम
[५६-५९]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: ... अथ प्रत्यक्ष-ज्ञान भेदे 'अवधिज्ञान' वर्णयते
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [७-९] / गाथा ||४७...||
प्रत सूत्रांक
[७-९]
सम्वधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते देवनारकभवश्वौदायिकस्तत् कथं तद् भवप्रत्ययमिति,उच्यते, क्षायोपशमिकमेव तत् , किंतु स . हारभद्रामातएव देवनारकभवे अवश्यंभावि, पविणां गगनगमनलब्धिनिमित्चवदित्येता भवप्रत्यय इति, उक्तं च-"उदयक्खयखयोवसमोवसमा जंच वृत्ती
कम्मणो भणिया । दव्वं खत्तं कालं भावं च मावं च संपप्प ।।९ पंचसं०७६) तथा द्वयोः क्षायोपशमिक, तद्यथा-मनुष्याणां पंचन्द्रियतिर्यग्योनीनां च, न चैपामवश्यतया भवतीत्यतः सत्यपि क्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययाद् मित्रमिदमिति, तत्त्वतस्तु सर्वमेव | शायोपशमिकमिति ।। अधुना क्षयोपशमस्वरूपं प्रतिपादयबाह-'को हेऊ' इत्यादि, को हेतुः किनिमितं किंविषयं क्षायोपशमिक | यद्वा किं कारणं बायोपमिकमुच्यते इत्यध्याहारः, अत्र निर्वचनमभिधातुकाम आह-क्षायोपशमिक तदावरणायानाम्-अवधिज्ञाना| वरणीयानां कर्मणां उदीर्णानां उदयावलिकाप्राप्तानां क्षयेण प्रलयेन अनुदीर्णानां चात्मनि व्यवस्थितानामुपशमेन उदयनिरोधेन
अवधिज्ञानमुत्पषत इति सम्बन्धः, यत एवमतः कर्मोदयानुदयविषयं, अथवा येन तदावरणीयानां कर्मणां उदीर्णाना क्षयेणानुदी. कार्णानामुपशमेनापधिज्ञानमुत्पद्यते तेन वायोपशमिकमित्युच्यत इति, सच क्षयोपशमो विशिष्टगुणप्रतिपत्तिमन्तरेण तथा गुणप्रतिप
तितश्च भतीत, तत्रान्तरेण यथाऽऽकाशे घनघनपटलाच्छादितमूर्दिवसकरमण्डलस्य कथंचिदुपजातरन्ध्रेण विनिर्गतास्तिमिरनिचियालयहेतवः किरणाः स्वावपातदेशास्पदं द्रव्यमुद्योतयन्ति तथा प्रकृतिभास्वरस्यात्मनो मिथ्यात्वादिजनितज्ञानावरणीयादिकर्म
मलपटलतिमिरतिरस्कृतस्वभावस्थानादौ संसारे परिभ्रमतो यथाप्रवृत्योपजातावधिज्ञानावरणक्षयोपशमविवरस्यावधिज्ञानालोकः131 &| प्रसाधयति स्वकार्यमिति, गुणप्रतिपत्तितस्तु मूलगुणादिप्रतिपत्तेर्भवति, यत आह
'अथवा' इत्यादि । (१-८१) ॥ अथवेति प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थ, अन्तरेण प्रतिपचिमित्यस्मादिदं प्रकारान्तरमेव, गुणा:
गाथा ॥४७..||
ॐॐॐॐ
SERESHER
दीप अनुक्रम [५९-६१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूल+वृत्ति:) ......... मूलं [९-१०] / गाथा ||४७...||
प्रत
नन्दी
हारिभद्रीय
सूत्रांक [१०]
गाथा ॥४७..||
| मूलगुणादयस्तैः प्रतिपन्नो-गृहीतो गुणप्रतिपन इत्यनेन अतिशयपात्रतामाह, यतः पात्राथयिणो गुणाः, उक्तञ्च-"नोद-10 न्वानार्थतामेति, न चाम्भोभिर्न पूर्यते । आत्मा तु पात्रतां नेयः, पात्रमायान्त सम्पदः॥१॥" अथवा प्राकृतशैल्या पूर्वापरनि
पातकरणात अतिपत्रगुणस्य अनगारस्य न गच्छन्तीत्यगाः-वृक्षास्तैः कृतमगार-गृहं नास्यागार विद्यते इत्यनगारः परित्यक्तद्र॥३१॥ व्यभावगृह इत्यर्थः, तस्य प्रशस्ताध्यवसायस्य तदावरणकर्मक्षयोपशमे सत्यवधिज्ञानं समुत्पद्यते, तं समासतो इत्यादि, तद् अ
वधिज्ञानं समासतः संक्षपेण षड्विध षट्प्रकारं प्रज्ञप्तं प्ररूपितं, तद्यथा-अनुगामिकं अनुगमनशीलं, अनुगामिकं अवधिज्ञानं लोचनवद्गच्छन्तमनुगच्छतांतिभावार्थः, अननुगामिक ना धज्ञानिनं गच्छन्तमनुगच्छति संकलाप्रतिबद्धप्रदीपवत् इति हदयं, वर्धते बर्द्धमानं तदेव वर्द्धमानकं, संज्ञायां कन् , उत्पत्तिकालादारभ्य-प्रवर्द्धमान, महेन्धननिबन्धनोत्पद्यमानानलज्वालाकलापवदिति भावना, हीयमानक हीयते हीयमानं तदेव हीयमानकं, कुत्सायां कन् , उदयसमयसमनन्तरमेव हीयमानं दग्धेन्धनप्रायधूमध्वजाचिर्वातवदित्यर्थः, प्रतिपाति प्रतिपतनशील प्रतिपाति कथंचिदापादिताजात्यमाणिप्रभाजालवदिति गर्भार्थः, अप्रतिपाति ने प्रतिपाति अप्रतिपाति बारमृत्पुटपाकाद्यापाद्यमानजात्यमणिकिरणनिकरवदित्यभिप्रायः, आह-आनुगामुकानानुगामुकभे| दद्वय एव शेषमेदानां वर्द्धमानकादीनामन्तर्भावात् किमर्थमुपन्यास इति, उच्यते, सत्यप्यन्तर्भाव तद्विकल्पद्वयादेव तेषामपरिच्छित्तेः,
तथाहि नानुगामुकमनानुगामुकं चेत्युक्ते वर्द्धमानकादयो गम्यन्त इति, अज्ञातज्ञापनार्थ च शास्त्रप्रवृत्तिरित्यलं प्रसंगेन । DI. 'से कि तमाणुगामिक'मित्यादि । (१०-८२) ॥ अथ किं तदानुगामुकं अवधिज्ञान', २ द्विविध प्रजातं, तयथा-अन्तट्रिगतं च मध्यगतं च, इहान्तः पर्यन्तो भण्यते, नान्तवत् , गतं स्थितमित्यनर्थान्तरं, अन्ते गतमन्तगतं अन्ते स्थितं, तच्च फड्ड
FREERSERECEBWERS
दीप अनुक्रम
ECRETARIKE
[६२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: ... अथ अवधिज्ञानस्य भेदानां वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१०] / गाथा ||४७...||
प्रत
सूत्रांक
अन्त
[९-१०]
गाथा ॥४७..||
नन्दी- 131 कावधित्वादात्मप्रदेशान्ते, सर्वात्मप्रदेशक्षयोपशमभावतो वा औदारिकशरीरान्ते, एकीदगुपलम्भाद्वा तदुद्योतितक्षेत्रांते गतमंत-151
अनुहारिभद्रीय
पादागतं, इह चात्मप्रदेशान्तगतमुच्यते, सकलजीवोपयोगे सत्यपि साक्षादेकदेशेनैव दर्शनात् , औदारिकशरीरान्तगतमपि, औदारिकश- गाम्याचा
शारीरेकदेशेनेव दर्शनाच्च, यथोक्तक्षेत्रान्तगतं त्ववधिमतस्तदन्तवृत्तेरिति भावना, चशब्दः पूर्ववत् , मध्यगतं इह मध्यः प्रसिद्ध ए-1 ॥३२॥४ीय दण्डादिमध्यवत् , मध्ये गतं मध्यगतं मध्ये स्थित, तच्च सर्वत्र फडकविशुद्धेरात्ममध्ये सर्वात्ममध्ये सर्वात्मनो वा क्षयोपशमयो-11वापान
गाविशेषेऽपि औदारिकशरीरमध्योपलब्धः तन्मध्ये सर्वदिगुपलम्भादा तत्प्रकाशितक्षेत्रमध्ये गतं मध्यगत, अत्र चात्ममध्यगतमभिधी-&
यते. सर्वात्मोपयोगे सत्यपि मध्य एव फडकसद्भावात् , साक्षान्मध्यभागेनोपलब्धेः, औदारिकशरीरमध्यगतमप्यादेििरकशरीरमध्य द्रभागेनेवोपलब्धेः, प्रस्तुतक्षेत्रमध्यगत पुनरवधिज्ञानिनस्तत्र मध्ये भावादिति भावार्थः, चशब्दः पूर्ववत् । | 'से कि समित्यादि, प्रायः सुगमम्, नवरं उल्का-दीपिका चुडुली-पर्यन्तज्वलिता तृणपूालिका अलातम्-उल्मुकं मणिः-पद्मरा
गादिः प्रदीपशिखादि ज्योतिः मल्लिकाबाधारोऽग्निः प्रदीपः प्रतीतः पुरतः-अग्रतो हस्तदण्डादौ गृहीत्वा 'पणोल्लमाणे पणो-13 दिलेमाणे'त्ति प्रेरयन् २ गच्छेद् यायात् सेतं तदेतत् पुरतोऽन्तगतम् , अयमत्र भावार्थ:-स हि गच्छन् उल्कादिभ्यः सकाशाव
पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, एवं यतोऽवधिज्ञानाद्विविधक्षयोपशमनिमित्तत्वाद्देशपुरत एव पश्यति, नान्यत्र, तत् पुरतोऽन्तगतममि1 धीयते इत्येतावताऽशेन दृष्टान्तु इत्येवं सर्वत्र योज्यम् । से किं तमित्यादि, निगदसिद्धं, नवरं 'अणुकड्डेमाणे ति अनुकर्षन् २,
एवं 'परियडूमाणे २' परिकर्षन् २, अथ किं तन्मध्यगतमित्यादि निगदसिद्धमेव, नवरं मस्तके शिरसि कृत्वा गच्छेत् तदेतन्म-1 ध्यगतमिति, एतदुक्तं भवति-स तेन मस्तकस्थन सर्वत्र तत्प्रकाशितमर्थ पश्यति, परमेवं यतोऽवधिज्ञानात् तदुद्योतितार्थावगमस्त
ॐॐॐॐES
दीप अनुक्रम [६१-६२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .... मूलं [१०-१२] / गाथा ||४७...||
प्रत
सूत्रांक [१०-१२]
गाथा ||४७..||
नन्दी
तन्मध्यगतमित्येतावताशेन दृष्टान्त इति, इह व्याख्यातार्थ सम्यगनवगच्छबाह चोदक:- अंतगतस्स य इत्यादि सूत्रासिद्धं यावत् हारिभद्रीय
अनानुगा IP'मज्झगतेण'मित्यादि, मध्यगतेनावधिज्ञानेन सर्वतः सर्वासु दिग्विदिक्षु समन्तात् सर्वैरात्मप्रदेशविशुद्धफहकैर्वा संख्येयानि वा|PI वृत्ती
मानकंच 181 असंख्येयानि वा योजनानि जानाति पश्यति, अथवा स मन्ता अवधिज्ञान्येव च गृह्यते, संख्येयानि चेत्यत्र संख्यायन्त इति संख्य-18 ॥ ३३ ॥ दयानि- एकादीनि शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तानि गृह्यन्ते, तत ऊर्ध्वमसंख्येयानि, तदेतदानुगामुकमवधिज्ञान इति ।
। | 'से कित' मित्यादि ॥११-८९॥ प्रकटार्थमेव, नवरं ज्योतिःस्थान-अग्निस्थानं कृत्वा तस्यैव ज्योतिःस्थानस्य पर्यन्तेषु, किमेकदिग्गतेषु १, नेत्याह- परिः सर्वतो भावे, ततश्च परिपर्यन्तेषु २ परिघूर्णन् , परिश्रमन् इत्यर्थः, तदेव ज्योतिःस्थान, ज्योतिःप्रकाशित क्षेत्रमित्यर्थः, पश्यति, अन्यत्र गतो न पश्यति, तदुपलम्भाभावात् , तदावरणक्षयोपशमस्य तत्क्षेत्रसम्बन्धसापेक्षत्वात् , एवमेव अनानुगामुकमवधिज्ञानं यत्रैव क्षेत्र व्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्रैव व्यवस्थितः सन् संख्येयानि वा असंख्येयानि वा योजनानि सम्बद्धानि वा असम्बद्धानि वा जानाति पश्यति, नान्यत्र, क्षेत्रसम्बन्धसापेक्षत्वादवधिज्ञानाबरणक्षयोपशमस्य, तदेतद-15 नानुगामुकम् ।।
'से कित' मित्यादि।(१२-९०)।। अथ किं तद्बर्द्धमानकी, २ बर्द्धमानमेव वर्द्धमानक प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य । वर्तमानचारित्रस्य, इहौधतो द्रव्यलेश्योपरंजितं चित्तमध्यवसायस्थानमुच्यते, अस्य चानवस्थितत्वाचद्व्यसाचिव्ये सति विशेपभावानात्वमिति, तत्र प्रशस्तष्यित्यनेनाप्रशस्तकृष्णलेश्यादिद्रव्योपरंजितव्यवच्छेदमाह, अध्यवसायस्थानेषु वसमानस्य, प्रश-15
CAMERASACREA
HBHARASHRECESSORSS
दीप अनुक्रम [६२-६४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
गाथा
||४८||
दीप अनुक्रम [६४-६५]
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूल [१२] / गाथा ||४८||
नन्दी
स्ताध्यवसायस्येत्यर्थः, सर्वतः समन्तादवधिः परिवर्द्धत इति योगः, अनेनाविरतसम्यग्टष्टेरपि वर्द्धमानक उक्तो वेदितव्यः, हारिमुद्रीय हूँ वर्त्तमानचारित्रस्येत्यनेन तु देशविरतसर्वविरतयोरिति, विद्युध्यमानस्य तदावरणकर्ममलविगमादुत्तरोत्तरं शुद्धिमनुभवतः अवि| रतसम्यग्दृष्टेरेव, अनेनावधेः शुद्धिजन्यत्वमाह, विशुध्यमानचारित्रस्य देशसर्वविरतस्य सर्वतः समन्तादवधिः परिवर्द्धत इति, तत्र परिवर्द्धत इष्युक्तम् अथ सर्वजघन्योऽयं कियत्प्रमाणो भवतीति प्रश्नसम्भवे क्षेत्रतः प्रतिपादयश्राह
॥ ३४ ॥
जावइया॰गाहा।।(*४८-९०) । यावती यावत्प्रमाणा, आहारयतीत्याहारकः त्रिसमयं आहारकः त्रिसमयाहारकः त्रीन् वा समयानिति, तस्य, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मस्तस्य पनवासी जीवश्च पनकजीवः, वनस्पतिविशेषः इत्यर्थः, तस्य, अवगाहन्ते यस्यां प्राणिनः सा अवगाहना, तनुरित्यर्थः, जघन्या- सर्वस्तोका, अवधेः क्षेत्र अवधिक्षेत्र, जघन्यं सर्वस्तोकं, तुशब्द एवकाकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः- अवधिक्षेत्रं जघन्यमेतावदेवेति । अत्र च सम्प्रदायसमधिगम्योऽयमर्थः
योजनसहस्रमानो मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः । उत्पद्येत हि सूक्ष्मः पनकत्वेनेह से ग्रायः ॥ १ ॥ संहृत्य चाद्यसमये स | खायामं करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्यांगुलविभागबाहल्यमानं तु ॥ २ ।। स्वतनपृथुत्वमात्रं दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् । | तमपि द्वितीयसमये संहृत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥ ३ ॥ संख्यातीताख्यांगुलविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतनुप्रथुत्वदेध्यां तृतीयसमय तु संहृत्य ॥ ४ ॥ उत्पद्यते च पनकः स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति ॥ ५ ॥ तावज्जघन्यमवधेरालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थमेव मुनिगणसुसम्प्रदायात् समवसेयम् ।। ६ ।।'
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी -रचिता वृत्तिः
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अबघेर्ज
धन्यं क्षेत्रं
| ॥ ३४ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१२...] / गाथा ||४९|| ........
H
- R
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
हारिभद्रीय का अत्रोच्यत, स एव हि महा
वृत्ती
॥ ३५॥
[१२..] गाथा ||४९||
RRRRRRRRC
अत्र कश्चिदाह- किमिति महान् मत्स्यः ? किं वा तस्य तृतीयसमये निजदेशे समुत्पादः त्रिसमयाहारकत्वं वा कल्प्यते इति, |अत्रोच्यत, स एव हि महामत्स्यस्तिभिः समयैरात्मानं संक्षिपन् प्रयत्नविशेषात् सूक्ष्मावगाहनो भवति, नान्यः, प्रथमांद्वतीयसमययोवातिसूक्ष्मः, चतुर्थादिषु चातिस्थूरः, त्रिसमयाहारक एव च योग्य इत्यतस्तद्ग्रहणं इति, अन्ये तु व्याचक्षते-त्रिसमयाहारक इति आयामविष्कम्भसंहारसमयद्वयं सूचिसंहरणोत्पादसमयश्चते त्रयः समयाः, विग्रहाभावाच्चाहारक एतचित्यतः उत्पादसमय एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मः पनकजीवो जघन्यावगाहनचातस्तत्प्रमाणं जघन्यमवधिक्षेत्रमिति, एतच्चायुक्तं, त्रिसमयाहारकत्वस्य पनकजीवविशेषणत्वात् , मत्स्यायामविष्कम्भसंहरणसमयद्वयस्य च पनकसमयायोगात्, त्रिसमयाहारकत्वाख्यविशेषणानुपपत्तिप्रसंगाद्, | अलं प्रसंगनेति गाथाथैः । एवं तावज्जघन्यमवधिक्षेत्रमुक्तमिदानीमुत्कृष्टविभागमभिधातुकाम आह
सव्वबहुअगणिजीवा० ।। (४९.९०) ॥ सर्वेभ्यो-विवक्षितकालावस्थायिभ्योऽनलजीबेभ्य एव बहवः सर्वबहवो, न भूतभविष्यद्भयो नापि शेषजीवेभ्यः, कुतः , असम्भवात्, अग्नयश्च ते जीवाश्च अग्रिजीवाः सर्वबहनश्च ते अग्रिजीवाश्च सर्वबह्वग्निजी-18 वाः, निरन्तरमिति क्रियाविशेषणं, यावद् यावत्परिमाणं भृतवन्तो व्याप्तवन्तः क्षेत्रम्-आकाशम्, एतदुक्तं भवति-नरन्तर्येण विशिष्टमूचिरचनया यावद् भृतवन्त इति, भूतकालनिर्देशश्चाजितस्वामिकाल एब प्रायः सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्त्यस्यामवसर्षिण्यामित्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थम् , इदमनन्तरोदितविशेषणं क्षेत्रमेकदिकमपि भवति अत आह-सर्वदिकम् , अनेन सूचीपरिभ्रमणप्रमि- | *|||३५ तमेवाह, परमश्वासाववाधिश्च परमावधिः क्षेत्रमनन्तरल्यावणितं प्रभूतानलजीवमितमङ्गीकृत्य निर्दिष्टः क्षेत्रनिर्दिष्टः प्रतिपा|दितो गणधरादिभिरिति, ततश्च पर्यायेण परमावधेरेतावत् क्षेत्रमित्युक्तं भवति, अथवा सर्ववहमिजीवा निरतरं यावद्भृतवन्तःक्षेत्र
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दीप अनुक्रम [६६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [१२...] / गाथा ||४९-५३||
प्रत
सूत्रांक
वृत्ती
[१२..] गाथा ||४९५३||
नन्दी हा सर्वदिकं एतावति क्षेत्रे यानि अवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिः क्षेत्रमंगीकृत्य निर्दिष्टो, भावार्थस्तु | विमध्यमा
वधिपूर्ववदेव, अयमक्षरार्थः, इदानी साम्प्रदायिकः प्रतिपाद्यते-तत्र सर्वबहग्निजीवा बादराः प्रायोजितस्वामितीर्थकरकाले भवन्ति, IX
क्षेत्रकालो है तदारम्भकपुरुषवाहुल्यात, सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदिनस्तत्रैवावरुध्यन्ते, ततश्च सर्वबहवो भवन्ति, तेषां च बुद्ध्या पोढाऽवस्थानं कल्प्यते, ॥३६॥|| एककक्षेत्रप्रदेश एकैकजीवावगाहनया सर्वतश्चतुरस्रो घनः प्रथम, स एव जीवः स्वावगाहनया द्वितीय, एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः,
श्रेण्यापि द्विभेदा, तत्राद्याः पञ्च प्रकारा अनादेशाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् क्वचित् समयविरोधाच्च, षष्ठः प्रकारस्तु सूत्रादेश इति, तत
बासौ श्रेणी अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यन्तेन भ्राम्यते, सा चासङ्खधयानलोके लोकमात्रान क्षेत्रविभागान व्यामोति, एताव | PI 18 दवाधिक्षेत्रमुत्कृष्टमिति, सामर्थ्यमणीकृत्यैवं प्ररूप्यते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति पश्यति, न त्वलोके द्रष्टव्यमस्तीति गा-४ है| थार्थः । एतत्सावज्जधन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षत्रमभिहितम्, इदानीं विमध्यमप्रतिपिपादयिषया एतावतक्षेत्रोपलम्भे चैतावत्कालोपल
म्भः तथा एतावत्कालोपलम्मे चेतावनक्षेत्रोपलम्भ इत्यर्थस्य प्रदर्शनाय चेदं गाथाचतुष्टयं जगाद शाखकार:| अंगुलमावलियाणं०(५०)। हत्थम्मि गाहा (५१)। भरहम्मि गाहा ॥(५२)॥ संखज्जम्मि उ० गाहा ॥ (१५३-९०) ॥ अंगुलं क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गुलं गृह्यते, अवध्यधिकाराच्चोच्छ्याङ्गुलमित्येके, आवलिका असङ्ख्येयसम
N||३६॥ | यसङ्घातोपलक्षितः कालः, उक्तञ्च-'असंखयाणं समयाण समुदयसमितिसमागमेणं एगा आवलिगचि बुच्चई' अगुलं च आवलिका च अडगुलाबलिके तयोरगुलाबलिकयार्भागमसमव्ययं पश्यति अवधिज्ञानी, एतदुक्तं भवति-क्षेत्रमगुलासंख्येयभागमात्र४ पश्यन् कालतः आवलिकायाः असंख्येयमेव भागं पश्यति, अतीतमनागतं चेति, क्षेत्रकालदर्शनं उपचारेणोच्यते, अन्यथा हि क्षेत्र
BASSASSES
दीप
Asa
अनुक्रम [६६-७०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१२...] / गाथा ||४९-५३||
प्रत सूत्रांक
नन्दी- हारिभद्रीय वृत्ती
[१२..]
गाथा ||४९
व्यवस्थितानि दर्शनयोग्यानि द्रव्याणि तत्पर्यायाँश्च विवक्षितकालान्तर्वर्तिनः पश्यति, न तु क्षेत्रकालौ, मूर्चद्रव्यालम्बनत्वात्, एवं 81
श्री क्षेत्रकाल| सर्वत्र भावना दृष्टव्या, क्रिया च गाथाचतुष्टय प्यध्याहार्या, तथा दूयोर-अङ्गुलावलिकयोः सङ्घययौ भागौ पश्यति, अङ्गुलसं-12
वृद्धिः | ख्येयभागमात्र क्षेत्रं पश्यन्नावलिकायाः सङ्घयेयभागमेव पश्यतीत्यर्थः, तथा अंगुलं पश्यन् क्षेत्रत आवलिकान्तः पश्यति, भिन्ना-४ मावलिकामित्यर्थः, तथा कालत आवलिकां पश्यन् क्षेत्रतः अगुलपृथक्त्वं पश्यति, पृथक्त्वं हि द्विप्रभृतिरानवभ्यः, इति प्रथमगाथार्थः ।। द्वितीयगाथाव्याख्या-हस्त इति हस्तविषयः क्षेत्रतोऽवधिः कालतो मुहूर्तान्तः पश्यति, भिन्नमुहूर्तमित्यर्थः, अवध्यवधिमतोरभेदोपचारादवधिः पश्यतीत्युच्यते, तथा कालतो दिवसान्तो भिन्नदिवस पश्यन् क्षेत्रतो गव्यूत इति गन्यूतविषयो बोद्धव्यः, तथा योजनविषयः क्षेत्रतोऽवधिः कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, तथा पक्षान्ता-भिनं पक्षं पश्यन् कालतः पञ्चविंशति योजनानि पश्यतीति द्वितीयगाथार्थः । तृतीयगाथाव्याख्या-भरत इति क्षेत्रतो भरतविषयेऽवधौ कालतः अर्द्धमास उक्तः, एवं जम्बूद्वीपविषये चावधौ साधिको मासः, वर्ष च मनुष्यलोकविषयेऽवधाविति मनुष्यलोकः खल्वद्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणः, वर्षपृथक्त्वं च रुचकाख्यबाह्यद्वीपविषयेऽवधाववगन्तव्यमिति तृतीयगाथार्थः ॥ चतुर्थगाथाव्याख्या-सलयायत इति सङ्ख्येयः, स च संवत्सरलक्षणोऽपि भवति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि, सङ्ख्येयो बर्षसहस्रात् परतोपि गृह्यते इति, तस्मिन् | संख्येये कलनं कालः तस्मिन् काले अवधेर्गोचर सति क्षेत्रतस्तस्यैवावधेर्गोचरतया द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति IN ॥३७॥ संख्येयाः, अपिशब्दात महानेकोअपि तदेकदेशोऽपीति तथा कालेऽसंख्येये पल्योपमादिलक्षणेऽवधेर्विषये सति तस्यैवासंख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतः परिच्छेद्यतया द्वीपसमुद्रास्तु भाज्या:-कदाचिदसंख्येया एव, यदा इह कस्यचिन्मनुष्यस्यासंख्येयद्वीप
SHESHAN
५३||
CAM
दीप
अनुक्रम [६६-७०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं [१२...] / गाथा ||५३-५४||
नन्दीहारिभद्रीय
॥ ३८॥
प्रत सूत्रांक [१२..] | गाथा ||५३५४||
समुद्रविषयोऽवधिरुत्पद्यत इति, कदाचिन्महान्तः संख्येयाः, कदाचिदेकदेशः स्वयम्भूरमणतिरश्चोऽवधिविज्ञेयः, स्वयम्भूरमणविषय- व्यादि
वद्धिनियमः मनुष्यबाद्यावधेर्वा, योजनापेक्षया च सर्वपक्षेष्वसंख्येयमेव क्षेत्रमिति गाथार्थः ॥ एवं तावत् परिस्थूरन्यायमंगीकृत्य क्षेत्रवृद्ध्या 4 कालवृद्धिरनियता कालवृद्धया च क्षेत्रवृद्धि प्रतिपादिता, साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया यस्य पद्धी यस्य वृद्धिर्भवति यस्य वा न भवत्यमुमर्थमभिधित्सुराह. काले गाहा ।।(१५४-९०)।। कालेऽवधिज्ञानगोचरे वर्द्धमाने चतुणों द्रव्यादीनां वृद्धिर्भवति, कालस्तु भाज्यो विकल्पयितव्यः, क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रादिः तस्यां क्षेत्रद्धा सत्या कदाचिर्द्धते कदाचिन्नेति, कुतः, क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् , कालस्य च स्थूलत्वाद्, द्रव्यपयोयो तु बर्द्धते, सप्तम्यन्तता चास्य-'ए होइ अयरित पयम्मि बीयाए बहुसु पुंल्लिंगे। तझ्याइस छट्ठीसत्तमीण एकम्मि महि-18 लत्थे।।१॥ अस्माल्लक्षणात् सिद्धेति, एवमन्यत्रापि प्राकृतशैल्या इष्टविमत्यन्तता पदानामवगन्तव्येति, तथा वृद्धौ च-द्रव्यं च पर्यायच. द्रव्यपर्यायौ तयोर्षद्धी सत्या भाज्यौ- विकल्पनीयो क्षेत्रकालावेव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , कदाचिदनयोद्धिर्भवति कदाचिति, द्रव्यपर्याययोः सकाशात् परिस्थरत्वात क्षेत्रकालयोरिति भावार्थः, द्रव्यवृद्धी तु पर्याया वर्धन्त एव, पर्यायवृद्धी च द्रव्यं भाज्य, द्रव्यात् पर्यायाणां सूक्ष्मत्वाद् एकस्मिन् भावे (अ)क्रमवर्तिनामपि च बृद्धिसम्भवात् कालवृध्ध्यभावो भावनीय इति गाथार्थः ।। अत्र कश्चिदाह- जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोरवधिज्ञानसम्बन्धिनोः क्षेत्रकालयोरंगुलावलिकाऽसंख्येयभागोपलक्षितयोः परस्सरतः प्रदेशसमयसंख्यया परिस्थूरसूक्ष्मत्वे सति कियता मागेन हीनाधिकत्वमिति, अत्रोच्यते, सर्वत्र प्रतियोगिनः खल्वावलिकाऽसंख्ये-14 | यभागादेः कालादसंख्येयगुणं क्षेत्र, कुत एतदत आह---
5852686ARRINKS
दीप
अनुक्रम [७०-७१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
~43~
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१३-१५]
गाथा
।।५५..।।
दीप
अनुक्रम [७२-७६]
नन्दीहारिभूद्रीय वृत्तौ ।। ३९ ।। तु
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूल [१३-१५] / गाथा ||१५||
सुमो य० गाहा ।। (५५-९०) ।। सूक्ष्मश्च श्लक्ष्णश्च भवति कालः यस्मादुत्पलपत्रशतभेदे समयाः प्रतिपत्रमसंख्येयाः प्रतिपादिताः, तथापि ततः कालात् सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्र, कृतः १, यस्मादंगुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे, प्रदेशपरिमाणं प्रतिप्रदेशं समयगणनया अवसर्पिण्यः असंख्येयास्तीर्थकृद्भिः प्रतिपादिताः, एतदुक्तं भवति-अंगुलश्रेणिमात्रक्षेत्र प्रदेशानं असंख्येयावसर्पिणीसमयराशिपरिमाणमिति गाथार्थः । सेतं इत्यादि, तदेतद्वर्द्धमानकं अवधिज्ञानमिति ।
'से किं तमित्यादि ॥ (१३-९६ ।। अथ किं तद्धीयमानकी, २ कथंचिदवाएं सत् अप्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य सतः अविरतसम्यग्दष्टेर्वर्त्तमानचारित्रस्य देशविरतादेः संश्यिमानस्य बध्यमानकर्मसंसर्गादुत्तरोत्तरं संक्लेशमासादयतः अविरतसम्यग्दृष्टेरेव, संक्लिश्यमानचारित्रस्य देशविरतादेः सर्वतः समन्तादवधिः परिक्षीयते, तदेतद्धीयमानकमवधिज्ञानमिति ।।
'से किं त' मित्यादि ॥ (१४-९६) ।। अथ किं तत् प्रतिपात्यवधिज्ञानं१, २ 'जन्न' मिति, यदवधिज्ञानं जघन्येन सर्वस्तोकतयाऽगुलस्यासंख्येयभागमात्रं वा, उत्कर्षेण सर्वप्रचुरतया यावल्लोकं दृष्ट्वा लोकमुपलभ्य तथाविधक्षयोपशमजन्यत्वात् प्रतिपतेत् न भवेदित्यर्थः, तदेतत् प्रतिपात्यवधिज्ञानं इति, क्रियाशेषं प्रायो निगदसिद्धं, नवरं पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरानवस्य हाते सिद्धान्तपरिभाषा, तथा हस्तद्वयं कुक्षिरुच्यते, चत्वारो हस्ता धनुरिति, 'से त' मित्यादि, तदेतत्प्रतिपात्यत्राधज्ञानम् ॥
'से किं तमित्यादि ।। (१५-९७)।। अथ किं तदप्रतिपात्यवधिज्ञानं ?, 'जेणं' ति येनावधिज्ञानेनालोकस्य सम्बन्धिनं एकमप्याकाशप्रदेशं, अपिशब्दामहून् वा, पश्येत् शक्त्यपेक्षयोपलभेत, एतावत्क्षयोपशमप्रभवं यत् 'तत ऊर्ध्व' मिति तत आरभ्याप्रति
९ वर्धमानादि भेदाः
~44~
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१५-१७] / गाथा ||५५...||
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
द्रव्यादयः
[१५-१७]
गाथा ||५||
कक
18 पाति आकेवलप्राप्तेरवधिज्ञानमिति, अयमत्र भावार्थ:-एतावत्क्षयोपशमसम्प्राप्तात्मा विनिहतप्रधानप्रतिपक्षयोद्धसंघात इव नरपतिन 81
अवधिहारिभद्रीय मा पुनः कर्मशत्रुणा परिभ्यते, किं तर्हि ?, समासादिततावदालोक एवाप्रतिनिवृत्तः शेषमपि कर्मशत्रु विनिर्जित्याप्नोति केवलराज्य-IX
विषयाः | श्रियमिति, लोकालोकविभागस्त्वयं-जीवादीनां वृत्तिद्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं हलोकाख्यम् | ॥४॥ 1॥१॥ 'सेत' मित्यादि, तदेतदप्रतिपात्यवधिज्ञानमिति ॥ व्याख्याताः षड्भेदाः, साम्प्रतं द्रव्यादिविषयापेक्षया भेदतोऽ
वधिज्ञानमेव निरूपयन्नाहI 'तं समासओ' इत्यादि ।। (१६-९७) । तदवधिज्ञानं समासतः संक्षेपण चतुर्विध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो | भावत इति, तत्र द्रव्यतः णमिति वाक्यालंकारे अवधिज्ञानी जघन्येनानन्तानि द्रव्याणि तैजसभाषाद्रव्याणामपान्तरालवर्तीनि, यत | उक्तम्- 'तेयाभासादच्वाण अंतरा एत्थ लभइ पट्टवओ-ति, उत्कृष्टतः सर्वरूपिद्रव्याणि चादरसूक्ष्मभेदभिन्नानि जानाति विशेषाका| रेण, पश्यति सामान्याकारण, आह-आदी दशेनं ततो ज्ञानमिति क्रमः तत् किमर्थमेन परित्यज्य प्रथमं जानातीत्युक्तम् , अत्रो-12 च्यते, इहावधिज्ञानाधिकारात् प्राधान्यख्यापनार्थमादौ जानातीत्युक्तं, अवधिदर्शनस्य त्ववधिविभंगसाधारणत्वात् पश्चात् पश्यतीति, अथवा सर्वा एव लब्धयस्सांकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्त इति, अवधेश्च लन्धित्वादित्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थमादौ जानातीत्याह, ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः पश्यतीति, क्षेत्रतः अवधिज्ञानी जघन्येनांगुलस्यासंख्येयभाग, उत्कृष्टतोऽसंख्येयानि अलोके केवलाकाशास्तिकाये शक्तिमपेक्ष्य लोकप्रमाणानि खण्डानि जानाति पश्यति, कालतोऽवधिज्ञानी जघन्येनाबलिकासंख्येयभागं उत्कतोऽसंख्येया अवसर्पिण्युत्सर्पिणीरतीतं चानागतं च कालं जानाति पश्यतीति, भावार्थः प्राक् प्रतिपादित एव, भावतोऽवधिज्ञानी
SSSSSSS
दीप अनुक्रम [७६-७८]
॥४०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: ... अवधिज्ञानस्य द्रव्य आदि चत्वारः भेदानां वर्णनं क्रियते
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१७] | गाथा ||५६-५७||
प्रत
नन्दी
अवधेविषयः अवाद्याश्च
सूत्रांक
[१७]
॥ ४१ "
गाथा ||५६५७||
जघन्येन अनन्तानन्तान् भावान-पर्यायान, आधारद्रव्यानन्तत्वात्, न तु प्रतिद्रव्यमिति, उत्कृष्टतोऽनन्तान् भावान जानाति पश्यति, तेऽपि चोत्कृष्टपदिनः सर्वभावानां सर्वपर्यायाणामनन्तभाग इति ॥ इत्थमवधिज्ञानं भेदतोऽप्यभिधाय साम्प्रतं संग्रहगाथामाह| ओही भव० इत्यादि (* ५६-९८ ) अबधिर्भवप्रत्ययो गुणप्रत्ययश्च वर्णितो व्याख्यातः एषः अनन्तरं, पाठान्तरं वा वर्णितो द्विविधः, तस्य द्विविधस्यापि बहवो विकल्या द्रव्यत इति द्रव्यविषयाः परमाणुकादिद्रव्यमेदात् क्षेत्रत इति क्षेत्रविषया अंगुलासङ्घधेयभागादिविशिष्टक्षेत्रभेदात, कालत इति कालविषयाः आवलिकासङ्ख्येयभागाद्युपलक्षितकालभेदात् , चशब्दादा-* वविषयाच, वर्णाद्यनेकप्रकारत्वाद्भावानामिति गाथार्थः ।। एवं तावदवधिज्ञानमभिधाय साम्प्रतं ये बाह्यावधयो ये चाभ्यन्तरावधयो भवन्ति तानुपदर्शयबाह
णेरइय० गाहा (* ५७-९८) नारकाश्च देवाश्च तीर्थकराश्चेति समासः, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः |प्रयोग इति दर्शयिष्यामः, एते नारकादयः अवधेः अवधिज्ञानस्य न बाह्या अबाह्या भवन्ति, इदमत्र हृदयम्--अवध्युपलब्धक्षेत्र| स्यान्तर्वर्तन्ते, सर्वतोऽवभासकत्वात् प्रदीपवत् अवाद्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः, तथा पश्यति सर्वतः है सबोसु दिक्षु विदिक्षु च, खलुशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारणे, सर्वास्वेव दिक्ष्विति, आह-अवधेरवाया भवन्तीत्यस्मादेव सर्वत
इत्यस्य सिद्धत्वात् सर्वतो ग्रहणमतिरिच्यत इति, अत्रोच्यते, नन्चभ्यन्तरत्वे सत्यपि न सर्वे सर्वतः पश्यन्ति, दिगन्तरालादर्शनाद्, अवधेविचित्रत्वात्, अतो नातिरिच्यते इति, शेषास्तियनराः देशेनेत्येकदेशेन पश्यन्ति, अत्रेष्टतोक्धारणविधेः शेषा एव देशतः
दीप
॥४१॥
अनुक्रम [७८-८१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
गाथा
॥५६
५७॥
दीप अनुक्रम [७८-८१]
नदीहारि मद्रीय वृत्ती
“नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [१७] / गाथा ||५६-५७||
॥ ४२ ॥
पश्यन्ति न तु देशत एवेति गाथार्थः ॥ जथवाऽन्यथा व्याख्यायते एवं तावदवधिज्ञानमभ्यधायि, साम्प्रतं ये नियतावधयो ये चानियतावधयो भवन्ति तान् प्रतिपादय आह— "नेरइय" गाहा, नारका देवास्तीर्थकरा एव अवधेरवाद्या भवन्ति, किमुक्तं भवति ? नियतावधयो भवन्ति, नियमेनैवामवधिर्भवतीत्यर्थः तेन चावधिना पश्यन्ति सर्वत एव न पुनर्देशतोऽपि, अत्राह४२ पश्यन्ति सर्वत एवेत्येतावदेवास्तु, अवधेरवाला भवन्तीत्येतश्वनर्थकं, नियतावधित्वस्यार्थसिद्धत्वात्, तथा चोक्तम्- 'द्वयोर्भवप्रत्ययः, तद्यथा देवानां च नारकाणां च त्यतोऽर्थगम्यमेवषां नियतावधित्वं, तीर्थकृतामपि प्रसिद्ध तरपार भविकावधिसमन्वागमादेव नियतावधित्वसिद्धिरिति अत्रोच्यते, नियतावधित्वे सिद्धेऽपि न सर्वकालावस्थायित्व सिद्धिरित्यतस्तत्प्रदर्शनार्थं अवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीति ज्ञापनार्थत्वाद्दृष्टं ययेवं तीर्थकृतां सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यत इति, न, छद्मस्थकालस्यैव विवक्षितत्वात् अलं विस्तरेण, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः । 'सेतं ओहिणाणति, तदेतदवधिज्ञानम् ॥
'से किं तं मणपज्जवणाण' मित्यादि ।। १७-९९ ।। अथ किं तन्मनःपर्यायज्ञानंः, इदं प्राणिरूपितशब्दार्थमेव, साम्प्रतमुत्पत्तिस्वामिमागुणाद्वारेण चिन्त्यते, तथा चाह- 'मणपज्जवणाणं भेते' इत्यादि, मनःपर्यायज्ञानं णमिति वाक्यालङ्कारे, मदन्तः इति गुर्वामन्त्रणं, किमिति परिप्रश्ने, मनुष्याणामुत्पद्यत इति प्रकटार्थम्, जमनुष्याणामुत्पद्यत इत्यमनुष्यादेवादयः, अत्रेद निर्वचनं - गौतम! माणुस्साणमित्यादि । आह-किमिदं अकाण्ड एव गौतमामन्त्रणं, नतु देववाचकरचितोऽयं ग्रन्थ इति, उच्यते, सत्यं, किन्त्येते पूर्वसूत्रालापका एवार्थवशाद्विरचिताः, 'जावइया तिसमयाहारगस्से' त्यादिनिर्युक्तिगाथासूत्रवादित्यतो न दोषः, तत्र च गौतमप्रश्नभगवनिर्वचनरूप एवं ग्रन्थ इति, पुनरप्याह-ननु गौतमोऽपि सूत्रतः प्रवचन
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः .... अथ प्रत्यक्षज्ञान भेदे मनः पर्यवज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
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मनःपर्यायाधिकारः
॥ ४२ ॥
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आगम (४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१७] | गाथा ||५६-५७||
प्रत सूत्रांक [१७]] गाथा ||५६५७||
II प्रणेतृत्वाच्चतर्दशपूर्वधरत्वात सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानयुक्तत्वात् सर्वज्ञकल्प एव, उक्तञ्च-सखातीतेऽपि भवे साहइ जं वाला
मनःपर्या| परो उ पुच्छेज्जा । ण यण अणाइसेसी बियाणई एस छउमस्थो ॥१॥ ततः किमर्थ पृच्छति', अत्रोच्यते, कुतचिदभिप्राया- याधिकार: द, जानत एव स्वशिध्येभ्यो वा अरूप्य तत्सम्प्रत्ययनिमित्तं, सूत्ररचनाकल्पतो वेति न दोषः, कृर्त प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः,गौ-18 तमेन पृष्टो भगवानाह-गौतम! मनुष्याणामुत्पद्यते, नान्येषा, विशिष्टचारित्रप्रतिपल्यभावाद्, एवमन्यत्रापि भावना कार्येति, सम्मूछिममनुष्या गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यवान्तादिसमुद्भवाः, उक्तम्च- "कहि गं भेत! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखचे पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अट्ठाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पसरससु कम्मभूमीसुं छप्पनाते अंतरदीवएसु गम्भवतियमणुस्साणं व उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा तेसु वा पित्तेसु वा मुक्केसु वा सोणिएमु वा सुक्क-IN
पोग्गलेसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगयकलबरेसु वा णगरणिद्धमणेसु वा सम्बेसु चेच असुईगम असुइट्ठाणेसु बा, एत्थ णं &ासंमुच्छिममणुस्सा संमुच्छन्ति अंगुलस्स असंखेज्जहभागमेचीए ओगाहणाए असनी मिच्छद्दिढी अनाणी सवाहिं पज्जचीहिं अप-18
ज्जतमा अन्तोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करंति"।। भरताद्याः पंचदश कर्मभूमयः, हेमक्ताचास्त्रिंशदकर्मभूमयः, त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिजलमध्यमधिलक्ष्य हिमवतशिखरिपादप्रतिष्ठा एकोरुकायाः षट्पंचाशदन्तीपा भवन्ति, कर्मभूमौ जाताः कर्मभूमिजा इत्येवमक्षरगमनिका कार्या, संख्येषवर्षायुषः पूर्वकोट्यादिजीविनः असंख्येयवर्षायुषः पल्योपमादिजीविन इति, इह पयाप्ति म शक्तिः, सा च पुद्गलद्रव्योपचयादुत्पद्यते, सा पुनः षट्प्रकारा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्सिः मनःपर्याप्तिश्चति, तत्र पर्याप्तिः क्रियापरिसमाप्तिः, आत्मनः शरीरेन्द्रियमाणापानवाश्मनोयो
दीप अनुक्रम [७८-८१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१७] / गाथा ||५६-५७||
प्रत
सूत्रांक
[१७]] गाथा ||५६
नन्दी
18| ग्यदलिकद्रव्याहरणक्रियापरिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः, गृहीतस्य शरीरतया संस्थापनक्रियापरिसमाप्तिः शरीरपर्याप्तिः, संस्थानरचना-18/ मनःपयोंगत घटनमित्यर्थः, त्वगादीन्द्रियनिर्वनक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, प्राणापानक्रियायोग्यद्रव्यग्रहणशक्तिनिर्वचनक्रियापरिसमाप्तिःलायाधिकार
प्राणापानपर्याप्तिः, भाषायोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिवर्त्तनक्रियापरिसमाप्तिः भाषापर्याप्तिः, मनस्त्वयोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनि॥४४॥
बर्तनक्रियापरिसमप्तिमनःपर्याप्तिरित्येके, आसां युगपदारब्धानामपि क्रमेण परिसमाप्तिः, उत्तरोत्तरसूक्ष्मतरत्वाद्, अत्र चाद्याच-151 | तस एकेन्द्रियाणां, पंच विकलेन्द्रियाणां, पट संज्ञिनां, उक्तंच-"आहारसरीरिंदियपज्जत्ती आणुपाणभासमणे । चत्तारि पंच छप्पिय
एगिदियविगलसन्नीणं ॥१॥” तत्र पर्याप्तकनामलर्मोदयात् निष्पद्यमाननिष्पन्नपर्याप्तिमन्तः पर्याप्ताः, अर्शआदित्वात मत्वर्थीयः, द्रत एवं पर्याप्तकाः, एवमपर्याप्तकनामकर्मोदयादनिष्पन्नपर्याप्तियोगादपर्याप्तास्त एवापर्याप्तका इति, सम्यग्-अविपरीता दृष्टि
येषां ते तथा, मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषां ते तथा, सम्पमिथ्यारष्टयस्तु प्रतिपत्त्यभिमुखा अन्तर्मुहूर्तमानं भवन्ति, न तु परित्याजाभिमुखाः, यत उक्तम्- "मिच्छत्ता संकती अविरुद्धा होइ सम्ममीसेमु । मीसाओ वा दोसुवि सम्मा मिच्छं न पुण मीसं द॥१॥" संयताः सकलचारित्रिणः असंयता अविरतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताः देशविरतिमन्तः श्रावकाः प्रमत्तसंयता
गच्छवासिनः क्वचिदनुपयोगसम्भवात् अप्रमत्तसंयतास्तु जिनकल्पिकादयः सततोपयोगात् , अथवा गच्छवासिनः तन्निर्गताच परिणामविशेषतः प्रमत्ताश्याप्रमत्तावावगन्तव्या इति, आमषिध्यादिलब्धिलक्षणा ऋद्धयस्तासामन्यतरप्राप्तियोगात् प्राप्त यः,
४ ॥४४॥ | अवधिमाद्धिभावाद्वा, अन्य त्ववधिऋद्धी नियममभिदधति, इह च सर्वत्रैव मनुष्यादिषु विधाने सत्यर्थतो गम्यमानस्यापि विपक्षनिषेधस्याभिधानमव्युत्पनाविनेयजनानुग्रहार्थमदुष्टमेवेति, तथाहि-सर्वपार्षदं हीदं शाख, त्रिविधाश्च विनेया भवन्ति, तद्यथा--
५७||
दीप
अनुक्रम [७८-८१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१८] / गाथा ||५७...||
प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥५७..||
Fake
नन्दी-|| उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयः प्रपञ्चधियश्चेत्यलं विस्तरेण, स्थितमेतत्-प्राप्तर्षिअप्रमत्तसंयतानामुत्पद्यते, एतच्चोत्पद्यमानं द्विधोत्पद्यते, मनापयाहारिभद्रीया तद्यथा-ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च, मननं मतिः, संवेदनमित्यर्थः, ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, घटोऽनेन चिन्तितः
याधिकारः वृत्ता इत्यध्यवसायनिवन्धनमनोद्रव्यप्रतिपत्तिरित्यर्थः, एवं विपुला-विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः४ ॥४५॥
पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्यायध्यवसायहेतुभूतमनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति भावार्थः, अस्या व्युत्पत्ती स्वतन्वं ज्ञानमेव गृह्यत इति, [ अथवा ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिरस्य सोऽयं ऋजुमतिस्तद्वानेव गृह्यते, एवं विपुला-विशेषग्राहिणी मतिरस्येति विपुलमतिस्तद्वानेव, | भावार्थः प्राग्वद् , उत्तरत्र वा वक्ष्यामः। ___"तं समासतो" इत्यादि (१८-१०७) तत् समासतश्चतुर्विध प्रजातं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः, तत्र द्रव्यतः पमिति पूर्ववत् ऋजुमतिः अनन्तान्-अपरिमितान् अनन्तपरमाण्वात्मकानित्यर्थः, स्कन्धान विशिष्टैकपरिणामपरिणतान् सनिभिः पञ्चेन्द्रियैः पर्याप्तकैरर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिभिर्मनस्त्वेन परिणामितानित्यर्थः, जानीत इति मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमस्य पटुत्वात साक्षात्कारेण विशेषभूयिष्ठपरिच्छेदाज्जानीत इत्युच्यते, सदालोचितं पुनरर्थ घटादिलक्षणमध्यक्षतो न जानाति, किन्तु | तत्परिणामान्यथाऽनुपपत्त्याऽनुमानतः पश्यतीत्युच्यते, उक्तं च भाष्यकारेण-"जाणति बज्झेऽणुमाणाओ" ति, इत्थं चैतदङ्गी-1 कर्तव्यं, यूतो मूर्त्तद्रव्यालम्बनमेवेदं, मंतारस्त्वमूर्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्येरन् , नच तदनेन साक्षात्कर्तुं शक्यते, तथा चतुर्विधं | च चक्षुदर्शनादि दर्शनमुक्तम्, अतो भिन्नालम्बनमेवेदमबसेयं, तत्र च दर्शनसम्भवात् पश्यतीत्यपि न दुष्ट, एकप्रमात्रपेक्षया तदनन्तरभावित्वाच्चोपन्यस्तमिति, ओघतो वैकविधक्षयोपशमलब्धौ विविधोपयोगसम्भवाद्विशेषसामान्यार्थापेक्षया जानाति पश्यति
दीप अनुक्रम [८२
॥ ४५
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[PC]
गाथा
॥५७..।।
दीप
अनुक्रम
[८२]
नन्दीहारिभद्रीय वृक्षा
॥ ४६ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [१८] / गाथा ||१७||
1
| चेत्यदुष्टमित्यलं विस्तरेण तानेव विपुलमतिः अभ्यधिकतरान् स्कन्धान् द्रव्यार्थतया वर्णादिभिश्च जानाति पश्यति च क्षेत्रतः ऋजुमतिः अधो यावदस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरिमाघस्त्यानि क्षुल्लकप्रतराणीति । क्षुल्लकप्रतरपरिज्ञानार्थमिमं पण्णविज्जति| तिरियलोकस्स उड्डहमडारसजोयणसतियस्स बहुमज्झे एत्थ असंखेज्जंगुलभागमेत्ता लोगागासपतरा अलोगेण संवेदिया सब्बखड्डगतरा खुट्टागपतरत्ति भनंति, ते य सव्वतो रज्जुप्पमाणा, तेसिं बहुमज्झे दो खुट्टागपतरा, तेसिं बहुमज्झे जंबुद्दीचे रयणप्पभपुढवीबहुसमभूमिभागेऽत्थ मंदरस्स बहुमज्जे, एत्थऽट्ठपएसो रुयगो, जत्तो दिसिविदिसाविभागो पवतो, एवं तिरियलोयमज्यं, एयातो तिरियलोयमज्झातो रज्जुप्पमाणखुडागपतरेहिंतो उचरिं तिरियं असंखेयंगुलभागबुडी उबरित्तोवि अंगुल असंख्य भागारोहो चैव एवं तिरियमुवरिं च अंगुला संखयभागबुडीए ताव लोगबुड्डी णेयच्या जाब उडलोयमज्यं, ततो पुणो तेणैव कमेणं संबो कायब्बो जाव उबरिमलोगंतो रज्जुप्पमाणो, तत्तो उनलोगमज्झातो उबार हेट्ठा य कमेण खुट्टागपतरा भाणियव्वा, जाव रज्जुप्प| माणा खुड्डागपयति, तिरियलो यमज्जारज्जूप्पमाणखडगपतरेहिंतोष हेड्डा अंगुलस्स असंख्येयभागबुडी तिरियं अहोअवगाहे वि अंगुलस्स असंख्येयभागो चैव एवमहोलोगो वट्टेयब्बो जाव अहोलोगंतो सत्तरज्जूओ, सतरज्जुपतरेर्हितोऽवि उपरिकमेण खड्डागपयरा भाणियव्वा, जाव तिरियलोयमज्झा रज्जुप्पमाणा खुट्टागपयरत्ति, एवं सुरडागपरूवणे कते इमं भन्नइ 'उवरिम'ति तिरियलोयमज्झाओ अहो जाव णत्र जोयणसयाणि ताव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीते उवरिमखुट्टामपतरत्ति भन्नति, तदधो अधोलोगे जाव अहोलोगिया गामत्ति, एए हेडिमखुड्डागपयरत्ति भन्नति, रिजुमती अहो ताव पस्सतित्ति भणियं होइ, अहवा अहो| लोगस्स उवरिमा खुट्टागपयरा तिरियलोगस्स य हेडिमा खुडागपयरन्ति ते जाव पश्यतीत्यर्थः, अने भणति उबरिमत्ति अघो
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः
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मनःपर्यायाधिकारः
॥ ४६ ॥
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१८] / गाथा ||५७...||
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SHA
प्रत
सूत्रांक
[१८] गाथा ॥५७..||
नन्दी- ई लोगोवरि जे ते उबरिमा, केय ते १, उच्यते, सब्बतिरियलोगवत्तिणो, तिरियलोगस्स वा अहो नव जोयणसतबत्तिणो, ताण चेव जे । हारिभद्रीय
मनःपर्याहट्ठिमा ते जाव पश्यतीत्यर्थः, इमं च ण घडति, अहोलाइयगाममणपज्जवणाणसंभवबाहछत्तणओ, उक्तन-"इहाघोलोंकिकान्याधिकार: वृचों
ग्रामान , तिर्यग्लोकविवर्तिनः । मनोगतांस्त्वसौ भावान , वेचि तर्तिनामपि ॥शा" अलं प्रसंगेन, एवमूवं यावज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितलं, तिर्यग्यावदन्तो मनुष्यक्षेत्रे, मनुष्यलोकान्त इत्यर्थः, शेष सुगम यावत् “सण्णीणं पञ्चेन्द्रियाणा'मित्यादि, तत्र संज्ञिनोऽपान्तरालगतावपि तदायुष्कसंवेदनादभिधीयन्तु एव, न तैरिहाधिकार इत्यतः पञ्चेन्द्रियग्रहणं, तेऽपि चोपपातक्षेत्रप्राप्ता अपि मन:पर्याप्त्या अपर्याप्तका अपि भण्यन्ते, न च तैरपीहाधिकार इत्यतः पर्याप्तकग्रहणं इति, स्वरूपकथनं पा संज्ञिना पश्चेन्द्रियाणां | पर्याप्तकानामिति, अथवा संझिनो हेतुवादोपदेशेन विकलेन्द्रिया अपि भण्यन्ते, तद्व्यवच्छेदार्थ पञ्चेन्द्रियग्रहणं, तेऽप्यपर्याप्तका अपि भवन्ति अतः पर्याप्तग्रहणमिति, इह क्षेत्राधिकारस्यैव प्राधान्यात्तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधारक्षेत्रमभिगृद्यते, विपुलमति: अर्द्ध तृतीयस्य येषु तान्यर्द्धत्तीयानि तैरभ्यधिकतर, प्रभूततरमित्यर्थः, तदेव प्राकृतशैल्या अभ्यधिकतरकं, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यं, तत्रैकदिशमप्यधिकतरं भवत्यतः सर्वतोऽधिकतरमिति प्रतिपादनार्थमाह-विपुलतरं-विस्तीर्णतरम्, अथवा आयामविष्कम्भावाश्रित्यामभ्यधिकतर, बाहल्यमाश्रित्य विपुलतरं तथा विसुद्धतरं निर्मलतरमित्यर्थः, यथा चन्द्रकान्तादिप्रकाशकद्रव्यविमलरतरबिशेषाद्विमलप्रकाशितद्रष्टुः सकाशाद्विभलतरप्रकाशितद्रष्टा विशुद्धतरं पश्यति, एवं विष्कम्भितोदयमनःपर्यायज्ञानावरणस्य कारण- ॥४७॥ भेदतो मन्दरतरविशेषभावात् ऋजुमतेः सकाशात् विपुलमतिर्विशुद्धतरमिति, उपशान्तावरणविशेषादपि ज्ञानस्य विशेष इत्येतावताशेन रष्टान्तः, तथा तदावरणक्षयोपशमविशेषाच वितिमिरतरं-निर्मलतरं, अथवा प्राग्वद्धतदावरणकर्मक्षयोपशमस्य प्रधान
दीप अनुक्रम [८२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१९] / गाथा ||५८||
........
प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||८||
नन्दी-13 त्वाद्विशुद्धतरं, बध्यमानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषाच्च वितिमिरतरं, बध्यमानाभावाच वितिमिरतरमित्यन्ये, अथवैकार्थिका एचैते | मनःपयोयर रमापार शब्दाः नानादेशजानां विनेयानां कस्यचित् कश्चित् प्रसिद्धो भवतीत्युपन्यस्ताः, क्षेत्र तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश इति जानाति पश्यति. वृत्तों शेष निगदसिद्धं यावत्॥४८॥
मणपज्जव० गाहा (8५८-१०८) मनःपर्यायज्ञानं प्रामग्निरूपितशब्दार्थ, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, इदं हि रूपिनि-12 बन्धनक्षायोपशमिकप्रत्यक्षादिसाम्येऽपि सत्यवधिज्ञानात् स्वाम्यादिभेदेन विशिष्टमिति स्वरूपतः प्रतिपादयन्नाह-जायन्त इति जनाः तेषां मनांसि २ जनमनोभिः परिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितवासावर्थश्चेति समासः, तं, प्रकटयतिप्रकाशयति जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनं, मानुषक्षेत्रम्-अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं तन्निबन्धनं, तदबहिर्व्यवस्थितप्राणिमन:
परिचिन्तितार्थविषयं प्रवर्तत इत्यर्थः, गुणा:-क्षान्त्यादयः त एव प्रत्ययाः-कारणानि यस्य तद् गुणप्रत्ययं, चारित्रमस्यास्तीति। है। चारित्रवान् तस्य चारित्रवत एवेदं भवति, एतदुक्तं भवति-अप्रमत्तसंयतस्य आमषिध्यादिऋद्धिप्राप्तस्य चेति गाथार्थः ।। से ता| मणपज्जवणाणं,' तदेतन्मनःपर्यायज्ञानमिति ।।
'से किंतं केवलज्ञान'मित्यादि (१९-१११)॥ अथ किं तत् केवलज्ञान?, केवलनानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-भवस्थकेवलज्ञान | 31॥४८॥ &ाच सिद्धकेवलज्ञानं च, भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, भवो गतिजन्मेति पर्यायाः, भवे तिष्ठतीति भवस्था तस्य IPI केवलज्ञानर, 'पिधौ संराद्धौं 'राध साध संसिद्धी' 'पिशाख मांगल्ये च' सिध्यति स्म सिद्ध-यो येन गुणेन निष्पनः- परिनि
दीप अनुक्रम [८३-८५]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः | ... अथ प्रत्यक्षज्ञान-भेदे केवलज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
~53.
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं [१९] / गाथा ||५८||
नन्दी- वृत्ती
केवलज्ञानं
प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||८||
॥४९॥
9AAACARANE
ष्ठितो, न पुनः साधनीयः, सिद्धोदनवत् स सिद्धा, सच कर्मसिद्धादिमदादनेकविधः, उक्तं च-'कम्मे सिप्पे य विज्जा य, मते जोगे य आगमे । अत्य जत्ता आभिष्पाए, तवे कम्मखए इय ।।१॥ इह कर्मक्षयसिद्धेनाधिकारः, स चाशेषकर्माशक्षयात् कमे-18 क्षयसिद्धः, सितध्वंसित्वात् सिद्धा, 'सिं वर्णगन्धनयो रिति सित- बद्धमष्टप्रकारं कर्म तद् ध्वंसितुं शीलमस्पति सितध्वंसी सिद्धा, तस्य कवलज्ञानं २॥ _ 'से किंत'मित्यादि, अथ किं तद् भवस्थकेवलज्ञानी,२ द्विविध प्रजप्त, तथथा-सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च अयोगिभवस्थके| वलज्ञानं च, इह युज्यन्त इति योगा:-कायादयः, उक्तं च-'कायवाङ्मनःकर्म योगः' तत्रौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणति-| विशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतबागद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रिया|हारकशरीरण्यापाराहृतमनोद्रव्यसम्हसाचिच्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः, तद्यथासम्भवं योगोऽस्य विद्यत इति सयोगी सयोगी चासो टाभवस्थव २, तस्य कवलज्ञान, एवं न योगी २ स च भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानं२, शैलेश्यवस्थागतस्येत्यर्थः, अथ किं तत् सयोगि
भवस्थकेवलज्ञान ,२ द्विविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च अप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, | तत्र प्रथमसमयस्तत्प्रथमतयोत्पत्तिसमय एवं गृहाते, न प्रथमोऽप्रथमः-द्वितीयादयः सर्व एव शैलश्यवस्थाप्राप्तेरप्रथमसमया इति, |अथवेत्पन्यथा प्रतिपाद्यते, 'चरमसमये'त्यादि, तत्र चरमः-सयोगिकालान्त्यसमयः,न चरमोऽचरमः पश्चानुपूयों चरमादारभ्य
सर्व एवाकेवलप्राप्तरचरमा इति । 'सेत' मित्यादि निगमनम्, 'से किं तमित्यादि, अत्रापि शैलश्यवस्थाभाविकेवलज्ञानम|धिकृत्यैवमेव भावनीयमलं विस्तरेण । 'सेत' मित्यादि, निगमनम्, तदेतद्भवस्थकेवलज्ञानम् ॥
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दीप अनुक्रम [८३-८५]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत
सूचांक
[२०-२१]
गाथा
॥५८..।।
दीप अनुक्रम [[८६-८७]
1563436
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [२०-२१] / गाथा ||१८... ||
नन्दी- 'से किं तमित्यादि ॥ (२०-११३) ॥ अथ किं तत् सिद्ध केवलज्ञानं १, सिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञतं, तद्यथा- अनन्तरसिहारिभद्रीय केवलज्ञानं च परम्परसिद्ध केवलज्ञानं च तत्र शैलेश्यवस्था पर्यन्तवर्त्तिसमयसमासादितसिद्धत्वस्य तस्मिन्नेव समये यत् केवलज्ञानं वृचौ तदनन्तरसिद्ध केवलज्ञानं, ततो द्वितीयादिसमयेष्वनन्तामप्यनागताद्धां परम्परसिद्ध केवलज्ञानमिति ।
॥ ५० ॥
'से किं तमित्यादि ॥ (२१-१३०)। प्रश्नसूत्रस्य निर्वचनम् अनन्तरसिद्ध केवलज्ञानं पंचदशविधं प्रज्ञतं, सिद्धानामेवानन्तरभवगतोपाधिभेदेन पंचदशभेदभिनत्वात्, पंचदशभेदभिन्नतामेव दर्शयन्नाह तद्यथा-तीर्थसिद्धा इत्यादि, तत्र येनेह जीवा जन्मजरामरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगंभीरं विचित्रदुःखगणकरिमकरं रागद्वेषपवनप्रक्षोभितमनन्तसंसारसागरं तरन्ति तत्तीर्थामिति, तच्च यथाऽवस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवाझुडुपकल्पं चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वित परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम्, एतच्च संघः प्रथमगणधरो वा, तथा चोक्तम्- “तित्थं भंते तित्थं, तित्थकरे तित्थं ?, गोयमा ! अरिहा नियमा तान तित्थंकरे, तित्थं पुण चूाउन्नण्णो समणसंघो पद्मगणहरो वा" इत्यादि, ततश्च तस्मिन्नुपपन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः, अतीर्थसिद्धास्तीर्थान्तरसिद्धा इत्यर्थः श्रूयते च 'जिणन्तरे साहुबोच्छेओति, तत्रापि जातिस्मरणादिनाञ्याप्तापवर्गमार्गाः सिध्यन्ति एव, मरुदेविप्रभृतयो वाऽतीर्थसिद्धास्तदा तीर्थस्यानुत्पन्नत्वात् तीर्थकर सिद्धास्तीकरा एव, अतीर्थकरसिद्धा अन्य सामान्यकेवलिनः, स्वयम्बुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते स्वयं बुद्धसिद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते प्रत्येकबुद्धसिद्धा इति । अथ स्वयं बुद्धप्रत्येकबुद्धयोः कः प्रतिविशेष इति उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिंगकृतो विशेषः, तथाहि स्वयंवुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, प्रत्येकबुद्धास्तु न तद्विरहेण श्रूयते च बाह्यवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकंड्वादीनां प्रत्येकबुद्धानां बोधि
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः ... अत्र 'सिद्ध'स्य पंचदश भेदानां वर्णयते
~ 55~
सिद्धकेवलज्ञानं
॥ ५० ॥
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आगम
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूल [२१-२२] | गाथा ||५८...||
(४४)
प्रत सूत्रांक [२१-२२]
HERE
केवलज्ञानं
वृत्तौ ।
गाथा
||५८..||
नन्दी- रिति, उपधिस्तु स्वयंयुद्धानां द्वादशविधः पात्रादिः, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवर्जः, स्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतश्रुते अनियमः,
C. सिद्धहारिभद्रीय प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव, लिंगप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धानां आचार्यसमिधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छ
पला तीरयलं विस्तरेण । 'बुद्धबोधितसिद्धाः' बुद्धा:-आचार्यास्तैबोंधिताःसन्तो ये सिद्धास्ते इह गृह्यन्ते, एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिंग-16I ॥५१॥ सिद्धाः केचित् पुल्लिंगासिद्धाः केचिनपुंसकलिंगसिद्धा इति, आह- तीर्थकरा अपि स्त्रीलिंगसिद्धा भवन्ति !, भवन्तीत्याह, यत उक्तं
सिद्धमाभृते- 'सव्बत्थोबा तित्थगरीसिद्धा, तित्थगरितित्थे णोतित्थसिद्धा संखेज्जगुणा, तित्थगरतित्थे णोतित्थगरिसिद्धाओ संखेज्जगुणाओ, तित्थगरितित्थे णोतित्थगरसिद्धा संखेज्जगुणा' इति, न तु नपुंसकलिंगः, प्रत्येकबुद्धास्तु पुंल्लिंगा एव, स्वलिंगसिद्धा द्रव्यलिंगं प्रति रजोहरणमोच्छकधारिणः, अन्यलिंगसिद्धाः परिबाजकादिलिंग सिद्धाः, गृहिलिंगसिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, एकसिद्धा इति एकस्मिन् समये एक एव सिद्धा, 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन् यावत् अष्टशत सिद्धं, यत उक्तम्-बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धब्बा। चुलसीती छन्बउई दुरहिय अटुचरसयं च ॥१॥ अत्राह चोदकः-ननु सर्व एवैते भेदास्तीर्थसिद्धाती
सिद्धभेदद्वयान्तभोपिना, तथाहि-तीर्थसिद्धा एवं तीर्थकरसिद्धाः, अतीथकरसिद्धा अपि तीथे[कर]सिद्धा या स्युः अतीथेसिद्धा वेत्येवं | शेषेष्वपि भावनीयमिति, अतः किमेमिरिति, अत्रोच्यते, अन्तर्भावे सत्यपि पूर्वभेदद्वयादेवोत्तरोत्तरभदाप्रतिपत्तेः, अज्ञातज्ञापनार्थ च | भेदाभिधानमिति । 'सेत'मित्यादि, निगमनम् ॥
4 ॥५१॥ ____ 'से किं तं परम्पर' इत्यादि ॥२२-१३३ ॥ न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः- परम्परसिद्धविशेषणप्रथमसमयवर्तिनः, सिद्धत्वद्वितीयसमयपर्तिनः इत्यर्थः, न्यादिषु तु द्विसमयसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा सामान्येनाप्रथमसमयसिद्धा अभि
RE-RES
दीप अनुक्रम [८७-८९]|
SHREE
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [२२] / गाथा ||५८...||
प्रत सूत्रांक [२२] गाथा ||५८..||
नन्दी- 181 धानविशेषतो द्विसमयादिसिद्धाभिधानामति, शेष प्रकटार्थ, यावत् तं समासतो इत्यादि, तदिति सामान्येन केवलज्ञानमभिगृ-15 केवलोपहारिभद्रीय बिते, द्रव्यतः केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि साक्षाज्जानाति पश्यति, क्षेत्रतः केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रं लोकालो- यागवादः वृत्ती
कभेदभिनं साक्षाज्जानाति पश्यति, (ग्र०१०००) इह च धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यग्रहणे सत्ययाकाशास्तिकायस्य क्षेत्रत्वेन रू॥५२॥
|ढत्वाद् भेदेनोपन्यासः, कालतः केवलज्ञानी सर्व कालमतीतानागतवर्तमानभेदभिनं साक्षाज्जानाति पश्यति, भावतः केवलज्ञानी सवान् जीवाजीवगतान् भावान् गतिकपायाचगुरुलघुलक्षणादीन् साक्षाज्जानाति पश्यति ।
इह च केवलज्ञानदर्शनोपयोगचिन्तायां क्रमोपयोगादौ मरीणामनेकविधा विप्रतिपत्तिः अतः संक्षेपतो विनेयजनानुग्रहाय तत्पदशनं क्रियत इति, तत्र-केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा। अन्ने एगंतरिय इच्छंति सुओषदेसेण॥१॥ अन्ने ण चेव वीसुंदसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलनाणं तंचिय से दंसणं किंति ॥२॥ गाथाद्वयम् , अस्य व्याख्या-केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भगति, किं?, युगपद्-एकस्मिदेव काले जानाति पश्यति च, कः, केवली, न त्वन्यः, नियमात्- | | नियमेन ।। अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छान्त, श्रुतोपदेशेन यथाश्रुतागमा|नुसारेणेत्यर्थः, अन्ये तु वृद्धाचार्याः न नैव विष्वक् पृथक् तदर्शनामिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य, केवलिन इत्यर्थः, किं तर्हि', यदेव केवलज्ञानं तदेव 'से' तस्य केवलिनो दर्शनं ब्रुबते, क्षीणावरणस्य देशज्ञानाभाववत् केवलदर्शनाभावादिति भावना, अयं गाथाद्वयार्थः । साम्प्रतं युगपदुपयोगवादिमतप्रदर्शनायाह-जं केवलाई सादी अपज्जवसियाई दोवि भणियाई । ता र्षिति केइ जुगर्व जाणइ पासई य सब्वन्नू ॥३॥ यस्मात् केवलज्ञानदर्शने साद्यपर्यवसिते द्वे अपि भाणते ततः ब्रुवते केचन सि
दीप अनुक्रम [८९]
॥५२॥
ANSAR
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: ... अत्र केवल ज्ञान-दर्शनयो: उपयोगस्य वादः दर्शयते
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [२२] / गाथा ||५८...||
प्रत
सूत्रांक [२२] गाथा ||५८..||
REACHES-
नन्दी
द्धसेनाचार्यादयः, किंी, युगपद्-एकस्मिन् काले जानाति पश्यति च, कः?, सर्वज्ञ इति गाथार्थः ॥इहराऽदीणिधणतं मिच्छा-1 केवलोपहारिभद्रीय
| वरणक्खयोति व जिणस्स । इयरेतरावरणता अहवा निक्कारणावरणं ॥ ४ ॥ इतरथा अन्यथा आदिनिधनत्वं सा-IP योगवाद: वृत्तौ IA
दिपर्यवसानत्वं केवलज्ञानदर्शनयोरुत्पत्त्यनन्तरमेव केवलज्ञानोपयोगकाल केवलदर्शनामावाद, एवं केवलदर्शनोपयोगकालेऽपि ॥५३॥ केवलज्ञानाभावाद, तथा मिथ्याऽधरणक्षय इति वा जिनस्य, न छपनीतावरणौ द्वौ प्रदीपी क्रमेण प्रकाश्य प्रकाशयत इत्य
| भिप्रायः, तथा इतरेतरावरणता स्वावरणे क्षीणेऽप्यन्यतमभावे अन्यतमाभावादिति भावना, अथवा निक्कारणावरणमित्य-1, कारणमेव अन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्यावरणं, तथा च सति सर्वदैव भावाभावप्रसङ्गः, तथा चोक्तम्-"नित्यं सत्त्वमसत्वं वाऽहेदोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसम्भवः ॥ १॥” इति गाथार्थः ॥ तहय असब्वन्नुत्तं असव्वदरिसणप्पसंगो य । एगंतरोवओगे जिणस्स दोसा बद्दविहीया ।। ५ ।। तथा च सति असवेंशत्वासर्वदार्शित्वप्रसंगव, पाक्षिकं वा असर्वज्ञत्वं, यदा सर्वज्ञो न तदा सर्वदर्शी, दर्शनोपयोगाभावाद्, एवं यदा सर्वदर्शी न तदा सर्वज्ञः, ज्ञानोपयोगाभावात् , | एवमेकान्तरोपयोगेऽभ्युपगम्यमाने सति जिनस्य-केवलिनो दोषा बहुविधा इति गाथार्थः ।। एवं परेणोक्ते सत्यागमवाधाहभण्णति भिन्नमुहुत्तोवयोगकालेवि तो तिणाणिस्स । मिच्छा छावट्ठी सागराई तस्स य खओवसमो॥ ६॥ यदुक्तमितरथादिनिधनत्वमिति तदसदिति दर्शयति, उपयोगानुपयोगकालापेक्षयव साद्यपर्यवसितत्वात् केवलज्ञानदर्शनयोरित्यभिप्रा| यो, न चानाषेमिदं, कथं?, भण्यते-अन्यथा हि भिन्नमुहूर्तोपयोगकालेऽपि मत्यादीनां ततस्त्रिज्ञानिनः मिथ्या षट्षष्टिः सागरो|पमाणि क्षयोपशमः, प्रतिपादितश्च मने, न च युगपदेव मत्याधुपयोगः, एवं क्षायिकोपयोगोऽपि भविष्यति जीवस्थामाव्यादिति गा
ऊ
दीप अनुक्रम [८९]
R
॥५३
RESTORE
AK
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[२२]
गाथा
।।५८..।।
दीप अनुक्रम [८९]
नन्दीहारिभद्रीय वृचौ
।। ५४ ।।
"नन्दी"- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं वृत्तिः)
मूलं [२२] / गाथा ||१८||
थाऽभिप्रायः । न च क्षयकार्येण अवश्यमनवरतमेव भवितव्यमिति दर्शयन्नाह अह णवि एवं ता सुण जहेव खीणंतराइओ अरहा। संतेवि अंतरायक्स्वयम्मि पंचप्पगारम्मि ॥ ७ ॥ सततं न देति लहति व भुंजति उबभुंजई व सव्वन्नू । कज्जम्मि देति लभति व मुंजंति तहेव इहइंपि ।। ८ ।। किंच दिंतस्स लभतस्स य मुंजंतस्स व जिणस्स एस गुणो । स्वीणंतराइयत्ते जं से विग्धं न संभवइ ॥ ९ ॥ उवत्तस्सेमेव य णाणम्मि व दंसणम्मि व जिणस्स । वीणावरणगुणोऽयं जं कसिणं मुणइ पासइ वा ॥ १० ॥ चो०- पासंतोऽवि न जाणह जाणं व ण पासती जड़ जिणिदो। एवं न कदाइवि सो सम्वन्नू सव्वदरिसी य ॥ ११ ॥ पश्यन्नपि न जानाति जानन्वा न पश्यति यदि जिनेद्रः एवं न कदाचिदप्यसौ सर्वज्ञः सर्वदर्शी वा, युगपदन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरोपयोगाभावादिति गाथार्थः ॥ सिद्धान्तवा - याह-जुगवमजाणतोऽवि हु चउहिवि णाणेहिं जहेषु चडणाणी । भण्णइ तहेव अरहा सव्वन्नू सव्वदरिसी य ॥ १२ ॥ इयं तु निगदासिदैव, नवरं क्षायिकभावमाश्रित्येति गाथार्थः ॥ पुनरप्याह-तुल्ले उभयावरणक्वयम्मि पुय्यतरमुष्भवो कस्सी । दुबिहुवयोगाभावे जिणस्स जुगवंति चोदेति ॥ १३ ॥ तुल्ये उभयावरणक्षये केवलज्ञानदर्शनावरणक्षये पूर्वतरं प्रथमतरमुद्भवः - उत्पादः कस्य?, यदि ज्ञानस्य स किंनिबन्धन इति वाच्यं तदावरणक्षयनिबन्धन इति चेत् दर्शनेऽपि तुल्य इति तस्याप्युद्भवप्रसंगः, एवं दर्शनेऽपि वाच्यं, अतः स्वावरणक्षयेऽपि दर्शनाभाववत् ज्ञानस्याप्यभावप्रसंग: विपर्ययो वा एवं द्विविधोपयोगाभावे जिनस्य युगपदिति चोदयति, अयं गाथार्थः । अत्र सिद्धान्तवाद्याह-भण्णति ण एस नियमो जुगप्प नेण जगवमेवेह । होयव्वं उबओगेण एत्थ सुण ताव दितं ॥ १४ ॥ जह जुगवुप्पत्तीयवि सुप्ते सम्मत्त
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः
~59~
केवलोपयोगवादः
॥ ५४ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
....... मूलं [२२] / गाथा ||१९||
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्ती
प्रत सूत्रांक [२२] गाथा ||५९||
॥ ५५॥
मतिसुतादीणं । णधि जुगवीषयोगो सब्वेमु तहेव केवलिणी ॥ १५ ॥ भणियंपि य पनत्तीपन्नवणादीसु जह जि-के
केवलज्ञानं णो समयं जं जाणती न पासा तमणुरयणप्पभादीणं ॥ १६ ॥ इदं गाथात्रयमपि प्रकटार्थम् । अधुना ये केवलज्ञा-14 नदशेनाभेदपादिनस्तनमतमुपन्यस्याह-जह किर वीणावरण देमन्नाणाण संभवो न जिणे । उभयावरणादीते त-14 ह केवलदसणस्साचि ।। १७॥ निगदसिद्धा । सिद्धान्तवाद्याह-देमन्त्राणोवरमे जह केवलणाणसंभवो भणिओ। देस-1 ईसणविगमे तह केवलदंसणं होउ ।। १८॥ अह देसणाणदंसणविगमे तुह केवलं मयं णाणं । ण मतं केवलदंसणमेच्छामेत्तं णणु तवेयं ।।१९।। भण्णइजहोहिणाणी जाणइ व पासइव भासितं सुत्ते। न प णाम ओहिदसणणाणेगत्तं तह इमंपि ॥ २०॥ जह पासह तह पामतु पासति सो जेण-दंसणं तं से। जाणति य जेण अरहातं से णाणंति बत्तव्वं ॥ २१॥ स्वपक्षसमर्थनार्थव सिद्धान्तवाचाह---णाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगतरयम्मि उपउत्तो।।४ सबस्स केवल लिस्सा जुगणं वो णस्थि उबओगा ॥२२॥ उवओगी एगयरो पणुवीसतिमे सते सिणायस्स । भणिओ वियद्वत्थो च्चिय छडुद्देसे विसेसेउं ।। २३ ॥ गाथाद्वयमपि निगदसिद्ध, नवरं भगवस्या पंचविंशतितमे शतेऽधि-12 कारोपलधिते 'सिणायस्स' ति स्नातकस्य केवलिनः । सिद्धान्तवाद्यनुभूतत्वमागमभक्तिं च परां ख्यापयवाह--कस्स पर णाणुमतमिर्ण जिणस्स जदि होज्ज दोषि उवओगा। पूर्ण ण होति जुगवं जेण णिसिंद्वा सुते बहुसो ॥ २४ ॥8॥५५॥ | निगदसिद्धैवेत्यलं प्रसंगेन, प्रकृतं प्रस्तुमः।
'अह' गाहा ॥(५९-१३४)। इह मनःपर्यायज्ञानानन्तरं सूत्रक्रमोदेशतः शुद्धिलाभतश्च प्राक्केवलज्ञानमुक्तं, तदुपन्यस्तय
दीप अनुक्रम [९०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [२३] / गाथा ||६०||
प्रत सूत्रांक [२३]
गाथा |||६०||
नन्दी-18 इत्यतस्तदर्थोऽयमथशब्दः, उक्तं च-"अथशब्दः प्रकियाप्रश्नानन्तर्यमंगलोपन्यासप्रतिषचनसमुच्चयेषु सर्वाणि च तानि द्रव्याणि केवलज्ञानं हारिभद्रीय है।
सर्वद्रव्याणि जीवाजीवलक्षणानि तेषां परिणामाः-प्रयोगविश्रसोभयाख्या उत्पादादयः सर्वद्रव्यपरिणामास्तेषां भावः-सत्ता
|स्वलक्षणमित्यनान्तरं तस्य विशेषेण ज्ञापनं विज्ञप्तिः विज्ञानं वा विज्ञप्तिः, तत्र भेदोपचारात्तस्या विज्ञप्तेः-परिच्छित्तेः कारणं ॥५६॥ ४ सवेद्रव्यपरिणामभावविज्ञप्तिकारणं, अथवा विज्ञप्तिरेव कारणं विज्ञप्तिकारणं, अत एव सर्वक्षेत्रकालविषयं तत् , क्षेत्रादीनामपि
है| द्रव्यत्वात् , तच्च ज्ञेयानन्तत्वादनन्त, शश्वद्भावाच्छाश्वतं, सदोपयोगादिति भावार्थः, प्रतिपतनशील प्रतिपाति न प्रतिपाति अप्र
तिपाति, सदाऽवस्थितमित्यर्थः, आह-यच्छाश्वतं तदप्रतिपात्येवातः किं विशेषणेनेति?, उच्यते, मा भूद् यावद्भवति तावच्छाश्वतमनवरतमेव भवतीति प्रतिपत्तिः, न पुनरवध्यादिवदन्यथेत्यतो विशेषणमित्यनवरतं भवति सर्वकालं चेति, अर्थवैकपदव्यभिचारेऽमि । | विशेषणविशेष्यभावो भवतीति ज्ञापनार्थ, तथाहि-शाश्वतमप्रतिपात्येव, अप्रतिपाति तु शाश्वतमशाश्वतं वा, अप्रतिपात्यवधेर. का प्यशाश्वतत्वादिति, एकविधम्-एकप्रकारं आवरणाभावात क्षयस्यैकरूपत्वात , केवलं-मत्यादिनिरपेक्षं, केवलं च तज्ज्ञानं चेति | 21
गाथार्थः ।। इह तीर्थकृत समुपजातकेवलः सत्त्वानुग्रहार्थ देशनां करोति, तीर्थकरनामकर्मोदयात् , ततश्च ध्वनेद्र्व्यश्रुतरूपत्वात्त|स्य च भावभुतपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानसम्भवादनिष्टापचिरिति मा भृन्मतिमोहोऽव्युत्पबबुद्धीनामित्यतस्तद्विनिवृत्त्यर्थमाह-
॥५६ ।। ___ केवल.' गाहा ॥ (*६०-२३सू० १३९) ।। इह तीर्थकरः केवलज्ञानेनार्थान-धर्मास्तिकायादीन मूर्तामूर्तान् अभिलाप्यानभिलाप्यान् ज्ञात्वा विनिश्चित्य केवलज्ञानेनैव ज्ञात्वा, नतु श्रुतज्ञानेन, तस्य वायोपशमिकत्वात् , केवलिनच तदभावात् , सशुद्धी देशशुध्ध्यभावादित्यर्थः तत्र' तेषामर्थानां मध्ये प्रज्ञापनं प्रज्ञापना तस्यायोग्याः प्रज्ञापनायोग्याः तान् भाषते-तानेव वक्ति,
दीप अनुक्रम [९१-९२]
ALKARO
45
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूल+वृत्ति:) ............ मूलं [२४] / गाथा ||६०||
प्रत
सूत्रांक
[२४] गाथा ||६०||
नन्दा नितरानिति, प्रज्ञापनीयानिति न सर्वानेव भापतेऽनन्तत्वाद् आयुषः परिमितत्वात् , किं तर्हि?, योग्यानेव, गृहीतृशक्त्यपेक्षया, यो
हिमतिश्रुत. हारिभद्रीय मायावतां योग्य इति, तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शम्दराशिः प्रोच्यमानस्तस्य भगवतो वाग्योग एव भवति , न श्रुतं, योर्भेदः
| नामकर्मादयनिवन्धनस्वात् , श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात् , स च श्रुतं भवति 'शेष' शेषमित्यप्रधान, एतदुक्तं भवति--श्रातृ-IX |णां श्रुतग्रन्थानुसारि भावभुतनिवन्धनत्वाच्छेपम्-अप्रधानं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः, अन्ये त्वेवं पठन्ति-'वइजोग सुपं हवइतेसिस वाग्यो-1
गः श्रुतं भवति तेषां श्रोतृणां, भावभुतकारणत्वादित्यभिप्रायः, अथवा वाग्योगः श्रुतं द्रव्यश्रुतमेवेति गाथार्थः। 'सेतं' इत्यादि | निगमनम् । तदेतत् केवलज्ञान, तदेतत्प्रत्यक्षम् । एवं प्रत्यक्षे प्रतिपादिते सति परोक्षस्वरूपमनवगच्छमाह चोदक:-- | 'से किं त' मित्यादि (२४-१४०)। अथ किं तत् परोक्ष, परोक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनियोधिकज्ञानपरोक्षं च श्रुतज्ञानपरोक्षं च, चौ पूर्ववत् , अनयोश्चेत्थं क्रमोपन्यासे प्रयोजनमुक्तमेव ॥ साम्प्रतं स्वाम्यभेदप्रतिपादनायाह--'जस्थ | आभिणिपोहियणाण'मित्यादि, यत्र पुरुषे इन्द्रियनोइन्द्रियक्षयोपशमे वा आभिनिचोधिकहानं तत्रैव पुरुषादी श्रुतज्ञान, 181 तथा यत्र श्रुतज्ञानं तत्रामिनियोधिकज्ञानम् । आह-यत्राभिनिबोधिकं ज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानमित्युक्ते यत्र श्रुतज्ञानं तत्राभिनिवाधिकज्ञानमिति गम्यत एवेत्यतः किमनेनोक्तेनेति', अत्रोच्यते, नियमतो न गम्यत इत्यतो नियमार्थ, तथा चाह-दोवि एयाई' इत्यादि, | वे अप्येते-आभिनिवोधिकश्रुते अन्योन्यानुगते-परस्परं प्रतिबद्धे, स्यादेतद् एवं सत्यभेद एवास्त्वनयोरित्याशङ्कयाह-'तहवि पुणों ॥५७ ॥
इत्यादि, तथापि पुनराचार्याः नानात्व-भेदं प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्ति, कथं , लक्षणमेदाद, दृष्टवान्योऽन्यानुगतयोरप्येकाकाश-12 लास्थयोधमाधमास्तिकाययोर्लक्षणभेदाढ़ेद इति, तत्र यो हि गतिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुद्गलयोगत्युपष्टम्महेतुजेलमिव झषस्य स
दीप अनुक्रम [९३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ... अथ परोक्षज्ञान-भेदे 'मतिज्ञान' वर्णयते
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आगम
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............ मूलं [२४] / गाथा ||६०||
(४४)
.......
मेंदः
प्रत सूत्रांक [२४] गाथा ||६०||
नन्दी हारिभद्रीय
वृत्तौ ॥५८॥
खल्वसंख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्चा धर्मास्तिकाय इति, तथा यः स्थितिपरिणामपरिणतयोजीवपुद्गलयोरेव स्थित्युपष्टम्भहेतुर्विवक्षया मतिश्रुतयो क्षितिरिव झषस्य स खल्वसंख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्त एवाधर्मास्तिकाय इति, एवमामिनिबोधिकश्रुतयोरपि लक्षणभेदानेदः, तथा चाह-'अभिणिवुज्झई' इत्यादि, अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिक-आत्मनः परिणामविशेषः, एवं भृणोतीति श्रुत-आत्मन एव | परिणामविशेष इति, एतदुक्तं भवति- यदिन्द्रियमनोनिमित्तमात्मनो विज्ञानं श्रुतग्रन्थानुसारेणोपजायते तत् श्रुतं, शेपमिन्द्रियमनोनिमित्तमाभिनिगोधिकमिति । इत्थं लक्षणभेदाढ़ेदमभिधायाधुना प्रकारान्तरेण भेदमभिधित्सुराह-'मतिपुवं सुतं, ण मती सुयपुब्बिया' 'पृ पालनपूरणयो रित्येतस्य पूर्यते प्राप्यते पाल्यते वाऽनेन कार्यमिति पूर्व-कारण, मतिः पूर्वमस्येति मतिपूर्व, श्रुतं-12 श्रुतज्ञानं, तथा चेदं मत्या पूर्यते प्राप्यते पाल्यते वा, अन्यथा प्रणश्यतीत्यर्थः, न मतिः श्रुतपूर्वेत्ययं महान् भेद इति ।। अत्राहमतिश्रुतयोयुगपदेव सम्यक्त्वावाप्तौ भाव उक्तः, अज्ञानयोरपि विगमः, तत् कथं मतिपूर्व श्रुतमिति !, किंच-मतिपूर्वकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सति मतिज्ञानभावेऽपि तत्काले श्रुतमज्ञानं प्रामोति, अनापं चेदमिति, अनोच्यते, ननु लब्धि प्रति मतिश्रुते समकाले भवतः, न तूपयोगोऽनयोः समकाले इति मतिपूर्व श्रुतं, इह पुनः को भाषार्थः -श्रुतोपयोगो मतिप्रभवः, यतो नासंचिन्त्य मत्या श्रुतग्रन्थानुसारि विज्ञानमुत्पद्यते । आह-एवं मतिरपि श्रुतपूर्वा भवत्येव, तथाहि-शब्दं श्रुत्वा या मतिरुत्पधते सा श्रुतपूर्वेति प्रतीतं, अतो न विशेषो, यथा मतिपूर्व श्रुतं तथा मतिरपि श्रुतपूर्वेति, अत्रोच्यते, ननु सा दून्यक्षुतोद्भवा वर्तते, इह तु न मतिः श्रुतपूर्वेति,
॥५८॥ का भावना, भाबश्रुतात् सकाशात् मतिनास्तीति, यद्वा कार्यतया निषिध्यते न पुनः क्रमेण, क्रमेण तु श्रुतोपयोगात् ल्युतस्य मत्यव| स्थानमिष्यत एवेत्यलं प्रसङ्गेन, न चैतत् स्वमनीपिकयोच्यते, यतोऽभ्यधायि भाष्यकृता-'णाणाणऽण्णाणाणि य समकालाई यतो
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दीप अनुक्रम [९३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [२५] / गाथा ||६०...||
(४४)
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
वृत्तौ
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[२५] गाथा ||६०..||
महसुयाई । तो न सुयं मतिपुष्वं मतिणाणे वा सुयऽण्णाणं ॥१॥ इह लद्धिमइसुयाई समकालाई न तूपयोगो सि ।मतिपुव्वं सुय-14
मिह पुण सुतोपयोगो मतिप्पभवो ॥ २॥ सोऊण जा मती ते सुयपुव्वति तेण ण विसेसो। सा दण्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मती ।
नत्थि ॥ ३॥ कज्जतया ण तु कमसो कमेण को वा मतिं निवारइ । तत्थावत्थाणं चुतस्स मुत्तोवयोगाओ ॥४॥” इतश्च | मतिश्रुतयोर्भेदः, भेदभेदात, तथाहि-अवग्रहादिभेदादष्टाविंशतिविध मतिज्ञान, अङ्गप्रविष्टायनकभेदभिनं च श्रुतज्ञान, इन्द्रियोप-12 योगलाभतो उक्तो (० लम्धिविभागतो) बा, उक्तञ्च-"सोईदिओवलद्धी होइ सुतं सेसयं तु मतिणाणं । मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो| य सेसेसु ॥१॥" इतश्च मेदः, अनक्षरमपि मतिज्ञान, अक्षरानुगतं च श्रुतज्ञानमिति, अथवाऽऽत्मप्रत्यायकं मतिज्ञानं स्वपरप्रत्यायक श्रुतज्ञानम् , आवरणभेदाच भेद इत्यलं अतिप्रसङ्गेन, इह च यथा मतिश्रुतयोः कार्यकारणभेदान्मिथो भेदस्तथा सम्बग्मिथ्यादर्शनपरिग्रहविशेषात् स्वरूपतोऽपि भेद इति दर्शयन्नाह-- ___ 'अविसेसिता' इत्यादि । (२५-१४२)॥ अविशेषिता मतिः सामान्येनैव मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च, सामान्येनोभयत्रापि है | मतिशब्दप्रवृत्तेः, विशेषिता मातः स्वामिविशेषेण सम्यग्दृष्टेमतिर्मतिज्ञानं, निश्चयनयदर्शनेन स्वकार्यप्रसाधकत्वात् , मिथ्यादृष्टेमतिः मत्यज्ञानं, तत्त्वतः स्वफलरहितत्वादित्यर्थः, एवं श्रुतसूत्रमपि व्याख्येयम् । आह-क्षयोपशमादिकारणाभेदे घटादिपरिच्छेदकार्याभेदे च कथं मिथ्यादृष्टरज्ञाने इति, तथा च मिथ्यादृष्टेरपि क्षयोपशमादेव मतिश्रुतप्रवृत्तिः, तथोर्ध्वादिलक्षणाकारमेव घटादिसंवेदनमिति, अत्रोच्यते, मिथ्यादृष्टरज्ञाने मतिश्रुते, सदसतोरविशेषादुन्मत्तकवद् , उक्तं च भाष्यकारेण सदसदविसेसणाओ भवहेउ| जहिच्छिओवलंभाओ। णाणफलाभावातो मिच्छादिहिस्स अन्नाणं ॥१॥ विनेयजनानुग्रहार्थमियं लेशतो व्याख्यायत
दीप अनुक्रम [९४]
||५९
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [२६] / गाथा ||६१||
नन्दी
हारिभद्रीय टा
प्रत सूत्रांक | [२६]
गाथा |||६||
॥६॥
इति, मिथ्याष्टिः कथंचित् सन्तमपि पुरुषे देवादिधर्म न प्रतिपद्यते, पुरुष एवेत्यभ्युपगमात् , तथा असम्तमपि बटादिधर्म अश्नुतनिप्रतिपद्यते, अस्त्येवत्यभ्युपगमात् , अतः सदसतोरविशेष इति, अतश्च मिथ्यादृष्टेमतिश्रुते अज्ञाने, भवहेतुत्वाच्च मिथ्यादर्शनवत, इतथाज्ञानं यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् , इतवाज्ञानं फलाभावादन्धप्रदीपवत्, ज्ञानस्य हि फळं विरतिः, सा च मिथ्यादृष्टेन विद्यते इत्यलं प्रसंगेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, इह मतिपूर्व श्रुतमितिकृत्वा मतिज्ञानमेवाधिकृत्य प्रश्नसत्रमाह
___ 'से किंत मित्यादि (२६-१४४)। अत्र निर्वचनं-द्विविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-श्रुतनिश्रितं चाश्रुतनिश्रितं च, चौ पूर्ववत्, श्रुतमिह | & सामायिकादि लोकबिन्दुसारान्तं द्रव्यश्रुतं गृह्यते, तदनुसारेण श्रुतपरिकर्मितमतेस्तदपेक्षमेव च उत्पादकाले यत्तु तनिरपेक्षमेवोत्पद्यते
तत् श्रुतनिश्रितं अवग्रहादि, यत्तु तषिरपेक्षं तथाविधक्षयोपशमप्रभवमेव वर्चते तदश्रुतनिश्रित-औत्पत्तिक्यादि ॥ आह-इदमप्यवग्रहा-12 ४ दिरूपमेव, सत्यं, किन्तु श्रुतानुसारमन्तरेणोत्पत्ते/देनोक्तं । तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादश्रुतनिश्रितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह-'से किं त-' मित्यादि, अत्र
उप्पत्तियागाहा(*६१-१४४)।उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, आह-क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः, सत्यं, किन्तु स खल्वन्तरंगत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छात्रस्वकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं नित्यव्यापारः कर्म कादाचित्कं शिल्पं कर्मजति कर्मणो वा जाता कर्मजा, परि समन्तात् नमनं परिणामः सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्म इत्यर्थः स कारणमस्यास्तत्प्रधाना
दीप अनुक्रम [९५-९६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः | ... अत्र औत्पातिकी आदि बुद्धः वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [२६...] / गाथा ||६२-६६||
प्रत सूत्रांक
[२६] |
गाथा ॥६२६६||
नन्दी- पारिणामिकी । बुध्यते अनयेति बुद्धिर्मतिरित्यर्थः, सा चतुर्विधोक्ता तीर्थकरगणधरैः, किमिति?, यस्मात् पंचमी नोपलभ्यते केवलिना:- बुद्धिचतुष्क हारिभद्रीय पि,असावादिति गाथार्थः। औत्पत्तिक्या लक्षण प्रतिपादयबाह-पुव्वगाहा।।(*६२-१४४)।पूर्वमिति बुद्ध्युत्पादात् प्राक् स्वयमदृष्टः । वृची अन्यतथाश्रुतः अवेदितो मनसाऽप्यनालोचितः तस्मिन्नेव क्षणे विशुद्धो यथावस्थितः गृहीतोऽवधारितः अर्थोऽभिप्रेतपदार्थो यया |
सा तथा, इहैकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्धं फलान्तराबाधितं चाव्याहतमुच्यते, फलं-प्रयोजनं, अव्याहतं च तत्फलं च २ योगोऽ|स्यास्तीति योगिनी अव्याहतफलेन योगिनी २, अन्ये पठन्ति-अव्याहतफलयोगा अव्याहतफलेन योगोऽस्याः सा अव्याहतफल-15
योगा बुद्धिः औत्पत्तिकी नामेति गाथार्थः ।। साम्प्रतं विनेयजनानुग्रहायास्या एव स्वरूपप्रतिपादनार्थमुदाहरणानि प्रतिपादयबाह| भरहसिल पणिय० ॥ *६३ ॥ भरह० ॥ १६४ ॥ महुसित्थ ।। ६५ ।। (१४४) गाहाओ, आसामर्थः कथानकेभ्य ४ाएवावसेयः, तानि चापसरप्राप्तान्यपि गुरुनियोगान्न ब्रूमः, किन्त्वावश्यके पक्ष्यामः, अधुना वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयत्राह. . भर्णिस्थ गाहा । ०६६-१५९)॥ इहातिगुरु कार्य दुनिर्वहत्वार व भरः तन्निस्तरण समर्थी भरनिस्तरणसमर्था, प्रयो
वोखिवर्गमिति लोकरूढेधर्मार्थकामाः तदर्जनपरोपायप्रतिपादननिवन्धनं सूत्र, तदन्वाख्यानं त्वर्थः पेयालं प्रमाण सारो वा त्रिवर्ग
सूत्रार्थयोहीतं प्रमाणं सारो वा यया सा तथाविधा, अथवा त्रिवर्ग:-त्रैलोक्य, आह-त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वे सत्यश्रुतनिश्रितत्वं है विरुध्यत इति, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं सम्भवति, अत्रोच्यते, इह प्रायोवृत्तिमंगीकृत्याश्रुतनिश्रितभावेऽपि
न कविदोष इति, उभयलोकफलवती ऐहिकामुष्मिकफलवती विनयसमुत्था विनयोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ अस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थ उदाहरणैः स्वरूपसुपदर्शयन्नाह
दीप
अनुक्रम | [९७१००]
BS-8
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
.............. मूलं [२६...] / गाथा ||६७-७१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -१] "नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
बुद्धिचतुष्कं
हारिभद्र
[२६]
वृत्ती
KAASHA
॥६॥
गाथा । ||६७७१||
SRXA
णिमित्तिगाहा ॥१६७सीता गाहा।।(१६८-१५०॥गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चोत्तरत्र वक्ष्यामः । | साम्प्रतं कर्मजाया बुद्धलक्षणं प्रतिपादयबाह
उवयोगगाहा।।(*६९-१५९)। उपयोजनमुपयोगो-विवक्षिते कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सारः तस्यैव कर्मणः परमार्थः, उपयो|गेन दृष्टः सारो ययेति समासः, अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्थेत्यर्थः, कर्मणि प्रसंगः २, प्रसंगः-अभ्यासः, परिघोलनं-विचारः, कर्मप्रसंगपरिघोलनाम्यां विशाला, अभ्यासविचारविस्तणिति भावार्थः, साधु कृतमिति सुष्टु कृतमिति विद्वमः प्रशंसा-साधुकारः तेन फलवतीति समासः, साधुकारेण वा शेषमपि फलं यस्याः सा तथा, कर्मसमुत्था कर्मोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथाथैः ।। | अस्या अपि विनयवर्गानुकम्पयोदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयचाह
हेरण्णिए गाहा ||(७०-१६४)॥ अस्या अप्यर्थ वक्ष्यामः।। साम्प्रतं पारिणामिक्या लक्षण प्रतिपादयन्नाह
अणुमाण गाहा ।।(*७१-१६५)। 'अनुमानहेतुदृष्टान्तैः' साध्यमर्थ साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, इह लिगज्ञानमनुमानं, स्वार्थमित्यर्थः, तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः, परार्थमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमान, कारको हेतुः, दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, आह-अनुमानग्रहणादेव दृष्टान्तस्य गतत्वादलमुपन्यासेन, न, अनुमानस्य तत्त्वत एकलक्षणत्वाइ, उक्तंच-"अन्यथाअनुपपनत्वं, यत्र तत्र त्रयेण कि"मित्यादि । साध्योपमाभूतच दृष्टान्तः, उक्तञ्च-"यः साध्यस्योपमाभूतस्स दृष्टान्त" इति, कालकतो | देहावस्थाविशेषो वय इत्युच्यते, तद्विपाकेन परिणामः-पुष्टता यस्याः सा तथाविधा, हितम्-अभ्युदयस्तत्कारणं वा निःश्रेयसं
दीप
॥६२॥
अनुक्रम [१०११०५]
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [२७-२८] / गाथा ||७२-७४||
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प्रत
सूत्रांक
मतेमेंट
[२७-२८] |
गाथा | ||७२७४||
नन्दी- मोक्षस्तनिवन्धनं या हितनिश्रेयसाभ्यां फलवती बुद्धिः परिणामिकीति गाथार्थः ।। अस्या अपि शिष्यगणहितायोदाहरणः स्वरूपं 81 हारिभद्रीय दर्शयत्राहवृचौटा
| अलए० गाहा ।।०७२-१६५)। खमए० गाहा (*७३-१६५)। चलणा० गाहा ॥ (*७४-१६५)॥ आसामर्थः ॥ ६३ ॥ कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चान्यत्र वक्ष्यामः 'से तं' इत्यादि, तदेतदश्रुतनिश्चितम्
___'से किंत'मित्यादि, (२७-१६८) चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-अवग्रह ईहा अपायो धारणा, अवग्रहणमवग्रह: सामान्यमात्रा-1 निर्दिश्यार्थग्रहणमित्यर्थः, तथा ईहनमीहा, सदर्थपर्यालोचनचेष्टेत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-अवबहादुत्तीर्ण: अपायात् पूर्वः सद्भतार्थ- 1 विशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषस्यागाभिमुखच प्रायो मधुरत्वादयः शंखादिशब्दधर्मा अत्र घटन्ते, न खरकर्कशनिष्ठुरता-1 दयः शागादिशब्दधर्मा इति मतिविशेष ईहेति, तथा तदर्थाध्यवसायोऽपायः, निर्णयो निषयोऽवगम इत्यनर्थान्तरं, एतदुक्तं भवतिशांख एवार्य शार्ग एव वेत्याद्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽपाय इति, तथा तदर्थविशेषधरण धारणा, अविच्युतिस्मृतिवासनारूपा ।। ..' से किंत'मित्यादि ।।(२८-१६८)) अथ कोऽयमवग्रहो?, २ द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अर्थावग्रहश्र व्यजनावग्रहश्च,
अर्यात इत्यर्थः, अर्थस्वावग्रहोर्थावग्रहः, सकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यार्थग्रहणमेकसामायिकमिीत भावार्थः, व्यज्यतेऽनेनार्थः का प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन, तच्चोपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसङ्घातो बा, ततश्च व्यजनेन-उपकरणेंद्रियेण व्यञ्जनानां-शब्दा-131॥ ५२ ।। | दिपरिणतद्रयाणामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, अथार्थावग्रहस्य तु लक्ष्यत्वात् सकलेन्द्रियार्थव्यापकत्वाचेतरस्य ।
दीप
अनुक्रम [१०६
११२
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: ... अथ मते: अवग्रह-आदि भेदानां वर्णनं आरभ्यते ।
~68~
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[२९-३१]
गाथा
||68..||
दीप
अनुक्रम [११३
११५]
नन्दीहारिमद्रीय
वृचौ
“नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [२९-३१] / गाथा ||७४...||
॥ ६४ ॥
'से किं तमित्यादि ( २९-१६२ ) अथ कोऽयं व्यञ्जनावग्रहः इत्यत्र पुनरुत्पत्तिक्रम एवाश्रितो यथासम्भवमिति सुश्लिष्टमेतदिति, प्रकृतमुच्यते - व्यञ्जनावग्रहश्रतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह इत्यादि सूत्रसिद्धं । आह-पञ्चेन्द्रियमनःसद्भावे सति किमित्ययं चतुर्विध इति ?, अत्रोच्यते, नयनमनसोरप्राप्तकारित्वाद्, अप्राप्तकारित्वं च विषयकृतानुग्रहोपघातशून्य४ स्वात् प्राप्तकारित्वे पुनरनलजलशूलाद्यालोकने दहनक्लेदनपाटनादयः स्युः, अत्र च विषयदेशं गत्वा न पश्यति, प्राप्तं चार्थे नालम्बत इत्येतावनियम्यते, मूर्तिमता पुनः प्राप्तेन भवत एवानुग्रहोपघातौ भास्करकिरणादिनेति, अन्यस्त्वाह-व्यवहितार्थानुपलब्धेरनुमानाद प्राप्तकारित्वं लोचनस्येति एतदयुक्तं, नैकान्तिकत्वाद्, रुचोऽभ्रपटलस्फटिकान्तरितोपलब्धेः स्यादेतत्-नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थ गृहन्तीति दर्शने रश्मीनां तैजसत्वात्, तेजोद्रव्यैरप्रतिस्खलनाददोष इति एतदप्ययुक्तं, महाज्वालादौ प्रतिस्खलनोपलब्धेरित्यत्र बहु वक्तव्यं तन्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्गमनिकामात्रमेतदिति ।
'से किं तमित्यादि ॥ ३०-१७३॥ अथ कोऽयमर्थावग्रहः ?, अर्थावग्रहः षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्र ह इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् ।
'तस्स णं इमे' इत्यादि ॥ * ३१ - १७४ ॥ तस्यावग्रहस्यानूनि णं पूर्ववत्, अवग्रहसामान्यापेक्षयैकार्थिकानि नानाघोपाणि नानाव्यञ्जनानि पञ्च नामधेयानि भवन्ति, घोषा उदात्तादयः कादीनि व्यञ्जनानि, नामैव नामधेयं, अवग्रहविशेषापेक्षया तु कथंचित् भिन्नार्थानि त्रिविधश्वावग्रहः - सामान्यावग्रहो विशेषावग्रहः विशेषसामान्यार्थावग्रह श्रेति, तत्र भिन्नार्थता निदर्श्यते
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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अवग्रहैकार्यता
॥ ६४ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [३१-३२] / गाथा ||७४...||
प्रत
सूत्रांक
वृत्तौ
॥६५॥
[३१-३२] |
गाथा [७४..||
नन्दी- जहा-ओगिण्हणते' त्यादि, अवगृह्यतेऽनेनेति अवग्रहणं, करणे ल्युट्, व्यञ्जनावग्रहप्रथमसमयप्रविष्टशब्दादिद्रव्यादानप-है। | इहापायहारिभद्रायरिणाम इत्यर्थस्तद्भावः अवग्रहणता, धार्यतेऽनेनेति धारणं उप-सामीप्येन धारणं उपधारण व्यञ्जनावग्रहाद्धाया आ(व्या)दिसमये- पयाया:
प्यबसानान्तं प्रतिसमयमेव शब्दादिद्रव्यादानधारणपरिणाम इति भावना, तद्भाव उपधारणता, भ्रूयतेऽनेनेति श्रवणं एकसामा|यिकसामान्यार्थावग्रहावबोधपरिणाम इत्युक्तं भवति तद्भावः श्रवणता, अवलम्बत इत्यवलम्बनं 'कृत्यल्युटो बहुल' मिति वचनात् कर्मणि ल्युट्, तद्भावः अबलम्बनता-विशेषसामान्यार्थावग्रह इवि भावार्थः, तथा हि उत्तरोत्तरधर्मजिज्ञासायां सत्यां शब्दादिज्ञान-151 मेवावलम्व्यहादयः प्रवर्तन्ते-किमयं शांखः किं वा शाङ्ग इत्यतस्तदनन्तरमेवेहादिप्रवृत्तेविशेषसामान्यार्थावग्रहोऽवलम्बन मिति, एवमुत्तरोत्तरधर्मजिज्ञासायां सत्यां विशेषसामान्यार्थावग्रहेषु मर्यादया धावतो. मेधोच्यते, यावदधिगच्छति, यथा-शांखः स किं
मन्द्रः किं वा तार इत्यादि, यत्र व्यञ्जनावग्रहो नास्ति तत्रायभेदद्वयाभाव इति । 'से तं उग्गहे' सोऽयमवग्रहः । EL 'से किं' मित्यादि, सूत्रम् ॥ ३२-१७५)। निगदसिद्धं यावत् आभोगनता ईहा, अर्थावग्रहसमयसमनन्तरमेव सद्भूता-16 का विशेषाभिमुखमालोचनमाभोगनमुच्यते तद्भाब आभोगनता, मृग्यतेऽनेन परिणामकरणेनेति मार्गणं, सद्भतार्थविशेषामिमुखमेव नर्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणमिति हृदयं, तद्भावो माणता, एवमन्विष्यतेऽनेनेति गवेषणं तत ऊर्ध्व सद्भतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्माध्यासेनालोचनमिति गर्भः, तद्भावो गवेषणता, ततो मुहुर्मुहुः क्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगतसद्भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता, विमर्षण विमर्षः-क्षयोपशमविशेषादेवोर्ध्व स्पष्टतरावबोधतः सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्मालोचनं विमर्षः, नित्यानित्यादिद्रव्यभावालोचनमित्यन्ये । 'से तं ईहा'।
दीप अनुक्रम [११५
RASACR5
११६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३३-३४] गाथा
||68..||
दीप अनुक्रम [११७
११८]
नन्दी
हारिमुद्रीय
॥६६॥
“नन्दी"- चूलिकासूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [३३-३४] / गाथा ||७४...||
'से किं त' मित्यादि । ( ३३-१७६) । सूत्रसिद्धं यावदावर्त्तनता, वर्त्यते अनेनेति वर्त्तनं क्षयोपशमकरणमेत्र ईहाभावनिवृत्यभिम्मुखस्यापायभावप्रतिपश्यभिमुखस्य चार्थविशेषाव वोधविशेषस्या-मर्यादया वर्त्तनमावर्त्तनं तद्भावः आवर्त्तनता, ततः प्रतिपत्या (प्रतीपमा ) वर्त्तनं प्रत्यावर्त्तनं, अर्थविशेष एव विवक्षितापायप्रत्यासन्नतरबोध विशेषाणां मुहुर्मुहुर्वर्त्तनमित्यर्थः, तद्भावः प्रत्यावर्त्तनता, अप अयः अपायः विशेषतः सङ्कलनेन निश्चयो निर्णयोऽवगम इत्यनर्थान्तरं सर्वथेहाभावानिवृत्तस्यावधारणावधारितमर्थमवगच्छतोऽपाय इति भावार्थ:, ततस्तमेवावधारितमर्थं क्षयोपशमविशेषात् स्थिरतया पुनः पुनः स्पष्टतरमेत्र बुध्यमानस्य बुद्धिः, विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं क्षयोपशमविशेषादवधारितार्थविषयमेव तीव्रतरधारणाकरणमित्यर्थः, 'से तं अवायो' सोऽयमपायः ।
'से किं त' मित्यादि ॥ ( ३४-१७६ ) ।। निगदसिद्धं यावद्धारणेत्यादि, अपायानन्तरमवगतार्थमविच्युत्या जघन्योत्कृष्टम| न्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं धारयतो धारणेति भण्यते, ततस्तमेवार्थ उपयोगाच्युतं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तादुत्कृष्टतोऽसङ्ख्येयकालात् परतः स्मरतो धरणं धारणोच्यते, स्थापनं स्थापना, ततोऽपायावधारितमर्थं पूर्वापरालोचितं हृदि स्थापयतः स्थापना, मूर्त्तघटस्थापनावद, वासनेत्यर्थः अन्ये तु धारणा स्थापनयोर्व्यत्ययेन स्वरूपमाचक्षते, प्रतिष्ठापनं प्रतिष्ठा अपायावधारितमेवार्थ हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापयतः प्रतिष्ठा भण्यते, जले उपलप्रक्षेपप्रतिष्ठावत्, कोष्ठक इति अविनष्टसूत्रार्थबीजधारणात् कोष्ठकवद् धारणा कोष्ठक इति । इहात्मनो ज्ञानस्वभावत्वाज्ज्ञानावरणीयादिकर्ममलपटलाच्छादितस्वभावत्वात् गुरुवदनसमुत्थशब्दाद्यनेकविधकारणापाद्यमानक्षयोपशमसामर्थ्यादवबोधः, ज्ञेयस्य चानन्तधर्मात्मकत्वात् कालक्षयोपशम विशेषतोऽवग्रहेहापायावबोधविशेषो भावनीयः, कथंांच
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः
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धारणापर्यायाः
अवग्रहा दिकालः
॥ ६६ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [३५-३६] / गाथा ||७४...|| ....
.......
प्रत
सूत्रांक
लाष्टान्तः
[३५-३६] |
गाथा ||७४..||
नन्दी- देकाधिकरणत्वाद्, अन्यथा परिच्छेदप्रवृत्तिलक्षणसकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारोच्छेदप्रसङ्ग इत्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् ॥ अवहारिभद्रीय प्रहादिकालप्रमाणं प्रतिपादयमाह
प्रतिबोधक'ओग्गहे.' इत्यादि।(*७४१३५-१७७)। अर्थावग्रहः एकसामायिकः, आन्तर्मीहूर्तिकी ईहा, आन्तर्मोहूर्तिकोऽपायः, धारणा ॥ ६७॥
|संख्येयं वाऽसङ्ख्येयं वा कालं स्मृतिवासनारूपा, सङ्खधेयवर्षायुषां संख्येयमसंख्ययवर्षायुषामसंख्येयम् । एवं अट्ठावीसविधस्सेत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण अष्टाविंशतिविधस्य, कथमष्टाविंशविध ?, चतुर्विधो व्यञ्जनावग्रहः पविधोऽर्थावग्रहः पविधा ईहा पदविधोऽपायः पड्पिधा धारणा, एवमष्टाविंशतिविधस्याभिनिबोधिकज्ञानस्प सम्बन्धी यो व्यञ्जनावग्रहः तस्य प्ररूपणं प्रतिपादन करिष्यामि, कथं !, प्रतिबोधकदृष्टान्तेन मल्लकदृष्टान्तेन च, 'से किं तमित्यादि ॥३६-१७७)। प्रतियोधयतीति प्रतिवोधकः स एच दृष्टान्तस्तेन, तयथा नाम कविदनिर्दिष्टस्वरूपः पुरुषः कंचिदन्यतममनिर्दिष्टस्वरूपमेव पुरुष सुप्तं सन्तं पतियोधएज्जत्ति
प्रतिबोधयेत्, कथं १. अमुकामुकेति, तत्र चोदकेत्यादि इह ज्ञानावरणकर्मोदयतः कथितमपि सूत्रार्थमनवगच्छन् प्रश्नचोदनाच्चो-11 सादकः, अविशिष्टक्षयोपशमभावतो वा अगृहीतशाखगर्भार्थः पूर्वापरविरोधचोदनात चोदका, यथाऽवस्थितं सत्रार्थ प्रज्ञापयतीति प्रज्ञाह पकः, श्रीतार्थापेक्षया विरुद्धं पुनरुक्तसूत्रं वा अर्थतोविरुद्ध अपुनरुक्तं प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः, तत्र चोदकः प्रज्ञापकं एवमुक्तवा
निति, भूतकालनिर्देशोऽनादिमानागम इति ख्यापनार्थः, किमेकसमयप्रविष्टत्यादि सुगम यावत् एवं वदन्तं चोदकं प्रज्ञापक एव-IN
मुक्तवान् नो एकसमयप्रविष्टेत्यादि प्रकटार्थ यावत् न सख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, नवरमय प्रतिषेधः स्फुटश-| द्वान्दविज्ञानग्राबवामधिकस्य वेदितव्यः, शब्दविज्ञानजनकत्वेनेत्यर्थः, अन्यथा सम्बन्धमात्रमधिकृत्य प्रथमसमयादारभ्य ग्रहणमा-
CRIYANKAR
दीप अनुक्रम [११९१२०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३५-३६]
गाथा
||68..||
दीप
अनुक्र
[११९
१२०]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्तौ
॥ ६८ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [३५-३६] / गाथा ||७४...||
गच्छन्त्येव, 'असंखेज्ज' इत्यादि, प्रतिसमयप्रवेशेनादित आरम्य असंख्येयसमयैः प्रविष्टर संख्येय समयप्रविष्टाः, न पुनर्विंशत्या - होभिः पथिकगृहप्रवेशवदपान्तरालागमनसमयापेक्षयाऽसंख्येयसमयप्रविष्टा इति, पुद्गलाः शब्दद्रव्यविशेषा ग्रहणमागच्छन्ति, अर्थावग्रहज्ञानहेतवो भवन्तीति भावः इह च चरमसमयप्रविष्टा एवं ग्रहणमागच्छन्ति, तदन्ये त्विन्द्रियक्षयोपशमकारिण इत्योधतो ग्रहणमुक्तमिति, असंख्येयमानं चात्र जघन्यमावलिकासंख्येयभागसमयतुल्यं, उत्कृष्टं तु संख्येयावलिकासमयतुल्यं तच्च प्राणापानपृथक्त्वकालसमयमिति, उक्तंच- "वंजणवग्गहकालो आवलियाऽसंखभागमेत्तो उ । थोबो उकोसो पुण आणापाणपुहुति ॥ १ ॥ " 'से तं' इत्यादि निगमनम् ॥ सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणेति वाक्यशेषः ॥
'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं मह्लकदृष्टान्तो?, २ नाम तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष आपाकशिरसः, आपाकः प्रतीतः तच्छिरसच मलकं-शरावं गृहीत्वा इदं रूक्षं भवति इत्यतोऽस्य ग्रहणमिति, तत्र मल्लके एकं उदकबिन्दु प्रक्षिपेत् स नष्टः, तत्रैव तद्भावपरिपतिमापन इत्यर्थः, शेष सुगमं यावत् जण्णं तं मल्लकं रावेहित्ति आर्द्रतां नेष्यति, शेषं सुगमं यावत् एवमेवेत्यादि, अतिबहुत्वात् प्रतिसमयमनन्तैः पुद्गलैः- शब्दपुद्गलैः यदा तद् व्यंजनं पूरितं भवति तदा हुमिति करोति, तमर्थ गृह्णातीत्युक्तं भवति, अत्र व्यंजनशब्देन त्रयमभिगृह्यते-द्रव्यमिन्द्रियं सम्बन्धो वा यदा द्रव्यं व्यंजनमधिक्रियते तदा पूरितमिति प्रभूतीकृतं, स्वप्रमाणमानीतं, स्वविषयव्यक्ती समर्थीकृतमित्यर्थः, यदा व्यंजनमिन्द्रियं तदा पूरितमित्याभृतं भृतं व्याप्तमित्यर्थः, यदा तु द्वयोरपि सम्बन्धोऽधिक्रियते तदा पूरितमित्यंगांगी भावमानीतमनुषक्तमित्यर्थः, एवं यदा पूरितं भवति तदानीं तमर्थं गृह्णाति, किंविशिष्टं ? -भामजात्यादिकल्पनारहितं तथा चाह-णो चैव गं जाणद के बेस सद्दादित्तिः न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिरर्थ इति, एकसामयिकत्वादर्था
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः
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महक
दृष्टान्तः
॥ ६८ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [३५-३६] | गाथा ||७४...||
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
हारिभद्रीय
वृत्तो
॥६९ ॥
[३५-३६]]
गाथा ||७४..||
वग्रहस्य, अत्रार्थावग्रहात पूर्वः सर्वो व्यंजनावग्रह इति, ततो ईहं पविसतीत्यादि सुगम यावत् संखेज वा असंखज्ज वा है मल्लककालति । अत्राह-सुप्तमंगीकृत्य युज्यते अयं न्यायः, जाग्रतस्तु शब्दश्रवणसमनन्तरमेव अवग्रहहाव्यतिरेकेणैवापायज्ञानमुत्पद्यते, तथो-12 दृष्टान्तः पलम्भात् । न चैतदनाप, यत आह सूत्रकार:- से जहाणामए' इत्यादि, अथवा यदुक्तं न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादि, कि बर्हि ?, नामजात्यादिकल्पनारहितं गृहातीत्येतदयुक्तं, यत एवमागमः 'से' इत्यादि, अथवा सुप्तप्रतियोधकमल्लकदृष्टान्ताभ्यां व्यंजनार्थावग्रहयोः सामान्येन स्वरूपमभिधाय अधुना मल्लकदृष्टान्तेनैव प्रतिपादयन्नाह से जहा' इत्यादि, तद्यथा नाम कश्चित् । पुरुषः अव्यक्तं शब्दं शृणुयात् , अव्यक्तमित्यनिर्देश्यस्वरूपं नामादिकल्पनारहितमित्यनेनार्थावग्रहमाह, तस्य च श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्धिनो व्यंजनावग्रहपूर्वकत्वात् व्यंजनावग्रहं च, आइ-न छत्रैवं क्रम उपलभ्यते, कित्वक्षेपेण शब्दापायज्ञानमेव वेद्यते, सूत्रेऽव्यक्तसमिति शब्दविशेषणं कृतमतोऽव्यक्तं सन्दिग्धं पुरुषादिशब्दभेदेन शब्द शृणुयादिनि न्याय्यं, तथा चोत्तरसूत्रमप्येतदेवाह- 'तेणं 13
सद्देत्ति उग्गहिते' तेन-श्रोत्रा शब्द इत्यवगृहीतं 'णो चेव णं जाणति के वेस सहादि' न पुनरेवं जानाति-क एप पुरुषादिसमुत्थानामन्यतमः शब्द इति, आदिशब्दाद्रसादिष्वप्ययमेव न्याय इति ज्ञापयति, 'ततो ईह पविसती' त्याद्यपि संबद्धमिति, नैतदेवम् , उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्तेन कालभेदस्य दुर्लक्षत्वाद् अक्षेपेण शब्दापायज्ञानानुपपत्तेः, यच्च तेन शब्द इत्यवगृहीतमित्युक्तम् अत्र शन्द इति भणति वक्ता-सूत्रकार, इतिकरणनिर्देशात , शब्दमात्र वा शपविशेषविमुखं, न तु शब्दबुध्ध्या, तस्यैवापायप्रसंगाद् , अवग्रहादिश्रुतव्यतिरेकेण च मतिज्ञानानुत्पत्तेः, तथा चाहणो चेव ण' मित्यादि, न पुनरेवं जानाति क एष "॥ | शब्दादिरः, सामान्यमात्रप्रतिभासनाद् , आह च भाष्यकार:-"अन्नत्तमणिसं सरूवणामादिकप्पणारहितं । जदि एवं जं तेणं
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दीप अनुक्रम [११९
ACCE929
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[३५-३६]
गाथा
||68..||
दीप
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[११९
१२० ]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्तौ
“नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [३५-३६] / गाथा ||७४...||
॥ ७० ॥
गहियं सदेति तं कह णु ? || १ || सद्देति भणति बत्ता तम्मतं वा ण सदमुत्ती ( बुद्धी) ए । जदि होज्ज सदबुद्धी तोऽवाओ चैव सो होजा ॥ २ ॥ जति सहबुद्धिमेत्तयमवग्गृहे तव्विसेसणमवाओ। णणु सहो णासहो ण य रूवादी विसेसो ऽयं ॥ ३॥ श्रोत्रम्मि य णावायो तम्भेयाविक्खणं अवाओति । तभेयाविक्खाए गणु थोवमिर्णपि णावाओ || ४ ||" इत्यादि, अन्ये त्वाचार्या इदं सूत्रं विशेषसा४ मान्यार्थावग्रहविषयं व्याचक्षते, अव्यक्तं-अनिद्धरितविशेषस्वरूपं अशब्दव्यवच्छेदेन शब्दं शृणुयात् तेन शब्द इति शब्दमात्रमवगृहीतं न पुनरेवं जानाति क एष शब्दः, शांखनादीनामन्यतमः, आदिशब्दाद्रसादिपरिग्रहः, तत्रापीयमेव वातीत, युक्तियुक्ता चेयं व्याख्येति, तत प्रविशति सदपर्यालोचनां करोति, इह च दुरवबोधत्वाद्वस्तुन अपटुत्वाच्च मतिज्ञानावरण| क्षयोपशमस्या संजातापाय एवेोपयोगाच्युतः पुनरप्यन्यमन्तर्मुहूर्त्त मीहते, एवमहोपयोगाविच्छेदत एव प्रभूतानप्यन्तर्मुहूर्त्तानीहत इति सम्भवः, ततो जानातीत्यादि, वस्तुतः गतार्थं यावत् स्पर्शनन्द्रियवक्तव्यता, उक्तं च भाष्यकारेण "सेसेसुवि रूपादिसु विसएसुवि होइ रूबलक्खाई । पायं पच्चासन्नत्तणेणमीहादिवत्थूणि ॥ १ ॥ थाणुपुरिसादिकुप्पलादिभिन्नकरिल्लमसादी । सप्पो - प्पलणालादिय समाणरूवादिविसयाई ॥ २ | एवं चिय सुमिणादिसु मणसो सदादिसु विससु । होतिदियवावाराभावेऽवि अवग्गहादीया ||२||" इत्यादि, 'से जहा णामए' इत्यादि, इह प्रतिबोधप्रथमसमयेऽव्यक्तम्- अनिर्द्धारितस्वरूपं स्वप्नं प्रतिसंवेदयेत् तस्य तदार्थावग्रहः, तत ऊर्ध्वमीहादय इति, अन्य तु मनसोऽप्यर्थावग्रहात् पूर्व व्यंजनावग्रहं मनोद्रव्यव्यंजनग्रहणलक्षणं व्याचक्षते, तत् पुनरयुक्त, अनार्षत्वाद्, व्यंजनावग्रहस्य श्रोत्रादिभेदेन चतुर्विधत्वात् शेषं प्रकटार्थ यावत् सेतं मलगदिते । इह च सुखप्रतिपत्यर्थ स्वप्नमधिकृत्य नोइन्द्रियार्थावग्रहादयः प्रतिपादिताः, अन्यथाऽन्यत्रापीन्द्रियव्यापाराभावे सति मनसा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी -रचिता वृत्तिः
~75~
अवग्रहादिः क्रमः मत्तेर्विषयः
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Page #76
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [३७] / गाथा ||७||
......
अवग्रहापादयो भेदाः
प्रत सूत्रांक [३७] गाथा | ||७||
पर्यालोचयतो अवगन्तव्या इति ॥ अत्राह-किमुक्तलक्षणमवग्रहादिक्रम विहाय क्वचिदपि मतिज्ञानं नोत्पद्यते येन क्रम इति, अत्रोहारिभद्रीय यो
च्यते, नोत्पद्यते, तथाहि- नानवगृहीतमीयते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यते इत्यलं प्रसंगेन ।। सर्वमेवेदं द्रव्या
४ दिभिर्निरूपयनाह॥ ७१ ॥
'तं समासतो' इत्यादि।(३७-१८४)।। द्रव्यत आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशन, आदेश:-प्रकार:, स च सामान्यतो विशेषमतच, तत्र द्रव्यजातिसामान्यादेशेन, द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति, विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देश
इत्यादि, न पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन् , शब्दादीस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि, श्रुतादेशतो वा जानाति, एवं हक्षेत्रादिष्वपि भावनीय, नवरं तान पश्यत्येव, तथा चोक्तं भाष्यकारेण-"आदेसोत्ति पगारो ओहादेसण सब्बदव्याई । धम्मत्थि"काइयाई जाणइ न उ सब्वभावेण ॥ १॥ खेचं लोगालोग कालं सव्वद्धमहब तिविधोऽवि । पंचोदइयादीए भावे ज नेयमेवतिय 8॥२॥ आदेसोत्ति व सु सुतोवलहेसु तस्स मतिणाणं । पसरह तब्भावणभाविणोचि मुत्ताणुसारेण ।। ३॥" साम्प्रतं संग्रहगाथा है उच्यते, तत्र
उग्गह० गाहा ॥ (*७५-१८४) ॥ अवग्रहः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तथा ईहाऽपायश्च, चशब्दः पृथगवग्रहादिस्वरूपहा स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः, अवग्रहादीनामीहादयः पर्याया न भवन्तीत्युक्तं भवति, समुच्चयार्थो वा, यदा समुच्चयार्थस्तदा व्यवहितो हा द्रष्टव्यः, धारणा च, एवकारः क्रमपरिदर्शनार्थः, एवमनेनैव क्रमेण भवन्ति चत्वार्याभिनिबोधिकज्ञानस्य भियन्त इति भेदा-विकल्पाः
CA%*&+KASARIES
SASARA
दीप अनुक्रम [१२११२२]
॥७१
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
~764
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३७..]
गाथा
||७६
७७||
दीप
अनुक्रम
[१२३
१२४]
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्तौ
॥ ७२ ॥
“नन्दी"- चूलिकासूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:)
मूल [ ३७...] / गाथा ||७६-७७||
अंशा इत्यनर्थान्तरं त एव वस्तूनि भेदवस्तूनि कथं १, यतो नानवगृहीतमीद्यते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यत इवि, अथवा काका नीयते, एवं भवति चत्वाभिनिबोधकज्ञानस्य भेदवस्तूनि ?, समासेन संक्षेपेण, विशिष्टावग्रहादिस्वरूपापेक्षया, न तु विस्तरत इति विस्तरतोऽष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वात्तस्येति गाथार्थः ॥ इदानीमनन्तरोपन्यस्तानामवग्रहादीनां स्वरूपं प्रतिपिपादयिषयाऽऽह —
अत्थाणं० गाहा ॥ (*७६- १८४ ) ॥ तत्रार्यन्त इत्यर्थाः, अर्यन्ते गम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इतियावत् ते च रूपादयः, तेषामर्थानां प्रथमदर्शनानन्तरं च ग्रहणं अवग्रहं ब्रुवत इति योगः, आह-वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकतया विशिष्टत्वात् किमिति प्रथमं दर्शनं ततो ज्ञानमिति, उच्यते, तस्य प्रबलावरणत्वात, दर्शनस्य चाल्पावरणत्वादिति, 'तथे' त्यानन्तर्ये, विचारणं पर्यालोचनं, अर्थानामिति वर्तते, ईहनमीहा तां, ब्रुवत इति सम्बन्धः, विविधोऽवसायो व्यवसाय:- निर्णयस्तं व्यवसायं च अर्थानामिति वर्तते, अपायं ब्रुवत इति संसर्गो, धृतिर्धरणं, अर्थानामिति वर्तते, परिच्छिन्नस्य वस्तुनः अविच्युतिस्मृतिवासनारूपं तद्धरणं पुनधीरणां, ब्रुवत इत्यनेन शास्त्रपारतन्त्र्यमाह, इत्थं तीर्थकरगणधरा ब्रुवते, अन्ये त्वेवं पठन्ति 'अस्थाणं उग्गहणम्मि उग्गही' इत्यादि, अत्राप्यर्थानामवग्रहणे सत्यवग्रहो नाम मतिविशेष इत्येवं ब्रुवते, एवमीहादिष्वपि योज्यं, भावार्थस्तु पूर्ववदिति गाथार्थः । इदानीमभिहितस्वरूपाणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह
उग्गहो० गाहा ।। *७७-९८४) ।। इहाभिहितलक्षणोऽर्थावग्रहो यो जघन्यो-नैश्रयिकः स खल्वेकं समयं भवतीति सम्बन्धः,
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः
~77~
अवग्रहा
दयो भेदाः
||| GR !!
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
मूलं [३७...] / गाथा ||७७-७८||
........
नन्दी- हारिभद्रीय
प्रत सूत्रांक [३७..] गाथा |७७७८||
RECER
तत्र कालः परमनिकृष्टः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पलपत्रशतव्यतिभेदोदाहरणाजीर्णपट्टशाटिकापाटनदृष्टान्ता-है। | अवग्रहाचावसेय इति, तथा सांव्यवहारिकार्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहौ तु पृथक् पृथगन्तर्मुहूर्त्तकालं भवत इति ज्ञातव्यौ, ईहा चापायचेहापायौ,
दीनां | प्राकृतशेल्या बहुवचनं, उक्तं च-“बहुवयणेण दुवयणं छद्विविभत्तीइ भण्णइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया नमोऽधु देवाहिदेवाणं कालमान ॥१॥" तावीहापायौ मुहूर्तार्द्ध ज्ञातव्यौ भवतः, तत्र मुहूर्त्तशब्देन घटिकाद्वयपरिमाणः कालोऽभिधीयते, तस्यार्द्ध मुहूर्ताच, तुशन्दो विशेषणार्थः, कि विशिनष्टि १, व्यवहारापेक्षयैतन्मुहूद्धिमुक्तं, तत्वतस्त्वन्तर्मुहर्तमबसेयमिति, अन्ये त्वेवं पठन्ति-- "मुहुत्तमंतं तु" मुहूर्तान्तस्तु, द्वे पदे, अयमर्थः-अन्तर्मध्यकरणे, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, एतदुक्तं भवति-ईहापार्यो बहन्तिः , भिनं यह ज्ञातव्यौ भवतः, अन्तर्मुहर्तमेवेत्यर्थः, कलनं कालः कालं, न विद्यते संख्यायन्ते इयन्तः पक्षमासत्वेयनसंवत्सरादय इत्येवभूता संख्या यस्यासावसंख्येयः, पल्योपमादिलक्षण इत्यर्थः, तं कालमसंख्यं, तथा संख्यायत इति संख्या-1 इयन्तः पक्षमासत्वेयनादय इत्येवं, संख्येय प्रमित इत्यर्थः, तं संख्य, चशब्दादन्तर्मुहूर्त्त च, धारणाभिहितलक्षणा भवति ज्ञातव्या, | अयमत्र भावार्थ:-अपायोत्तरकालमविच्युतिरूपाऽन्तर्मुहतं भवत्येव, स्मृतिरूपापि, वासनारूपा तु तदावरणक्षयोपशमाख्या स्मृति
धारणायाः बीजभूता संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयकालं असंखयेयवपीयुषां पल्पोपमादिजीविनां चासंख्येयमिति गाथाङ्कः॥४ | इत्थमवग्रहादीनां स्वरूपमाभिधायेदानीं श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्रतिपिपादयिपुराह
पुढे सुणहगाहा ॥ (*७८-१८४) ॥ तत्र स्पृष्टमित्यालिङ्गितं, तनौ रेणुचत् , शृणोति-गृह्णाति, किं', शब्द-शब्दद्रव्यसंघात, की कुतः ।, तस्य सूक्ष्मत्वाद्भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्याकुलत्वाच्छोडेन्द्रियस्यान्येन्द्रियग्रहणात् प्रायः पदुतरत्वात् १, रूप्यत इति रूपं तद्रूपं
ACNG
दीप
अनुक्रम [१२४१२५]
ॐRS
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
~78~
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
मूलं [३७...] / गाथा ||७८-७९||
84%
वृत्तो
प्रत सूत्रांक [३७..] गाथा ||७८७९||
नन्दी
| पुनः पश्यति--गृह्णाति, अस्पृष्टम् अनालिगितमसंबद्धमित्यर्थः, पूनःशब्दो विशेषणार्थः, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, ततश्चायमर्थः-अस्पृष्टमेव | प्राप्याप्राहारिभद्रीय यादा पश्यति, पुनःशब्दादस्पृष्टमपि योग्यदेशावस्थित, नायोग्यदेशावस्थितमधोलोकादि, कुतः, अप्राप्तकारित्वात् परिमितदेशस्थीवषय- प्यकारिता
ग्राहित्वाच्चक्षुष इति २, प्रायत इति गन्धस्तं ३, रस्यत इति रसस्तं च, स्पृश्यत इति स्पर्शस्त, पशब्दी पूरणसमुच्चयायौँ, 'बद्ध-1 ।।७४॥
स्पृष्टमिति' पद्धम्-आक्लिष्टं तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः, स्पृष्टं पूर्ववत् , प्राकृतशैल्या चेत्थमुपन्यासो 'पद्धपुढे' ति, अर्थतस्तु | स्पृष्टं च बद्धं च स्पृष्टयद्धमिति विज्ञयं, आलिंगितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतमित्यर्थः, गन्धादिः, स्तोकद्रव्यत्वादभावुकत्वात् ।। प्राणादीनां चापटुत्वाद्विनिधिनोतीत्येव ध्यागृणीयादिति गाथार्थः । इह स्पृष्टं शृणोति शब्दमित्युक्त, तत्र किं शब्दप्रयोगात्मृ-1 धान्येव केवलानि शब्दद्व्याणि गृहास्युतान्यानि तद्भावितानि आहोस्वित् मिधाणीति चोदकाभिप्रायमाशंक्य न तावत् केवलानि, | तेषां वासकत्वात्तयोग्यद्रव्याकुलत्वाच लोकस्य, किन्तु मिश्राणि तद्वासितानि वा गृहातीति, अमुमर्थमभिधित्सुराह-.
भासा गाहा (७७९-१८४)। भाष्यत इति भापा, पकना शब्दतयोत्सज्यमाना द्रव्यसंहतिरित्यर्थः, तस्याः समश्रेणयो भाषा-12 | समश्रेणयः, समग्रहण विश्रेणीच्यवच्छेदार्थ, इह श्रेणयः क्षेत्रप्रदेशश्रेणयोऽभिधीयन्ते, ताच सर्वस्यैव भाषमाणस्य पर्स दिनु विद्यन्ते, यावत्सृष्टा सति भाषाऽऽद्यसमय एव लोकान्तमनुधावतीति, ता इतो- भापासमश्रेणीतः, इतो गतः प्राप्त: स्थित इत्यनथोन्तरं, एतदुक्तं भवति- भाषासमणिव्यवस्थित इति, शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः भाप रखेन परिणतः प्रगलराशिः तं शब्द, य पुरुषा | श्वादिसम्बन्धिनं शृणोति-गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः, यत्तदोनित्यसम्बन्धा मिथ शृणोति, एतदुक्तं भवति-उत्सृष्टद्रव्य: |भावितापान्तरालस्थशब्दद्रव्यामिश्रमिति, विणि पुनरित इति वर्तते, ततश्चायमों भवति विश्रेणिव्यवस्थितः पुनः श्रोता शब्द |
दीप
ERRENAKAci
अनुक्रम [१२५१२६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३८]
गाथा
||७९
८०||
दीप
अनुक्रम
[१२६
१२९]
*3556%
“नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [३८] / गाथा ||७९-८०||
नन्दी- शृणोति नियमेन पराघाते सति यानि शब्दद्रव्याण्युत्सृष्टद्रव्याभिघाते वासितानि तान्येव, न पुनरुत्सृष्टानीति भावार्थ:, कुतः ?, हारिभद्रीय तेषां अनुश्रेणिगमनात् प्रतिषातामायाच्च, अथवा विश्रेणिस्थित एव विश्रेणिरभिधीयते पदेऽपि पदावयवप्रयोगदर्शनाद्भीमसेनः वृत्ती सेनः सत्यभामा भामेति यथेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं विनेयगणसुखप्रतिपत्तये मतिज्ञानपर्यायशब्दानभिधित्सुराह11:04 11
ईहा०गाहा ।। (*८०-१८४) || ईहनमीहा, सदर्थपर्यालोचनचेष्टेत्यर्थः, अपोहनमपोहो, निश्रय इत्यर्थः, विमर्षणं विमर्षः, ईहा| पायमभ्यवर्त्ती प्रत्ययः, तथाऽन्वयधर्मान्वेषणा मार्गणा, चः समुच्चयार्थः, व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा, तथा संज्ञानं संज्ञाव्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः, स्मरणं स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थालम्बनप्रत्ययः, मननं मतिः कथंचिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरित्यर्थः तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथाऽवस्थित धर्मालोचनरूपा संविदिति भावना सर्वमिदमाभिनिवोधिकं मतिज्ञानमित्यर्थः एवं किंचिद्भेदाद्भेदः प्रदर्शितः, तत्त्वतस्तु मतिवाचकाः सर्व एते पर्यायशब्दा इति गाथार्थः ॥ 'संत' मित्यादि, तदेतदाभिनियोधिकज्ञानमिति ॥ साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तसकलचरणकरणक्रियाधारश्रुतज्ञानस्वरूपजिज्ञासयाह
'से किं तमित्यादि ॥ ३८-१८०) ।। अथ किं तत् श्रुतज्ञानं ?, श्रुतज्ञानमुपाधिभेदाच्चतुर्दशविधं प्रज्ञतं, तद्यथा- अक्षरतं १ अनक्षर २ संशितं ३ असंज्ञितं ४ सम्यक्क्षुतं ५ मिध्याश्रुतं ६ सादि ७ अनादि ८ सपर्यवसितं ९ अपर्यवसितं १० गमिकं ११ अगमिकं १२ अंगप्रविष्टं १३ अनंगप्रविष्टं १४, एतेषां च भेदानां स्वरूपं यथावसरं वक्ष्यामः । अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतभेदद्वयान्त
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ••• अथ परोक्षज्ञान-भेदे 'श्रुतज्ञान'स्य वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत् 'श्रुतस्य १४ भेदानां वर्णनं क्रियते
~80~
भाषाश्रुतिः मतिपयोयाथ
॥ ७९ ॥
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) । ...... मूलं [३९] / गाथा ||८०...||
प्रत
सूत्रांक
[३९]
गाथा ||८०..||
नन्दी- र्भावेऽपि शेपभेदानामुपन्यासोऽज्ञातज्ञापनार्थः, न च भेदद्वयादेवाव्युत्पत्रमतीनां शेषभेदावगम इति प्रतीतमेतद् , अलं विस्तरेण ॥ श्रुतभेदाः हारिभद्रीयाली साम्प्रतमुपन्यस्तश्रुतभेदानां स्वरूपमनवगच्छन्नाय भेदमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह
ला अक्षरश्रुतं वृत्ती
से किंत' मित्यादि ॥१३९-१८७)।। अथ किं तदक्षरश्रुतं, 'क्षर संचलने न क्षरतीत्यक्षरं, तच्च ज्ञानं चेतनेत्यर्थः, जीवस्खा ॥ ७६ ॥ भाव्यादनुपयोगेऽपि तत्वता न प्रच्यवत इत्यर्थः, इत्थंभूतभावाक्षरकार्यकारणत्वादकाराद्यप्यक्षरमुच्यते, तत्राक्षरात्मकं श्रुतमक्षरश्रुतं
द्रव्याक्षराण्यधिकृत्य, अथवाऽक्षरं च तत् श्रुतं चाक्षरश्रुतं, भावाक्षरमधिकृत्य, इदमक्षरश्रुतं त्रिविध प्रज्ञतं. अक्षरस्यैव त्रिभेदत्वात्, | त्रिभेदतामेव दर्शयन्नाह- संज्ञाक्षरं १ व्यंजनाक्षरं २ लब्ध्यक्षरं ३, 'से किं तमित्यादि अथ किं तत् संज्ञाक्षरं ', संज्ञान संत्रा, संज्ञायते वा अनयेति संज्ञा, तमिवन्धनमक्षरं संज्ञाक्षरं, इदं च अक्षरस्य अकारादेः संस्थानस्याकृतिः संस्थानाकारी, यतस्तनिवन्ध
नेवतेष्वकारादिसंज्ञा प्रवर्तते इति, एतच्च ब्राहम्यादिलिपीविधानादनेकविधं, 'सेतं सनक्वर' तदेतत् संज्ञाक्षरं ॥ MT से कित' भित्यादि, अथ किं तद् व्यञ्जनाक्षरं ?, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेच घट इति व्यञ्जनं तब तदक्षरं च व्यञ्जना
वर, तच्चेह सर्वमेव भाष्यमाणमकारादि हकारान्तं, अर्थाभिव्यञ्जकत्वाच्छब्दस्य, तथा चाह सूत्रकार:-अक्षरस्याकारादेः व्यञ्जना-1 भिलापः शब्दोच्चारणं, 'से तमित्यादि, तदेतद्वयञ्जनाक्षरम् ॥ I से किं त' मित्यादि, अथ किं तल्लब्ध्यक्षरं!, लब्धिः क्षयोपशमः उपयोग इत्यर्थः, 'अक्खरलवीयम्स' इत्यादि, इहाक्षरे ॥६॥ लम्भिर्यस्य सोऽक्षरलाब्धिकस्तस्य, इन्द्रियमनउभयविज्ञानसमुत्थघटाद्यक्षरलब्धिसमन्वितस्येत्यर्थः, अनेन विकलेन्द्रियादिव्यवच्छेद
CA
दीप अनुक्रम [१३०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३९]
गाथा
॥८१॥
दीप
अनुक्रम [१३१
१३२]
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [३९] / गाथा ||८१||
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्ती
॥ ७७ ॥
माह, लब्ध्यक्षरं समुत्पद्यते कुतश्चिच्छन्दादेर्निमित्तात् सञ्जाततदावरणकर्मक्षयोपशमस्य लब्ध्यक्षरं समुत्पद्यते - अक्षरोपलम्भः सञ्जायते, एतदुक्तं भवति-शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि शाङ्ख इत्याद्यक्षरानुषक्तं विज्ञानमुत्पद्यते, १४ तच्चानेकप्रकारं तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरमित्यादि, इह श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दश्रवणे सति शाङ्खोऽयमित्याद्यक्षरद्वयलाभः श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तत्त्वाच्छोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरामिति, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, 'से त' मित्यादि, तदेतल्लब्ध्यक्षरं, 'से त' मित्यादि, तदेतदक्षरात्मकं अक्षरं च तदिति वा श्रुतं चाक्षरथुतं, तत्र संज्ञाव्यञ्जनाक्षरे द्रव्यश्रुतं लब्ध्यक्षरं पुनर्भावश्रुतं लब्धेर्विज्ञानरूपत्वात् ।। 'से किं तमित्यादि, अथ किं तदक्षरतम् १, २ अनक्षरः शब्दः कारणं कार्यमनक्षर अनेकविधम्- अनेकप्रकारं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
ऊससियं०गाहा || ( * ८१-१८७ ) । उच्छ्वसनमुच्छ्वसितं भावे निष्ठाप्रत्ययः तथा निःश्वसनं निःश्वसितं निष्ठीवनं निष्ठ्यूतं, कासनं कासिवं, चशब्दः समुच्चयार्थः, क्षवणं श्रुतं चशब्दः समुच्चयार्थ एत्र, अस्य व्यवहितः सम्बन्धः, कथं?, सेंटित चानक्षरं श्रुतमिति वक्ष्यामः, निःसङ्घनं निःसङ्घितं, अनुस्वारवदनुस्वारं, अक्षरमपि यदनुस्वारव दुच्चार्यते, 'अनक्षर' मित्येतदुच्छ्वसिताद्यनक्षरश्रुतमिति, सेण्टनं सेटितं तत् सेंटितं चानक्षरश्रुतमिति, इदं चोच्छ्वसितादि द्रव्यप्रतमात्रं ध्वनिमात्रत्वात्, अथवा श्रुतविज्ञानोपयुक्तस्य जन्तोः सर्व एव व्यापारः श्रुतं तस्य तद्भावेन परिणतत्वात्, आह-यद्येवं किमित्युपयुक्तस्य चेष्टाऽपि श्रुतं नोच्यते, येनोच्छ्वसिताद्येवोच्यते इति, अत्रोच्यते, रूख्या, अथवा श्रूयत इति श्रुतं, अन्वर्थसंज्ञामधिकृत्योच्छ्वसिताद्येव श्रुतमुच्यतेन चेष्टा, तदभावादिति, अनुस्वारादयस्त्वर्थगमकत्वादेव श्रुतमिति, 'से त' मित्यादि, तदेतदनक्षरश्रुतम् ।
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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लब्ध्यक्षरं अनक्षरश्रुतं
॥ ७७ ॥
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४०] / गाथा ||८१...||
(४४)
A-CA
वृत्ता
प्रत सूत्रांक [४०]
गाथा ||८१..||
EXE
SONAL
नन्दी
'से किं तमित्यादि, ॥ (४०-१८९) ।। अथ किं तत् संज्ञिश्रुतं', संज्ञानं संज्ञा, संज्ञाऽस्यास्तीति संत्री तस्य श्रुतं २ त्रिविध संनिश्रुतं हारिभद्रीय
| अजप्त, संजिन एव त्रिभेदत्वात् , त्रिभदतामेव दर्शयन्नाह-तद्यथा-कालिक्युपदेशन हेतूपदेशन दृष्टिवादोपदेशेन. 'सेकिंतमित्यादि,
अथ कोऽयं कालिक्युपदेशन, इहादिपदलोपाद्दीर्घकालिकी कालिक्युच्यते, संज्ञेति प्रकरणाद्गम्यते, उपदेशनमुपदेशः, कथनमित्यर्थः, ॥ ७८॥
| दीर्घकालिक्याः सम्बन्धी दीर्घकालिक्या वा मतेनोपदेशो दीर्घकालिक्युपदेशस्तेन यस्य प्राणिनः अस्ति-विद्यते ईहा-शब्दाघवग्रहणोत्तरकालमन्वयव्यतिरेकधर्मालोचनचेष्टेत्यर्थः, तथा अपोहो-व्यतिरेकधर्मपरित्यागेनान्वयधर्माध्यासेनावधारणात्मकः प्रत्यय इति भावना,यथा शब्द इति,तथा मार्गणा विशेषधर्मान्वेषणारूपा संबिदित्यर्थः,यथा शब्दः सन् किं शाङ्कः किं वा शार्ङ्ग इति,तथा गवेषणा
व्यतिरेकधर्मस्वरूपालोचना,यथा खरादय एवंभूता इति,तथा चिन्ता अन्वयधर्मपरिज्ञानाभिमुखा चेष्टा, यथा मधुरत्वादयस्त्वेवभूता 18 है इति,तथा विमर्षः त्याज्यधर्मपरित्यागेनोपादेयधर्मग्रहणाभिमुख्य,यथा न शाङ्गः,प्रायोऽयं मधुरत्वादियोगाच्छाङ्कइति, सेणं सन्नीति है
लब्भतित्ति स प्राणी णमिति वाक्यालङ्कारे संज्ञीति लभ्यते, मनःपर्याप्त्या पर्याप्तोऽवग्रहादिमतिज्ञानसम्पत्समन्वित इत्यर्थः, | अथवा यस्यास्ति ईहा--किमतदिति चेष्टा इदमित्यवगमोऽपोहः अवगतार्थाभिलाषे तत्प्रार्थना मार्गणा तदप्राप्तौ च निपुणोपाय तोऽन्वेषणं गवेषणा प्रयुक्तप्रतिहतोपायस्योपायान्तरचिन्तनं चिन्ता तद्विषय एवोपायालोचनात्मकः प्रत्ययो विमर्पः स संज्ञीति
ला ॥७ ॥ लभ्यते,अयं च गर्भव्युत्क्रान्तिकः पुरुषादिरौपपातिकश्च देवादिरेव मनःपर्याप्तिप्रयुक्तो विज्ञेयः, यथोक्तविशेषणकलापसमन्वितत्वात् , न पुनरन्यस्तद्विशेषणविकल इति, आह च-'जस्से' त्यादि,यस्य नास्ति ईहाऽपोहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्पः सोऽसनीति लम्पते, अयं च सम्मूच्छिमपंचेन्द्रियविकलेन्द्रियादिज्ञेयः, अल्पमनोलम्धित्वादभावाच्च, 'सेत'मित्यादि,सोऽयं कालिक्युपदेशेन ।
दीप अनुक्रम [१३३]
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४०] गाथा
॥८९..।।
दीप
अनुक्रम
[१३३]
नन्दीहारिभद्रीय पूची
॥ ७९ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४०] / गाथा ||८१..||
'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं हेतूपदेशेन, हेतुः कारणं स एव उपदेशः हेतोरुपदेशः हेतुपदेशस्तेन, कारणोपदेशेनेत्यर्थः, यस्य प्राणिनोऽस्ति विद्यतेऽभिसन्धारणम्--अव्यक्तेन विज्ञानेनालोचनं तत् पूर्विका तत्कारणिका करणशक्तिः क्रियाशक्तिः, करणं क्रिया शक्तिः सामर्थ्य, अव्यक्तविज्ञानालोचननिबन्धनचेष्टासामर्थ्यमिति भावना, स प्राणी णमिति वाक्यालंकारे संज्ञीति लभ्यते, अयं च द्वीन्द्रियादिः सम्मूर्च्छिमपंचेन्द्रियावसानो विज्ञेयः तथाहि क्रम्यादयो ऽपीष्टेष्वाहारादिषु प्रवर्त्तन्ते अनिष्टेभ्यश्च निवर्त्तन्ते स्वदेहपरिपालनार्थ, प्रायो वर्त्तमान एव न चासीचन्त्येष्टानिष्टविषयः प्रवृत्तिनिवृत्तिसम्भव इति संज्ञी, उत्तलक्षणविकलस्त्वसंज्ञी, तथा चाह- 'यस्येत्यादि यस्य नास्ति अभिसन्धारणपूर्विका करणशक्तिः सोऽसंङ्गीति लभ्यते, अयं चैकेन्द्रियपृथिव्यादिखसेयो, मनोलब्धिरहितत्वाद, आह-यदि स्वल्पसंज्ञायोगाद्विकलेन्द्रियादयः संशिन इष्यन्ते पृथिव्यादयः किं नेष्यन्ते । यतस्तेषामपि दशविधाः संज्ञा विद्यन्त एव तथा चोक्तं परमगुरुभिः- “कति णं मंत! एगिंदियाणं सभाओ पद्मत्ताओ, गोयमा दस, तंजहा आहारसंना भयसभा मेहुण० परिग्गहसन्ना कोह०माण • माया • लोभ० ओहसचा लोगसना य" ति उपयोगमात्रमोघसंज्ञा लोकसंज्ञा स्वच्छन्दविकल्पिता विश्वगमा लौकिकैराचरिता, तद्यथा - अनपत्यस्य न सन्ति लोका इत्यादि, अन्ये तु व्याचक्षते ओघसंज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोग इति, अत्रोच्यते, इहौषसंज्ञा स्तोकत्वाद् आहारादिसंज्ञाश्चानिष्टत्वानाधिक्रियते, यथा न कार्षापणमात्रेण धनवानभिधीयते मूर्त्तिमात्रेण वा रूपवानिति, किन्तु यथा प्रभूतरत्नादिसमन्वितो धनवान् प्रशस्तमूर्तियुक्तश्च रूपवानभिधीयते, एवं महती शोभना च संज्ञा यस्यास्त्यसौ संज्ञीति, विशिष्टतरा च विकलेन्द्रियसंज्ञेत्यलं विस्तरेण, 'सेल' मित्यादि, सोऽयं हेतुपदेशन । 'से किं त' मित्यादि, अथ कोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन?, दृष्टिः-दर्शनं वदनं वादः दृष्टीनां वादः दृष्टिवादः तदुपदेशन तन्मतापेक्षया
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४१] / गाथा ||८१...||
प्रत
सूत्रांक
[४१] गाथा ॥८१..॥
नन्दी-18 संझिश्रुतस्य क्षयोपशमेन संज्ञीति लभ्यते, अयमत्र भावार्थ:-संज्ञानं संज्ञा तद्योगात संक्षी तस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतं, इदं सम्यक् श्रुतमेव, संज्ञिश्रुतं हारिभद्रीय अन्यथा संज्ञानाभावात् ,न हि मिथ्यादृष्टः संज्ञानमस्ति, हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्यभावाद् , रागादिप्रवृत्तेः, उक्तं च "तज्ज्ञानमेव न भवति | वृत्तों
यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥" सम्यग्दृष्टिस्तु तभिग्रहपरत्वाद्वीतराग-1 |सम एव, उक्तंच- "कलुसफलेण | जुज्जइ किं चित्तं तत्थ जं विगतराओ । संतवि जो कसाए णिगिण्हती सोऽवि तत्तुल्लो ॥१
तीत्यादि, अलं प्रसंगेन, तदित्थंभूतस्य संन्निश्रुतस्य क्षयोपशमेन सता संज्ञीति लभ्यते, अयं च सम्यग्दृष्टिरेव क्षायोपशमिकज्ञान| युक्तो रागादिनिग्रहपरः, तदन्यस्त्वसंजी, यत आह ग्रन्थकारः--असंज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमेनासंझीति लभ्यते, 'सेत'मित्यादि, सोऽयं
दृष्टिवादोपदेशेन, एवं संझिनस्त्रिभेदभिन्नत्वात् श्रुतमपि तदुपाधिभेदात् त्रिविधमेवेति । अत्राह-कालिक्युपदेशेनेत्यादि क्रमाकिमर्थी, | उच्यते, इह प्रायः सूत्रे यत्र क्वचित् संझिग्रहणं तत्र दीर्घकालिक्युपदेशेन समनस्कसंज्ञिपरिग्रह इति प्रथमं तदुपन्यासः, अप्रधान
त्वाच्चेतरयोः अन्ते च प्रधानाभिधानमिति न्याय्यं, 'सेत'मित्यादि, तदेतत् संज्ञिश्रुतं, असंज्ञिश्रुतं तु प्रतिपक्षाभिधानादेव &ा प्रतिपादितं, तदेतदसंक्षिश्रुतम् ॥ | 'से किंत मित्यादि ।।(४१- १९१।। अथ किं तत् सम्यक्श्रुतं?,२ यदिदं प्रणीतमिति सम्बन्धः, तत्राशोकाद्यष्टमहाप्रातिहा
यरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तः, तथा चोक्तं-"अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्र, सत्प्राति- PH॥८ ॥ लहायर्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ १॥ तैरहद्भिः, तत्र शुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिभिःअनादिशद्धा एव मुक्तात्मानोऽभ्युपगम्यन्ते,यथोसतम्-"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्य च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टय।।१॥" इत्यादि, बहवश्व कैश्चिदिष्यन्ते, तेपि
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दीप अनुक्रम [१३४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: ... श्रुतज्ञानस्य १४ भेद-मध्ये 'सम्यकश्रुतस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(४४)
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सूत्रांक
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गाथा
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दीप
अनुक्रम [१३४]
A
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४१] / गाथा || ८१...||
नन्दी
॥ ८१ ॥
व स्थापनादिद्वारेण पूर्जार्हत्वादर्हन्तो भवन्त्येव, अतो- भगवद्भिः, भगः खलु समत्रैश्वर्यादिलक्षणः, यथोक्तं- "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, हारिभूद्रीयः- ॐ रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगना ||१||" भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः तैर्भगवद्भिः, न चानादिवृत्तौ शुद्धानां समग्र रूपमुपपद्यते, अशरीरित्वात्, शरीरस्य च रागादिकार्यत्वात् तेषां च तदभावादिति, स्वेच्छा निर्माणतः समग्रशरीरसम्भवातुल्यतामेवाशंक्याह-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः न च तेनादिशुद्धाः उत्पन्नज्ञानदर्शन धराः 'ज्ञानमप्रतिघं यस्येत्यादिवचनविरोधात् एवं शुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थोऽयं ग्रन्थः, अधुना पर्यायास्तिकन्यमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थमाह- 'त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजितैः' निरीक्षिताथ महिताच पूजिताश्वेति समासः, त्रैलोक्येन निरीक्षितमहितपूजिता इति विग्रहः, विशेषणसाफल्यं पुनरित्थमवसेयं त्रैलोक्यग्रहणाद्' भवनव्यन्तरनरविद्याधरज्योतिष्कवैमानिकपरिग्रहः, निरीक्षिता भक्तिनम्रैर्मनोरथदृष्टिभिर्दृष्टाः, महिता यथाऽवस्थितान्यासाधारणगुणोत्कीनलक्षणेन भावस्तवेन पूजिताः सुगन्धिपुष्पप्रकरप्रक्षेपादिना द्रव्यस्तवेनेति, तत्र सुगतादयोऽपि पर्यायास्तिकनयमतानुसारिभित्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजिता इष्यन्त एव, आह च स्तुतिकार:"देवागमन भोयानचामरादिविभूतयः । मायाविध्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ||१||" इत्यादि, अत आह- 'अतीतप्रत्युत्पन्नानागतज्ञैः' न चैकान्तक्षणिकवादिनां यथोक्तविशेषणसम्भवः, अतीतानागताभावात्, तथा चागमः, "ण णिहाणगया भग्गा पुंजो णत्थि अणागते । णिब्बुमा णेव चिट्ठति आरग्गे सरिसोवमा || १ ||" असतां च ग्रहणायोगादित्याद्यत्र बहु वक्तव्यं, न च तद्दुच्यते, गमनिकामात्रत्वादस्य प्रारम्भस्य, व्यवहारनयमतानुसारिभिस्तु कैश्चिदतीतानागतार्थग्राहिण इष्यन्त एवं ऋषयः, यथाssहुरेके- "ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः । तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। १ ।। अतीतानागतान् भावान्,
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सम्यक्क्षुतं
॥ ८१ ॥
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४१] / गाथा ||८१...||
(४४)
प्रत सूत्रांक
[४१]
गाथा ॥८१..||
नन्दी- वर्तमानांश्च मारत! । ज्ञानालोकेन पश्यन्ति, त्यक्तसंगा जितेन्द्रिया ॥२॥" इत्यादि, अत आह-'सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः' ते तु सर्वज्ञा हारिभदायान भवन्तीत्यभिप्रायः, एवं प्रधानोभयनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदनंद नीयते, अन्यथा वाऽविरोधेन नेतन्यामिति,
पूचा प्रणीतम्-अर्थकथनद्वारेण प्ररूपित, किं त-द्वादशांग, श्रुतपरमपुरुषोत्तमस्यांगानीचांगानि द्वादश अगानि-आचारादीनि यस्मिसालास्त द्वादशांग, गुणगणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटकं- सर्वस्वं गणिपिटकम् , अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचना, तथा
चोक्तम्-"आयारम्मि अहीए ज णातो होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भन्नति पढम गणिड्डाणं ॥१॥" परिच्छेदस्थानमित्यर्थः, ततव परिच्छेदसमूहो गणिपिटक, तद्यथा-आचार इत्यादि, पाठसिद्धं यावद् दृष्टिबादः। अनंगप्रापिष्टमावश्यकादि, ततोऽर्हत्प्रणीतत्वात् वस्तुत उक्तत्वादनुक्तमपि गृह्यते, इदं सर्वमेव द्रव्यास्तिकनयमतेन तदभिधेयपंचास्तिकायभाववन्नित्यं सत् स्वाम्यस|म्बन्धचिन्तायां सत्रार्थोभयरूपं सम्यक्क्षुतमेव भवति,' स्वामिसम्बन्धचिन्तायां तु भाज्य, स्वामिपरिणामविशेषात् , कदाचित् | सम्यक्श्रुतं कदाचिद्विपर्ययः, तत्र सम्यग्दृष्टेः प्रशमादिसम्यकपरिणामोपेतत्वात् स्वरूपेण प्रतिभासनात् सम्यकथुतं, पिचोदयानभिभूतस्य शर्करादिरिवेति, मिथ्यादृष्टः पुनरप्रशमादिमिथ्यापरिणामोपेतत्वाद्वस्तुनः स्वरूपेणाप्रतिभासनान्मिध्याश्रुतं, पिचोदयाभिभूतस्याशर्करादिवदिति, देशतो दृष्टान्ता, अशर्करादित्वं च तं प्रति तत्कार्याकरणात्, तथाऽप्यभ्युपगमे चातिप्रसंगादित्यल प्रसंगेन ।। श्रुतप्रमाणत एव सम्यकपरिणामनियमनायाह-. __ 'इच्च्चेद'मित्यादि, इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं चतुर्दशपूर्विणः सम्यकश्रुतमेव, तथा अभित्रदशपूर्विणोऽपि सम्यकश्रुतमेव, तेण परं भिन्नसु(दसम्भयण' त्ति पश्चानुपूर्ध्या ततः परं मिनेषु दशसु भजना-कदाचित् सम्यकश्रुतं कदाचिन्मिथ्याश्रुतं,
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दीप अनुक्रम
[१३४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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[[४२-४३]
गाथा
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अनुक्रम [१३५
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नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
॥ ८३ ॥
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“नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:)
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परिणामविशेषाद्, एतदुक्तं भवति- आसनभव्योऽपि मिध्यादृष्टिः सम्पूर्णदशपूर्वरत्न निधानं न प्राप्नोति, मिध्यात्वपरिणामकलंकितत्वाधारियनिबन्धनपापकलंकांकित पुरुषव च्चितामणिमिति, 'सेत' मित्यादि तदेतत् सम्यकश्रुतम् ॥
'से किं तमित्यादि ॥ ४२-१९४) । अथ किं तन्मिथ्या श्रुतंः, २ यदिदमज्ञानिकैः, तत्राल्पज्ञानभावाद्धनवदशीलबद्वा सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिकाः प्रोच्यन्ते अत आह- मिध्यादृष्टिभिः किं? -स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं, इहावग्रहेहे बुद्धिः, अपायधारणे मतिः, स्वच्छन्दन - स्वाभिप्रायेण स्वतः, सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्द बुद्धिमतिविकल्पितं स्वद्विकल्पनाशिल्पनिर्मितमित्यर्थः, तद्यथा 'भारत' मित्यादि सूत्रसिद्धं यावच्चत्वारश्च वेदास्सांगोपांगाः, एतानि स्वरूपतोऽन्यथावस्त्वभिधानान्मिध्याश्रुतमेव, स्वामिसम्बन्धचिन्तायां तु भाज्यानि, तथा चाह-मिथ्यादृष्टेमिध्यात्वपरिगृहीतानि विपरीताभिनिवेशहेतुत्वान्मध्याश्रुतं एतान्येव सम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वपरिगृहीतानि असारतादर्शनेन स्थिरतरसम्यक्त्व परिणामहेतुत्वात् सम्यक्श्रुतं, अथवा मिच्छद्दिस्सिवि सम्यक्क्षुतमित्यादि, अथवा मिथ्याडेटरप्येतानि सम्यक्क्षुतं कस्मात् सम्यक्त्वहेतुत्वात तथा चाह 'जम्हा ते मिच्छादीया' इत्यादि, यस्मात्ते मिध्यादृष्टयः 'तेहिं चैव समयेहिं चोदिता समाण' त्ति तैरेव समयैः सिद्धान्तैः पूर्वापरविरोधद्वारेण यद्यतीन्द्रियार्थदर्शनं स्यात् कथंचिदर्थप्रतिपत्तिरित्यादिना चोदिताः सन्तः केचन विवेकिनः सत्यक्यादय इव कि, 'सपक्वदिट्टीओ वर्मेति' स्वपक्षदृष्टीस्त्यजन्तीत्यर्थः 'सत्त' मित्यादि, तदेतत् मिध्याश्रुतं । 'से किं त' मित्यादि, सादि सपर्यवसितं अनाद्यपर्यवसितं चाधिकारवशायुगपदुच्यते, अथ किं तत् सादि, सह आदिना वर्तत इति सादि इत्येतद् द्वादशांगं गणिपिटकं व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयः व्यवच्छित्तिनयः, पर्यायास्तिक इत्यर्थः, तस्यार्थो व्यवच्छित्तिनयार्थः, तद्भावो व्यवच्छिचि
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मिध्यात्वश्रुतं
॥ ८३ ॥
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[ ४२-४३]
गाथा
॥८९..।।
दीप
अनुक्रम
[१३५
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नन्दीहारिमुद्रीय
वृत्तौ
॥ ८४ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४२-४३] / गाथा ||८१... ||
नयार्थता तया व्यवच्छित्तिनया र्थभावेन, पर्यायापेक्षयेत्यर्थः, किं १, सादि सपर्यसित, पर्यवसानं पर्यसितं भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह पर्यवसानेन सपर्यवसितं, नारकादिभावापेक्षया एव जीव इति, तथा अव्यवच्छित्तिप्रतिपादन पुरो नयः अव्यवच्छिचिनयः, द्रव्यास्ति कनय इत्यर्थ, तस्यार्थोऽव्यवच्छित्तिनयार्थस्तद्भावः अव्यवच्छित्तिनयार्थता तथा अव्यवच्छित्तिनयार्थभावेन, द्रव्यापेक्षयेत्यर्थः, किं., अनादि अपर्यसितं, त्रिकालावस्थायित्वात् जीववत् ।। अधिकृतमेवार्थं द्रव्यादिचतुष्टयमधिकृत्य प्रतिपादयन्नाह 'तं समासतो' इत्यादि, तच्छुज्ञानं समासतः संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञतं, तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः, तत्र द्रव्यतः णमिति वाक्यालंकारे सम्यक्क्षुतं एकं पुरुषं प्रतीत्य सादिसपर्यसितं, कथं १, सम्यक्त्वावाप्तौ तत्प्रथमपाठतो या सादि, पुनर्मिध्यात्वप्राप्तौ सति वा सम्यक्त्वे प्रमादिग्लानिसुरलोकगमन केवलोत्पत्तिभावात् सपर्यवसितं बहून पुरुषान् प्रतीत्य अनाद्यपर्यवसितं सन्तानेन प्रवत्तत्वात् पुरुषत्ववत्, तथा क्षेत्रतः पंच भरतानि पंच एवतानि प्रतीत्य सादि सपर्यसितं, कथं ? तेषु सुषमदुष्पमादिकाले तीर्थकर धर्मसंधानां तत्प्रथमतयो - | त्पत्तेः सादि, एकान्तदुष्पमादिकाले च तदभावे सपर्यवसितं तथा महाविदेहादि प्रतीत्य प्रवाहरूपेण तीर्थकरादीनामव्यवच्छित्तेरनाद्यपर्यवसितं कालतः णमिति वाक्यालंकारे अवसर्पिणी उत्सर्पिणी च प्रतीत्य सादि सपर्वसितं कथं १ यतोऽवसर्पिण्यां तिसृवेव सुषमदुष्पमादुष्पमसुषमादुष्पमास्विति, उत्सर्पिण्यां द्वयोः दुष्पमासुमा सुषम दुष्पमयोरिति, न परतः, इत्यतः सादि सपर्यवसितं, अत्र कालचक्रं विंशतिसागरोपमकोटी कोटिपरिमाणं विनेयजनानुग्रहार्थं प्ररूप्यते-
चारि सागरामको डाकोडीउ संततीए उ एगंत सूसमा खलु जिणेहिं सन्देहिं णिद्दिट्ठा || १ || तीए पुरिसाणमायुं तिष्णि - उ पलियाई तह पमाणं च । तिभेव गाउयाई आदीए भणति समयण्णू ।। २ ।। उपभोगपरी भोगा जम्मंतरमुकयवीयजातातो ।
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मिथ्यात्वधुवं
॥ ८४ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .... मूल [४२-४३] | गाथा ||८१...||
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सूत्रांक [४२-४३] |
गाथा ||८१..||
नन्दी- | कप्पतरुसमूहाओ होंति किलेस विणा तेसि ॥ ३ ।। ते पुण दसप्पगारा कप्पतरु समणसमयकेतूहि । धीरेहि विणिदिवा मणोरहापूहारिभद्रीय
रगा एए ॥ ४ ॥ मत्तगया १ य भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोति ५ चितंगा ६। चित्तरसा ७ मणियगा ८ गेहागारा ९ कालच अणियणा १० य ।। ५ ।। मत्तंगएसु मज्ज मुहपेजं भायणाणि मिंगसु । तुडियंगेसु य संगयतुडियाणि बहुप्पगाराणि ॥ ६॥ दीवसिहा जोतिसणामया य णिच्च करिति उज्जोयं । चिगंगेसु य मल्लं चित्तरसा मोषणढाए ॥७॥ मणियंगसु य भूसणवराणि * भवणाणि भवणरुक्षेसं । आयनेसु य इच्छियवस्थाणि बहुप्पगाराणि ॥८॥ एएसु य असु य नरनारिगणाण ताणमुवभोगो । भवियपुणन्भवरहिया इय सब्वन्नू जिणा बिति ॥९॥ तो तिमि सागरोवमकोडाकोडी उ वीयरागेहिं । सुसमत्ति समक्खाया पवाहरूवेण धीरेहिं ।। १० ।। तीए पुरिसाणमायु दोणि य पलियाई तह पमाणं च । दो चेव गाउयाई आईए भणंति समयन्नू ॥११॥ उपभोगपरीभोगा तेसिपि य कप्पपादवेहितो । होति किलसेण विणा नवरं ऊणाऽणुमावेहिं ॥ १२ ॥ तो मुसमदूसमाए पवाहरूवेण कोडिकोडीओ । अयराण दोण्णि सिट्ठा जिणेहिं जियरागदोसेहिं ।। १३ ।। तीए पुरिसाणमाउं एग पलियं तहा पमाणं च । एगं च गाउयं तीइ आदीए भणति समयण्णू ॥ १४ ॥ उवभोगपरीभोगा तेसिपि य कप्पपादवेहितो । हाति किलेसेण विणा | पायं ऊपाऽणुभावेहिं ॥ १५ ॥ सूसमदुसमावसेसे पढमजिणो धम्मणायगो भयवं | उप्पनो कयपुनो सिप्पकलादंसगो उसहो
॥ १६ ॥ तो दुसमसुस्समूणा बायालीसाए वरिससहसेहिं । सागरकोडाकोडी एगेव जिणेहि पण्णता ॥ १७॥ तीए पुरिसाणमायु 181 पुवपमाणेण तह पमाणं च । धणुसंखानिदिढ विसेससुत्ताओ णायव्वं ॥ १८ ॥ उवमोगा परीभोगा पवरोसहिमाइएहिं विण्णेया। ॥५॥ व जिणचकिवासुदेवा सब्वे य इमीए वोलीणा ॥ १९॥ इगवीससहस्साई वासाणं दूसमा इमीए य । जेविय माणुवभोगादीया व
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम
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प्रत सूत्रांक
[ ४२-४३]
गाथा
॥८९..।।
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अनुक्रम [१३५
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नन्दीहारिभूद्रीय है वृत्ती
॥ ८६ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४२-४३] / गाथा ||८१... ||
दीसंति हायंता ॥ २० ॥ एतो उ किलिङ्कतरा जीतपमाणादिएहिं निहिट्ठा। अतिदुसमति घोरा वाससहस्साई इगवीसं ॥ २१ ॥ औसध्पिणीए एसो कालविभागो जिणेहिं निहिडो । एसोच्चिय पडिलोमं विशेयुस्तषिणी एवि ॥ २२ ॥ एतं तु कालचक सिस्सजणाणुग्गहया भणियं । संखेवेण महत्थो बिसेसमुत्ताओ णायब्बो || २३ || 'णोउस्सप्पिणी' मित्यादि, नोउत्सर्पिणीमवसपिंणीं च प्रतीत्य अनाद्यपर्यवसितं, महाविदेहेष्वेव कालस्यावस्थितत्वादिति भावः, भावतः णमिति पूर्ववत् 'य' इत्यनिर्दिष्टनिर्देश ये केचन यदा पूर्वाह्लादौ जिनः प्रज्ञप्ता २ भावाः पदार्थाः 'आघविज्जति' ति प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते, सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्त इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन, प्ररूप्यन्ते नामादिस्वरूपकथनेन, यथा 'पर्यायानभिधेय मित्यादि, दृश्यन्त उपमानमात्रतः यथा गौस्तथा गवय इत्यादि, निद हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन, उपदर्श्यन्ते उपनयनिगमनाभ्यामिति, सकलनयाभिप्रायतो वा वा तान् भावान् तदा तत्कालापेक्षया प्रतीत्य सादि सपर्ववसितं एतदुक्तं भवति प्रज्ञापकोपयोग -प्रज्ञापकोपयोगस्वरप्रयत्नासनविशेषतः प्रतिक्षणमन्यथा चान्यथा चावस्थितेः सादि सपर्यदसितं, तथा चोक्तम्- “उपयोगसरपयत्ताआसणभेदादिया या पतिसमयं । भिन्ना पद्मवगस्ता सादिसपज्जन्तगं तम्हा || १ ||" अथवा प्रज्ञापनीयभावापेक्षया गतिस्थितिग्यणुकाद्येकप्रदेशाद्यवगाहैकादिसमयस्थित्येकवर्णादिप्रतिपादनात् सादिसपर्यवसितं क्षायोपशमिकभावापेक्षया पुनरनाद्यपर्यवसितं प्रवाहरूपेण तस्यानाद्यपर्यवसितत्वाद, अथवा चतुभंगिका सादि पर्यवसितं १ सादि अपर्यवसितं २ अनादिसपर्यवसितं ३ अनादिअपर्यवसितं ४, तत्र प्रथमभंगक प्रदर्शनायाह- 'भवसिद्धियस्स' इत्यादि, भवसिद्धिको भव्यस्तस्य श्रुतं सम्यक् श्रुतं सादि सपर्यसितं, उपयोगाद्यपेक्षया भावितमेव, द्वितीयभंगस्तु शून्यः प्ररूपणामात्रतो वा अभव्यस्य वर्त्तमानकालापेक्षया अनागताद्वामधिकृत्य मिध्याश्रुत
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः
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कालचक्रं - सादिसपर्य सितादि
॥ ८६ ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [४२-४३] | गाथा ||८१...||
प्रत
सादिसपर्यवसितादि
सूत्रांक [४२-४३]
गाथा । ||८१..||
नन्दी मिति, तृतीयभंगस्तु सम्यक्त्वाप्ती भव्यस्य मिथ्याश्रुत,चतुर्थ भंगं पुनरुपदर्शयन्नाह--'अभव' इत्यादि,अभवसिद्धिका-अभव्यस्तस्य हारिभद्रीया श्रुतं मिथ्याभुत अनाथपर्यवसितं,तस्य सदैव संसारवर्तित्वात् । इह च श्रुतस्योपक्रान्तत्वात् तृतीयचतुर्थमंगकद्वये अनादिश्रुतभाव उक्तो-
न्यथा मतेरप्ययमेव द्रष्टव्यः,मतिश्रुतयोरन्योन्यानुगतत्वात् , अत्राह-सोऽनादिज्ञानमावः किं जघन्य उत विमध्यम आहोश्विदु॥८७॥ाला
स्कृष्ट इति, अत्रोच्यते,जघन्यो विमध्यमो वा,न तूत्कृष्टः कथंी,यतस्तस्येदं प्रमाण सध्यागासपदेसग्ग मित्यादि,सर्व च तदाकाशं च सर्षाकाश, लोकालोकाकाशामित्यर्थः, तस्य प्रदेशाः, प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा निर्विभागा मागा इत्यर्थः, तेषामग्रं-परिमाणं सर्वाकाशप्रदेशाग्रं, सर्वाकाशप्रदेशः, किं, अनन्तगुणितं अनन्तशो गुणितं अनन्तगुणितं, एकैकस्मिनाकाशप्रदेशे अनन्तागुरुलघुपर्यायमाबात्र पर्यायाधरं पर्यायपरिमाणाक्षरं निष्पयते, सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणमिति भावार्थः, स्तोकत्वाञ्चह धर्मास्तिकायादयो नोक्ताः, अर्थतस्तु गृहीता एव, इह च ज्ञानमक्षरं गृह्यते, तथा तज्ज्ञेयू, तथा अकारादि च, सर्वथाऽप्यविरोध इति, अस्य च सर्वजीवानामपि चाक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटितः, सदाप्रावृत इत्यर्थः, स पुनरनन्तभागोऽप्यनेकविधः, तत्र सर्वजघन्यवतन्यमात्र, तत्पुनने कदाचिदुत्कृष्टावरणस्याप्यात्रियते, जीवस्वाभाव्यात्, आह-च ग्रन्थकारः 'जइ पुण' इत्यादि, यदि पुनः सोऽपि आब्रियेत, ततः किं ?, तेन जीवः अजीवतां प्राप्नुयात् , तेनावृतेन जीवः- चैतन्यलक्षणः स्वलक्षणपरित्यागादजीवतां प्राप्नुयात् , नचैतद् दृष्टमिष्टं वा, सर्वस्य सर्वथा स्वभावातिरस्काराद् , अत्रैव दृष्टान्तमाह- 'सुटुंबी' त्यादि, मेघसमुदये चन्द्रसूर्यप्रभाजालतिरस्कारिण सति भवति प्रभा चन्द्रसूर्ययोः, सर्वस्य सर्वथा स्वभावातिरस्कारादिति । अत्राह-'सव्वागासपएसग्गं सन्चागासपदेसेहि अणतगुणियं पञ्जबग्गक्खरं निष्फञ्जती' त्यत्राविशेषितमेवाक्षरमुक्तम्,अविशेषाभिधानाचेदं केवलमिति गम्यते,इह तु श्रुताधिकारादकारादि प्रकृतं यतस्तत् |
दीप अनुक्रम [१३५
मा॥
८७॥
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .... मूल [४२-४३] / गाथा ||८१...||
45%
वृत्ती
प्रत सूत्रांक [४२-४३]
गाथा ||८१..||
SA
नन्दी कथं केवलपर्यायपरिमाणतुल्यं भवेद् ?, उच्यते, नन्वत्राप्यपर्यवसितश्रुताधिकारादकारायेव गम्यते, अथ मतिः- 'सव्वजीवाणंपिय णं सादिसपर्यहारिभद्रीय अक्खरस्स अणतभागो णिच्चुग्याडिओ'त्ति सर्वजीवग्रहणान तच्छुतं, यतः समस्तद्वादशांगविदां तत समस्तमिति, यद्येवं वसितादि
केवलस्यापि न सर्वजीवानामेवानन्तभागोऽवतिष्ठते, सर्वज्ञसद्भावात्, अतो न तत् केवलाक्षरमपि, कस्यासावनन्तभागोऽस्तु , तथा| ॥८८॥
अविशेषेण सजीवग्रहणे सत्यपि प्रकरणादपिशब्दाद्वा केवलिनो विहायान्येषां अनन्तभागो गम्यते, अत एव किं न श्रुतात्मकम|क्षरमंगीकृत्य समस्तद्वादशांगविदो विहायान्यपां अनन्तभागो गम्यते, तस्मात् स्वपरपर्यायभेदाभयमप्यविरुद्धामति, तथाऽप्यत्रापर्यवसितश्रुताधिकारादकारायेव न्यायानुपाति, तत् पुनरनन्तपर्यायम् । इह अ अ अ इत्यकार उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितः,स सानुनासिको निरनुनासिकश्च, एवं दीर्घः प्लुतः, एवं तावदष्टादशप्रभेदं अवर्ण अवते,एवं यावतः केवल एवाकारो लभते सानुनासिकादीन | तथाऽन्यवर्णसहितो वा तेऽप्यस्य स्वपर्यायाः,ते चानन्ताः कथम्?, अभिलाप्यबाह्यनिमित्तभेदात् तस्य च परमाणुध्यणुकादिभेदेनानन्तत्वात ध्वनेश्च तथा तथाभिधायकत्वपरिणामे सति तत्तदर्थप्रतिपादकत्वादिति, सांकेतिकशब्दार्थसम्बन्धवादिमतमप्यावश्यकेका नयाधिकारे विचारयिष्यामः,ततश्चैते स्वपर्यायाः,शेषास्तु सर्व एव घटादिपर्यायाःपरपर्याया इति,ते पुनः स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, आह-स्वपर्यायाणां तावत्पर्यायता युक्ता, घटादिपर्यायास्तु विभिन्नवत्वाश्रितत्वात् कथं तस्येति व्यपदिश्यन्ते', उच्यते, स्वपयाय-* | विशेषणोपयोगात्, इह ये यस्य स्वपर्यायविशेषणतयोपयुज्यन्ते ते तस्य पर्यायतया व्यपदिश्यन्ते,यथा घटस्य रूपादयः, उपयुज्यन्ते
॥८८॥ &चाकारस्वपर्यायाणां विशेषणतया घटादिपर्यायाः, तानन्तरेण स्वपर्यायव्यपदेशाभावात्, तथा वस्तुस्थित्यापि च घटादिपर्यायान | अभावरूपेणाकारस्य व्यवस्थितत्वाद् घटादिपर्यायाणां अकारपयोयतायामविरोध इति, इयमत्र भावना--घटादिपर्यायाणामनन्तस्वा
दीप अनुक्रम [१३५१३६]
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [४३-४४] / गाथा ||८१...||
.....
प्रत
नन्दी-
हारिभद्रीय
सूत्रांक
॥८९॥
[४३-४४]
गाथा ||८१..||
तेभ्यश्चाकारस्य स्वभावभेदन व्यावृत्तत्वात् , स्वभावभेदेन व्यावृत्त्यनभ्युपगमे च घटादिपर्यायाणामेकत्वप्रसंगाद्,अतः स्वभावभेदनिबन्धनत्वादकारपोयता तेषामिति,तस्मात् स्वपरपर्यायापेक्षया खल्वकारस्य सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यधर्मताऽविरोध इति, न चेदमु- गमिकादि सूत्र, यत आगमेऽप्युक्तम्-"जे एग जाणति से सब जाणति, जे सम्बं जाणति से एग जाणति"त्ति, अस्यायमर्थः-य एक वस्तूपलभते | सर्वपयोयैः स सर्वमुपलभते, कश्चैकं सर्वपर्यायैरुपलभते य एव सर्व सर्वथोपलभत इत्यता-सर्वमजानानो नाकारं सर्वधोपलभत इति, ततश्चास्मात् सत्रात् सर्वमेव वस्तु सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यधर्मक, इह त्वक्षराधिकारादक्षरमुक्तमिति, इतश्चतदकारायेव प्रतिपत्तव्यं अस्मिन्नेवाधिकारेऽक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटित इत्युपन्यस्तत्वात्, केवलस्य चाविभागसम्पूर्णत्वेन निकृष्टानन्तभागासम्भवाद् अवधेरप्यसंख्येयप्रकृतिभेदभिन्नत्वान्मनःपर्यायज्ञानस्याप्योधत ऋजुविपुलभेदभिन्नत्वात् पारिशेप्यादकारादिश्रुताक्षरस्य निबन्ध| नज्ञानस्यवासावित्यलं प्रसंगेन, 'सेतं' इत्यादि निगमनद्वयमपि निगदसिद्धगं ॥
'से किंत' मित्यादि । (४४-२०२)॥ अथ किं तद्गमिकम् , हादिमध्यावसानेषु किञ्चिद्विशेषतः पुनस्तत्सूत्रोच्चारणलक्षणो गमः, यथाऽऽदिविशेष तावत 'इह छज्जीवणिके' त्यादि, गमा अस्य विद्यन्ते इति 'अत इनिठना' विति (५-२-१२५) द गमिक, इदं च प्रायोवृत्या दृष्टिवादे, तस्यैव गमबहुलत्वात् , अगमिकं तु प्रायो गाथाद्यसमानग्रन्थत्वात् कालिकश्रुतमाचारादि,
'से तमित्यादि निगमनद्वयं कण्ठ्यं । 'तं समासतो दुविहं पन्नत्तं तद्गमिकागामिकं अथवा तदोषश्रुतमर्हदुपदेशानुसारि समासतः संक्षेपण द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अङ्गप्रविष्टं अलबाह्य च, अत्राह-पूर्वमेव चतुर्दशभेदोदेशाधिकार अङ्गप्रविष्टं च अंगवाई । चेत्युपन्यस्तै, किमर्थं पुनस्तत् समासत इत्याद्युपन्यासेन तदेवोद्दिश्यत इति , अत्रोच्यते, सर्वेभेदानामेवाङ्गानाप्रविष्टमेदद्वयान्त-पदा
दीप
अनुक्रम [१३६
१३७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः |... अत्र श्रुतज्ञानस्य गमिक-अगमिक भेदयो: वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[४४]
गाथा
॥८९..।।
दीप
अनुक्रम [१३७]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
॥ ९० ॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं वृत्तिः)
मूलं [४४] / गाथा ||८१..||
मीवेनात्प्रणीतत्वे च प्राधान्यख्यापनार्थमिति, तत्र 'पाददुगं २ ज २ रू२ गातदुयुगं च २ दो य बाहूओ २ । गीवा १ सिरं च १ पुरिलो बारसगो सुयविसिडो || १ || श्रुतपुरुषस्याङ्गेषु प्रविष्टं अंगभावव्यवस्थितमित्यर्थः, अथवा 'गणधरकयमंगगयं जं कत थेरेहिं बाहिरं तं तु नियतं अंगपविट्ठे अणिययस्य बाहिरं मणियं ||१|| तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादंगवाद्यमधिकृत्य प्रश्नत्रमाह- 'से किं त' मित्यादि, अथ किं तदंगवाद्यं १, श्रुतपुरुषात् व्यतिरिक्तं अंगवाद्यं द्विविधं परोक्षं तद्यथा आवश्यकं च आवश्यकव्यतिरिक्तं च 'से किं त' मित्यादि, अथ किं तदावश्यकम् , अवश्यक्रियानुष्ठानादावश्यकं गुणानां या अभिविधिना वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम्, षड्विधं प्रज्ञसम्, तद्यथा- सामायिकमित्यादि, “सावज्जजोगविरती १ उत्तिण २ गुणवओ य पडिवत्ती ३ । खलियस्स निंदणा ४ वणतिगिच्छ ५ गुणधारणा ६ चैव ।। १ ।। " अधिकारगाथा, एतदनुसारेण आवश्यकपि ण्डार्थो वक्तव्यः, 'से त' मित्यादि, तदेतदावश्यकम् ।। 'से किं त' मित्यादि, अथ किं तदावश्यकव्यतिरिक्त, २ द्विविधं प्रज्ञसं, तद्यथा--कालिकं चोत्कालिकं च तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादुत्कालिकमधिकृत्य प्रश्नस्त्रमाह से किं त' मित्यादि, अथ किं तदुत्कालिकम् १, उत्कालिकमनेकविधं प्रज्ञसं, तद्यथा-दशवेकालिकं प्रतीतं कल्पा कल्पप्रतिपादकं कल्पाकल्पं, तथा कल्पनं कल्पःस्थविरकल्पादिः सत्प्रतिपादकं श्रुतं २, तत् पुनः द्विभेदं चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुर्य, एकमल्पग्रन्थमल्पार्थं च द्वितीयं महाग्रन्थं महार्थं च शेषभेदाः प्रायो निगदसिद्धास्तथापि लेशतोऽप्रसिद्धतरान् व्याख्यास्यामः जीवादीनां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना बृहत्तरा महाप्रज्ञापना, प्रमादाप्रमादस्वरूप भेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमाद, प्रमादस्वरूपं महाकर्मेन्धून प्रभवाविध्यातदुःखानलज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्यपि सति तन्निर्गमनोपाये बीतरागप्रणीत धर्मचिन्तामणौ यतो विधि
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः ... अत्र श्रुतपुरुषस्य द्वादश अङ्गानां स्पष्टीकरणं दीयते ।
••• अथ अंगबाह्य-सूत्राणां भेदाः प्रदर्शयते तन्मध्ये कालिक-उत्कालिक सूत्राणां वर्णनं
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उत्कालिक श्रुतं
॥ ९० ॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [४४] / गाथा ||८१...||
प्रत सूत्रांक [४४] गाथा ॥८१..||
-
नन्दी- त्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषादपश्यत्रिव तद्भयमविगणय्य विशिष्टपरलोकाक्रियाविमुख एवास्ते सत्त्वः स खलु प्रमाद का हारिभद्रीय ति, तद्भेदाः मयादयस्तत्कारणत्वाद, उक्तन्च-"मज्जं विसय कसाया णिहा विगहा य पंचमी भणिया । " फलविपाको दारु-12"
xणः, उक्तं च-'श्रेया विषमुपभोक्तुं क्षम भवेत् क्रीडितुं हुताशेन । संसारबन्धनगतेने तु प्रमादः क्षमः कर्तुम् ॥१॥ अस्यामेवी ॥११॥ हि जातौ नरमुपहन्याद्विषं हुताशो वा । आसेवितः प्रमादो हन्याज्जन्मान्तरशतानि ॥ २॥ यन प्रयान्ति पुरुषाः स्वर्ग यश्च |*
प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनार्यः प्रमाद इति निश्चितमिदं मे ॥ ३॥ संसारबन्धनगतो जातिजराव्याधिमरणदुःखातेः । यमोद्विजते सत्वः सबपराधः प्रमादस्य ॥ ४ ॥ आज्ञाप्यते यदवशः तुल्योदरपाणिपादवदनेन । कर्म च करोति बहुविधमेतदपि फलं प्रमादस्य ॥५॥ इह हि प्रमत्तमनसः सोन्मादवदनिभृतेन्द्रियाचपलाः। यत् कृत्यं तदकत्वा सततमकार्येप्वाभपतन्ति ॥ ६ ॥ नेपामाभिपतितानामुद्धान्तानां प्रमत्तहृदयानाम् । बर्द्धन्त एव दोषाः बनतरव इवाम्बुसेकेन | ॥७॥ दृष्ट्वाऽप्यालोकं नैव विश्रम्भितव्यं, तीरं नीताऽपि भ्राम्यते वायुना नौः । लब्ध्वा वैराग्यं भ्रष्टयोगः प्रमादाच्चित्रं व्याव
तो ब्रह्मदत्तो नरेशः ॥ ८॥ इत्यादि, एवं प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादस्वरूपादयो वाच्या इति, 'नन्दी' स्यादि सुगम, सूर्यप्रज्ञप्तिः ४ सूर्यचरितप्रज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा सूर्यप्रज्ञप्तिः, पौरुषीमण्डलं पुरुषःशंकुः शरीरं वा तस्मानिष्पना पौरुषी द्वयम्, अत्र भावदीना-यदा सर्वस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा छायोपजायते तदा पौरुपीति, एतच्च पौरुषीमानं उत्तरायणान्ते दक्षिणायनादौ चैकं दिन
भवति, तत ऊर्ध्वमंगुलस्याष्टायेकपष्टिभागा दक्षिणायने वर्द्धन्ते उत्तरायणे च इसतीति, एवं यत्र पौरुषी मण्डले मण्डलेऽन्याऽन्या प्रतिपायते तदध्ययनं पौरुपीमण्डलं । मण्डलमषेशः, यत्र हि चन्द्रसूर्ययोर्दक्षिणोत्तरेषु मण्डलेषु मण्डलान्मण्डलप्रवेषो व्यावर्ण्यते
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दीप अनुक्रम [१३७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४४] / गाथा ||८१...||
नन्दीहारभद्रीय
वृत्ती
श्रुत
प्रत सूत्रांक [४४]
गाथा ||८१..||
॥९२॥
| तदध्ययन मण्डलप्रवेश इति । विद्याचरणविनिश्चयः विधेति ज्ञानं तच्च दर्शनसहचारितम् , अन्यथाऽभावात, चरणं चारित्रं एतेषां 18/उत्कालिक फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रन्थः विद्याचरणविनिश्चय इति । गणिविद्या गुणगणोऽस्यास्तीति गणी, स चाचार्यः, तस्य विद्याज्ञानं गणिविद्या, तत्राविशेषेऽप्ययं विशेषः-'जोतिसणिमित्तणाणं गणिणो पन्यावणादिकज्जसु । उपयुज्जर तिहिकरणादिजाणणत्थबहा दोसो ॥१॥ ध्यानविभक्तिः-ध्यानानि-आध्यानादीनि तेषां विमजन यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा ध्यानविभक्तिः, मरणानि प्राणत्यागलक्षणानि अनुसमयादीनि वर्तन्ते, यथोक्तम्-'अणुसमयं सतरं चेत्यादि, एतेषां विभजनं यस्यां सा मरपविभक्तिः। आत्मनो-जीवस्यालोचनाप्रायश्चित्तप्रतिपच्यादिप्रकारेण विशुध्धिः कमविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं आत्मविशुद्धिः। वीतरागश्रुतं सरागव्यपोहेन वीतरागस्वरूप प्रतिपाद्यते यत्राध्ययने तद्वीतरागश्रुतं, संलेखनाश्रुतं द्रव्यभावसंले- खना प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं संलेखनाथुतं, तत्र द्रव्यसंलेखनोत्सर्गत:--'चत्वारि विचित्ताई विगतीणिज्जूहियाई चत्वारि ।।* संवच्छरे य दोनि उ एगंतरियं च आयामं ॥१॥ णातिविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं । अमेवि य छम्मासे होति विगिट्ठ तबोकमं ।। २॥ वास कोडीसहिअं आयाम काउमाणुपुबीए । गिरिकंदरं तु गंतुं पादवगमणं अह करेति ॥ ३॥ मावसंलेखना तु क्रोधादिकषायप्रतिपक्षाभ्यास इति । विहारकल्पः विहरणं विहारः तस्य कल्पो-व्यवस्था स्थविरकल्पादीना-2 मुच्यते यत्र प्रन्थेऽसौ विहारकल्पः । चरणविधिः चरणं ब्रतादि, तथा चोक्तम्-वयसमणधम्म गाहा, एततप्रतिपादकमध्ययनं 31
IN||९२॥ चरणविधिः। आतुरप्रत्याख्यानं आतुर:-क्रियाऽतीतो ग्लानस्तस्य प्रत्याख्यान, एत्थ विधी-गिलाणं किरियातीतं गाउं गीय-15 |स्था पच्चक्खावेंति दिणे २ दब्बहासं करेन्ता सन्तः अंते य सव्वदच्वदायणाए भत्ते वेरग्गं जणेचा भत्ते णित्तण्हस्स भवचरिमप-12
दीप अनुक्रम [१३७]
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४४] / गाथा ||८१...||
नन्दी- हारिभद्रीय
वृत्तों
प्रत सूत्रांक [४४] गाथा ||८१..||
॥ १३ ॥
खाणं कारेंति, एवं जत्थ अज्झयणे सवित्थर वणिज्जति तदज्झयणं आउरपच्चक्खाणं, महाप्रत्याख्यानं महच्च तत् प्रत्या-I&कालिकवतं ख्यानं चेति समासः, एसित्थ भावस्थो-थेरकप्पेण जिणकप्पेण वा बिहरेता अंते थेरकप्पिया बारसवासे सलेह करेत्ता जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलीढा तहावि जहाजुत्तं सलेहं करेता निव्वाघातं सचेट्ठा चेव भवचरिमं पच्चखंति, एवं सवित्थरं जत्थज्ज्झयणे | वणिज्जह तमज्झयणं महापच्चक्खाणं । एयाणि अज्झयणाणि जहा अभिधाणत्याणि तहा वणियाणि, 'सत मित्यादि निगमनं, तदेतदुत्कालिकं, उपलक्षणं चैतदित्युक्तमुत्कालिकं ।। 'से किं तमित्यादि, अथ किं तत् कालिकं ?, कालिकमनेकाविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा--उत्तराध्ययनानि उत्तराणि-प्रधानानि रूढ्या चोत्तराध्ययनानि, 'देश' त्यादि प्रायो निगदसिद्ध, निशीथवन्निशीथं इदं प्रतीतमेव, अस्मादेव ग्रन्थार्थाभ्यां महत्तरं महानिशीथं, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिः, इहावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविभजनं यत्राध्ययने IP तद्विमानप्रविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थ तथाऽन्यन्महाग्रन्थार्थ, अतः क्षुल्लिका विमानप्रविभक्तिमहती विमानप्रविभक्तिरिति । अङ्गचूलिका अंगस्य--आचारादे चूलिका अंगचूलिका, यथाऽचारस्यानेकविधा इहोक्तानुक्तार्थसंगहात्मिका चूलिका वर्गचूलिका, इह वर्गोऽध्ययनादिसमूहः, यथाऽन्तकृदशास्वष्ट वर्गा इत्यादि, तेषां चूलिका २, व्याख्या भगवतीत्यस्याश्चूलिका २, अरुणोपपातः, इहारुणो नाम देवस्तत्समयनिबद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुः अरुणोपपातः, जाहे तमज्झयण उवउत्ते समाणे समणे परियट्टेति ताहे से अरुणे देवे ससमयनिबद्धत्तणाओ चलियासणे संभमुन्भन्तलोयणे पउत्तावही वियाणिय हट्ठपहढे चलचवलकुंडल-1&| | धरे दिव्वाए जुत्तीए दिब्याए विभूईए दिव्वाए गतीए जेणामेव से भगवं समणे तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता भत्तिभरोण-121
४॥९३ ।। यवयणे विमुक्कवरकुसुमवासे ओवयति, ओवतिचा ताहे से समणस्स पुरतो ठिच्चा अंतधिए कयंजलिए उवउत्ते संवेगविसुज्झमा-15
दीप अनुक्रम [१३७] |
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४४] / गाथा ||८१...||
हारिभद्रीय
प्रत सूत्रांक [४४]
गाथा ||८१..||
॥९
॥
|णज्झवसाणे सुणेमाणे चिट्ठइ, समत्ते य भणइ-सुसमाइयं २, वरं वरेहिति, ततो से इहलोगणिपिपासे समतिणमणिमुचलेठुकंचणे | कालिकश्रुत | सिद्धिवधूणिन्भरणुरायचिने समणे पडिभण-ण मे वरेण अष्टोनि, ततो से अरुणदेवे अधिगतरजातसंवेगे पयाहिण करेत्ता बंदि-12
सा णमंसित्ता पडिगच्छइ, एवं वरुणोदवायादिसुवि भाणियव्यं, उत्थानश्रुतं अध्ययनं तं पुण सिंगणाइयकज्जेसु जस्सेगकु४ लस्स वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा सच्चेव समणे कयसंकप्पे आसुरुते अप्पस अप्पसनलेसे विसमासणत्थे उपउत्ते समादागे उहाणसुअज्झयणं परियट्रेति एक्कं दो तिमि वा बारे, ताहे से कुले बा गामे वा जाव रायहाणी वा ओहयमणसंकप्पे बिलवते
दुर्ग २ पहावंते उडेति, उब्बसतित्ति वुतं भवति, तथा समुत्थानश्रुतं अध्ययनं तं पुण समत्वकज्जे तस्सव कुलस्स या गामस्स वा जाव रायहाणीए वा सञ्चेव समणे कयसकप्ये तुढे पसण्णे पसण्णलेसे सममुहासणत्थे उवउत्ते समाणे समुट्ठाणसुतज्झयणं परियडूति एक दो तिमि वा वारे, ताहे से कुले वा जावं रायहाणीए वा पदचित्ते पसत्रमणे कलयलं कुणमाण मंदाए गतीए सललिये आगच्छद २ ता समुद्रुति, आवासेतित्ति वुत्तं भवतीत्यर्थः, एवं कयसंकप्पस्स परियट्टिन्तस्स पुन्बुट्टितं समुढेति । णागपरियावणियाओ नागपरिज्ञा, नागात्त-नागकुमारा तस्समयणिबद्धमज्झयण, से जया समणे उवउत्ते परिपट्टेति तदाऽकयसंकप्पस्सवि ते णागकुमारा तस्थस्था चेव तं समणं परियाणंति वंदंति नमसंति बहुमाणं च करेंति, सिंगणादियकज्जेसु य वरदा भवन्तीत्यर्थः,
G ॥९४॥ णिरयावलिया जासु आवलियपविद्वेतरे य णिरया तग्गामिणो य णरतिरिया पसंगओ वमिति । कप्पियाउत्ति सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा प्रन्थपद्धतयः कल्पिका उच्यन्ते । एवं कल्पावसंसिकाः सोधम्मीसाणकप्पेसु जाणि कप्पषिमाणाणि ताण कप्पवर्टिसयाणि, तेसु य देवीओ जा जेण तबोविससेण उवक्त्रा इष्टुिं च पत्ता एवं चमिति जासु ताओ कप्षयडेंसियाओ बु
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४४]
गाथा
॥८९..।।
दीप
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नन्दीहारिभद्रीय चौ
।। ९५ ।।
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४४] / गाथा ||८१..||
कति । तथा पुष्कियाउत्ति इह यासु ग्रन्थपद्धविषु गृहवासमुत्कलन परित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः सुखिताः पुनः संयमभावपरित्यागतो दुःखाबासिष्ठकुलिताः पुनस्तत्परित्यागादेव पुष्पिताः प्रतिपायन्ते ताः पुष्पिता उच्यन्ते । अधिकृतार्थविशे-कालिकधुतं पप्रतिपादकास्तु पुष्पचूला इति । तथा अन्धकवृष्णिनराधिपवक्तव्यताविषया अन्धकवृष्णिदशा उच्यन्ते । 'एवमाइयाई इच्चादि', एवमादीनि सर्वथा कियन्त्याख्यास्यन्तं ?, चतुरशीतिप्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽर्हतः श्रऋिषभस्यादितीर्थकरस्य, तथा संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यमानां - अजितादीनां पार्श्वपर्यन्तानां जिनवराणां तीर्थकराणामित्यर्थः एतानि च यावन्ति तानि प्रथमानुयोगतोऽवसेयानि तथा चतुर्दश प्रकीर्णकसहस्राणि अर्हतः कस्य ?, वर्द्धमानस्वामिनः, अयमत्र भावार्थ:- भगवता उसस्स चउरासीति समणसाहस्सितो होत्था, पयन्नगज्झयणाणि य सव्वाणि कालियउकालियाणं चउरासीतिसहस्वाणि, कथं १ यतो ताणि चउरासीतिसमण सहस्वाणि अरहंतमग्गोवदिद्वे जं सुयमणुसरित्ता किंचि णिज्जूते ताणि सव्वाणि पतिश्रगाणि अहवा सुयमणुसारतो अप्पणो वयणकोसलचेण जं धम्मदेसणादिसु भासते तं सव्वं पन्नगं, जम्हा अणन्तगमपज्जवं सुतं दिवं तं च वयणं वियमा अभयरगमाणुवाती तम्हा तं परलगं, एवं चउरासीतिपइभगसहस्त्राणि भवतीत्यर्थः, एएण विहिणा मज्झिमतित्थगराणं संखेज्जाई पन्नगसहस्वाणि, समणस्सवि भगवओ महावीरस्स जम्हा चोदस समणसाहस्सीओ उकोसिया समणसम्पया तम्हा चोहसपइन गायण सहस्साणि भवंति एत्थ पुण एगे आयरिया एवं पचविंति किल एवं चुलसीइसह स्सादिमं उसभादिजिणावराणं समणपरिमाणं पहाणसुतणिज्जूहणसमत्थे समणे पटुच्च भणियं, सामनसमणा पुण बहुतरा तत्काले, अने भणति -उसभादीणं भवत्थाणं संचराणं एवं चुलसीदिसहस्सादिगं पमाणं, पवाहेण पुणो एगतित्थेसु बहुगा दष्वा तत्थ जे
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।। ९५ ।।
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आगम
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प्रत सूत्रांक
[४५-४६]
गाथा
॥८९..।।
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अनुक्रम
[१३८
१३९]
नन्दीहारिद्रीय
वृत्ती
॥ ९६ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४५-४६] / गाथा ||८१... ||
|पमाणभूयसुत्तणिज्जूहणसमत्था अभकालिगावि ते एत्थ अहिगया, एए ते सुप्पसिद्धप्पइन्नगणिज्जूहगा चैव दट्ठव्वा, यत आह'अथवेत्यादि, अथवेति प्रकारान्तरप्रदर्शनं यस्य ऋषभादेस्तीर्थकृतः यावन्तः शिष्या औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कर्मजया पारि णामिक्या च चतुर्विधया बुध्ध्या उपपेताः समन्विताः तस्य तावन्त्येव प्रकीर्णकसहस्राणि प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव, अत्रैके व्याचक्षते - किल प्रत्येकबुद्धहव्धान्येव तान्यवगन्तव्यानि, प्रकीर्णकप्रमाणेन प्रत्येकबुद्धप्रमाणप्रतिपादनात् स्यादेतत्-प्रत्येकबु द्धानां शिष्यभावो विरुध्यत इति, एतदप्यसत्, तेषां प्रत्येकबुद्धत्वादाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावस्य निषिद्धत्वात्, तीर्थकरप्रणीतशासनप्रतिपन्नत्वेन तु सच्छिष्यभावो न विरुध्यत इति, अन्ये पुनरित्थमभिदधति - सामान्येनेह प्रकीर्णकैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभिधानं, न तु नियोगतः प्रत्येकबुद्धब्धानि प्रकीर्णकाणीत्यलं विस्तरेण । 'सेत' मित्यादि, तदेतत् कालिकं, तदेतदावश्यकव्यतिरिक्तं, तदेतदनंगप्रविष्टमिति ॥
'से किं त' मित्यादि ॥ (४५-२०९ ) ।। अथ किं तदंगप्रविष्टम्, अंगप्रविष्ट द्वादशविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा - आचारः सूत्रकृतमित्यादि 'से किं तमित्यादि ॥ ( ४६-२०९ ) ।। अथ किं तदाचारवस्तु, यद्वा अथ कोऽयमाचारः ?, आचरणमाचारः आचर्यत इति वा आचारः शिष्टाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थः, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते, अनेन चाचारेण करणभूतेन श्रमणानामाचारादि आख्यायत इति योगः, अथवा आचारे णमिति वाक्यालंकारे भ्रमणानां प्राग्निरूपितशब्दार्थानां निर्ग्रन्थानां वाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानां, आह-श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवन्ति, विशेषणं किमर्थ?, उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थ, उक्तं च"निग्गंथ सक तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा" तत्राचारो ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नो गोचरो - भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः विनयो ज्ञानादि
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ••• अथ अंगप्रविष्ट सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'आचार' सूत्रस्य वर्णनं |
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आचारांग
॥ ९६ ॥
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(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४५-४६]
गाथा
॥८९..।।
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अनुक्रम
[१३८
१३९]
नन्दी
हारिभूद्रीय वृचौ
॥ ९७ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४५-४६] / गाथा ||८१... ||
वैनयिकं फलं कर्मक्षयादि शिक्षा ग्रहणासेवनाभेदभिना, विनेयशिक्षेत्यन्ये विनेयः शिष्यः, भाषा सत्या १ असत्यामृषा २ च अभाषा असत्या १ सत्यामृपा २ वा चरणं व्रतादि करणं-पिण्डविशुध्ध्यादि 'जातामातविसीओ 'ति यात्रा- संयमयात्रा मात्रा तदर्थमेवाहारमात्रा वर्त्तनं वृत्तिः, विविधेरभिग्रहविशेपैरिति, आचारथ गोचरवेत्यादिद्वन्द्वः क्रियते, ततथाचारगोचरविनयवैनयिक शिक्षामापाचरणकरणयात्रामात्रावृत्तय आख्यायन्ते इह च यत्र क्वचिदन्यतरोपादाने अन्यतरगतार्थाभिधानं तत् सर्व तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवावसेयं, सो य समासती इत्यादि, स आचारः समासतः संक्षेपतः पंचविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा ज्ञानाचारः- काले विषए बहुमाणे उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए अडविहो णाणमायारो ॥ १ ॥ दर्शनाचार:- 'मिस्संकिय णिकखिय निव्वितिगिच्छा अमृढदिट्ठी य । उधवूह थिरीकरणे वच्छल पभावणे अड्ड || २ || अतिसेस इड्डि आयरिय वादि धम्मकधि खमग मिती । दिज्जा राया गणसम्मया य तिरथं पभावेति ॥ ३ ॥ चारित्राचारः पणिहाणजोगजुतो पंचहि समितिहिं तिहि य गुतीहि । एस चरितायारो अट्ठविहो होति नायब्यो ॥ ४ ॥ तथाचारः चारसविहम्मिवि तवे सम्भितरबाहिरे जिणुवदिट्टे । अगिलाऍ अणाजीची णायव्वो सो तवायारो ।। ५ ।। वीर्याचारः अणिगृहियवलविरिओ परक्कमह जो जहुत्तमाउत्तो। जुंजति य जहाथामं णायण्यो वीरियायारो || ४ || 'आधारे णं परिता वायणा' आचारे णमिति वाक्यालंकारे परित्ता-संख्येयाः, आद्यन्तोपलब्धेरनन्ता न भवतीत्यर्थः, का?, वाचनाः-सूत्रार्थप्रदानलक्षणाः, अवसर्पिणीकालं वा प्रतीत्य, परित्तत्ति संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि अध्ययनानामेव संख्येयत्वात् प्रज्ञापकवचन गोचरत्वात् संखेज्जा बेढा, वेढा छन्दोविशेषा, संखेला सिलोगा श्लोकाः प्रतीता अनुष्टुप छन्दसा, संखेज्जाओ णिज्जुतीओ नियुक्तानां युक्तिर्नियुक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्द लो
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आचारांग
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .... मूलं [४५-४६] / गाथा ||८१...||
आचार
सूत्रांक
वृची
[४५-४६]
गाथा ||८१..||
नन्दी- पानियुक्तिरिति, एताश्च निक्षपनियुक्त्याधाः संख्येया इति, संखेज्जाओ परिवत्तीओ द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमाः प्रतिपत्तय', प्रतिहारभद्रीय
वायभिग्रहविशेषा वा 'से ण' मित्यादि, स आचारः णमिति बाक्यालंकारे अंगार्थतया अंगायत्येन, अर्थग्रहण परलोकचिंता
प्रति सत्रादर्थस्य गरीयस्त्वख्यापनार्थ, सत्रार्थोभयरूपो वाऽयमिति ख्यापनार्थ प्रथममंग स्थापनामधिकृत्यायमंगमित्यर्थः, द्वौर ॥९८॥
श्रुतस्कन्धी अध्ययनसमुदायलक्षणी, पंचविंशतिरध्ययनानि, तयथा- सत्थपरिमा १ लोगविजयो २ सीतोसणिज्ज ३ सम्म ४ आवंति ५ धुन ६ विमोहो ७ महापरिन्नो ८ वहाणसुये ९॥ १० ॥ पढमो सुबखंधो । पिंडेसण १ सेज्जि २ रिया ३ भासज्जाया य ४ वत्थ ५ पाएसा ६ | उग्गहपडिमा ७ सत्त य सचिकया ७ भावण १५ विमुत्ती १६ ॥ २॥ एवमेतानि निशीथवाजोनि पंचविंशतिरध्ययनानि, तथा पंचाशीत्युद्देशनकालाः, कथं , उच्यते, अंगस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य च एतेषां चतुर्णामप्येक एव, एवं सत्थपरिभाए सत्त उद्देसणकाला, लोगविजयस्स छ सीओसणिज्जस्स चउरो संमत्तस्स चउरो लोगसारस्स छ धुतस्स* पंच एवं विमोहज्झयणस्स अट्ठ, महापरिआए सत्त७ उवहाणसुत्तस्स चउरो, पिंडेसणाए एकारस ११ सेज्जाए तिमि ३इरियाए द तिनि ३ भासज्जाए दोनि २ वत्थेसणाए दो २पाएसणाएं दो २ उग्गहपडिमाए दोनि २ सत्तिक्याए सत्त ७ भावणाए एको १
विमुत्तीए एको१, एवमेए संपिंडिया पंचासीई 'भवन्ति, एत्थ संगहमाहा-सत्त य छच्चउ चउरो छ पंच अटेच सच चउरो य । एकार ति तिय दो दो दो दो सचेक एको य ॥१॥ एवं समुद्देशनकालावि भाणियब्वा । अष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण, इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदं, चोदक आह- यदि दो सुतक्खंधा पणुवीस अझयणाणि अट्ठारस पदसहस्राणि पदग्गेणं भवन्ति तो जैसे भाणयं 'णवयंभचरमइओ अट्ठारसपदसहस्सियो बेउ'त्ति एवं विरुज्झइ, आचार्य आह-णणु एत्थवि भाणियं 'हवह य सपंचचूलो
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .... मूल [४५-४६] / गाथा ||८१...||
प्रत
A
सूत्रांक
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॥९९॥
[४५-४६]
गाथा । ||८१..||
नन्दी- बहुबहुअयरो पयग्गेण ति, इह सुत्तालावयपदेहि सहितो बहु बहुयरो य वक्तव्य इत्यर्थः, अथवा दो सुयखंधा पणुवीसं अज्झय-II हारिभद्रायणाणि एय आयारग्गसहितस्स आयारस्स पमाणं भाणिय, अट्ठारसपयसहस्साणि पुण पढमसुयक्खंधस्स णवयंभचेरमतियस्स पमाण,
विचित्तत्थबद्धाणि य मुत्ताणि गुरुवदेसतो सेसि अत्थो जाणियव्यो, संखग्जा अक्खरा संख्येयान्यक्षराणि, वेढादीनां संख्येयत्वात् अणन्ता गमाः इह गमा अर्थगमा गृह्यन्ते, अर्थपरिच्छेदा इत्यर्थः, ते चानन्ताः, एकस्मादेव सूत्रात्तत्तद्धर्मविशिष्टानन्तधर्मात्मक-1 वस्तुप्रतिपत्तेः, अन्ये तु व्याचक्षते-अभिधानाभिधेयवशतो गमा इति, ते चानन्ताः, ते पुनरनेन विधिना अवसेयास्तद्यथा- सुर्य मे आउस ! तेणं भगवया आउसंतेण भगवया सुयं मे आउसंवदा, सुयं मे आउस तहि, सुर्य में आउस, आउस सुयं मे, आसुर्य मया तं सुयं मया, आ तया सुयं मया, आ तहिं सुयं मया आ, एवमादिभिर्मण्यमानं किलानन्तगममिति, अर्णता पज्जया स्वपरभेदभिन्ना, अक्षरार्थपर्याया इत्यर्थः, परित्ता तसाव्यस्यन्तीति त्रसा-दीद्रियादयस्ते च परित्ता, अणता थावरा बनस्पतिका-1 यसहिताः परिगृह्यन्ते सासयकडाणियद्धणिकाइयत्ति शाश्वता द्रव्याथेतयाऽविच्छेदेन प्रवृत्तेः कृताः पयोयाध्यतया प्रतिसमयम
न्यथात्वावाप्ता निवद्धाः सूत्र एव निकाचिता नियुक्तिसंग्रहणिहेतूदाहरणादिभिः जिणपन्नत्ता जिनैः प्रज्ञप्ता भावाः पदार्थाः 18| आपविजंतीत्यादि धुवगण्डिका पूर्ववत् । साम्प्रतमाचारांगग्रहणफलप्रतिपादनायाह-'से एव' मित्यादि, स इत्याचारांगग्राहकोऽसे भिसम्बध्यतेः, एवं आयत्ति अस्मिन् भावतः सम्यगधीते सति एवमात्मा भवति, तदुक्तक्रियापरिणामारमाव्यतिरेकात् स एवं
भवतीत्यर्थः, एवं क्रियासारमेव शानमिति ख्यापनार्थ क्रियापरिणाममभिधायाधुना ज्ञानमधिकत्याह- 'एवं णाय'ति इदमधीत्य एवं ज्ञाता भवति यथैवेहोक्तमिति, एवं विनायति एवं विविधो विशिष्टो वा जाता विज्ञाता एवं विज्ञाता भवति, तन्त्रान्तरीय
CrickeCLASS
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः | ... अत्र मूल संपादने सूत्रकृतांग इति मुद्रितं, तत् मुद्रण स्खलना मात्र, एते पृष्ठे 'आचार' सूत्र परिचय एव वर्तते
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [४७] / गाथा ||८१...||
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घृत्ती
[४५-४६] |
गाथा ||८१..||
नन्दा-15 ज्ञातृभ्यः प्रधानतर इत्यर्थः, एवं चरणकरणपरूषणया आधविज्जतीयादि, निगमनवाक्यं भावितार्थमेव ।।
सूत्रकृतांग हारिभद्रीय
I से किं तं सुयगडे (४७-२१२) 'सूच सूचायाँ' सूचनात सूत्र सूत्रेण कृतं गूत्रकृतं, तब लोक्यते अनेन वाऽस्मिन् वा
लोकः सूख्यत इत्यादि निगदसिद्धं यावत् 'आसीतस्स किरियावादिसतस्स' अशीत्यधिकस्य क्रियावादिशतस्य, व्यूह ॥१०॥ कृत्वा स्वसमयः स्थाप्यत इति योगः, एवं शेपपदेष्वपि क्रिया योजनीयेति, तत्र न कर्तारं बिना क्रियासम्भव इति तामात्मसमवा-13
यिनी बदन्ति सच्छीलाच येते क्रियावादिनः, ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः अमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्कथा विज्ञेया, जीबाजीवाश्रवबन्धसंबरनिर्जरापुण्यपापमोक्षाख्यान् नव पदार्थान् विरचय परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदायुपन्यसनीयो, तयोरधो नित्यानित्यभेदो, तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनथैवं विकल्पाः कर्तव्याः अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायं-विद्यते खल्वात्मा स्वेन रूपेण नित्यक्ष कालवादिनः, उक्तनवाभिलापेन ।
द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयो विकल्पः आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं सर्व मित्यादि, नियतिवादिनचतुर्थविकल्पः, पञ्चदिमविकल्पः स्वभाववादिनः, एवं. स्वत इत्यजहता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एते विंशतिर्जीवपदार्थेन ।
लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टस्त्रेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानाम् , अतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति ।। 'चउरासीते अकिरियावादीणं चतुरशीतेरक्रियावादिनां, क्रिया पूर्ववत्, न हि कस्पचिदव्यवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया 13॥१०॥ समस्ति, तद्भावे चावस्थितेरभावादित्येवंवादिनोऽक्रियावादिनः, तथा चाहुरेके-"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थितानां कुतः क्रिया।। भूतियपी क्रिया सैव, कारक सैव चोच्यत ॥१॥" इत्यादि, एते चात्मादिनास्तित्वप्रतिपनिलक्षणा अमुनोपायन चतुरशीविद्रष्ट-II
दीप अनुक्रम [१३८
१३९]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: | ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'सूत्रकृत्' सूत्रस्य वर्णनं |
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [४७] / गाथा ||८१...||
प्रत सूत्रांक [४७] गाथा ||८१..||
का सूत्रकृतांग नन्दा व्याः, एतेषां हि पुण्यापुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्वादात्मनो नित्याहारिभद्रीय
स्थानांग च हारिमाण वृत्तौ IN
नित्यमेदो न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां पष्ठी यहच्छा न्यस्यते, पश्चाद्विकल्पामिलापः नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्यादयः पडेच | 2
विकल्पाः, एकत्र द्वादश, एवमजीवादिपपि षट्सु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः, एवं द्वादश सप्तगुणाश्चतुरशीतिविकल्पा नास्तिका-1 ॥१०॥ नामिति । 'सत्तट्ठीए अन्नाणियवादीण' ति सप्तषष्टिरज्ञानिकवादिना, क्रिया प्राग्वत , तत्र कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीत्य
ज्ञानिकाः, नचैवं लघुत्वात् प्रक्रमस्य प्राग् बहुव्रीहिणा भवितव्यं, ततश्चाजाना इति स्यात्, नैष दोषः, ज्ञानान्तरमेवाज्ञान, मिथ्याला दर्शनसहचरित्वात्, ततश्च जातिशब्दत्वात् गौरखरवदरण्यमित्यादिवदनानिकत्वमिति, अथवा अज्ञानेन चरन्ति तत्प्रयोजना चाल
अज्ञानिकाः, असंचित्यकृतपन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः, तेच अमुनोपायेन सप्तपष्टिातव्याः, तत्र जीवादीन् नव पदार्थान पूर्ववत् । व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादयः उपन्यसनीयाः, सत्त्वमसत्वं सदसवं अवाच्यत्वं सदवाच्यत्वं असदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वमिति च, एकैकस्य जीवादेः सप्त सप्त विकल्पात एते नव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाचा विकल्पाः | तयथा-सत्त्वमसचं सदसच्च अवाच्यत्वं चेति, त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्ताः सप्तपष्टिर्भवन्ति, को जानाति जीवः समित्येको विकल्पः, ज्ञातेन वा किं, एवं असदादयोऽपि वाच्याः, उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतो सदसतोऽवाच्यस्येति या को जानातीत्येतत्, न कश्चि
दपीत्यभिप्राय: 'बत्तीसाए घेणइयवादीणं' द्वात्रिंशतो वैनयिकवादिना, क्रिया पूर्ववत्, तत्र विनयेन चरन्ति बिनयो वा प्रयोग जिनमेपामिति वैनयिका, एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन द्वात्रिंशदवगन्तव्याः सुरनृपतिज्ञा
तियतिस्थविराधममातृपितृणां प्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्यः इत्येते चत्वारो भेदाः सुरा-14
%-345
दीप अनुक्रम
[१४०]
&
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: | ... अत्र मूल संपादने सूत्रकृतांग-स्थानांग इति मुद्रितं, तत् मुद्रण स्खलना मात्र, एते पृष्ठे 'सूत्रकृतांग' सूत्र परिचय एव वर्तते
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ..... मूलं [४७-४९] / गाथा ||८१...||
प्रत
हारिभद्रीय
दया
सूत्रांक
पत्ती"
[४७-४९]
गाथा ||८१..॥
नन्दादिष्वष्टसु स्थानेषु, एकत्र मेलिता द्वात्रिंशदिति । सर्वसङ्ख्या प्रतिपादयबाह-'तिण्हं तेसद्वाण' मित्यादि, त्रयाणां त्रिषष्ट्याधि- समबाया
कानां प्राबादुकशतानां, विचित्रकैकनयमतावलम्बिना प्रवादिशतानामित्यर्थः, ब्यूह-प्रतिक्षेपं कृत्वा स्वसमयः स्वसिद्धान्तः
स्थाप्यते, शेष किंचित् व्याख्यातं किंचित् सुगमामिति यावत् 'सेत सूयगडे ति कण्ठ्यम् ॥ ॥१०२॥ 'से किंत'मित्यादि ॥(४८.२३८)।। अथ किं तत् स्थानं ?, तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानं, तथा चाह
'ठाणे ण' मित्यादि, स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते, व्यवस्थितस्वरूपप्रतिपादनायेति हृदय, शेष प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं 'टंकत्ति छिनतई टङ्क 'कूड'ति पञ्चतोवरिं, जहा बेयस्सोबरि नव सिद्धाययणादिया कूडा, 'सेल ति हिमवंतादिया है। | सेला, 'सिहरिणीति सिहरेण सिहरिणोति, ते यं वेयढाइया 'पन्भार'त्ति जं कूड उवरि अंबखज्जुयं तं पम्भारं,जं वा पन्बयस्स 8 उवरिभागे हरिथकुंभागिती कुहुहं णिग्गय तं पम्भार भन्नइ 'कुंड'त्ति गंगादीणि कुंडानि 'गुहति तिमिसादिया गुहा 'आगरा | रुप्पसुवबरयणादिउप्पत्तिवाणा आगरा 'वह'त्ति पोंडरीयादीया दहाणदीउति गंगासिंधुमादीओ, शेष क्षुण्णार्थ यावनिगमनमिति । ___'से किं तमित्यादि (४९-२२९॥ अथ कोऽयं समवायः, सम् अब अयः समवायः,सम्यगधिकपरिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुकच ग्रन्थोऽपि समवायः,तथा चाह-समवायेन समवाय वा जीचाः समाश्रीयन्ते, अविपरीतस्वरूपगुणभूषिता बुध्ध्या अंगीक्रियन्त इत्यर्थः, अथवा जीवाः समस्यन्ते-कुप्ररूपणाभ्यः सम्यग्ररूपणायां क्षिप्यन्ते शेष निगदसिद्धमानिगमनम् । नवरं 'एगादियाण
॥१०२॥ PIमित्यादि, अत्रकायेकोचरं स्थानशतं भवति, यथा 'एगे आया' इत्यादि, शेष पत्रसिद्धं यावभिगमनमिति ।
दीप अनुक्रम [१४०१४२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णन आरभ्यते, तदन्तर्गत 'स्थान एवं समवाय' सत्रयो: वर्णनं ।
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[५०-५१]
गाथा
||..||
दीप
अनुक्रम
[१४३
४४)
नन्दीहारिभूद्रीय वृती
॥१०३॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं वृत्तिः)
मूलं [५०-५१] / गाथा || ८१...||
'से किं तमित्यादि ॥ ( ५० - २२९ ) ।। अथ केयं व्याख्या, व्याख्यानं व्याख्या, तथा चाह-व्याख्यायां जीबादयो व्याख्यायन्ते, इह सयं चैव अज्झयणसनं, शेषं प्रकटार्थ यावत् 'सेतं विवाहे 'ति निगमनम् ॥
'से किं तमित्यादि ॥(५१-२२० ।। अथ कास्ताः ज्ञाताधर्मकथाः ?, ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथाः ज्ञाताधर्म कथाः, आह च- 'णायाधम्मकहासु णं इत्यादि, ज्ञातानां उदाहरणभूतानां नगरादीनि व्याख्यायन्ते, 'दस धम्मकहाणं बरगा इत्यादि, एत्थ भावणा- एगूणसं णायज्झयणाणि णायत्ति आहरणा दिईतिओ उवणिज्जति जहिं वा ताणि जाताणि अज्झयणा, एए पढमसुखंधे, अहिंसादिलक्खणस्स धम्मस्स कहाओ धम्मकहाओ धम्मियाओ वा कहाओ धम्मकथाओ, अक्खाणगत्ति बु भवति एयाणि वितियसुयखंधे, पढमवितिय सुयखंधमणियाणं णायाधम्मक्रहाणं नगरादिया भवंति वितियसुखंधे दस धम्मकहाणं बग्गा, वग्गोति समूहो, तब्विसेसणविसिट्टा दस अज्झयणा चैव ते दट्ठव्वा, एगुणवीस णाया दस धम्मकहाओ, तत्थ णातेसु आदिमा दस जाता गाया चेव, ण तेसु अक्खादियादिसंभवो, सेसा गय गाया, तेसु पुण एकेके गाते पंच २ चतालाई अक्खाड्यासयाई, एत्थवि एकेकाए अक्खाइयाए पंच २ उवक्लाइयसवाई, तत्थवि एकेकाए उबक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयोवक्खाइयसगाई, एवमेयाई संपिंडियाई, किं संजायं १, एगवस कोडिस लक्खा पचासमेव बोद्धव्या । एवं ठिते समाणे अधिगतसुचस्स पत्थावो ॥ १ ॥ तंजहा-दस धम्मकहाणं बग्गा, तत्थ णं एगमेगाए घम्मकहाए पंच पंच अक्वाइयसयाई, एगमेगाए अक्खाइमा पंच २ उक्साइयसयाई, एगमेगाए उपक्वाइयाए पंच २ अक्खाइयोक्खाइमसवाई, एवमेयाई संपिंडियाई, किं संजातं ' पणुवीसं कोडिसयं एत्थ य समलक्खणाइया जम्हा । णवणायगसंबद्धा अक्वाइयमाइया तेणं ॥ १ ॥ ते सोहिज्जति
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४४ ], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः ••• अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'विवाह- पन्नत्ति एवं ज्ञाताधर्मकथा' सूत्रयोः वर्णनं |
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108~
ज्ञातधर्मकथाद्याः
॥१०२॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[५२-५३]
गाथा
॥८९..।।
दीप
अनुक्रम
[१४५
१४६]
नन्दीहारिभद्रीय वृचौ
॥१०४॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [५२-५३ ] / गाथा ||८१... ||
फुडं इमाओ रासीओ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवज्जियाणं पमाणमित्थं विनिहिं ॥ २ ॥ सोधिए य समाणे अद्धट्ठाओ कहाणगकोडीओ चैव हवंति, अत एवाह एवमेव सपुष्वावरेण भणियपगारेणं, गुणणसोहणे कतेति वृत्तं भवति, अध्धुट्ठाओ कहाणयकोडीओ |भवतीतिमवखायं प्रकटार्थमित्येवं गुरवो व्याचक्षते, अन्ये पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनर्वयमतिगम्भीरत्वान्नावगच्छामः, परमार्थ त्वत्र विशिष्टश्रुतविदो विदन्तीत्यलं प्रसंगेन, शेषं सुगमं यावत् 'संखेज्जा पदसयसहस्सा पदग्गेणं, ते य किल पंच लक्खा छात्रतारं च सहस्सा पदग्गेणं, अहवा सुत्तालावयपयग्गेण संखेज्जा पदसहस्सा भवंति एवं सव्वत्थ भावेयव्यं, शेषं सूत्रसिद्धं यावानगमनमिति ॥
'से किं तमित्यादि । (५२-३१) ।। उपासकाः श्रावकाः तद्गतक्रियाकलापनिबद्धा दशाः दशाध्ययनोपलक्षिताः उपासकदशाः, तथा चाह- 'उवासगदसासु' णं इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् 'संखेज्जा पदस (यस) हस्सा पदग्गेणं, ते च किल एकारस लक्खा बावनं परगेणं' ति शेषं कण्ठयमानिगमनमिति ।
'से किं त' मित्यादि (५३-२३२) अन्तो विनाशः स च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो वैस्तेऽन्तकृतस्ते च तीर्थकरादयस्तेषां दशाः प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृद्दशा इति, तथा चाह- 'अंतकडदसासु ण' मित्यादि, | पाठसिद्धं यावद 'अंतकिरियाओं' ति भवापेक्षया अन्त्याश्च ताः क्रियाश्चेति समासः, ताथ शैलेश्यवस्थाद्या गृह्णन्ते, शेषं प्रकटार्थ यावत् 'अट्ट बग्गा' एल्थ 'वग्गो' चि समूहो, सो य अंतगडाणं अज्झयणाणं वा, सव्याणि अज्झयणाणि जुगवं उद्दिसंति,
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः ••• अथ अंगप्रविष्ट सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'उपासकदशा एवं 'अंतकृत्दशा सूत्रयोः वर्णनं |
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अन्तकृतादयः
॥१०४॥
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .... मूलं [१४-५६] / गाथा ||८१...||
प्रत
सूत्रांक
[५४-५६] |
गाथा ||८१..||
नन्दा अतो भणियं-अट्ठ उद्देसणाकाला, इच्चादि, संखेज्जा पदसहस्सा पयग्गेणं, ते य किल एवतिया-तेवीसं लक्खा चउरो य सहस्सा | विपाकहारिभद्रीय पदग्गेणं'ति, शेष सूत्रसिद्धं यावनिममनमिति ।
दृष्टिवादी वृत्ती हा
से किं तमित्यादि । (५४-२३३) ।। उत्तर:-प्रधानः, नास्योचरो विद्यत इति अनुत्तरः उपपतनमुपपातः जन्मेत्यर्थः, I ॥१०५॥ अनुत्तरः प्रधानः संसारेज्यस्य तथाविधस्याभावात् उपपातो येषामिति समासः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशाः दशाध्ययनोप
लक्षिता अनुत्तरोषपातिकदशाः, तथा चाह- 'अणुत्तरोववाइयदसासु णमित्यादि सूत्रसिद्धं यावत् तिनि 'वग्ग'त्ति इहाध्यनसमूहो वर्गः, वर्गे २ दशाध्ययनानि, वर्गश्च सुगपदेबोद्दिश्यत इत्यत आह-तिन्नि उद्देसणकाला 'इत्यादि, 'संखेज्जा पदसहस्सा पदग्गेणं, ते य किल छायालीसं लक्खा अट्ट य सहस्सति, शेपं प्रकटार्थ पावनिगमनमिति ।
से किं तमित्यादि । (५५-२३४ ) ॥ प्रश्नः प्रतीतस्तन्निवचनं व्याकरणं, बहुत्वादहुवचनं, प्रश्नव्याकरणेषु 'अट्ठोत्तर, पसिणसयं' इत्यादि, अंगुबाहुपसिणादियाओ पसिणाओ, जे पुण विज्जामंता विधीए जविज्जमाणा अपुच्छिया चेव सुभासुभ कहति एता अपसिणातो, तहा अंगुट्टपसिणभावं च पडुच्च साधेति जा विज्जाओ ताओ पसिणापसिणाओत्ति, अथवा अणंतरं जा कहिति ता पसिणा परंपरं पसिणापसिणचि, तं पुण विज्जाकहितं तस्स परंपरं भवति, अने य दिव्या विचिचा विज्जातिसया,शेष निगदसिद्धं यावत् 'संखेज्जा पदसयसहस्सा पदग्गेण, ते य किल वाणउतिलक्खा सोलस य सहस्सत्ति, शेष गतार्थ यावदन्त इति । ICI
॥१०५॥ का 'से किं समित्यादि । (५६-२३४)। विपचनं विषाकः, शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः, तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं,
शेषमानिगमनं सूत्रसिद्धमेव, नवरं 'संखेज्जा पदसहस्सा पदग्गेणं, एते य एगा पदकोड़ी चुलसीई च लक्खा बत्तीसं च सहस्सति ।
SEKSASSASSASGASSERSCLUSAS
दीप अनुक्रम [१४७- | १४९]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: | ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण एवं विपाकश्रुत' सूत्राणां वर्णनं |
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
दिखत्राणिच
[५७]
प्रत नन्दी
'से किंत' मित्यादि । (५७-२३५)॥ दृष्टयो दर्शनानि, बदनं बादः, रष्टीनां पादः दृष्टिवादः, दृष्टीनां वा पातो | परिकमोणि हारिभद्रीय सूत्रांक
वृत्ती
यत्रासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टय एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः, तथा चाह--दृष्टिवादेन दृष्टिपातेन दृष्टिवादे दृष्टिपाते वा सर्वभावप्ररूपणाडू
आख्यायते, ‘से य समासओ पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि, सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिचे तथापि लेशतो यथाऽगतसम्प्रदाय किंचिद् I ॥१०६॥ व्याख्यायत इति, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि, गणितपरिकर्मवत् , तं च परिकम्मसुर्य सिद्धसेणियादिप
| रिकम्ममूलभेदतो सत्तविह, उत्तरभेदतो तेरासीतिविह, माउगपदानि, एयं च सर्व मूलुत्तरभेदं सुत्तत्थतो बोच्छिदं यथागतसम्प्र-15| गाथा
दाय वा वाच्यं, एएसि परिकम्माण छ आदिमा य परिकम्मा ससमइया चेव, गोसालयपत्तिया आजीवगपासंडिसिद्धृतमएण पुण ॥८२
चुयअचुयसेणियापरिकम्मसहिया सत्त पनविज्जति, इयाणिं परिकम्मे णयचिंता, तत्थ गमो दुविहो-संगहितो असंगहितो यः |
संगहिओ संगहं पविट्ठो, असंगहिओ ववहारं, तम्हा संगहो ववहारो ऋजुसुत्तो सद्दादिया य एको एवं चउरो णया, एतेहिं चउहिट ८४||
णएहि छ ससमइयाई परिकम्माई चितिजति, अतो भणियं-छ चउक्कणया भवति, ते चेव आजीविया तेरासिया भणिया, कम्हा', उच्यते, जम्हा ते सव्वं जगत् त्र्यात्मकमिच्छन्ति, यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवा, लोए अलोए लोयालोए, सते. असते संतासंते, एवमादि, णयचिंताए ते तिविहं णयभिच्छंति, तंजहा-दबहितो पज्जवट्टितो उभयडिओ, अओ भणियं-सत्त तेरासियति, सत्त परिकम्माइं तेरासियपासंडत्था, तिबिहाए णचिंताए चिंतयन्तीत्यर्थः, से तं परिकम्मति निगमन । 'से किं तं सुत्ताई,२
उज्जुसुयादियाई यावीसं भवंति' इह सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि, अमून्यपि च सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नान्येवर अनुक्रम
यथाऽऽगतसम्प्रदायतो वा वाच्यानि, एतानि चेव चावीस सुत्चाई विभागतो अट्टासीति हवंति कथं ,उच्यते, इच्चेयाई बावीस सुत्ताई II [१५०१५४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: | ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'दृष्टिवाद' सूत्रस्य वर्णनं ।
दीप
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AK
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
पूर्वगतं
प्रत सूत्रांक [५७]] गाथा ॥८२८४||
नन्दी- छिमछेदणइयाई, 'ससमयसुत्तपरिवाडीए' नि सुत्न, एत्थं जो णी सुसं छिन छदेणं इच्छइ सो छिमछेदणओ, जहा-"धम्मो रिमाया मंगलमुकिट्ठ' ति सिलोगो मुत्तत्थओ पसेयं छेदनयठिओ ण बितियादिसिलोए अवेक्खह, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, एयाणि वृत्ती
एवं बावीसं ससमया सुत्तपारवाडीए सुत्नाणि ठियाणि, तथा इच्चेझ्याई बाबीस सुत्ताई अच्छिन्नछेदणाइयाई आजीवियसुत्तपरिवा-18 ॥१०॥ डीएत्ति सुत्तमेव इति णओ सुतं अच्छिन्न छदेण इच्छइ सो अछिन्नछेदणयो,जहा धम्मो मंगलमुक्किट्ठति सिलोगो,एस चेव अत्थओ
वितियादिसिलोगमयेक्खमाणोनि वितियादिया य पढमति अन्योऽन्यसापेक्षा इत्यर्थः, एयाणि बावीस आजीवियगोसालपवत्तियपासंडपरिवाडीए. अक्सररयणविभागडियाणिवि अस्थतो अन्नोन्नमवेक्खमाणाणि हवंति, इच्च्चेयाई इत्यादि सुच, तत्थ 'तिकणियाई' ति नयत्रिकाभिप्रायश्चिन्त्यन्त इत्यर्थः, त्रैराशिकावाजीविका एवोच्यन्ते, तथा 'इच्चेताई' इत्यादि सूत्र, एत्थ 'चउणइयाई' ति नयचतुष्काभिप्रायतचिन्तयत इति भावना, एवमेवे' त्यादि सूत्रम्,एवं चउरो बावीसाओ अड्ढासीतिसुत्ताई भ| वंति से तं सुत्ताई' निगमनवाक्यम् । 'से किं तं पुव्वगते इत्यादि, कम्हा पुण्यगतं,उच्यते, जम्हा तित्थगरो तित्थपवत्त
णकाले गणघराणं सबसुत्ताधारतणतो पुच्वं पुन्वगयसुत्तत्थं भासह तम्हा पुव्याचि भाणिया, गणघरा पुण सुत्तरयणं करेन्ता आया| रादिकमेण रएंति ठबंति य, अनायरियमतेणं पुण पुव्वगयमुत्तत्थो पुव्वं अरहया मासिओ गणधरेहिवि पुव्वगर्य सुयं चेव पुवं रइयं, पच्छा आयारादि, चोदक आह-णणु पुव्वावरविरुद्ध, कम्हा?,जम्हा आयाराणज्जुचीए माण यं-सव्वेसिं आयारो० गाहा, सत्यमुक्तं, किंतु सा ठपणा, इमं पुण अक्खररयणं पडच्च भणियं, पूर्व पूर्वाणि कृतानीत्यर्थः, ताणे य उप्पायपुब्बादीणि चोइसपुब्बाणि पन्नचाणि, पढम उप्पायपुव्वं, वत्थ सब्बदन्वाणं पज्जवाण य उपायभावमंगीकार्ड पनवणा कया, तस्स य पयपरिमाणं
रस्साकसक
दीप
०७॥
अनुक्रम [१५०१५४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[ ५७ ]
गाथा
॥८२
८४॥
दीप
अनुक्रम [१५०
१५४]
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्ती
॥ १०८॥
“नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [ ५७ ] / गाथा ||८२-८४||
एगा पयकोडीओ । बित्तियं अग्गेणियं, तत्थवि सव्वदव्वाण पज्जवाण य सब्बजीवाजीवावसेसाण य अग्गं परिमाणं वभिज्जतिति अग्गेणीयं, तस्स पयपरिमाणं छनउर्ति पयसय सहस्साणि । ततियं वीरियपवायं, तत्थवि अजीवाणं जीवाणं सकम्मेतरं वीरियं पवयह त्ति वीरियप्यवार्य, तस्स विसत्तरिय पयसमसहस्साणि । चउत्थं अत्यिणत्थिपवायं, जं लोए जहा वा अस्थि जहा वा णत्थि अथवा सियवादाभिप्पाततो जहेबास्ति नास्तीत्येवं प्रवदति इति अस्थिणत्थिपवायं भणियं, तंपि पदपरिमाणतो सहि पदसयसहस्साणि । पंचमं णाणपवादंति, तम्मि मतिणाणादिपंचकस्स गाहेण परूवणा जम्हा कया तम्हा णाणप्पवायं तम्मि पदपरिमाणं एगा कोडी एगपदुणा । छ सच्चप्पवायं सच्चे-संजमो सच्चवयणं वा तं सच्चे जत्थ सभेयं सपविक्खं च वनिज्जद तं सच्चप्पवार्य, तस्स पदपरिमाणं एगा पयकोडी छप्पयाहिया । सत्तमं आयप्पवायं, आयत्ति आत्मा, सोऽणेगहा जत्थ गयदरिसणेहिं वभिज्जइसे आयप्पवायें, तस्सवि पदपरिमाण छब्बीस पदकोडीओ । अट्ठर्म कम्मप्पवायं णाणावरणादियं अडविहं कम्मं पयतिठिअणुभागपदेसा दिएहिं भेदेहिं अनेहि य उत्तरुत्तरभेदेहिं जत्थ वन्निज्जइ तं कम्मप्यवायें, तस्सवि पयपरिमाणं एगा पयकोडी असीर्ति च पयसहस्सा भवति । जयमं पच्चक्खाणप्यवार्य, तस्स य पदपरिमाणं चरासीतिं पयसहस्सा भवति । दसमं विज्जाणुप्पवायं, तत्थ अणेगे विज्जातिसया वृष्णिया तस्स य पदपरिमाणं एगा पयकोडी दस पयसहस्सा एकारसमं अवझति, वंझे णाम णिष्फलं ण वंशमवंझ, सफलमित्यर्थः सब्वे णाणतबसंजमजोगा सफला बभिज्र्ज्जति, अप्पसत्था य पमादादिया सच्चे असुहफला बनिया, अतो अशं, तस्सवि पयपरिमाणं छब्बीस पदकोडीओ वारसमं पाणाउं, तत्थ आउं प्राणविधानं सव्यं सभेयं अन् य प्राणा वनिता, तस्स पयपरिमार्ण एगा पयकोडी छप्पनं च पदसयसहस्साणि । तेरसमं किरियाविसालं, तत्थ कायकिरियाहिंसादओ
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
~113~
पूर्वगतं बनुयोगव
॥१०८॥
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आगम (४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१७] | गाथा ||८२-८४||
नन्दी
प्रत सूत्रांक
| योगे
S
[१७]
गाथा ॥८२८४||
विसालात सभेया संजमकिरियाओ बंधकिरियाविहाणा य, तस्सवि पयपरिमाणं णव कोडीओ । चोदसमं लोगबिंदुसार, तं च गडिकानुहारिभद्रीया वृत्ती
इमम्मि लोए सुअलोए वा बिंदुमिव अक्खरस्स सव्वुत्तमं सब्यक्खरसन्निवायपरितत्तणओ लोगबिन्दुसारं भणिय, तस्स य पयपरिमाणं अद्धत्तेरसपयकोडीओ । से तं पुश्वगते ।
चित्रान्तर॥१०९॥
| मंडिकाः ___ 'से किं तमित्यादि, अनुरूपः अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः, सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः संबंध इत्यर्थः, सच | द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-मूलप्रथमानुयोगश्च गण्डिकानुयोगश्च, 'से किं तमित्यादि, इहैकवक्तव्यताप्रणयनान्मूलं तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथमः-सम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः, तथा चाह-'मूलपढमाणुयोगे ण'मित्यादि, सूत्रसिद्ध यावत् 'से तं मूलपढमाणुयोगे । 'से किं तमित्यादि,इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता गण्डिका उच्यन्ते तासामनुयोगः-अर्थ| कथनविधिः गण्डिकानुयोगः,तथा चाह-'गंडियाणुयोगे णमित्यादि,तत्थ कूलगरगंडियासु कुलगराणं विमलवाहणादीणं पुन्यज४म्मणामादि काहिज्जइ,एवं सेसासुवि अभिधाणवसतो भावेयव्वं जाव चित्ततरगंडियाओ,चित्रा:-अनेकार्थी अन्तरे-ऋपभाजिततीय-11
करान्तरे गण्डिका-एकवक्तव्यताधिकारानुगताः, एतदुकं भवति-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे तवंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिषगतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्वित्रान्तरगण्डिका इति । एयासि परूवणे पुवायरिएहिं इमो विही दिडो
॥१०॥ ____ आदिच्चजसाईणं उसमस्त पउपए परवाणं । सगरसुताण सुबुद्धी इणमो संखं परिकहेइ ॥१॥ चोदस लक्खा सिद्धा णिव| वीणिको य होति सम्बढे । एकिकट्ठाणे पुण पुरिसजुगा होतऽसखेज्जा ॥२सा पुणरवि चोदसलक्खा सिद्धा णिवतीण दोनि सव्ववे।
HREE
ASSETTE
दीप
अनुक्रम [१५०१५४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
प्रत सूत्रांक
[५७]
गाथा ॥८२८४||
नन्दी
18| दुगठाणेवि असंखा पुरिसजुगा होति णायव्या ॥३॥ जाव य लक्खा चोइस सिद्धा पचास हॉति सबढे । पासवाणेऽविता गाडकानुहारमद्राया परिसजमा होतिसंखेज्जा ॥ ४॥ एगुत्तरा उठाणा सब्बडाणे य जाव पचासा । एवेकेकगठाणे पुरिसजुगा होतऽसखेज्जा।। ५॥XI
योगे वृत्ती |विवरीयं सबढे चोदसलक्खा उणिव्वुतो एगो । सच्चव य परिवाडी पन्नासं जाव सिद्धीए ॥ ६॥ तेणं परं तु लक्खा दो दो
चित्रान्तरठाणा य समग बच्चति । सिवगतिसब्बडेहिं इणमो तेसि विही होइ ॥ ७॥ दो लक्खा सिद्धीए दो लक्खा नरवतीण सवढे । एवं ॥११०॥
मंडिका तिलक्ख चउपंच जाव लक्खा असंखेज्जा ॥ ८॥ सिवगतिसबढेहिं चित्तरगंडिया ततो चउरो। एगा एगुत्तरिया एगादिविउत्तरा वितिया ॥ ९॥ ततिएगादितिउत्तरा तिगमादिविउत्तरा चउत्थेयं । पढमाए सिद्धिको दोषिय सन्चट्ठसिद्धम्मि ॥१०॥ तत्तो तिनि नरिंदा सिद्धा चत्तारि होंति सबढे । इय जाब असंखेज्जा सिवगतिसम्बदसिद्धेहि ॥ ११ ।। ताहे घिउत्तराए सिद्धिको तिमि होंति सबढे । एवं पंच य सत्त य जाव असंखेज दोभित्ति ॥ १२ ॥ एग चउ सत्त दसगं जाव असंखज्ज हॉति दोनि
ति । सिवगतिसञ्चद्वेहिं तिउत्तराए मुणेयच्या ॥१३॥ ताहे-तियगाइ बिउत्तराए अउणत्तीस तितग ठावेतुं । पढमे गस्थि क्खेवो दासेसेसु इमो भवे खेवो ॥१४॥ दुग पण णवर्ग तेरस सत्तरस दुबीस छच्च अडचा बारस चौदस तह अडवीस छब्बीस पणुवीसा
॥ १५ ॥ एकारस तेवीसा सीयाला सतरि सतहत्तरी तह य । इग दुग सत्तासीई एगुत्तरिमेन पावडी ॥ १६ ॥ अउणतरि* 13 चउवीसा छायाल सयं तहेव छब्बीसा | एए रासीक्खेवा तिगअंतता जहाकमसो ।। १७ ॥ सिवमतिसव्वदेहिं दो दो ठाण विसमु
चरा गेया । जाणतीसट्टाणे उणतीसं पुण छवीसाए ॥१८॥ विसमुत्तरा य पढमा एषमसंख विसमुचरा गेया । सवत्थवि अंतिल्लं ॥११०॥ अाए आदिमं ठाणं ॥ १९ ॥ अउणचीस वारे ठावेउं पत्थि पढमए खेवो । सेसेसुऽडवीसाए सव्वत्थ दुगादिओ खेवो ।। २० ॥
AMERIKA
दीप
अनुक्रम [१५०१५४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१७] | गाथा ||८२-८४||
प्रत सूत्रांक [५७]] गाथा ॥८२८४||
नन्दी-
वृत्ती ॥११॥
मंडिकानु.योगे गंडिका
GACASSA
सिवगतिपढमादीए वितियाए वह य दोति सबढे । इस एगंतरियाई सिवगइसब्बड्डठाणाई ।। २१ ॥ एवमसंखेज्जाओ चित्रंतर- गडियाओ यव्वा । जाव जियसत्तुराया अजियजिणपिया समुप्पभो ॥ २२ ॥ एवं गाहाहिं चितरगंडियाओ समत्ताओ । इमा य एयासि ठवणा
एसिया लक्खा सिद्धिगया| १४ | १४|१४|१४|१४|१४|१४|१४ १४/१४ १५
एतिया सबढ गया, ।१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०५ एवं जाव असंखा पुरिसजुगा सिद्धा एसा पढमा, अओ पर | १ २ ३ | ४ ५ ६ ७८९१०५० सन्बटुंपि गया एपिआ लक्खा १४|१४|१४|१४१४१४४१४४ा सिद्धा एत्तिया लक्खा ॥ एवंपि असंखेज्जा पुरिसजुगा सिद्धा,
एसा बीया, अओ परं
६ सम्बडेवि गया एचिया लक्खा २ ३ ४ ५
-एवं जाव असंखेज्जा आवलिया, सिद्धा एचिया लक्खा | २ ३ ४ ५ ६ ७/
दीप
अनुक्रम [१५०
१५४]
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
प्रत सूत्रांक
[१७]
नन्दी
गंडिकानुहारिभद्रीया दुगाइएगुत्तरा दोवि गच्छति | आवलिया दूरगमणओ पंचासीइमे ठाणे चिट्ठति तश्या मैडिया,21
चित्रान्तर वृत्ती
गडिकाः ॥११२॥ अतः परं चतस्रो गण्डिका एकोत्तरिकादिकाः प्रदश्यन्ते-शिवगतौ सर्वार्थे च एवं असंखेज्जा चित्ततरगंडिया, एगाइ एगुत्तरिया
पढमा णेया, सिद्धा एत्तिया सध्यढे एत्तिया चेव, एवं जाव असंखेज्जा, एगादिविउत्तरा श चितिया | | चितवर गण्डिया, सिद्धा एतिया सबहे एतिया चव, एवं जाव असंखेज्जा चित्रंतरगंडिया, एगादितिउत्तरा |
गाथा ||८२८४||
___ तइया तवश्चतुर्थी व्यादिका द्वयादिविषमोत्तरप्रक्षेपा एकोनविंशत्रिदंकान् संस्थाप्य निदर्श्यते,
दीप
एचिया सवढे
| ३ ८ १६ २५ | ११ | १७ | २९ १४ ५० ८० | ५ | ७४ ७२/४९/२९] शिवगतौ सिद्धा | ५ |१२ २०/ ९१५ ३१ २८.२६/७३ | ४ ९० ६५ २०१०३
११२॥
अनुक्रम [१५०१५४]
कर
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[ ५७ ]
गाथा
॥८२
८४॥
दीप अनुक्रम [१५०
१५४]
नन्दीहारिभद्रीय
वृचो
॥११३॥
5
“नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [ ५७ ] / गाथा ||८२-८४||
एचिया पुणोषि । २९ ३४ ४२ सिवगती सब्वट्टसिद्धौ तु ३१ | ३८ | ४६ पञ्चाशदादौ
कृत्वा
५१
एवं पुनः पुनः पञ्च
३७ ४३ ५५ ४० ७६ १०६ ३१ १०० ९८ ७१ ५५ ४१ ५७ ५४ ५२ ९९ / ३० ११६ ९१ ५३ | १२५ एकोनत्रिंशत् स्थानानि संस्थाप्य द्वयादिप्रक्षेपकेन यावत् पश्चिमस्थाने एकाशीतिर्भवसि
३५
०
५५ ६० ३८ ५७ ५४ | ७२
७७ ६३ ७९ ८१ ६६ १०२ १३२ ५७ १२६ १२४ १०१ ८१ ६१ | ६७ ८३ ८० ७८ १२५ ५६ १४२११७७९- १५५ ०
N
ण्डिका मेया, सेसं गाहाणुसारेणं नेयव्वं जाव असंखेज्जा, शेषं निगदसिद्धं यावत् ' से तं अणुओगे '
'से किं तमित्यादि ॥ चूडा इव चूडा, इह दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोग कानुकार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतय चूडा इति, एताश्रायानां चतुर्णामेव पूर्वाणां भवन्ति, न शेषाणामिति, अत एवाह आदिल्लाण' मित्यादि, संख्याताः । सम्प्रति पूर्वाणामिमं यथासंख्यं " चउ बारसट्ठ दस या हवंति चूडा चउण्ह पुव्वाणं । एए य चूलवत्थू सव्युवरिं किल पढिज्जति ॥ १ ॥ " शेषमानिगमनं सूत्रसिद्धमेव, नवरं 'संखेज्जा वत्यु'चि पणुवीसुत्तराणि दो सयाणि, 'संखेज्जा चूलवत्यु' चि चउदीसं । सामा तमोघतो द्वादशांगविषयमेव दर्शय माह-
118~
अनेन उचरा असंख्येयाचित्रान्तरग
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र - [४४ ], चूलिकासूत्र [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी -रचिता वृत्तिः
गंडिकानुयोगे
चित्रान्तरगैडिकाः
॥११३॥
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............ मूलं [१८] / गाथा ||८||
प्रत सूत्रांक [५८] गाथा ||८||
नन्दी
'इच्चेय' मित्यादि ।( ५८-२४७ )। इत्येतस्मिन् द्वादशाङ्गे गणिपिटक इति पूर्ववत्, अनन्ता भावाः प्रज्ञप्ता इति योगः,5 चूला हारमायावत्र भवन्तीति भावाः जीवादयः पदार्थाः, एतेच जीवपद्लामन्तत्वात् अनन्ता इति, तथा अनन्ता अभावाः, सर्वभावानामेवाबादशा वृत्तों पररूपेणासचात् त एवानन्ता अभावा इति, स्वपरसत्ताभावाभावोभयाधीनत्वात् वस्तुतच्चस्य, तथाहि-जीयो जीवात्मना भावो-II
बिराधना॥११४॥ जीवात्मना चाभायोऽन्यथाजीवत्वप्रसंगाद् , अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते गमनिकामात्रत्वात् आरम्भस्य, अन्ये तु धर्मापेक्षया
फलं अनन्ता भावाः अनन्ता अभावाः प्रतिवस्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां प्रतिबद्धा इति व्याचक्षते, तथाऽनन्ता हेतवः, तत्र हिनोति-नामयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः, ते चानन्ता वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वात् तत्प्रतिवद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकत्वाच्च हेतोः, सूत्रस्य चानन्तगमपर्यायात्मकत्वादिति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षतोऽनन्ता अहेतवः, तथाऽनन्तानि कारणानि मृत्पिण्डतन्त्वादीनि घट-18 पटादिनिर्वर्तकानि तथाऽनन्तान्यकारणानि, सर्वकारणानामेव कार्यान्तराकारणत्वात्, न हि मृपिण्डः पट निर्वयतीति, एवं मावाभावाः हेस्वहतवः कारणाकरणानि, जीवा:-प्राणिनस्तथा अजीवा-यणुकादयः, तथा भष्या:-अनादिपारिणामिकमध्यभावयुक्ताः, एतेऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः, तथा अभव्याः-अनादिपारिणामिकाभव्यभावयुक्ताः, एतेऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः इति योगः, तथा सिद्धा अनन्ताः, तथा अनन्ता असिद्धाः प्रज्ञप्ता इति, दह भन्याभव्यानामानन्त्येऽभिहिते अनन्ता असिद्धा इति यत् पुनरमिधानं तत् | सिद्धेम्योऽनन्तगुणत्वख्यापनार्थमिति ॥ साम्प्रतं द्वादशांगविराधनाराधनानिष्पन्नं त्रैकालिकं फलमुपदर्शयमाह-'इच्चेय' मित्यादि, ११४॥ इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं अतीतकाले अनन्ता जीवा आजवा बिराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं 'अणुपरियहिसु' चि अनुपरावृ-15 चिमन्त आसन् , इदं हि द्वादशांग सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं, ततश्चाज्ञया-मूत्राशयाऽभिनिवेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया विराध्य
दीप अनुक्रम [१५५१५७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति: | ... द्वादशांगे: आराधन-विराधनाया: फलम्
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
...... मूलं [१८] / गाथा ||८||
नन्दी- हारिभद्रीय
वृत्ता
प्रत सूत्रांक [५८] गाथा ||८||
॥११५॥
अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्त संसारकान्तार-नारकतिर्यनरामरविविधवृक्षजालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, अनुपरावृत्ता-MI
द्विादशांग्यआसन् जमालियत , अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथानरूपणादिलक्षणया गोष्ठामाहिलवत् , उभयाजया पुनः पंचविधाचार |
आराधना
नापरिज्ञानकरणोधतगुर्वादेशादिलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिङ्गधार्यनेकश्रमणवत् , अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयाऽऽगमोक्तानुष्ठा-डू
'फलं नमेवाज्ञा, एतद्विराधनयवानुपरावृत्ता आसन् । उक्तंच-"सव्वाओवि गतीओ अविरहिया गाणदसणधरेहि" इत्यादि, 'इच्चेय-1 मित्यादि, गतार्थमेव, नवरं 'परित्ता जीवा' इति संख्येया जीवाः, वर्तमानविशिष्टविराधकमनुष्यजीवाना संख्येयत्वात् , 'अणुपरियहति' ति अनुपरावर्तन्ते, भ्रमन्तीत्यर्थः, 'इच्चेत'मित्यादि, इदमपि भावितार्थमेव, नवरं 'अणुपरियडिस्संति' ति अनुपरावर्तिष्यन्ते, पर्यटिष्यन्ति इत्यर्थः ।। 'इच्चेत' मित्यादि, इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटक अतीतकालेऽनन्ता जीवा आराध्य चतुरन्तं संसारकन्तारं 'बीतिवइंस्वि' ति व्यतिक्रान्तवन्तचतुर्गतिकसंसारोल्लंघनेन मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः, 'इच्चेय मित्यादि, गतार्थ नवरं 'बीइवयंनिति व्युत्क्रामन्ति, 'इच्चेद' मित्यादि गतार्थमेव, नवरं 'वितीवयिस्मति' चि व्युत्क्रमिष्यन्ते, एतत्प्रभा-14 वात् सेत्स्यन्तीत्यर्थः । यदिदमनिष्टतरभेदभिन्नं फलं प्रतिपादितमेतत् सदाऽवस्थायित्वे सति द्वादशांगस्योपजायत इत्यत आह-121 'एच्चेय' मित्यादि इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं न कदाचिनासीद् अनादित्वात्, न कदाचिन भवति सदैव भाषात् , न कदाचि-18 न भविष्यति, अपर्यवसितत्वात् , किं तर्हिी-'भुर्वि चे' त्यादि, ध्रुवत्वादेव नियत, पञ्चास्तिकायेषु लोकवचनवत् , नियतत्वादेव शा- ॥११५॥ श्वतं, समयावलिकादिषु कालवत् , शाश्वतत्वादेव वाचनादिप्रदानेऽप्यक्षयं, गंगासिन्धुप्रवाहेअपि पौण्डरीकहदवत् , अक्षयत्वादेवाव्ययं, मानुषोचराद् बहिःसमुद्रवत् , अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थित, जम्बूद्वीपादिवत् , अवस्थितत्वादेव नित्यमाकाशवत् , साम्प्रतं रष्टा
दीप अनुक्रम [१५५१५७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [५८] / गाथा ||८५-८७||
प्रत सूत्रांक
लाभव
[५८]
गाथा ॥८५
नन्दीशन्तमाह-'से जहा णामे'त्यादि, तद्यथा नाम पंचास्तिकायाः-धर्मास्तिकायादयः न कदाचिमासन् न कदाचिन्न सन्ति न कदाचिम श्रुतस्यहारमा भविष्यन्ति, अभूवम् भवन्ति भविष्यन्ति च, धुवा इत्यादि पूर्ववत् , 'एवामेवे त्यादि निगमनं निगदसिद्धमेव । 'से समासओंविषयाभदा वृत्ती
इत्यादि, तद् द्वादशांगं समासतश्चतुर्विध प्रज्ञप्तं इत्यादि, प्रायो गतार्थमेव, नवरं द्रव्यतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सन् सर्वद्रव्याणि जा॥११॥ नाति पश्यतीत्यत्राभिन्नदशपूर्वधरादिः श्रुतकेवली परिगृह्यते, तदारतो मजना, सा पुनर्मलविशेषतो ज्ञातव्येति, अत्राह-ननु पश्य-12
तीति कर्थी, सकलगोचरदर्शनायोगाद्, अत्रोच्यते, प्रज्ञापनायां श्रुतज्ञानपश्यत्तायाः प्रतिपादितत्वादनुत्तरविमानादीनो चालेख्यकरणात् सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यकरणानुपपत्तेः, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयमिति, अन्ये तु न पश्यतीत्यभिदधति ॥ साम्प्रतं | संगहमाथामाह___'अक्खर सन्नी' त्यादि (१८६-२४९)। इयं गतार्थेव, नवरं सप्ताप्येते सप्रतिपक्षाः, ते चैवं-अक्षरश्श्रुतमनक्षरश्रुतमित्यादि, | इदं पुनः श्रुतज्ञानं सर्वातिशयरत्नसमुद्रकल्पं, तथा प्रायो गुर्वायत्ततत्वात् पराधीनं, अतो विनेयानुग्रहार्थ यो यथा चास्य लाभस्तथा दर्शययन्नाह
'आगम' गाहा॥(*८७-२८९)। आगमनमागमः, आङ अभिविधिमर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया बागमः-परिच्छेद आगमः, स च केवलमत्यवाधिलक्षणोऽपि भवति अतस्तव्यवच्छित्यर्थमाह-शास्यतेऽनेनेति शास्त्र-श्रुत, आगमग्रहणं तु पष्टि-II ॥११६।। संत्रादिकशास्त्रव्यवच्छेदार्थ, तेषामनागमत्वात् , सम्पपरिच्छेदात्मकत्वाभावादित्यर्थः, शाखतया च रूढत्वात् , तत आगम
८७||
दीप
अनुक्रम [१५८१६०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [५८...] / गाथा ||८७-८९||
हारिभद्रीय 8
विधिः
प्रत सूत्रांक [५८] गाथा ||८७८९||
नन्दी
थासौ शाख च आगमशास्त्रं तस्य ग्रहणमिति समासः, गृहीतिर्ग्रहणं, यद् बुद्धगुणैर्वक्ष्यमाणलक्षणैः करणभूतैरष्टभिष्टं तद् ब्रुवते बुद्धिगुणाः
श्रुतबानस्य लाभः श्रुतज्ञानलाभस्तं तदेव ग्रहणं बुवते, के ?-पूर्वेषु विशारदा-विपश्चितो धीराः, व्रतानुपालने स्थिरा इत्यर्थः, अयं श्रवणवृत्तौ
गाथार्थः ।। बुद्धिगुणैरष्टभिरित्युक्तं ते चामी॥११७|| ___'सुस्सूसतिगाहा ॥(*८८-२४९।। विनययुक्तो गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुषते, पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति, तत् श्रुतमर्श
कित करोतीति भावार्थः, पुनः कथितं सच्छृणोति, श्रुत्वा गृह्णाति, गृहीत्वा चेहते-पर्यालोचयति, किमिदमित्थमुतान्यथेति, च31 शब्दः समुच्चयार्थः, अपिशब्दात् पर्यालोचयन् किंचित् स्वबुध्ध्याऽप्युत्प्रेक्षते, ततस्तदनन्तरमपोहते च, एवमेतद्यदादिष्टमाचार्येणेति, BI
पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति करोति च सम्यक् तदुक्तमनुष्ठानमिति, तदुक्तानुष्ठानमपि च श्रुतप्राप्तिहेतुर्भवति, तदावरणक्षयोप-13 शमादिनिमित्तत्वात्तस्येति, अथवा यद्यदाज्ञापयति गुरुस्तत् सम्बगनुग्रहं मन्यमानः श्रोतुमिच्छतीति, पूर्वसन्दिष्टश्च सर्वकार्याणि
कुर्वन् पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति पुनरादिष्टः सन् सम्यक् शृणोति, शेष पूर्ववत् ।। बुद्धिगुणा व्याख्यातास्तत्र शुश्रूपतीत्युक्तं, इदानीं || दश्रवणविधिप्रतिपादनायाह
'मूअं' गाहा (८९-२४९)।। मृकमिति मुकं शृणुयात् , एतदुक्तं भवति-प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीं खल्वासीत, तथा ॥११॥ द्वितीये हुंकारं च, ईपद्वन्दनं कुर्यादित्यर्थः, तृतीये बाढकारं कुर्यात् बाढमवमेतन्नान्यथेति, चतुर्थश्रवणे गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो दमनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् , कथमेतदिति, पंचमे तु मीमांसां कुर्यात् , मातुमिच्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञासेतियावत् , ततः षष्ठे|
दीप
अनुक्रम [१६०१६२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
मूलं [१९] / गाथा ||९०||
प्रत
सूत्रांक
[५९] गाथा ||२०||
नन्दी-18 अवणे तदुत्तरोचरगुणप्रसंगपारगमनं चास्य भवति, परिनिष्ठा सप्तमे श्रवणे भवति, एतदुक्तं भवति-गुरुवदनुभाषत एव सप्तमे श्रवणव्याहारिभद्रीय श्रवणे इति । एवं तावत् श्रवणविधिरुतः, इदानीं व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह
ख्यान वृचों । 'सुत्तत्थो' गाहा ।।(१९०२४९) सूत्रार्थमावप्रतिपादनपरः सूत्रार्थः,अनुयोग इति गम्यते,खलशम्दस्त्वेषकारार्थः, स चावधा
विधिः रणे, एतदुक्तं भवति गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधानलक्षण एवं प्रथमोऽनुयोगः कार्यः, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोहः, द्वितीयोऽ-18
उपसंहारश्च ॥११८॥
नुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रः कार्य इत्येवंभूतो भणितो जिनैश्चतुर्दशपूर्वधरेश्व, नृतीयश्च निरवशेष, प्रसकानुप्रसक्तमप्युच्येत एवंलक्षणो निखशेषः कार्य इति 'एष' उक्तलक्षणो विधानं विधिः प्रकार इत्यर्थो 'भणितः प्रतिपादितो जिनादिभिः, क्व -सूत्रस्य | निजनाभिधेयेन सार्धमनुकूलो योगोऽनुयोगः सूत्रान्वाख्यानमित्यर्थः, तस्मिन्ननुयोग इति गाथार्थः, आह-परिनिष्ठा सप्तम इत्युक्तं, | जयश्चानुयोगप्रकाराः, तदेतत् कथमिति, अत्रोच्यते, विनेयमणं विज्ञाय त्रयाणामन्यतमप्रकारेण सप्तवारकरणादविरोधादित्योपविने| यविषयं तावत् सत्रं, न पुनः स एव नियमविधिः, उद्घट्टितजविनेयानां सकृत् श्रवण एवाशेपग्रहणदर्शनादलं विस्तरेण ।।
'सेत'मित्यादि ॥(५९-२५९)।। तदेतत् श्रुतज्ञानमिति निगमन, 'सेत'मित्यादि, तत् परोक्षमिति निगमनमेव । नन्द्यध्य| नविवरणं समाप्तम् ।।
यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद् , व्याख्यातं तदू बहुतैः । क्षन्तव्यं कस्य सम्मोहश्छवस्थस्य न जायते ॥ १॥
नन्यध्ययनविवरणं कृत्वा यदवाप्तमिह मया पुण्यम् । तेन खलु जीवलोको लभतां जिनशासने नन्दीम् ॥ २॥ कतिः सिताम्बराचार्यजिनभट्टपादसेवकस्याचार्यश्रीहरिभद्रस्पेति। नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै । समाप्ता नन्दिरीका।।ग्रन्था२३३६॥ १.
SACREAUCRACAAKAA
दीप अनुक्रम [१६२१६३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -[१] 'नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४४)
“नन्दीसूत्र” (हारिभद्रिया-वृत्तिः) परिसमाप्तं
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________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 44 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “नन्दी-चूलिकासूत्र" [हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “नन्दीसूत्र” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~124