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[ नन्दीसूत्र - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा
यह प्रत सबसे पहले “नन्दीसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में ऋषभदेव केशरीमलजी संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | मूल संपादकश्रीने तो यहां दो प्रत को मिलाकर एकसाथ मुद्रण करवाया था, (१) चूर्णि और (२) वृत्ति | मगर हमने हमारे प्रकाशनमे चूर्णि को चूर्णि के विभागमे रख दिया और वृत्ति को यहां "आगम- सुत्ताणि-सटीकं प्रताकार net publications भाग-2 मे स्थान दे दिया |
ये 'हारिभद्रीया-वृत्ति' तो कदमे छोटी है, मगर 'नन्दीसूत्र' पर मलयगिरिजी रचित वृत्ति बहोत बड़ी है, जो हमारे "आगम-सुत्ताणि-सटीकं" प्रताकार net publications भाग- 1 मे हम मुद्रित करवा चुके है ।
* हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके |
हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है| हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है |
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
मुनि दीपरत्नसागर
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४४], चूलिकासूत्र -[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः