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युक्त्यनुशासन है। छमस्थोंका ज्ञान उसके पूर्ण रूपको नहीं जान सकता। उसमे सत्, असत्, उभय, अनुभय ये चार कोटियां ही नहीं, इनको मिलाजुलाकर जितने प्रश्न हो सकते हों उन अनन्त सप्तभंगियोंके विषयभूत अनन्त धर्म प्रत्येक वस्तुमे लहरा रहे हैं। उन्होंने बुद्धकी तरह तत्त्वज्ञानके सम्बन्धमे अपने शिष्योंको अनुपयोगिताके कुहरे में नहीं डाला और न इस तरह उन्हे तत्त्वज्ञानके क्षेत्रमे मानसिक दैन्यका शिकार ही होने दिया। उनने आत्मा लोक परलोक आदिकी नित्यता अनित्यता आदिके निश्चित दृष्टिकोण समझाये । इस तरह मानस अहिंसाकी परिपूर्णताके लिये विचारोंका वस्तुस्थितिके आधारसे यथार्थ सामञ्जस्य करनेवाला अनेकान्त दर्शनका मौलिक उपदेश दिया गया। इसी अनेकान्तका निर्दुष्ट रूपसे कथन करने वाली भाषाशैली 'स्याद्वाद' कहलाती है । स्याद्वादका 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्मके सिवाय वस्तुमें विद्यमान शेष धर्मोंका प्रतिनिधित्व करता है। वह उन मूक धर्मोका सद्भाव तथा वस्तुमें उनका बराबरीका अधिकार बताता है और श्रोताको यह सोचनेको बाध्य करता है कि वह शब्दसे उच्चरित धर्मरूप ही वस्तु न समझ बैठे। अतः मानस अहिंसा अनेकान्त दर्शना,वाणीकी अहिंसा 'स्याद्वाद' तथा कायिक अहिंसा 'सम्यक् चारित्र' ये अहिसा प्रासादके मुख्य स्तम्भ हैं। युगावतार स्वामी समन्तभद्रने अनेकान्त, स्याद्वाद तथा सम्यक्चारित्रके सारभूत मुद्दोंका विवेचन ' इस युक्त्यनुशासनमे दृढ निष्ठा और अतुल वाग्मिताके साथ किया है, जो कि उन्हीं वीरप्रभुके स्तोत्र रूपमे लिखा गया है। वे जैनमतका अमृतकुम्भ हाथमे लेकर अटूट विश्वाससे कहते हैंभगवन् । दया, दम, त्याग और समाधिमें जीवित रहने वाला तथा नय और प्रमाणकी द्विविध शैलीसे वस्तुका यथार्थ निश्चय करने वाले तत्त्वज्ञानकी दृढ भूमिपर प्रतिष्ठित आपका मत अद्वितीय है, प्रतिवादिगों द्वारा अजेय है