Book Title: Yuktyanushasan Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ युक्त्यनुशासन जान या अजानमे करता जा रहा है। श्रमण महाप्रभुने अपने निमल केवलज्ञानसे जाना कि इस विचित्रविश्वमे अनन्त द्रव्य है। प्रत्येक जड या चेतन द्रव्य अपनेमें परिपूर्ण है और स्वतत्र है। वह अनन्त धर्मात्मक है, अनेकान्तरूप है। शुद्ध द्रव्य एक दुसरेको प्रभावित नहीं करते। केवल पुद्गल द्रव्य ही ऐसे हैं जो अपनी शुद्ध या अशुद्ध हर अवस्था में किसी भी सजातीय या विजातीय द्रव्यसे प्रभावित होते रहते है। एक द्रव्यका निसर्गत. दूसरे द्रव्य पर कोई अधिकार नही है। प्रत्येक द्रव्यका अधिकार है तो अपने गुण और अपनी पर्यायोपर । वह उन्हीका वास्तविक स्वामी है । पर इस स्वरूप और अधिकारके अज्ञानी मोही प्राणीने जड पदार्थ तो दूर रहे, चेतन द्रव्योंपर भी अधिकार जमानेकी दुवृत्ति और मूढ प्रवृत्ति की । इसने जड पदार्थाका सग्रह और परिग्रह तो किया ही, साथ ही उन चेतन द्रव्योपर भी स्वामित्व स्थापन किया जिन प्रत्येकमे मूलत• वैसे ही अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख आदि गुणोकी सत्ता है, जो उसी तरह सुख-दुखका संवेदन और सचेतन करते हैं जिस प्रकार कि वह, और वह भी किया गया जाति-वर्ण और रगके नामपर । श्रमण-प्रभुने देखा कि यह विषमता तथा अधिकारोंकी छीनाझपटीकी होड व्यवहारक्षेत्रमे तो थी ही, पर उस धर्म-क्षेत्रमे भी जा पहुँची है जिसकी शीतल छायामे प्राणिमात्र सुख, शान्ति और • समताकी सांस लेता था । मांसलोलुपी प्रेयार्थी व्यक्ति पशुओंकी बलि धर्मके नामपर दे रहे थे। उन प्रवृत्तिरक्त पर शमतुष्टिरिक्त यज्ञजीवियोंको भगवान्ने यही कहा कि-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नही और अधिकार जमानेकी अनधिकार चेष्टा ही अधर्म है, पाप है और मिथ्यात्व है । फिर धर्म के नामपर यह चेष्टा तो घोर पातक है। स्वामी समन्तभद्रने भूतचैतन्यवादी चार्वाकोंका खण्डन करतेPage Navigation
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