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दिव्यदृष्टि, चिन्तन-लेखन व प्रवचन से आकर्षित होकर विशाल भक्त वर्ग उनका दीवाना बना हुआ था। जल में कमल की तरह निर्लिप्त गुरुदेव सबके थे परन्तु किसी के हो कर नहीं रहे थे। नाम व प्रसिद्धि की चाहना में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
"कोई तुम्हें माता कहें, क्योंकि तुम वात्सल्य की तस्वीर थे, कोई तुम्हें पिता कहें, क्योंकि तुम कईयों की तकदीर थे।
न जाने लोग तुम्हें कितने नामों से पुकारते हैं, तुम तो कई हृदयों को बांधने वाली साधर्मिक उत्थान की जंजीर थे।"
जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान अलग हुए तब लाहौर में गुरुदेव का संवेदनशील हृदय समाज की छटपटाहट को पहचान सका था। घनघोर अन्धेरे में जब सारी खिड़कियाँ व दरवाजे बन्द हों, उस वक्त हवा के झोंके से थोड़ी सी खिड़की खुल जाये और प्रकाश की किरणें अन्दर प्रवेश करने लगे, तब अन्दर रहा हुआ इन्सान चलते हुए गिरेगा नहीं, लड़खड़ाएगा नहीं। बस चाहिये चंद प्रकाश की किरणें। पूज्यपाद श्री के आत्मविश्वास, जबरदस्त आराधना बल व कृपादृष्टि का कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि जहाँ चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था, वहीं गुरुदेव ऐसी ज्योति बनकर आये कि अंधेरा परास्त हो गया और उजियारा छा गया। निराशा, कुण्ठा व उलझन के स्थान पर चारों ओर आशा, उत्साह, उल्लास का वातावरण बन गया। गुरुदेव ने कैसा उपकार किया था, उसकी सही कीमत तो अब बराबर महसूस हो रही है।
___ "बहुत दिया आपने हमें आपके निधान से, इसलिए तो आज हम जी सकते हैं शान से।
वैसे देने वाले तो बहुत मिलेंगे दुनिया में, पर कौन हैं, जो देकर भी दूर रहे हैं अभिमान से ?"
स्वयं घिस-घिस कर चंदन जग को शीतलता देता है, स्वयं पिस-पिसकर मेहंदी रंग देती है, स्वयं झुलस-झुलसकर वृक्ष छाँह देता है, स्वयं कष्ट उठाकर भी महापुरुष औरों को प्रसन्नता देते हैं। गुरुदेव की इस चिन्तन की चांदनी में दुनिया को ऐसा शीतल प्रकाश मिला जिसकी सुहानी किरणें आज भी अनेकों के जीवन पथ को आलोकित करती हैं।
आश्विन कृष्णा एकादशी, संवत् 2011 भर दुपहर आकाश में प्रचंड तेज से तपते हुए सूर्य को मानों चुनौती देते हुए पृथ्वी तल पर सर्वत्र अंधकार छा गया। सिर्फ दिन में अपने प्रकाश से पृथ्वी को आलोकित करके सांझ होते ही अस्ताचल की ओट में छुपने वाला सूरज निस्तेज बन गया। क्योंकि जगत में ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला तेजस्वी सूर्य सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। गाँव-गाँव, नगर-नगर, डगर-डगर में शोक की लहरें छा गयीं। बड़ौदा से शुरू हुई जीवन यात्रा मुंबई में समाप्त कर गुरुदेव ने समाज को गौरव देकर ऋण अदा कर दिया। हर मन में विषाद था, हर
जुबान में सवाल था-क्रूर काल को यह क्या सूझा ? हमारे प्राण प्यारे गुरुदेव को कहां लेकर चल दिया?
पिता सदा अपनी संतान के सुख की चिन्ता करता है, आपने सदा मुनिवृंद के संयम की व समाज की चिन्ता की। पिता अपने पुत्रों के लिए संपत्ति छोड़ जाता है, आप तो हमारे लिए ज्ञान, संस्कार, सरस्वती मंदिर व सद्गति की संपत्ति छोड़ गए हैं। आपने ऐसी अनमोल विरासत दी है, जो दुनिया में कोई पिता अपनी संतान को नहीं दे सकता।
"जाते-जाते भी दे गये अपनी निशानी, इसी दिलासे से ज़िन्दगी है बितानी।
उपकार भुला नहीं पाता, वह प्यासा, कि किसी ने मरुभूमि में पिलाया था पानी। पूज्यपाद श्री का अर्द्धशताब्दी स्वर्गारोहण वर्ष हम मना रहे हैं। एक व्यक्ति की याद अर्थात् हृदय के शून्य को भरने का प्रयास । वैसे भी व्यक्ति की अनुपस्थिति हृदय में ज्यादा जगह रोकती है। आपके अस्तित्त्व की सुगन्ध व आपके ज्ञान का प्रकाश सदा-सदा के लिए पृथ्वीतल पर रहेगा। आपकी यादों का दीप जीवन का सहारा बनाने के लिए साथ में रखना ही पड़ेगा, अब मानसिक रूप से आपकी स्मृतियाँ एक-एक करके ताजा हो रही हैं। पूज्यपाद श्री का स्मरण भी हृदय को पावनता से भर देता है, मन को निर्मल बना देता है, अन्तर में प्रेरणा का प्रकाश भर देता है।
"उपकारों का ऋण, हम कभी चुका न पायेंगे,
जब तक सांस है, आप सदा याद आयेंगे। पुनीत यादों के सहारे, जीवन अब बिताना है, आपने जो दिया, उसे अमल में लाना है। चल-चलकर शायद ये पाँव रुक जायेंगे,
बह-बहकर शायद आँसू भी सूख जायेंगे। लिख-लिखकर खत शायद हाथ भी थक जायेंगे,
परन्तु विदा हुए गुरुवर वापिस कभी न आयेंगे।" बस गुरुदेव.....
आपने वात्सल्य का दरिया भरपूर बहाया। अब भी सदा ऐसी दिव्य कृपा बरसाईयेगा कि आपके वात्सल्य बिना का जीवन सूखा मरुस्थल बन के न रह जाये और जीना दूभर बन जाये। ऐसी कृपा की धार बरसाईये कि चारित्र का निर्मल पालन करके, आपकी दी हुई विरासत की शिक्षा का मार्ग अनुसरण कर सकें।
"देख वात्सल्य आपका, दिल है फ़िदा हो गया, आपने समझा कि इतने मात्र से, फर्ज़ अदा हो गया।
आज फूल मनाने लगा है मातम, क्योंकि फूल खिलने से पहले ही माली विदा हो गया।"
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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