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वल्लभ किसी एक का नहीं था, वह तो सबका था इसीलिये वह चैतन्य स्वरूप था, सरसतम था और सुंदरतम था। उसके हृत्तल में निरंतर विश्व बंधुत्व उमड़ता था, घुमड़ता था। भूख से प्रपीड़ित जन-गण के परिताप से द्रवित होकर उसने जगह-जगह लघु उद्योग गृह खुलवाये थे, आर्थिक संकट मिटाने के लिये उसने कारगार अभियान चलाये थे। विजय वल्लभ योगी तो था ही साथ ही ज्ञानी था, ध्यानी था और त्यागी भी था। कविता कामिनी की संरचना मिष वह जिन भक्ति का कायल भी था। उस महात्मा की भव्यता तो निहारिये: ब्रह्मा विष्णु हरिहर शंकर,
राम रहीम खुदाई,
खुदा से नहीं है जुदाई,
पूज लो तुम भाई।
ब्रह्म के सामंजस्य का ऐसा स्वरूप संवार कर गुरुवर ने ऐसी परम रमणिज्जता का दिग्दर्शन करवाया है जो अजर है अमर है और अक्षर है। उनकी कविता से उनके नवनीत से मृदुल व्यक्तित्व का और जीवन के कृतत्व का चित्रांकण, स्पष्ट उभर आया
इसीलिये वल्लभ वाणी पठनीय थी, मननीय थी, आदरणीय थी यानि लुभावनी होने से सबको शिरोधार्य थी। वल्लभ वाणी सुधा सिंधु से आप्लावित थी, परमोत्कर्ष संगीत सी झंकृत थी, जीवन के लय ताल से सुसंस्कृत थी इसीलिये वह शिवमस्तु सी लसित थी।
विजय वल्लभ एक आदर्श था, श्वासोच्छवास का सौरभ था। उसमें इतना मनोबल था कि अंतिम दम तक भी, चौरासी वर्ष की उम्र में भी युवा हृदय था। इसीलिये वह अक्षर था, अक्षय था, शब्द शब्द उसका प्रारब्ध था। यानि प्रेम प्रदीप ज्ञानेश्वरवल्लभ ही तो था।
जे.एफ. बाफना 'शत्रुजय', अंधेरी (पूर्व), मुम्बई
वल्लभ ने सम्पूर्ण भारत को अपना प्रांगण बनाया था। नगर-नगर, डगर-डगर पावन कर, शुभ संदेश, हितोपदेश सुनाया था। सबके मनमंदिर को रूणित ध्वनित कर पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाया था। रमणिज्जता में रमण कर, उर्ध्व गति गामी बनाया था।
मेरे वल्लभ
स्वतंत्र कुमार जैन, मालेरकोटला
जीवन के थे जीवन, प्राणों के थे प्राण, मानवता के थे अग्रदूत, थे एकनिष्ठ महिमान्। राष्ट्रीयता के उन्नायक, सत्य, अहिंसा के परम पुजारी, जातीय नैय्या के कर्णधार, एकता के थे सबल समर्थक, दीनों के थे सहज हितैषी, भारतीय संस्कृति के अनुमोदक, धर्म के महिमामय अवतार, जैन धर्म के हीरक हार, जन-जन के हियहार, जनार्दन, मेरे वल्लभ ! एक बार फिर-विश्वबन्धुता और, प्रेम की, बंसी मधुर बजाओ ! गूंजे फिर समतामय सन्देश तुम्हारा
ऊँच-नीच का भेद न होवे, जाति-पाँति के ज्वाल शान्त हों भाई-भाई में प्रेम परस्पर, घर-घर सुख श्री शान्ति सुहाए पराधीनता मन से भागे, भाषा अपनी, अपने भाव, वेष अपना हो, अपने हाव। भारत का उज्ज्वल अतीव हो, नन्दन वन अभिराम भविष्यत, मानवता चेतनाप्राण बन मानव का शृंगार रचाए सच्चे मानव बनें और हों भारत माँ के सच्चे पूजक होवे "जैन-धर्म विश्व में सर्वोपरि आ जाओ ! प्यारे वल्लभ फिर से प्रेम की बंशी मधुर बजाओ
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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