Book Title: Vijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Author(s): Pushpadanta Jain, Others
Publisher: Akhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti

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Page 207
________________ गुरु वल्लभ-एक आदर्श जीवन निशा जैन, अम्बाला गुरुवर स्वर्गारोहण अर्द्धशताब्दी पर, - कोटि वन्दन स्वीकारो। एक बार दीदार दिखाकर, अपने भक्तों को तारो।। जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि जी आधुनिक भारत की उन विभूतियों में से एक थे, जिन्होंने उसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देश की अखण्डता, एकता, विश्वमैत्री, विद्या प्रचार-प्रसार और मानवता के लिए जीवन समर्पित किया। वे एक साथ उपदेशक, कवि एवं संत थे तथा ज्ञान, भक्ति और कर्म की साकार प्रतिमा थे। जैनदर्शन के अनुसार वे सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी रत्नत्रयी के आराधक थे। वे धर्मनिरपेक्षता के पोषक थे और साम्प्रदायिक सद्भाव और धर्म-सम्भाव के उद्घोषक थे। उनहोंने यह घोषणा की : "मैं न जैन हूँ, न बौद्ध, न वैष्णव हूँ, न शैव, न हिन्दू हूँ, न मुसलमान। मैं तो वीतरागदेव परमात्मा को खोजने के मार्ग पर चलने वाला मानव हूँ, यात्री हूँ।" "डालियां न होती तो, फूल लटकते ही रहते। आप जैसे संत न होते तो, हम जैसे लोग भटकते ही रहते।" जन्म: पूज्य गुरुदेव जी का जन्म गुजरात प्रांत के बड़ौदा नगर में संवत् 1927 कार्तिक सुदी दूज को पिता श्रेष्टि दीपचन्द भाई व माता इच्छाबाई माली कुल, प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। बालक का नाम छगनलाल रखा गया। धार्मिक संस्कारों की छाप आप पर विशेष रूप से पड़ी। बाल्यावस्था में पिता जी के स्वर्गवास होने से लालन-पालन का भार माता इच्छा बाई पर पड़ा। उनकी भावना मेरा बालक होनहार बने एवं नीति न्याय से मनुष्य भव सफल करें। माता अचानक असाध्य रोग से ग्रस्त हो गई। अंतिम अवस्था देखते हुए छगन को जगत का कल्याण करने में जीवन बिताने के लिए प्रेरित किया। शिक्षा : गुरुदेव जी की शिक्षा बड़ौदा में हुई। आपकी बुद्धिमत्ता से मुख पर दार्शनिक, गंभीरता झलकती थी। माता अपने सुसंस्कारों से बालक के समस्त विकारों को नष्ट कर देती है। जैसे अग्नि में तपकर सोना शुद्ध बन जाता है। संयोग से संवत् 1940 में मुनि चन्द्र विजय जी महाराज के चातुर्मास में उनके उपदेशों से छगन की 'आत्म-ज्योति' धीरे-धीरे प्रकट होने लगी। 'अमरधन' प्राप्त करने की लग्न जागृत हो गई। वे सोचने लगे मैं शाश्वत, अमर, अक्षय, अखण्ड सुख की खोज में निकलूंगा। संवत् 1942 में श्रीमद् विजयानंद सूरि जी महाराज की वाणी भवसागर से पार उतारने वाली नौका के समान थी। गुरु की वाणी सुनकर छगन उनके प्रति समर्पित हो गए। जो कोई उनकी वाणी को सुनता आत्मलीन हो जाता। गुरु की वाणी से मंत्र-मुग्ध होकर बालक छगन महात्मा जी के पास स्थिर भाव से बैठ गया। गुरुदेव के पूछने पर बालक ने महात्मा जी के दोनों पाँव पकड़ लिए। गुरुदेव ने पूछा : भद्र ! क्या दुःख है ? क्या चाहते हो ? धन चाहते हो? बालक ने कहा - 'हाँ'। महात्मा जी- 'कितना'? बालक - 'गिनती मैं नहीं बता सकता। महात्मा जी- 'अच्छा, किसी को आने दो। बालक - 'नहीं, मैं आपसे ही लेना चाहता हूँ। महात्मा जी ने कहा : 'वत्स ! हम साधु है, पैसा-टका नहीं रखते'। बालक ने शांत भाव से कहा कि मुझे ऐसा धन चाहिए जिससे अनन्त सुख मिले। गुरुदेव इस उत्तर से प्रसन्न हुए तथा कहा 'वत्स ! योग्य समय आने पर तेरी मनोकामना पूरी होगी। दीक्षा : संवत् 1944 के शुभ दिन श्रीमद् विजयानंद सुरि जी महाराज ने राधनपुर में छगन लाल को दीक्षा देकर उनका नाम मुनि वल्लभ विजय रखा। अपने प्रशिष्य श्री हर्षविजय जी का शिष्य बनाया। संवत् 1947 को उनके गुरु जी का दिल्ली में स्वर्गवास हो गया। अब वे श्रीमद् विजयानंद सूरि जी महाराज के निष्कंटक शिव-पथ पर बढ़ने लगे। इस संत के जीवन का अमिट प्रभाव मुनि वल्लभ विजय पर पड़ा। “आत्म गुरु के शिष्य लाडले, तुम्हें भूल सकता है कौन। गुण वर्णन की शक्ति कहाँ है, स्वयं शारदा होती मौन।" विद्याध्ययन: मुनि वल्लभ विजय जी ने ऐसे ज्ञानी-ध्यानी गुरु की छत्रछाया में विद्या पाकर षडदर्शन का अध्ययन किया। जैनदर्शन का चिंतन-मनन एवं परिशीलन किया। संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, पंजाबी, मराठी, राजस्थानी आदि भाषाओं के सौंदर्य से उन्होंने हिन्दी कविता को लोकमंगलकारी रूप प्रदान किया। मिशन : अपने गुरु जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनके मिशन प्राणी-मैत्री, मानव-कल्याण, समाजोद्धार, राष्ट्रीय एकता और विश्वबंधुता को आगे बढ़ाया। वे इसे पंचामृत कहते थे। विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका 205 Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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