Book Title: Vijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Author(s): Pushpadanta Jain, Others
Publisher: Akhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti

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Page 205
________________ युगवीर वल्लभ सुधीर जैन मुन्हानी आँखों में है तेज, तेज में सत्य, और सत्य में ऋजुता। वाणी में है ओज, ओज में विनय, विनय में मृदुता।" शास्त्रीय शब्दों में : "अहो वण्णो ! अहो रूवं, अहो अज्जस्स सोमया। अहो खंती | अहो मत्री ! अहो भोगे असंगया। अर्थात्- “अहा, इन आर्य का वर्ण कैसा ! इनका रूप कैसा है ! इनकी सरलता और शीतलता कैसी है ! इनकी क्षमा और निर्लोभता कैसी अद्भुत है ! इनकी भोगों के प्रति निःस्पृहता कैसी अनूठी है !" जैन धर्म (संघ) का महल देव, गुरु, धर्म और संस्कृति इन चारों स्तम्भों पर टिका है। इनमें से एक भी स्तम्भ हिल जाये या एक भी स्तम्भ का अवलम्बन छोड़ दिया जाए तो संघ-प्रासाद नीचे गिर सकता है। जैन धर्म (संघ) को इन चारों स्तम्भों ने बड़ी-बड़ी आंधियों और भूकम्पों से बचाया है। बौद्ध धर्म भारत वर्ष से उखड़ गया और छिन्न-भिन्न हुआ; इनमें मूल कारण इन चारों स्तम्भों का निर्बल होना या चारों स्तम्भों का आश्रय छोड़ देना है। वैदिक धर्म के पतन के कारणों पर गहराई से विचार किया जाए तो परमात्मा प्रभु के बदले नाना देवों और शक्तियों (देवियों) की उपासना, सच्चे त्यागी परिव्राजक गुरुओं (सन्यासियों) के बदले भंगेड़ी, गंजेड़ी पाखण्डियों की पूजा, शुद्ध धर्म के बदले धर्म के नाम पर व्यभिचार, अन्धविश्वास, धनहरण, अनाचार, दम्भ और पाखण्ड का प्रसार ही प्रतीत होगा। सचमुच वैदिक धर्म में शुद्ध देव, गुरु, धर्म और संस्कृति का आश्रय न रहा ; ये चारों तत्त्व निर्बल हो गए; जैन धर्म ने इन चारों स्तम्भों में निर्बलता नहीं आने दी और न इनका अवलम्बन छोड़ा। यही कारण है कि हजारों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जैन धर्म की मौलिक परम्पराएं अविच्छिन्न रही हैं; जब कि बौद्ध धर्म की मौलिक परम्पराएं विच्छिन्न हो गईं। बौध धर्म विदेश में जाकर जहाँ-जहाँ फैला, वहां की विकृतियां इसमें प्रविष्ट हो गईं परन्तु भौतिकवाद के झंझावात ने आज जैन धर्म के चारों स्तम्भों को हिला दिया है। पाश्चात्य संस्कृति, सभ्यता और वहां के रहन-सहन और फैशन की आंधी द्वारा जैन धर्मी लोगों ने इन चारों अवलम्बन को शिथिल कर दिया है और इसके कारण कई विकृतियां भी प्रविष्ट हो गईं। युगवीर स्व. जैनाचार्य विजय वल्लभ सूरि जी इस बात से अज्ञात नहीं थे। वे युग की नब्ज को पहचानने वाले कर्मठ और विचारक संत थे :1. केवल जैन मुनि ही नहीं, केवल संन्यासी ही नहीं :- प्राणिमात्र का हितेषी, शान्ति का अग्रदूत, एक सैनिक, प्रभु महावीर के शासन का (अपने युग का) सेनापति, चतुर्विध संघ का नायक। 2. केवल जैन आचार्य नहीं :- गुरुचरण सेवी, शासनपति भगवान महावीर स्वामी के मार्ग का पथिक, राही खोजी। 3. केवल एक बाल ब्रह्मचारी ही नहीं :- एक तपस्वी, तेजस्वी, यूगद्रष्टा, सत्यवादी। 4. केवल एक महात्मा ही नहीं :- एक कर्मयोगी, समाज सुधारक, शिक्षा-शास्त्री, रूढ़िवाद के लिए शाप । 5. केवल एक देवता ही नहीं :- एक मानव कोमल हृदय, सज्जन, पुण्यशाली आत्मा, दीन दुःखियों की आश्रय रूप शरण। 1501 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका 203 Jain Education International www.jainelibrary.org

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