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परिचय बन जाने से रिश्ते और सम्बन्ध भी बन जाते है। 4. चौथा लाभ : जहां-जहां भी जिस क्षेत्र में गुरुदेव पधारते हैं, चाहे तीर्थ स्थान हो या तीर्थों के आसपास का क्षेत्र हो, तो संक्रान्ति भक्त तीर्थ भूमियों का स्पर्श कर, तीर्थ यात्रा का लाभ लेते हैं। लाभ मिल जाता है।
पांचवां लाभ : ऐसे स्थानों पर गरुदेवों का पधारना, जहां उबड़-खाबड़ रास्ता हो, धुल मिट्टी से भरा हो, कंकरों और नकीले पत्थरों से सटा रास्ता हो, जिस रास्ते पर चलना वाहन के लिये दुष्कर हो, जिस क्षेत्र में मूसलाधार वर्षा हो रही हो या आन्धी का प्रहार हो ऐसे कष्टमय समय में, सब कष्टों को सहन करते हुए सहनशीलता और समता की शिक्षा का लाभ मिलता है। 6. छठा लाभ : पर्वाधिराज श्री पर्युषण की आराधना में श्री सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते चौरासी लाख जीवयोनी से क्षमाया जाता है। उसी प्रतिक्रिया को सफल करने के लिये और पुष्ट करने के लिये दूर-दूर प्रांतों से भक्त जन, क्षमापना संक्रान्ति पर भागे आते हैं और गच्छाधिपति जी महाराज एवं श्रमण-श्रमणी मण्डल से गत वर्ष में की गई भूलों, अविनय या शिष्टाचार का उल्लंघन के लिये सामूहिक रूप से क्षमापना की जाती है और श्रावकजन भी आपस में मिलकर एक-दूसरे से क्षमा याचना करते हैं। यह क्षमापना संक्रान्ति का अवसर ही इसके लिये उपयोगी समझा गया है। गुरुदेव द्वारा संक्रान्ति शुरू करने से पहले क्षमापना की ऐसी प्रथा नहीं थी। संक्रान्ति का यह बड़ा लाभ है, इससे आत्मा शुद्ध और हल्की होती है। 7. सातवां लाभ : संक्रान्ति के मौके परोपकारी संक्रान्ति संचालन पंजाब केसरी गुरुदेव विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के गुणों अथवा उपकारों का गुणगान, भजनों द्वारा तथा व्यक्तव्यों द्वारा किया जाता है और ये ही कारण हैं कि गुरुदेव की याद हर भक्त के हृदय में चाहे किसी ने उनके दर्शन किये है या नहीं किये, निरंतर बनी हुई है यह भी संक्रान्ति का लाभ है।
इस तरह गुरुदेव विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज द्वारा संचालित संक्रान्ति के कई लाभ हैं, जिनका उपयोग पंजाब प्रांत के या दूसरे प्रांतों के भक्तजन आकर गुरुदेव की, गच्छाधिपति जी की निश्रा में बैठकर संक्रान्ति सुन कर जीवन को सार्थक करते हैं।
उस संक्रान्ति को जो सन् 1940 में गुजरांवाला में पंजाब केसरी ने चालू की, उनके पट्टधर जिनशासन रत्न, राष्ट्र संत, गच्छाधिपति जैनाचार्य श्री समुद्र सूरीश्वर जी महाराज ने गांव-गांव, शहर-शहर भ्रमण कर इस प्रथा को चालू रखा। उनके बाद उनके पट्टधर परमार क्षत्रियोद्धारक, जैन दिवाकर गच्छाधिपति जैनाचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी महाराज ने अपने चारित्र बल से उबड़-खाबड़ रास्तों पर पावागढ़ के गांवों-गांवों में भ्रमण कर भक्त जनों को आकर्षित कर संक्रान्ति सुनाते रहे।
उनके बाद इन्द्रदिन्न सूरि जी महाराज के पट्टधर रत्नाकर सूरि जी गच्छाधिपति पद से सुशोभित होकर 4 जनवरी 2002 को वल्लभ पट्ट को सम्भाला और गच्छाधिपति रूप में पहली संक्रान्ति उदयपुर की धरती पर सुना कर अपने कन्धों पर पड़ी जिम्मेदारी को अपने चारित्र बल से निभाते हुए, संक्रान्ति भक्तों के हृदय में जगह बना ली।
उदयपुर के बाद से वर्तमान गच्छाधिपति जी ने पंजाब में जिस क्षेत्र में संक्रान्ति मनाई जाती है, गुरुदेव ने संक्रान्ति का रूप ही बदल दिया। संयम की बद्धता, अनुशासन, शान्त वातावरण और धार्मिक प्रवचनों ने श्रोताओं को बहुत प्रभावित किया जिसके फलस्वरूप हम हर महीने देख रहे हैं। चाहे कितना बड़ा पण्डाल हो, संक्रान्ति भक्तों की और श्रोताओं की संख्या में इतनी अभिवृद्धि हो रही है कि पण्डाल तो खचाखच भर जाता है और श्रोताओं को पण्डाल के बाहर खड़े होना पड़ता है।
वाह रे गुरु वल्लभ ! आपने अपनी दिव्य दृष्टि से लाभानुलाभ को जान कर सारे समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिये संक्रान्ति प्रथा, अपने मुखारविंद से महीने का संक्रान्ति नाम प्रकट करने की प्रथा को प्रारम्भ किया।
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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