Book Title: Vijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Author(s): Pushpadanta Jain, Others
Publisher: Akhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ गुरुदेव के अविस्मरणीय संस्मरण साधु का नहीं, साधुत्व का मूल्य है । साधुत्व का पर्याय यदि कोई दूसरा शब्द हो सकता है तो वह है “मनुष्यता”। मनुष्यता ही मुक्ति का द्वार खोल सकती है। संसार के समस्त धर्मों की शिक्षाओं का सारांश यदि किसी एक शब्द में व्यक्त करना हो तो वह है 'मनुष्यता' । इन्सान यदि पहले इन्सानियत सीख ले तभी वह अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। परम श्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि जी महाराज सरीखे साधु, सदियों में विरले पैदा होते हैं। उनका सारा जीवन सच्चे अर्थों में मनुष्यता की परिभाषा है। उन जैसे प्रतिभा सम्पन्न संत किसी एक धार्मिक फ्रेम लगाकर अगर कोई कौम अपनी संपति मान बैठती है, तो यह उसकी संकीर्णता ही है। वस्तुतः वे सारे भारतीय समाज के लिये आदर्श थे। वे सच्चे अर्थों में राष्ट्र के गौरव थे। आने वाली पीढ़ियां युगों-युगों तक उनके जीवन से मार्ग दर्शन प्राप्त करेंगी । मुझे और मेरे परिवार को उनके दर्शन करने का, उनके चरणों में बैठने का, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ, हम उसे अपने पूर्व जन्मों के संचित पुण्य कर्मों का ही फल मानते हैं। उनसे जुड़ी हुई असंख्य यादों में से कुछ संस्मरण पाठकों की सेवा में प्रस्तुत हैं। स्यालकोट में गुरुदेव देश के आजाद होने से पहले का जमाना. । ईस्वी सन् 1941-1942 का समय । स्यालकोट जैसा स्थानकवासी धर्मावलंबी परिवारों का गढ़ । जहाँ श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के मात्र 2-3 घर ही थे। समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष बुरी तरह फैला हुआ था। वहां गुरुदेव के एक परम भक्त थे लाल कर्मचंद जी। उन्होंने डंके की चोट पर गुरुदेव का स्यालकोट में प्रवेश करवाया जिसे याद करके आज भी रोमांच हो आता है। गुजरांवाला से गुरुभक्तों को लेकर एक स्पैशल स्यालकोट पहुंची। वहां पहुंचने पर उसका भव्य स्वागत किया गया, जो देखते बनता था। अन्य नगरों, नारोवाल, जंडियाला, पट्टी, अम्बाला, ज़ीरा, मालेरकोटला, समाना इत्यादि शहरों से भी गुरुभक्त पधारें। उधर स्यालकोट में साम्प्रदायिक द्वेषवश शहर में रोड़े अटकाने के लिये लाख कोशिशें हुई लेकिन गुरुभक्त लाला कर्मचंद जी ने आनरेरी मैजिस्ट्रेट सरकार से अनुमति लेकर पुलिस का ऐसा बंदोबस्त करवाया कि प्रवेश का सारा कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हुआ। उपकारी गुरुदेव ने सारे स्यालकोट का दिल जीत लिया। सबको अपना भक्त बनाया। वहीं चातुर्मास के दौरान एक दिन गुरुदेव के साथ समूह फोटो खिंचवाने का प्रसंग आया। हमारे पूज्य पिता जी बाबू दीनानाथ जी भी उस घड़ी वहीं मौजूद थे। फोटो के लिये पूज्य गुरुदेव, समुद्रविजय जी, शिवविजय जी, विशुद्ध विजय जी तथा सतविजय जी महाराज तैयार थे। एक ओर लाला कर्मचंद जी खड़े हो गये। हमारे पिताजी सामने फोटोग्राफर के पास खड़े थे। गुरुदेव ने एकाएक आवाज देकर कहा 'बाबू दीनानाथ आपके दोस्त यहां खड़े हैं और आप वहां हैं, आप भी इधर आएं।' गुरुदेव के आदेश से हमारे पिताजी भी उस फोटो में शामिल हुए और आज वह फोटो एक अमिट व ऐतिहासिक यादगार बन गयी है। फोटो उनके बिना भी खिंच सकती थी लेकिन गुरुदेव की करुणा का प्रसाद पाने से कोई वंचित रह जाये, यह उनकी 'मनुष्यता' को स्वीकार नहीं था। छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, विद्वान-अनपढ़, जैन-अजैन उनकी कृपा सबके लिये एक समान सुलभ थी। 232 Jain Education International विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268