Book Title: Vijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Author(s): Pushpadanta Jain, Others
Publisher: Akhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti

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Page 227
________________ श्रीमद् भगवतां विजयवल्लभमरिमहाभागानां प्रशस्तिः धन्यास्ते कृत पुण्यास्ते, विजयवल्लभसूरयः । मायामोह विवर्जिताः, जैनवं समुद्भवाः ।।1।। श्रीमद् विजयवल्लभ सूरि जी महाराज धन्यभागी पुण्यात्मा थे। मायामोह से रहित थे, जैन परिवार में जन्मे थे। जातं जन्म तेशां भुशुद्धं, परत्रेह च भामणे। भाोभनीयं सुरूपं नाम, जिनवल्लभसूरयः ।।2।। परलोक और इस लोक में कल्याण करने के हेतु उनका पवित्र जन्म हुआ। अतः विजयवल्लभ यह सुन्दर आकर्शक नाम रखा गया। निग्रहानुग्रहाभ्यां ये, निर्लोभाः समदनिः । समुधरन्ति संसारं, एतेन जिनाः स्मृताः ।।3।। जो निग्रह और अनुग्रह से पूर्ण होते हुए लोभ रहित समद ण होते हैं और संसार का उद्धार करते हैं वही तो श्रेश्ठ जैन मुनि हैं। जयन्ति ते जिनाः सर्वे, कैवल्यज्ञान भालिनः । कुर्वन्ति ज्ञान चर्चाम्, स्वपरोद्धारकारिकाम् ।।4।। केवलीज्ञानवान् वे सारे जिन-आचार्य विजयभागी बनें, होवें, जो सदा अपना और दूसरों का उत्थान करने वाली ज्ञानचर्चा करते हैं। सर्व स्त्रार्थतत्त्वज्ञाः, स्मृतिवन्तः श्रद्धायुताः । सवलोकप्रियाः मान्याः, भावितात्मविचक्षणाः ।।5।। श्री वल्लभ सूरि जी सारे भास्त्रों के अर्थतत्त्व को जानते थे। स्मृति के धनी थे, धार्मिक श्रद्धालु थे। सारे समाज में मान्य और प्रिय थे। भावनाभरित आत्मा वाले अद्भुत विद्वान् थे। भक्ति काव्यप्रणेतारः, नीतितत्ववि पारदाः। जैनागमानां मर्मज्ञाः, कैवल्यपथद किाः ।।6।। श्री विजयसूरि जी भक्ति काव्यों के रचयिता कवि थे। नीति- स्त्रों के ज्ञाता थे। जैन भास्त्रों के रहस्यों को भली भाँति जानते थे। अपि च कैवल्य मार्ग (मुक्ति मार्ग) के दाने वाले थे। आबाल्यतः सुविरक्ताः, ध्यानयोगपरायणाः। रत्नत्रय समर्थकाः, समन्वयप्रचारकाः।।7।। श्री विजय सूरि जी बाल्यकाल से ही संसार से विरक्त थे। सदा ध्यान मग्न रहते थे। सम्यग ज्ञान, द नि, चरित्र तीनों के समर्थक थे। जात-पात–दे [-विदे I ऊँच-नीच में समन्वय चाहते थे। समन्वय वादी जैन मुनि थे। मुखं प्रसन्नतापूर्णम्, सूनृता मधुरा वाणी। करणं परोपकरणम्, एते तेशां महागुणाः। 18 ।। उनका मुख सदा प्रसन्नता युक्त हास्यमय रहता था-उत्तम-सत्य मधुरवाणी बोलते थे। दूसरों की भलाई करना ही उनका मुख्य कार्य था। इस प्रकार के गुणों से सूरि महाराज विराजमान थे। भचित्वं त्यागिता धैर्यम्, सामान्यं सुखदुःखयोः । धर्मो यो नयो न्यायम्, विजयसूरीणां गुणाः ।।9।। पवित्रता, त्याग भावना, धीरज, सुख-दुःख में एक समान रहना, धर्म-कीर्ति-नय-न्याय ये सभी गुण विजय सूरि जी में विद्यमान थे। नवीने राश्ट्रनिर्माणे, जातिभेद विमोचने। क्षिा संस्था प्रसारणे, तेशां वृत्तिः सनातनी।।10।। स्वतंत्रता आन्दोलनों के दिनों में ही नवीन भारत के निर्माण में, जातिगत भेदभाव मिटाने में, अनेक विद्यालयों की स्थापना करके विद्या के प्रचार में उन महापुरुश विजयवल्लभ सूरि जी की सदा सदा रहने वाली मनोवृत्ति थी। हिन्दी अनुवाद : सूरज कान्त शर्मा, एम.ए.(हिन्दी व संस्कृत) बी.एड. भांकरदत्त भास्त्री, साहित्याचार्यः लुधियाना विजय वल्लभ 225 संस्मरण-संकलन स्मारिका For Private Use Only 1501 Jain Education International www.jainelibrary.org

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