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भगवान महावीर का संदेश भी 'जीओ और 3. रत्नत्रय की व्याख्या-चारित्र के प्रति विशेष जीने दो' मात्र कहने भर की वस्तु रह गई है। ध्यान। वर्तमान का बालक अथवा युवक भी झूठ, 4. धर्म-अधर्म की पहचान-उसकी कलामय प्रपंच, हिंसादि से भगवान के उपरोक्त संदेश पहचान। को मिट्टी में मिला रहे हैं। क्या हमारा कर्त्तव्य 5. देव दुर्लभ मानवता की पहचान-अंतरात्मा नहीं बनता कि हमें इस तरफ एक बार भी अंतर्मन से सोच-समझ व मनन कर, ध्यान 6. सत्संगति की महिमा। देकर कुछ दायित्व मान कर इस पर कार्य 7. व्यसनों की व्याख्या व उससे बचाव, स्वयं करें?
व समाज/राष्ट्र का। बाल व युवा वर्ग के अनैतिकता की तरफ 8. शिक्षा का उद्देश्य व बुद्धि के चमत्कार। बढ़ते कदमों को कैसे रोका जाए ?:- बालक 9. अभिभावक गण की जिम्मेवारी आदि। देश का भविष्य है व युवा वर्ग समाज के प्राण। अनैतिकता की तरफ से युवा/बाल वर्ग को यदि समाज एवं राष्ट्र का उत्थान करना हो तो रोकने के उपाय :निश्चित ही इसकी जिम्मेवारी बाल एवं युवा 1. धर्म संस्कारों का बीजारोपण : यह तो वर्ग पर डाल दी जाए। देखिए, देश व समाज सर्वविदित ही है कि मानव विश्व का एक के कार्य कितने शीघ्र व उन्नतिदायक हो जाते बुद्धिमान, सुन्दर एवं मनोहर आकृति का हैं। यदि यही वर्ग अनैतिकता की तरफ चल प्राणी है। इस मानव का जन्म राष्ट्र में, पड़े-पथभ्रष्ट हो अपना चारित्र हनन कर ले, .. जीवन-यापन समाज में, एवं विकास आत्मा में देश व समाज का स्तर कहां जा कर रूकेगा होता है। जब तक मानव का विकास राष्ट्र व ?उसे रोकना होगा-अन्यथा समाज व देश का समाज से संबंधित रहेगा, उसके जीवन में आ भविष्य रसातल में खो जाएगा। इस वर्ग का रहे उसके दैनिक क्रियाओं पर रहेगा, उसे नशीली वस्तुओं व अखाद्य पदार्थों के सेवन की अपनी आत्मा के विकास के लिए धार्मिक ओर झुकाव, चारित्र की तरफ से अज्ञानतावश तत्त्वों पर निर्भर रहना होगा। जब तक ये दोनों असाध्य रोगों से परेशानी आदि का आमंत्रण, विकास आपसी समन्वय से मानव जीवन को ये सब आकस्मिक धन का अधिक आ जाना, संचालित नहीं करेंगे, बाल-युवा या कोई भी मां-बाप व गार्डियन का व्यवहार, इस वर्ग के वर्ग अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर पाएगा। लिए गिरावट का एक मुख्य कारण हो सकता । क्योंकि मानव का पतन (धार्मिक संस्कारों के है। यदि हमें इस वर्ग के स्तर को सुधारना है बगैर) ही समाज व राष्ट्र का पतन का कारण तो कुछ सूत्रों पर अमल होना आवश्यक हो बनेगा। धार्मिक संस्कार ही मानव के हर वर्ग जाता है-जो आचार्य श्री विजय वल्लभ के का सर्वांगीण विकास कर पाएंगे। सापेक्ष रूप प्रवचनों में साफ तौर पर पढ़ा जा सकता है :- से हम अगर इन तथ्यों को कसौटी पर रखकर 1. धर्म संस्कारों का बीजारोपण।
सोचे-तो लगेगा कि हम ही स्वयं अति 2.आत्मा-महात्मा-परमात्मा की सही पहचान। बहिर्मुखी हो रहे हैं। हमारी स्वयं की आत्मा
पर परिणति के बादल मंडरा रहे हैं-आओ हम सब अपनी-अपनी आत्मा का अंतर्मुखी होकर-अंतर्भावी होकर विश्लेषण करें तो स्वयं ही सब के अन्दर धर्म रूपी गुणों के संस्कार पैदा होने शुरू हो जाएंगे। धर्म संस्कारों का बीज स्वयंमेव रोपित होकर विचारों द्वारा आत्ममंथन करके सर्वांगीण विकास की तरफ आगे बढ़ेगा। यही तो आज के बाल व युवा वर्ग में प्ररूपित कर उन्हें धर्म-अधर्म, आत्मा-महात्मा-परमात्मा का चिंतन कर उन्हें विकास के मार्ग पर ले जाएगा। यहीं से धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण शुरू हो जाएगा। 2. आत्मा-महात्मा-परमात्मा की सही पहचान : हमें इस तथ्य को आयु वर्ग में बांटकर देखना होगा। आज के वातावरण में हमें अपने बाल व युवा वर्ग को बाल्यकाल से ही अहसास करना होगा कि आत्मा से परमात्मा या देव से ईश्वर में क्या अन्तर है। विजय वल्लभ के प्रवचनों के द्वितीय भाग में इन्हीं बातों पर प्रकाश डाला गया है। देवता व ईश्वर का अस्तित्त्व हर बालक व युवा को पता है-चाहे वह किसी भी धर्म, वर्ग का रहा हो। वह राम-सीता, कृष्ण-राधा, शिव-पार्वती आदि मंदिरों में ही ईश्वर मानते हैं जो कि वह देवता योनि के प्राणी ही क्यों न हों। जबकि धर्म निरपेक्ष तत्त्व आत्मा से ही परमात्मा का रूप धारण करने वाला तत्त्व मानते हैं। बाल बुद्धि में यह बात विशेष तौर पर समझनी होगी कि प्रत्येक प्राणी आत्मा के बगैर जीवित ना होकर एक पुद्गल समान तत्त्व है। आत्मा कर्म से आच्छादित है। हर जन्म में कर्मों के आवरण को हल्का करती है तथा नवीन कर्मों का आवरण लेती है तथा अपने
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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