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"गुरु वल्लभ के सपनों का जैन समाज"
सामाजिक उत्थान के लिए बाल व युवा वर्ग में धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण
अमृत जैन भूमिका : जिस प्रकार पारसमणि के सम्पर्क में मूल मंत्र' में इस बात का खुलासा किया है। के उद्धार का कार्य ढीला-ढीला, अव्यवस्थित आने से जड़पदार्थ लोहा भी सोने का रूप समाज दिव्य बने-तभी समाजोद्धार
व कच्चा ही रहेगा :धारण कर लेता है-उसी प्रकार महात्माओं एवं सारे समाज में, धर्म की साधना व 1. धर्म मर्यादा : शुद्ध व व्यापक धर्म, गुरुओं के सम्पर्क में आने से चैतन्य जीव की आराधना से, सज्जन व्यक्ति अपनी आत्मा में समाज का प्राण होता है। उसकी मर्यादाओं का आत्मा में, एक अद्भुत शक्ति उजागर होती दिव्यगुण पैदा करके, समाज का दायित्व व पालन, समाज के हर सदस्य के लिए अनिवार्य है। आवश्यकता है तो इस बात की, कि लोहे उनका निर्वाह अच्छे व सुव्यवस्थित ढंग से कर हो। तभी समाज स्वस्थ, सुखी व व्यवस्थित रह को पारसमणि के सम्पर्क में आना होगा और सकते हैं, जब कि इसके लिए सर्वप्रथम पाएगा। जीवात्मा को गुरुओं की संपर्कता में आना। अधर्म-पापोत्तेजक-अहितकर, विषमता फैलाने 2. परस्पर संप बना रहे : परस्पर संप. होगा। ये विचार गुरु विजय वल्लभ जी ने वाली, समाज की संगठन शक्ति को कमजोर होकर, समाज में संपन्नता व संपत्ति वृद्धि अपने प्रवचनों के द्वारा समाज को दिए। करने वाली इन विषमय भयंकर बातों का करवाने वाला यह मूल मंत्र, समाज से आपसी 1. सामाजिक उत्थान के साथ-साथ आत्मा । उन्मूलन करना, अति आवश्यक होगा। कलह-क्लेश, मनमुटाव, मतभेद आदि जो कि को धार्मिक संस्कारों की आवश्यकता है : समाजोद्धार की नींव कुछ मूल तत्त्वों समाजोन्नति में बड़े बाधक हैं तथा कई भगवान महावीर की अनुभवी वाणी कहती पर आधारित है, जिनके अपनाए बिना समाज महत्त्वपूर्ण कार्यों को ठप्प करवा देते हैं। समाज है-जो धर्माचरण करके आत्मोन्नति की साधना
के सदस्यों के लिए अति महत्त्वपूर्ण कहा गया चाहता है उसके लिए पंच-आश्रय अनिवार्य 'बालक देश का भविष्य हैं व बताए हैं- (1) विश्व के षट्काय प्राणी (2) युवा वर्ग समाज के प्राण। यदि 3. वात्सल्य का परस्पर आदान-प्रदान : गण अथवा संघ अथवा समाज (3) शासक
समाज एवं राष्ट्र का उत्थान
यह वात्सल्य का आपसी आदान-प्रदान, इस (4) गृहस्थ समाज (5) काया अथवा शरीर।
करना हो तो निश्चित ही
कड़ी का एक महत्त्वपूर्ण मूल मंत्र है-जो कि
इसकी जिम्मेवारी बाल एवं अर्थात् साधु, आचार्य वर्ग एकांततः व्यक्तिगत
समाज के कमज़ोर-असहाय -निर्धन - अनाथ
युवा वर्ग पर डाल दी जाए। साधना में ही अपनी साधना की इति समाप्ति
देखिए, देश व समाज के
- अपाहिज़ आदि वर्ग के लोगों में, वात्सल्य ना करें। उनका लक्ष्य, उपरोक्त पांचों को साथ
कार्य कितने शीघ व
भाव के कारण सामाजिक कुप्रथाओं को लेकर साधना करने से होगा, क्योंकि साधु वर्ग उन्नतिदायक हो जाते हैं।" बदलने व सुधारने के लिए सेवा भाव में वृद्धि को, उपरोक्त पांचों का आश्रय भी जरूरी है।
करेगा। इस वात्सल्य को साधर्मिक वात्सल्य के आत्मा की साधना से, आत्मोद्धार तो होगा ही,
रूप में हम सभी जानते हैं-परंतु केवल भोजन परंतु क्या बिना उपरोक्त पांचों की साधना
करा देने-मात्र तक ही उसे सीमित ना पूरी हो पाएगी? इसलिए आत्मा की साधना के
रखें-बल्कि इन कमजोर वर्गों में संपन्नता लाने साथ-साथ समाज के उत्थान के कार्य करने
के लिए, रोज़गार-धन्धे-नौकरी आदि भी आवश्यक होंगे। आचार्य विजय वल्लभ
दिलाकर, उन्हें पूर्ण सहयोग देवें। कभी भी सूरि जी ने वल्लभ प्रवचन के 'समाजोद्धार के
आवश्यकता पड़ने पर, यह असहाय वर्ग
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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