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प्रतिज्ञाधारी आचार्य
राजेश जैन लिगा, लुधियाना
जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म.सा. का स्वभाव वज्र से भी कठोर, कुसुम से भी कोमल था। आचार्य श्री ने अपने ध्येय की सिद्धि के लिए समय-समय पर प्रतिज्ञायें लीं। इनके प्रभाव से आचार्य श्री का अधिक आत्मविकास हुआ और कार्य सिद्ध हुए। आप समाज का कल्याण साधने के उच्च भावना से प्रेरित हो कर ही अपने शरीर को कष्ट देने, मन को अधिक मननशील बनाने, आस-पास सं. 1977 में बीकानेर में प्रतीज्ञा के वातावरण को पवित्र बनाने और सभी ली थी कि, “जब तक मैं पंजाब न पहुंचूँगा, सुखी हों, इस मंगल भावना के साथ ही
तब तक के आठ ही पदार्थों का प्रयोग प्रतिज्ञा लेते थे और उन प्रतिज्ञाओं ने जो करूंगा। इनमें दवाई भी शामिल होगी।" चमत्कार दिखाये हैं, उन्हें हम सबने सुना स्वर्गीय आचार्य श्रीमद् विजय ललित सरि भी है और किताबों में पढ़ा भी है।
जी म. और दूसरे मुनियों के आग्रह से आपने आचार्य श्री जी ने बम्बई में जैन
आठ के स्थान पर दस पदार्थ रखे, परन्तु यह कांफ्रेंस के स्वर्ण महोत्सव के सुअवसर पर भी नियम लिया कि “यदि एक या दो अधिक कहा था, "तुम खीर पूड़ी खाओ और पदार्थ उपयोग में आ जायेंगे. तो जितने अधिक तुम्हारा भाई भूखा रहे, तुम रेशमी वस्त्र उपयोग में आ जायेंगे तो दुगने पदार्थ दूसरे पहनो और तुम्हारे भाई को तन ढांपने दिन त्याग दूंगा।” इसके सिवा प्रतिदिन के लिए कपड़ा भी न हो, क्या यह बात एकासना करते थे। आपने पंजाब पहुंचने तक तम्हें शोभा देती है ?" गुरुदेव ने कार्तिक
इस प्रतिज्ञा का पालन किया। दूसरी प्रतिज्ञा सुदि चौदस को प्रतिज्ञा ली, “यदि श्रावक यह ली कि, “जब तक पंजाब में गुरुकुल न श्राविकाओं के उत्कर्ष फंड में पांच लाख
बनेगा तब तक एकासना के साथ-साथ रुपया जमा न हुआ तो मैं दूध का एवं चीनी चौदस पूनम और चौदस अमावस्या का का त्याग कर दूंगा।" हजारों हृदय इस बेला. महीने की बारह तिथियों के दिन प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए कैसे प्रयत्नशील मौनव्रत धारण करूंगा और गांवों या शहरों हुए थे। लखपति-करोड़पति, वृद्ध-युवक- में प्रवेश के समय बाजों की धूमधाम का महिला बच्चे इस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए त्याग करूंगा” जब तक यह कार्य सिद्ध न कैसे व्यग्र हो उठे थे, ये बात जैन समाज से हए गरुदेव ने इन नियमों की पालना की। छिपी नहीं है। गुरुदेव के पुण्य प्रताप से
जब अम्बाला कालेज बना, तब प्रतिज्ञा पूरी हुई और गुरुदेव का जय । आचार्य श्री को मानपत्र देने का विचार होने जयकार हुआ।
लगा। आपने कार्यकत्ताओं को सूचित कर
दिया कि “जब तक कालेज़ के फंड में डेढ़ लाख रुपया जमा न हो जावेगा, तब तक मैं मानपत्र स्वीकार नहीं करूंगा।"
गुजरांवाला में गुरुकुल बनाना था उसके लिए एक लाख रुपयों की जरूरत थी। 68000/- रुपया जमा हो चुका था। आचार्य श्री ने प्रतिज्ञा की कि “जब तक एक लाख पूरे न हो जावें तब मैं मिष्ठान ग्रहण नहीं करूंगा।" गुरुदेव के परम भक्त शिष्य आचार्य श्री विजय ललित सूरि जी उस समय बम्बई में थे। उन्हें इस प्रतिज्ञा की बात मालूम हुई। उन्होंने अपने अजैन से जैन बने हुए एक भक्त श्रावक विठ्ठल दास ठाकुर दास से बात कही, इस उदार दिल श्रावक ने (32000) हजार का चैक गुजरांवाला भेज कर एक लाख की रकम पूरी की और आचार्य श्री प्रतिज्ञा मुक्त हुए। संत ऐसी अनेक प्रतिज्ञायें आचार्य श्री जी ने ली थीं। उन सबका उद्देश्य समाज के कल्याण का काम करना था। ऐसी प्रतिज्ञाओं से नवीन शक्ति का विकास होता है और उस शक्ति में से ही प्रतिज्ञा की पूर्ति के चक्र गतिमान होते हैं। हमने यह भी पढ़ा एवं सुना है कि आचार्य श्री ने प्रतिज्ञा के बल पर अनेक ऐसे कार्य किये हैं, जिनसे समाज और जैन शासन की उन्नति हुई।
ऐसे हमारे परमोपकारी, अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरु, युगवीर, युगद्रष्टा, पंजाब केसरी श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि जी महाराज जी के स्वर्गारोहण अर्द्धशताब्दी की पावन वेला पर कोटिशः-कोटिश वन्दन करते हुए श्रद्धांजली-कुसुमांजलि अर्पित करता हूं।
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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