Book Title: Vijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Author(s): Pushpadanta Jain, Others
Publisher: Akhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti

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Page 194
________________ रहें । 6) पूर्वकाल में जो स्त्री के साथ क्रीड़ा की हो, उसका स्मरण न करें । 7) मादक आहार पानी उपयोग में न लें। 8) प्रमाण से अधिक आहार न करें, पुरुष के आहार का प्रमाण 32 ग्रास है। 9) शरीर का श्रृंगार न करें। 1 जैसे किसान खेत की रक्षा के लिए खेत के चारों तरफ काँटों की बाढ़ लगाते हैं उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए 9 बाड़ों का पालन करते हैं। उक्त 9 बाड़ों में से किसी एक बाड़ को भंग करने वाले ब्रह्मचारी को शंका उत्पन्न हो जाती है कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूँ या न करूँ इस प्रकार का संदेह उसके चित्त में उत्पन्न हो जाता है। उसके हृदय में भोग भोगने की इच्छा जाग्रत हो उठती है। इसका अन्तिम फल यह होता है कि ऐसे पुरुष केवली - प्ररूपति धर्म (संयम) से भ्रष्ट हो कर अनन्त काल तक संसार भ्रमण करते हैं, ऐसा जानकर आचार्य महाराज स्वयं तो नव वाड़ युक्त ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। दूसरों से भी इस प्रकार ब्रह्मचर्य का पालन कराते हैं। ( 3 ) चडविह कसाय मुक्को: चार प्रकार के कसाय से मुक्त होने चाहिए। 1) क्रोध न करना । 2) मान न करना। 3) माया (कपट) का सेवन न करना। 4) लोभ लोलुप न होना। : जिसके परिणाम से संसार की वृद्धि होती है और जो कर्म बन्ध का प्रधान कारण है। वह आत्मा का विभाव परिणाम कषाय कहलाता है। कषाय आत्मा का प्रबल वैरी है। जैसे पीतल के पात्र में रखा हुआ दूध, दही कसैला विषाक्त होकर फेंक देने के योग्य हो जाता है। इसी प्रकार कषाय रुपी दुर्गण से आत्मा के संयम आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इसी कारण इन्हें कषाय कहते हैं। कषाय के चार भेद होते हैं। क्रोध को उपशम से जीतना चाहिए, मान को मार्दव (म्रदुता- कोमलता) से जीतना चाहिए, माया को सरलता से जीतना चाहिए और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए। : 4) पंच महव्वय - जुत्तो आचार्य पाँच महावृतों का यथार्थ रीति से पालन करने वाले होते हैं। यथा (1) मन, वचन, काया से किसी प्राणी की हिंसा न करें। (2) मन, वचन, काया से असत्य न बोलें । 192 Jain Education Internation (3) मन, वचन, काया से अदत्त न लेवें । (4) मन, वचन, काया से मैथुन सेवन न करें। (5) मन, वचन, काया से परिग्रह न रखें। पंच महाव्रत : अहिंसा: तीन करण करना, कराना, किये की अनुमोदना, तीन योग, मन, वचन, काय, आचार्य भगवन्, तीन करण और तीन योग से किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करते पहला महाव्रत है। प्राण धारण करने वाले को प्राणी कहते हैं। प्राण दस प्रकार के हैं । 1. श्रोत्रोन्द्रिय बल प्राण, 2. चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण, 3. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण. 4. रसनेन्द्रिय बल प्राण, 5. स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण 6. मन बल प्राण (त्वचा), 7. वचन बल प्राण, 8. काम बल प्राण, 9. श्वासोच्छवास बल प्राण, 10. आयु बल प्राण 1. एक इन्द्रिय को धारण करने वाले मृत्तिका, पानी, वायु, अग्नि और वनस्पति के पाँच प्रकार के जीव स्थावर कहलाते हैं। इनमें चार प्राण पाये जाते हैं जैसे: स्पर्शनेन्द्रिय, काय, श्वासोच्छवास, आयु बल प्राण । 2. द्रीन्द्रिय: स्पर्शनेन्द्रिय और रसेन्द्रिय वाले जीवों में छ: प्राण पाये जाते हैं। इनमें रसेन्द्रिय और वचन बल प्राण अधिक होता है। जैसे शंख सीप आदि जीव 3. त्रीन्द्रिय: स्पर्श रस और घ्राणेन्द्रिय जीवों में सात प्राण पाये जाते हैं। इनमें घ्राण प्राण अधिक होता है जैसे खटमल जूँ चींटी आदि 4. चौइन्द्रिय: स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु, जीवों में आठ प्राण पाये जाते हैं। इनमें चक्षु प्राण अधिक होता है जैसे भौंरा आदि. 5. मन रहित पंचेन्द्रिय जीवों में नौ प्राण पाये जाते हैं। इनमें श्रेत्रेन्द्रिय प्राण अधिक होता है । मन सहित पंचेन्द्रिय जीवों में दस प्राण पाये जाते हैं। इनमें मन बल प्राण अधिक होता है। इन सभी प्राणियों की हिंसा का पूर्ण रूप से आजीवन त्याग करना प्रथम महाव्रत है। दूसरा महाव्रत : क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि के वश में होकर तीन योग से किसी भी प्रकार झूठ न बोलना दूसरा महाव्रत मृषावाद विरमण कहलाता है । विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका dule & Personal Use Only 50 www.jainelibrary.org

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