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क्षमा
आत्मा-कर्म - और प्रतिक्रमण
निर्मल आनंद
पुष्पदंत जैन पाटनी
जड़ कर्म और चैतन्य भाव का बने ज्ञानी जन भी प्रमाद के अधीन होकर संमिश्रण मात्र संयोग सम्बंध रूप नहीं, क्षण भर में निगोद में चले जाते है। गुण परन्तु कथंचित् तादात्म्य (अभेद) संबंध स्थान के क्रमानुसार अज्ञान दोष चौथे रूप है। क्षीर और नीर तथा लोहा और गुणस्थान पर चला जाता है जब कि प्रमाद अग्नि परस्पर अलग-अलग होते हुए भी दोष की सत्ता छठे गुणस्थान पर्यन्त रहती जिस प्रकार एक दूसरे के साथ परस्पर है। अनुविद्ध होकर मिल जाते हैं, उसी प्रकार कर्म पौद्गलिक पदार्थ और उसके जीव और कर्म भी परस्पर अनुविद्ध प्रभाव रूप है इनका क्षय केवल मानसिक होकर मिले हुए हैं। जब तक यह मिलन विचारणा या केवल मानसिक क्रियाओं से अलग न हो तब तक दोनों पारस्परिक नहीं होता परन्तु जिन-जिन द्वारों से वे प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। जीव के पौद्गलिक कर्म आते हैं, उन सभी द्वारों ऊपर कर्म का प्रभाव है और कर्म के को बन्द कर आने वाले नवीन कर्मों को ऊपर जीव का प्रभाव है। जीव के प्रभाव रोकने और प्रथम के कर्मों का क्षय करने से प्रभावित होकर कर्म के पुद्गल में हेतु उद्यम भी आवश्यक है। यह उद्यम जीव को सुख-दुःख देने की शक्ति ज्ञान और क्रिया दोनों के स्वीकार द्वारा उत्पन्न होती है और कर्म के प्रभाव होता है। सम्यग्ज्ञान से मिथ्या भ्रम दूर से जीव विविध प्रकार के सुख-दुःख, होता है और सम्यक् क्रिया से पौद्गलिक अज्ञान और मोह के विपाकों का कर्म के बन्ध शिथिल होते हैं। पाप क्रिया अनुभव करता है।
से जैसे कर्म का बंध होता है उसी प्रकार कर्म पुद्गल से प्रभावित जीव संवर और निर्जरा साधक क्रिया से कर्मों कथंचित् जड़स्वरूप बना हुआ है। उसकी का बंध रुकता है और जीर्ण कर्म नष्ट यह जड़ता अज्ञान स्वरूप और प्रमाद होते हैं तथा अन्तिम कर्म क्षय भी योग स्वरूप है। प्रमाद और अज्ञान यह दोनों निरोध रूपी क्रिया से होता है। दोष जीव पर इस प्रकार चढ़ कर बैठे हैं ज्ञानाभ्यास द्वारा जीव और कर्म का कि मानों आत्मा तत्स्वरूप बन गई है यथा स्थित संबंध समझा जाता है। तप तथा इसमें अज्ञान दोष से भी प्रमाद दोष का संयम रूप क्रियाभ्यास द्वारा पूर्व कर्म कटते हैं बल अधिक है इसीलिए अज्ञान से मुक्त तथा आने वाले नवीन कर्म रुकते हैं।
"सम्यग्ज्ञान से मिथ्या श्रम दूर होता है और
सम्यक् क्रिया से पौदगलिक कर्म के बन्ध शिथिल होते हैं। पाप क्रिया से जैसे कर्म का बंध होता है उसी प्रकार संवर और निर्जरा साथक क्रिया से कमाँ का बंथ रुकता है और नीर्ण कर्म नष्ट होते हैं तथा अन्तिम कर्म क्षय भी योग निरोध रूपी क्रिया से होता है।"
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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