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मद् विजय
वल्लम)
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ऐसा काल कहा अतीव सुख से "जै जै” सभी ने कहा।।6।।। जाना है सब को समान, तुमने माना उसी धर्म को, । 'मानामान धरा न किन्तु प्रभु के ध्यानार्थ सत्कर्म को; ठाना है गुरुदेव के सुयश का माना अनोखा सदा, आना वल्लभ सूरि का प्रिय लगा जाना नहीं सर्वदा।।7।।। प्राणी मात्र सुखी रहे जगत् में कोई न दुःखी रहे, मेरा ही बस एक चित्त तप की बाधा भले ही सहे; देती है शुभ भावना सुख जिन्हें यो नित्य आनन्दना, ऐसे वल्लभ सूरि को सविधि हो श्री संघ की वंदना।।8।।। कैसी थी वह मार काट, जिसमें ध्याते हिया भी हिले. कैसी लट खसोट थी कि जिस में उत्साह साली पिले ।
श्रद्धा पुष्प
श्रीमान वल्लभ सरि जो न करते सहाय सद् ध्यान से.
तो उद्धार कभी न भक्त जन का होता क्षय स्थान से।।9।।। ओ वन्दनीय वरिष्ठ मानव, विश्व वल्लभ वारिधि,
दीन वल्लभ बाल वल्लभ, ज्ञान वल्लभ शान्तधि । सत्य वल्लभ शौर्य वल्लभ, दान वल्लभ देवता,
दिव्यता में देव वल्लभ, वीर वल्लभ त्याग में।
दक्षता में धीर वल्लभ, ज्ञेय वल्लभ ध्यान में, ध्येय वल्लभ धर्म में, और मित्र वल्लभ प्रेम में।। साधुता में पूर्ण वल्लभ, अनूप रहे युग में सदा, । नित्य नैष्ठिक आत्म वल्लभ, स्वावलम्बी नीति में।। हो हमारा नित्य वंदन, विश्व के इतिहास में।
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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