Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 19
________________ AL .. १२ विजयप्रशस्तिसार। सूरीश्वर अपने ध्यान में ऐसे निमग्नथे कि इन क्रिया से किंचिम्मात्र भी विचलित नहीं हुए और बराबर अपना शुद्ध भाव धारण किये मासन पर विराजते रहे । जब नगर पासी अब लोगों को यह विश्वास हुआ कि सूरिश्वर के प्रभाव व्यन्तरों का सर्वदा के लिये विघ्न दूर होगया। तब लोग मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे "अहो! इन मुनिराजों का कैसा प्रभाव है ? कैसा तपस्तेज है ? सभी लोग रागी होगए । जैसे सर्प अपनी कंचुकी को शीघ्र त्याग कर देता है उसी तरह वही लोगों ने कुमति-कदाग्रह को त्याग करके विशुद्ध मार्ग को अंगीकार किया। भीविजयदानसूरीश्वर ने गुजरात पत्तन नगर-गान्धार बंदरमहीशानक-विश्वल मगर एवं मरु देश में नारदपुरी, शिवपुरी मा. दि नगरों में, तथा मेदपाट (मेवाड़) में घाटपुर, चित्रकुट दुर्ग मादि में, इसी प्रकार मानव देश में दध्यालयपुर आदि स्थानों में अनेक जिनर्षियों की प्रतिष्ठा कराई । साथही साथ अपने उपदेशसे हजारों जीपों को प्रतिबोधित किया। ऐसे ही अनेक कार्यों को करते हुए श्रीविजयदानसूरीश्वर पृथ्वीतल में विचरते रहे । कहना परमावश्यक है कि श्रीविजयदानसूरि गच्छ के नायक, धुरंधर प्राचार्य होने पर भी प्राप त्याग-पैराग्य में भी किसी से कम नहीं थे। इस बातकी प्रतीति इसी से ही होती है कि माप घत-दुग्ध. दधि-गुड़-पक्कान-तैठ ये छः विकृतिओं में से सिर्फ घतही को ग्रहण करते थे । कहिये । कैसा वैराग्य है ? कैसी त्याग वृत्तिहै। अब यह प्रकरण यहां ही समाप्त करके, आगे के प्रकरणमें श्रीविजयदानसूरीश्वर के पट्टधर श्रीहीरविजयसूरि जी इत्वादे का वर्णन किया गया है।

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