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विजयप्रशास्तिसार । सहित आपके पास चरित्र ग्रहण करूं । आप हम दोनोंपर अनुग्रह करिये" । देवी के इस बचन को सुनकर और मनोहर प्राकृति युक्त बालक को देखकर गुरु महराज अपने प्रतःकरण में हर्षित हुए । इस ' जयसिंह ' बालक के मुख माधुर्थ में गुरु महाराज की दृष्टि बार २ स्थिति पूर्वक पड़ने लगी। इस बालक के प्रत्येक शरीर. बचन और गति इत्यादि को शास्त्रोक्त रीत्या देखकर गुरु महाराज ने सोचा कि यह बालक इस जगत में प्रभावशाली पुरुष होगा । पराक्रमी और अपूर्व कार्यों को करने वाला होगा। __ यह विचार करते हुए आपने दीक्षा देने का विचार निश्चय रक्सा । भाद्धवर्ग एक बड़ा भारी अठाह महोत्सव बड़ी धूम धाम से किया। जिसका वर्णन इस लेखनी की शक्तिसे बाहर है । दीक्षा के दिन अनेक प्रकार के प्राभूषणों से अलंकृत 'जयसिंह' कुमार हस्तिपर प्रारोहण होकर, शहर के समस्त मार्गों में परिभ्रमण करता हुमा और अतुलदान को देता हुआ गुरु महराज के पास पाया । नियत किये हुए स्थान में सं० १६१३ मिती ज्येष्ठ शुक्लए: कादशी के दिन शुभ मुहूर्त में ' जयसिंह कुमार' और उनकी माता कोडिमदेवी को दीक्षा दीगई । गुरु महाराजने 'जयसिंह' का नाम 'जयविमल' रक्खा । दीक्षा देने के अन्तर सूरीश्वर ने यह चातुमास सूरत में ही किया । यद्यपि इस समयमें जमसिंह (जयविमल) मुनि ही वर्ष के थे तथापि अपनी शुद्ध बुद्धि से उन्हों ने बज्रस्वामी की तरह शास्त्राध्ययन कर लिया । अर्थात गुरु महराज से कितनेही शास्त्र पढ़ लिये। . एक दिन भीविज़दानसूरीश्वर ने बिचार किया कि यह जयविमल विनयादि गुणोंसे विभूषित है, तीक्षणबुद्धि वाला है, उसम लक्षण पड़े हैं अतएव यह मुनि हीरविजयसूरि के पास में विशेष योग्यता