Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 71
________________ विजयप्रशस्तिसार । जब तक सूर्य चन्द्रमा का प्रकाश है तब तक संसार में रहेगी। क्योंकि आपके वाणी रूप प्रदीप से सोद्यम होकर भीअकबर बाइशाह ने श्रीशत्रुजयार्थ जैनों के हस्तगत किया है । हे विभो ! दीपक के अस्त होने से अन्धवार फैल जाता है वैसे आप जैसे सूर के अस्त होने से अब कुमति लोग अपने अन्धकार को फै. लागे । यही मुझे दुःख है । हे पितः ! आपका उत्कृष्ट चारित्रमापकी संयम पाराधना, सचमुख निवृति पदको ही देने वाली थी। तथापि आप देवगत हुए । इसका कारण इस कलिकाल की महिमा ही है। हे प्रभो! 'तप-जप-संयम-ब्रह्मचर्य इत्यादि मोक्ष छत्य है। 'साधु धर्म मुझे बहुत प्रिय मालूम होते हैं ' इत्यादि, जो आप क. हते थे वह सब व्यर्थ होगया । क्योंकि आप तो स्वर्ग में चलेगए। यदि आपको तपादि प्रिय ही थे तो स्वर्ग में क्यों माप पधारे। हे मुनीन्द्र ! जो कोई आपका नाम स्मरण करता है । जो व्यक्ति प्रा. पका ध्यान करता है उनको श्राप साक्षात हैं । आप उसी प्रकार श्रद्धालुवर्ग के लिये प्रत्यक्ष हैं जैसे मित्र के लेखातरों को देखकर लोग उसका मिलना प्रत्यक्ष समझते हैं। - इस प्रकार बहुत विलाप करके श्रीविजयसेनसूरि शान्त हुए । और फिर महात्मा पुरुष ने भास्म-सतत्व को निवेदन करते हुए. शोक को भी शान्त किया। श्रीहीरविजयसूरि जी के देहान्त होने से भीतपगच्छ का स. मस्त कार्य भीविजयसेनसूरिही के शिरपर पापड़ा। दिन प्रति दिन श्रीगच्छ की शोभा भी हीरविजयसूरि के समय ही की तरह बढ़ने लगी ! मिथ्यात्विों का जोर जरा भी नहीं बढ़ सका । जैनधर्म की विजय पताका बड़ी जोर से फहराती ही रही और श्रीहरिविजय.

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