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विजयमशस्तिसार ।
हे पूजपाद ! सूरि पदकी स्थापना का समय निकट आया है आप कृपा करके मेरे घरको पवित्र करिये " ।
इसके पश्चात् तुरन्तही श्रीसूरीश्वर अनेक साधु-साध्वी-भाचक भाविका के वृन्द के साथ वहां पधारे जहां कि आचार्य पदवी देने के लिये मण्डप की रचना हुई थी। सं० १६५६ मिती बैशाख' शुक्ल ४ सोमवार के दिन उत्तम नक्षत्र में श्रीविद्याविजय मुनीश्वर को. 'सूर' पद अर्पण किया गया। इस नए सूरिजी का नाम श्रीविजयदेवसूरि ' रक्खा गया ।
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श्रीमल्ल' नामक भावक ने इस समय अभूतपूर्व दान किया । वाद्यादि सामग्रियों की तो सीमाही नहीं थीं। बाहर से आए हुए अतिथियों को उत्तमोत्तम भोजन देकर स्वामिवात्मय किया गया । इस उत्सव के समाप्त होने के भीतरही श्रीसंघ के आग्रह से श्रीसूरीश्वर ने श्री मेघविजयमुनि जी को उपाध्याय पद दिया । इसके बाद थोड़ेही दिनों में 'कीका' नामक ठक्कुर के यहां श्रीप्रभुप्रतिमा की प्रतिष्ठा की और उसी समय विजयराज मुनीश्वर को भी उपा ध्याय पद दिया गया । इस तरह ' श्रीमल्ल ' और ' कीका ' ठक्कुर ने समस्त संघ को संतुष्ट किया ।
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इसी शहर में चातुर्मास पूर्णकर सूरिजी फिर महिलपुर पा टन पधारे। इस नगर में चातुर्मासान्त में श्रीविजयसेनसूरि की इच्छा श्रीविजयदेवसूरिजी को गच्छ की समस्त आज्ञा देने की हुई । इस कार्य के निमित्त महानू परीक्षक पं० सहसवीर नामक श्रावक ने एक बड़ा उत्सव किया । इस उत्सव पूर्वक सं० १६५७ मिती पौष वदी ६ के दिन उत्तम मुहूर्त में श्रीबिजयदेवसूरीश्वर को सं पूर्ण सिद्धान्त संबन्धी वाचना देने की तथा तपगच्छ का अधिप