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विनयप्रशस्विसार । पच्छा सूरिमंत्र की आराधना करने की हुई और इसी विचार से
आपने लाटापल्ली ( लाडोल ) के प्रति विहार भी किया। . नाडोल में भाकर आपने छ विगय (घृत-दुग्ध-दही-तेल-गुड़
और पक्वान्न ) का त्याग किया। छह-अट्ठमादि तपस्या करना मा. रंभ की। तथा पठन-पाठनादि का कार्य अपने शिष्यों को दे करके बचनोच्चार करना बन्द करके ध्यानानुकूल वेष तथा शरीरावयवों को रख करके आप सूरिमंत्रका स्मरण करते हुए ध्यानमें बैठ गए। ... संपूर्ण ध्यान में प्रारूढ होते हुए अब तीन मास पूरे हो गए तब एक यक्ष बद्धाञ्जली होकर,सूरिजी के सामने आ खड़ा हुआ।
और कहने लगा 'हेप्रभो ! हे भगवन् ! आप पण्डितवर्य श्रीविद्या. विजय जी को स्वपट्ट पर स्थापन करो। यह विद्वान मुनि प्रापही के प्रतिबिंब रूप हैं।' बस ! इतने ही शब्द कर वह अन्तर्ध्यान हो गया । हुन बचनों को सुनते हुए सूरीश्वर बहुत प्रसन्न हुए । जब सरिजी ध्यान में से बाहर निकले अर्थात् ध्यान से मुक्त हुए तब लोगों ने बड़ा उत्सव किया। इस सालका चातुर्मास आपने लाडो. लही में किया। इसके उपरान्त यहां से विहार करके पृथ्वी तलको पवित्र करते हुए आप इडर पधारे । वहां एक बड़ा गढ़ है, यहां पर आकर श्रीऋषभदेवादि प्रभु के, दर्शन करके सब मुनि गण कृतकृत्य हुए । यहां से आप तारंगाजी तीर्थ की यात्रा करने को पधारे । तारंगा में श्रीअजितनाथ प्रभुकी यात्रा करके फिर सौराष्ट्र देश में पधारे । सौराष्ट्र देश में आते ही आपने पहिले पहल तीर्थाधिराज श्रीशत्रजप की यात्रा की । और यहां से 'ऊना' पधारे । ऊनामें जगद्गुरु श्रीहरिविजय सूरीश्वरकी पादुका की उपासना करके पुनः सिद्धाचल को (शत्रुञ्जय) पधारे । यात्रा कर. . के खंभात के श्रीसंघ के अत्याग्रह से आप का खंभात पाना हुआ।