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॥ अर्हम् ॥
॥ विजयप्रशस्तिसार ॥
कर्ता
आचार्योपासकः-मुनि विद्याविजय ।
लखनऊ निवासी बाबू दीपचन्दजी सुन्दरलालजी, श्रीमाल की सहायता से शाह-हर्षचन्द्र भूराभाई सम्पादक 'जैनशासन' ने प्रकाशित किया ।
वीर सं० २४३६
सन् १६१२
श्री दामोदर प्रेस लखनऊ में एस. एन. शर्मा द्वारा मुद्रित ।
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अहम
समर्पण परोपकार परायण, धर्मधुरंधर, शासन रक्षक,
पूज्यपाद मातः स्मरणीय, श्रीगुरु वर्य समीपेषु ! गुरु देव! परमात्मा वीरके शासनकी उन्नति के लिये, जैन साहित्य के प्रचारके लिये, आप श्रीमान् का अविश्रान्त उद्योग और प्रशंसनीय प्रयत्न सर्वसाधारण पर विदित है किसी से छिपा नहींहै । 'सवी जीव करंशासनरसी' इसलो. कोक्तिको आपने चरितार्थ ही कर दिया है। इतना ही नहीं ? मेरे जैसे पामरों के उद्धारके लिये जिस २ भांति से-जिस २ प्रकार से
आपश्रीने अनुग्रह कियाहै, वह सर्वया अनिर्वचनीय है। इन उपकारों से अनुगृहीत होता हुआ इस छोटीसी पुस्तक को आप की सेवा में आदर पूर्वक
समर्पण करता हूँ।
सब प्रकार से आपका
विद्याविजय
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शास्त्र विशारद-जैनाचार्य श्री विजय धर्म सूरि महाराज ।
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श्री ग्रहम् ॥
श्रीमद्विजयधर्मसूरिभ्योनमः ।
* उपोद्घात *
इस बात के कहने की आवश्यकता नहीं है कि - श्रात्महित और परहित साधन करने वाले शुद्धचरित्रवान् महापुरुषों के जीवनचरित्र के अध्ययन से मनुष्यजाति को जितना लाभ हुआ है और हो सकता है, उतना किसी अन्य साधन से नहीं हो सकता ।
जीवनचरित्र मोहान्धकार में पड़े हुए लोगों को ज्ञान प्रकाश में लाने वाली एक अपूर्व वस्तु है । जीवनचरित्र आन्तरिक सद्गुण रूप स्वच्छता और दुर्गणरूप मलीनता दिखाने वाला अद्भुत दर्पण हैं । संसार में जितने शिष्ट पुरुष हुए हैं, सबने अपने सामने किसी आदर्श पुरुष का जीवन चरित्र ही रख कर उन्नति के मार्ग में प्रवेश किया है । यह बात स्वाभाविक और अनिवार्य हैं ! बिना किसी आदर्श के मनुष्य कुछ कर नहीं सकता । मनुष्य का आचरण आदर्श के अनुसार ही होता है। ऐसे अवसर में महा पुरुषों की जीवनी सर्व साधारण मनुष्यों के चरित्र सुधारने में कहाँ तक उपयोगी होसकती है ? इस बात को सहृदय पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं ।
इस पुस्तक में वर्णित चरित्र नायकों के आचरण से मनुष्यमात्र असीम लाभ उठा सकते हैं । यह सब के मननयोग्य रहस्य है। मुख्य तथा जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि, श्रीविजय सेनसूरि तथा श्रीविजयंदेवसूरि-इन तीन महात्माओं के पवित्र चरित्रों से यह ग्रंथ गुंफित है । ये महात्मा विक्रमीय सोलहवीं और सतरहवीं शताब्दियाँ में हुए हैं । बालपन में विरक्त होकर दीक्षा के उपरान्त हमारे तीनों चरित्र नायकों ने शासन उन्नति के लिये कितना घोर प्रयत्न किया था उनका शासन
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उपोद्घात । प्रेम कितना हढ़ और प्रगाढ़ था-सम्राट अकबर जैसे नरपालों को प्रतिबोध करने में कितने साहस और उत्कर्ष का उन महानुभावों ने परिचय दिया था, एवं उस यवनराज्यत्वकाल में स्वधर्मरक्षा के लिए यह लोग कैसे उद्यत थे यह सब बाते सूक्ष्मतया इस ग्रन्थ में निगदित है। सुतरां यह भी ज्ञात होगा कि-वे महानुभाव ऐसे धुरंधर आचार्य होने पर भी तप-जप-संयम-त्याग वैराग्य में कैसे सुदृढ़ थे? । पुनः इस पुस्तक के अवलोकन से ऐतिहासिक विषय के भी बहुत संदिग्ध रहस्यों का पता लग सकेगा।
इस पुस्तक को मैने 'श्रीविजयप्रशस्ति' नामक महाकाव्य के आधार पर निर्मित किया है। और कतिपय अन्य पुस्तकों से भी सहा. यता ली है। तिस पर भी यदि किसी अशुद्धि को कोई पाठक सप्रमाण सूचित करेंगे तो मैं द्वितीयावृत्ति में उसे सहर्ष सुधारने की चेष्टा करूंगा। - इस ग्रंथ के निर्माण करने में मेरे सुयोग्य ज्येष्ठ बन्धु, न्याय शास्त्र के धुरंधर विद्वान् महाराज श्रीवल्लभविजय जीने बहुत सहायता प्रदानकी है अतएव मैं आपका अनुगृहीत हूँ।
यद्यपि मेरी मातृभाषा गुजराती है, तथापि इस पुस्तक को मैने हिन्दी में लिखने का साहस किया है । अत एव इसमें भाषा संबन्धी अंशुद्धियाँ का बाहुल्य होना सम्भव है । आशा है कि पाठकवृन्द उन अशुद्धियाँ की मोर दृष्टिपात न करके पुस्तक के सारही को ग्रहण करेंगे। कार्तिकी पूर्णिमा । बीर सम्बत् २४३६ ता०२४-११-१२
कर्ता
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अहम् श्रीमद्विजयधर्मसूरिभ्यो नम : 'विजयप्रशस्तिसार'.
* पहला प्रकरण * ( विजयसेन सूरिका जन्म और 'कमा ' शेठकी दीक्षा). जिस समय मेदपाट (मेवाड ) देश, कर्णाट-लाट-विराट-घनघाट-सौराष्ट्र-महाराष्ट्र-गौड़ चौड़-चीन-वत्स मत्स्य-कच्छ-काशी. कोशल-कुरु अंग-बंग-धंग और मरु आदि देशो में सबसे बढ़ कर प्रधान गिना जाता था, जिस समय उसकी भूमि रस पूर्ण थी, जिस समय उस देश के समस्त लोग ऋद्धि समृद्धि से कुबेरकी स्पर्धा कर रहे थे और जिस समय वहां के निवासी ( रंक से लेकर राय पर्यन्त) नीति-धर्म का सम्यक्प्रकार से पालन कर रहे थे, उस समय, एकरोज माकाश में भ्रमण करते हुए और नानाप्रकार की भूमि को देखने की इच्छा से 'नारद मुनि इस मेदपाट( मेवाड़ )देश में पाए । इस देश की उन्नति और स्वाभाविक सरलता से आप अधिक प्रसन्न हुए और आपने इस विशाल प्रदेश में कुछ काल तक निवास भी किया। क्योंकि वहाँ आपके नाम से एक नगर बस गया जिसका नाम 'नारद पुरी' पड़ा।
इस अलौकिक नारद पुरी का यथार्थ वर्णन होना कठिन है । क्या यह लेखनी इस कार्य को अच्छी तरह कर सकती है ? कभी नहीं ।
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विजयप्रशस्तिसार |
इस नारद पुरी के पास एक पर्वत के शिखर पर भी प्रद्युम्न कुमार ने श्री नेमीनाथ भगवान् का एक चैत्य (मन्दिर) बनवाया । और उन्हों ने इस मन्दिर में बहुत ही मनोहर और नेत्रों को आनन्द देनेवाली श्री नेमीनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित की । प्रद्युम्नकुमार इस भगवान् के ध्यान को अपने अन्तःकरण से दूर नहीं करते थे और अहर्निश धर्म भावना में समय का सदुपयोग करते थे ।
इस नारद पुरी में एक कमा' नाम के शेठ रहते थे । उनकी 'कोडीमदेवी' नामकी एक धर्मपत्नी थी। इन दोनों की देव में देवबुद्धि, गुरु गुरुबुद्धि और धर्म पर भी पूर्ण श्रद्धाथी । अर्थात् यह दोनों सम्यक्त युक्त थे | क्योंकि श्री हेमचन्द्राचार्य प्रभु कहते हैं कि:
"
या देवे देवता बुद्धि गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधिः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥ १ ॥
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इन दोनों की श्रीजिनेश्वर में परम भक्ति और साधुजनों में परम प्रीति थी । मन, वचन, कायासे यह दोनों धर्म प्रचार के वीर रूपही होरहे थे । औदार्य, शौर्य गांभिर्यादि उत्तमोत्तम गुण तो मानो इनके दास होकर रहते थे । इस दम्पती के पुत्र सुखका सौभाग्य नहीं प्राप्त और इस कारण यह बड़े दुःखी रहते थे । किन्तु दोनों मोक्ष के अभिलाषी होने से अपने द्रव्य को*सात क्षेत्रों में खर्चेते थे और क्लिष्ट कर्मों को क्षय करने वाले तपमें लवलीन रहते थे । और यह दोनों सबंदा बड़ी श्रद्धा पूर्वक पञ्चपरमेष्ठी मंत्र का ध्यान करते थे ।
था
एक समय की बात है कि कोडीम देवी नित्य नियमानुसार एक रोज पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करती हुई निद्रा के अधीन हो गई ! इस देवी ने रात्रि में एक स्वप्न देखा । क्या देखती है कि * साधु, साध्वी, भावक, श्राविका, जिनभवन, बिम्ब और ज्ञान
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पहला प्रकरण। एक बड़ा भारी सिंह, सामने खड़ा है जो कि हस्तियों के त्रास का निदान भूत गर्जना को करता है, जिसका रंग सर्वदा सफेद है। जिसने अपना मुँह निकासा है । जिसका बड़ा भारी पूंछ नोलाकार हुआ है । इस प्रकार के स्वप्न को सम्यक्प्रकार से देखती हुई
आनंद से भरी हुई कोडीम देवीने निद्रा को त्यागा। प्रातःकाल उठ कर उसने अपने पति को नमस्कार करके रात्रि में देखा हुआ स्वप्न निवेदन किया । क्योंकि पतिव्रता-सती स्त्री के लिये तो स्वप्न अपने पति को ही कहने योग्य हैं।
'कमा शेठ ने इस उत्सम स्वप्न का फल बड़े बिचार पूर्वक कहा कि-" हे प्रिये ! इस उत्तम स्वप्न के फल में तुझे पुत्रोत्पत्ति हो. गी।” बस ! इस कथन को सुनती हुई कोडीम देवी अतीव प्रानंद में निमग्न होगई । बस उसी रोज से देवीने गर्भको धारण किया। जब उत्तम जीवका जन्म होने वाला होता है तब माता को उसमो. तम दोहद (गर्भ लक्षण ) उत्पन्न होते हैं । इस गर्भ को धारण करने के बाद कोडीम'देवी को भी उत्तमोत्तम दोहद उत्पन्न होने लगे। जैसा कि उसके चित्त में इस बातकी बलवती इच्छा हुई कि मै गरीब लोगों को दान हूँ । जिनेश्वर भगवान्की पूजा करूं। मुनिराज के द्वारा भगवानकी वाणी का पान करूं । पवित्र मुनिराजों को दान दूं। श्रीसंघमें स्वामी वात्सल्य करूं। तीर्थ यात्रा करूं , इत्यादि । कमा शेठ ने विपुल द्रव्य से अपनी शक्त्यनुसार इन इच्छाओं को पूर्ण किया। देवी भी गर्भवती स्त्री के योग्य कार्यों को करती हुई जिसमें किसी प्रकार से भी गर्भ को तकलीफ न हो उसी प्रकार यत्न पूर्वक रहने लगी।
दिन-प्रतिदिन गर्भ बढ़ने लगा। अनुक्रमे कोडीम देवी ने वि. विक्रम संवत् १६०४ मिती फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन उत्तमः
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विजयप्रशस्तिसार । लक्षणोपेत पुत्रको जन्म दिया । इस बालक के मुख पर सूर्यके समान तेज चमकता था । सूति का गृह इन्ही बालक के तेज से देदिप्य. मान हो रहा था। कमा शठ के कुल में-मित्र मण्डल में असीम आनंद छा गया । शेठने बड़ा भारी जन्मोत्सव किया । अपने नगर के सैकड़ो याचक धनी कर दिये और वहां के राजा उदयसिंह से प्रार्थना करके या द्रव्य से जिस प्रकार होसका बहुत से कैदी कारागार से छुड़वा दिये।
बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। सब लोग इसको देखकर आनंद में निमग्न होजाने लगे। जगत् के इस नये अतिथि के उत्त. मोत्तम लक्षण और चष्टाएं देख कर सामुद्रिक शास्त्री लोग कहने लगे कि-'यह बालक इस भूमंडल में जीवों को मोक्ष मार्ग को दिखाने वाला एक धर्म गुरु होगा' । पुत्र को उत्तम लक्षणों से विभूषित देख कर उसका नाम 'जयसिंह' रक्खा गया । अत्यन्त
आश्चर्य को करने वाली प्रतिभा वाला यह बालक दिन पर दिन बढ़ने लगा । जयसिंह के उत्पन्न होने के बाद इस गांव की उन्नति अपूर्व ही रूप में होने लगी । अतएव यह बालक सारे नगर को प्रिय हुमा । यह 'जयसिंह' बालक जब पढ़ने के लायक हुआ, तब माता पिताने इस को शुभ मुहूर्त में बड़े महोत्सव पूर्वक पाठशाला में बैठाया। बुद्धिवान 'जयसिंह' बुद्धि के प्राधिक्य से उत्तरोत्तर अपूर्व विद्याओं की शिक्षा ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ा । जब वह अपने अध्यापक से थोड़े समय में सम्पूर्ण विद्याओं को ग्रहण कर चुका तब उनके माता-पिता ने जयसिंह के विद्या गुरुका द्रव्यादि. क से बहुत सत्कार किया। - प्रिय पाठक! देखिये क्या होता है ? जयसिंह अभी तो बाल्यावस्था में हो है। माता पिता की सेवा-भक्ति कुछ भी नहीं की है।
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पहला प्रकरणं ।
५.
पिता को एक पुत्र की लालशा थी, वह संपूर्ण पूरी हो गई है । पि ताने अभी तो पुत्रका सुख कुछ भी नहीं लिया है । केवल उस के मुखचन्द्र का दर्शन मात्र किया है। ऐसी अवस्था में 'कमा ' सेठ क्या सोचते हैं ? " मुझे एक पुत्र की इच्छा थी सो धर्म के प्रसाद ले पूर्ण हुई है । पुत्र अवस्था के लायक होने आया है । अब मैं इस असार संसार को त्याग करके मोक्ष को देने वाली दीक्षा को ग्रहण करूं " देखिये ! पाठक : कैसी संतोष वृत्ति है ? उत्तम जीवों के तो यही लक्षण हैं? सेठ को इस असार संसार से विरक्तभाव पैदा हुआ ।
एक दिन की वात है-' कमा' सेठ ने बड़ी गंभीरता के साथ अपनी धर्म पत्नी से कहा कि - " हे प्रिये ! हे भायें ! तुम्हें एक पुत्रं हुआ है, अब तुम संतोष वृत्ति को धारण करो । मैं अब तुम्हारी अनुमति से तपगच्छनायक गुरुवर्य श्रीविजयदानसूरश्विर के पासदीक्षा ग्रहण करूंगा । " पति के यह वचन कोडमदेवी को तड़ित पात समान लगे । इन बचनों को सुनकर सतीओं में शंखर समानं कोडीमदेवी बोली कि - " हे स्वामिन् ! हे ईश ! जैसे बिना चन्द्रम की रात्रि सुख दायक हो नहीं सकती है, वैसे आपके विना अज्ञान में रही हुई मैं क्या करूंगी ? मेरी क्या गति होगी। १ सतीनों को माता शरण नहीं है | पिता शरण नहीं है । पुत्र शरण नहीं है । और भाई भी शरण नहीं । किन्तु सतीओं के लिये तो एक पति हों शरण है । अतएव हे स्वामिन् ! आप के साथ में हमारा भी मनुष्यं जन्म का फल, तपस्या का आचरण ही होना उचित है । अर्थात यह 'प्राण प्रिय ' जयसिंह ' बालक के साथ मैं भी आपके प्रसाद से श्रापके साथ में तपस्या और व्रत अंगीकार करूंगी " ।
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इस प्रकार के विलाप युक्त वचनों को सुन करके सेठ ने कहा कि " हे भार्ये ! जैसे सर्प कंचुकी को छोड़ देता है वैसे ही मैं भी
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विजयप्रशस्तिसार । गार्हस्थ्य को त्यागना चाहता हूं। इतना ही नहीं किन्तु यह विचार मेरा निश्चित है । हे प्राण पिये ! यह जयसिंह अभी बालक है, अ. त एष तू इसकी रक्षा कर और इसके साथ तू घर में रह । जब यह बालक बड़ा होजाय तब तुझे दीक्षा ग्रहण करनी हो तो करना । अभी तेरे लिये यह अनुचित बात है।
ऐसे बाक्यों के समझाने पर कोडीमदेवी ने अपने पतिको दीक्षा लेने की माझा दी। इस समय में तपगच्छनायक श्री विजयदानसूरि जी स्तम्भ तीर्थ में विराजमान थे । अब 'कमा 'शेठ दीक्षा लेने के इरादे से नारदपुरी से शुभ मुहूर्त में रवाना होकर थोड़े दिनों में स्तम्भ तीर्थ गए । वहां आकर आचार्य महाराज से प्रार्थना की कि " हे प्रभो ! हे भट्टारक पूज्यपादा ! दीक्षादान से मुझे अनुग्रह क. रिये!" तदनन्तर प्राचार्य श्रीविजयदानसूरीश्वर ने संवत १६११ की साल में शुभ दिवस में इनको दीक्षा दी । अव कमा श्रेष्ठीं 'मुनि' हुए । खड़क की धार की तरह चारित्र को पालन करने लगे। धर्म के मूलभूत विनय का सेवन करने लगे। और दृष्ठ मन से पूर्व ऋषियों के सदृश 'साधु' धर्म का पालन करते हुए पिचरने लगे। , एक दिन अपने भगिनीपति 'कमा' श्रेष्ठी ने 'दीक्षा ग्रहण की है ' ऐसा सुन करके पल्लीपुर (पाली ) नगर से 'श्रीजयत' नामके संघपति कोडीमदेवी को मिलने के लिये 'नारदपुरी' पाए वहांपर कुछ रोज रहकर जयसिंह और उनकी माता कोडीमदेवी को घह श्रेष्टी अपने घरपर लाए । मेरु की गुफा में जैसे कल्पवृक्ष मारै पर्वत की गुफा में जैसे केशरी सिंह निर्भय होकर रहता है, उसी तरह इस पल्लीपुर (पाली ) नगर में 'जयासिंह कुमार ' अपनी माता के साथ अत्यन्त हर्षित हो रहने लगे और नगर निवासियों को मानन्द देकर समय व्यतीत करने लगे।
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दूसरा प्रकरण। अव इस प्रकरण को यहां छोड़ करके दूसरे प्रकरण में प्रसंगा. नुसार श्रीमहावीर स्वामी की पाट परंपरा दिखाकर, मागे फिर इसी बार्ता का विवेचन किया जायगा। .
दूसरा प्रकरण।
(श्रीसुधर्मास्वामी से लेकर श्रीविजयदानसूरिपर्यन्त पाटपरंपरा
और श्रीतपगच्छकी उत्पत्ति इत्यादि ।) प्रिय पाठक ! भगवान श्रीमहावीर देव की पाट पर पहले पहल गणको धारण करने वाले, अहिंसा,सत्य,अस्तेय, ब्रह्म और अकिंचन रूप पांच महाव्रतो को प्रगट करने और पालन करने वाले श्रीसुधर्मा स्वामी हुए । तदनन्तर ' श्रीजम्बूस्वामी ' हुए । इसके बाद प्रथम श्रुतकेवली 'श्रीप्रमवस्वामी' हुए । प्रभवस्वामी के बाद 'श्रीसय्य. म्भवसूरि' हुए । जिन सय्यम्भवसूरिके गृहस्थावस्था में श्रीशांतिमाथ भगवान की प्रतिमा से मिथ्यात्वरूपी अन्धकार दूर होगया। इस पाट पर 'श्रीयशोभद्रसूरि' हुए । तदनन्तर 'श्रीसम्भूतिषिजय आचार्य' और उपस्लग्गहरस्तोत्रले मरकीकी व्याधि को दूर करने धाले 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' हुए । यह दोनों गुरुभाई थे। इन्हों में श्रीसम्भूतिविजय पट्टधर जानना चाहिये । भीमद्रबाहुस्वामी गच्छ की सार-संभाल करने वाले थे, अतएव दोनों के नाम पाट पर लिखे जाते हैं। इन दोनों के पाट पर अन्तिम श्रुतकेवलो 'श्रीस्थुलीमद्र' हुए । भीस्थूलिभद्र स्वामी के बाद इनके मुख्य शिष्य आर्यमहागिरी और श्रीआर्यसुहास्त के नामके दो प्रतिभाशाली पुरुष आठवी पाट पर हुए । आठवी पाट पर इन दोनों के होने के
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विजयप्रशस्तिसार । बाद 'सुस्धित' और 'सुप्रतिबुद्ध' इस नामके दो प्राचार्य हुए । इन दोनों के द्वारा 'कौटिक' नामका गच्छ चला । क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि इन्हों ने एक कोटि बार सरिमंत्र का स्मरण किया था। यहां पर यह विचारणीय बात है कि श्रीहेमचन्द्राचार्य तो 'सुस्थित सुप्रतिबुद्ध' ऐसा अखंडित नाम वाले एक ही मुनिको मानते हैं । क्योंकि श्रीहेमचन्द्राचार्य प्रभुने अपने त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र की प्रशस्ति में लिखा है किःअजनि 'सुस्थितसुप्रतिबुद्ध' इत्यभिधयाऽऽर्यसुहस्तिमहामुनेः ।
शमधनो दशपूर्वधरोऽन्तिपद भवमहातरुभञ्जनकुञ्जरः ॥१॥ : अब गुर्वावली में तो दो अलग्न २ सुरि कहे हुए हैं । 'विजयप्रशस्ति' ग्रन्थकारने भी तदनुसार दो पृथक् नाम गिनाए हैं। इन कोटिक गच्छमें क्रमसे 'श्रीइन्द्रदिन्नसरि' 'श्रीदिनसूरि' और 'श्रीसिंहगिरि' होने पर दशपूर्व धर 'श्रीवज्रस्वामी नाम के प्राचार्य तेरहमी पाटपर हुए । इस वज्रस्वामीने बाल्यावस्थामें ही प्राचाराङ्गादि ग्यारह अंगों को निर्दम्भ हो के, पारिणामिकी बुद्धि से और पदानुसारिणी लब्धि करके कण्ठान किये थे । श्रीवज्र स्वामी की ख्याति से इस जगत में वज्र शास्त्रा प्रसिद्ध हुई । इस धज्र शाखा. की कीर्ति अद्यावधि लोगो में विद्यमान है । वज्रस्वामी के शिष्यों में मुख्य शिष्य 'श्रीवजूसेन' गच्छ के नायक हुए । इन 'श्रीवासेन सूरि को 'नागेन्द्र', 'चन्द्र', 'निवृति', और 'विद्याधर' नाम के चार शिष्य थे। इन चारों के नाम से चार कुल उत्पन्न हुए । जैसे किनागेन्द्रकुल, चान्द्रकुल, निवृतिकुल और विद्याधर कुल । इन चार कुलों में भी चान्द्रकुल जगत में बहुत प्रसिद्ध है । इस चान्द्रकुल के उत्पादक श्रीचन्द्राचार्य से अनुक्रम करके 'श्रीसामन्तभद्र सुरि, 'श्रीवृद्धदेवसूरि', 'श्रीप्रद्योतनसूरि', 'श्रीमान देवसूरि', श्रीमानतु.
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दूसरा प्रकरण। सूरि', 'श्रीवीरसूरि', श्रीजयदेवसूरि', श्रीदेवानन्दसूरि ', 'भीविक्रमसूरि', 'श्रीनरसिंह सूरि', 'श्रीममुद्रसरि', 'श्रीमानदेवसूरि', 'श्रीविबुधप्रभसूरि', 'श्रीजयानन्दसूरि', 'श्रीरविप्रभसूरि', 'भी. यशोदेवसूरि', 'श्रीप्रद्युम्नसरि ', 'भीमानदेवसरि', 'भीविमलचन्द्रसूरी', 'श्रीउद्योतनसुरि', 'श्रीसर्वदेवसूरि', 'श्रीदेवसूरि', 'श्रीमर्षदेषसूरि', 'श्रीयशोभद्रसूरि ', ' श्रीनेमिचन्द्रसूरि', 'श्री. मुनिचन्द्रसूरि ', 'श्रीअजीतदेवसूरि',और श्रीविजयसिंहसरि' महोदयों के होने के बाद प्रारंभ से तेतालीसमी पाटपर पकही गुरु के शिष्य श्रीसोमप्रभसूति और श्रीमणिरत्नसूरीश्वर हुए । तदन्तर इस पाटधर चान्द्रकुल रूपी समुद्र में चन्द्र समान श्रीजगच्चन्द्रमुनीश्वर हुए।
भीजगच्चन्द्रसूरीश्वर ने बारह वर्ष पर्यन्त आयंबिल तप की प्रा. राधना की । इस तप के प्रताप से पृथीपर कलंक' नाश हुआ अर्थात वह " तपा" ऐसी ख्याति संसार में प्रगट हुई। संवत१२८५ के साल से भीजगच्चन्द्रसरि से इस जगत में 'तपगच्छ' की प्रसिद्धी हुई। इस तपागच्छ से बढ़कर अन्यत्र सम्यकचरण-करण-समाचारी रूप क्रिया है ही नहीं। अब इस चवालीसमी पाटपर हुए जगच्चन्द्रसूरिसे
अनुक्रमेण 'भीदेवेन्द्रसूरि, ''श्रीधर्मघोषसूरि, ''श्रीसोमप्रभसूरि,' 'श्रीसोमतिलकसूरि, ' ' श्रीदेवसुन्दरसूरि, ' 'भीसोमसुन्दरसूरि,' 'श्रीमुनिसुन्दरसूरि,' 'श्रीरत्नशेखर सूरि,' 'श्रीलक्ष्मीसागरसूरि,' 'श्रीसुमतिसाधुसूरि, ' महोदयों के होने के बाद पचवनवीं पाटपर सू. रीश्वरों में श्रेष्ठ ' श्रीहेमविमलसूरि' हुए । और इनकी पाटरूप कुंभदेशमें 'भीमानंदविमलसूरि' विराजमान हुए । यही श्रीमानंदविमलसूरि सं० १५८२ में एक दिन पचन नगर के निकट श्रीवटपल्ली नगरी में अपने शिष्य परिवार श्रीविनयभाव पण्डित आदिकों को साथ में
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विजयप्रशस्तिसार । लेकर पधारे थे। इस समय में साधुओं में परिग्रह और क्रिया में शिथिलता की वृद्धि होगई थी; अतएव इन प्राचार्य महाराजने उपयोगी प्रस्त्र, पात्र और पुस्तक को छोड़करके दूसरे सब परिग्रहों को हटाया और क्रिया में भी यथोचित सुधार किया।
पूज्य मुनिवरों का और विशेष करके प्राचार्यादि उच्च पदवी धारक महागजों का इस ओर ध्यान होना उचित है। पूज्यो ! वर्तमान समय भी ऐसाही आया है जैसा कि श्रीमानविमलसूरि के समय में आया था । आजकल धार्मिक बातों में अनेक प्रकार की शिथिलता दे. खने में आरही है । इनका अधिक वर्णन करके निन्दा स्तुति करने का यह स्थल नहीं है। इदानीन्तत्र दोषों को देखकर यह सब लोग स्वीकार करेंगे कि वर्तमान समय में उपर्युक्त दोनों बातों में सुधार करने की बहुतही आवश्यकता है। भीमानंदविमलसूरिजी की तरह इस समय में भी कोई सूरीश्वर या मुनि मण्डल निकल पड़े तो क्याही अ. च्छा हो? अस्तु! .. श्रीमानंदविमलसूरि जीने अपनी उपदेश शक्ति से कुतिर्थियों की युक्तियों को नष्ट करके शुद्ध मार्ग का प्रकाश किया। इस सूरीश्वर के प्रभाव से हजारों जीवों ने शान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय प्राप्त किया। सिवाय इसके अष्ट प्रवचन माता में यत्नवान भीमानंदविमलसूरि ने छह, अट्टम, आलोचनातप, विशस्थानकतप , अष्टकर्मनाशकतप, आदि तपस्या के द्वारा अपने शरीर को कृश करने के साथ अपने पापों को भी भस्म कर दिया। जिस पूज्यपाद ने भीतपागच्छरूप प्राकाश में उदयावस्था को प्राप्तकर श्रीमहाबीरदेव की परम्परारूप समुद्र के तटको अ. त्यन्तही उल्लास से अलंकृत किया । यह सूरीश्वर ने, अपनी पाटपर प्राचार्यवर्य श्रीविजयदानसूरि को स्थापित करके सं० १५९६ में समाधी को भजते हुए, अहमदाबाद के निकट निजामपुर नगर में इस मर्त्यलोक को त्याग करके देवलोक को अलंकृत किया।
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दूसरा प्रकरण ।
११.
आचार्य भीषिजयदानसूरीश्वर इस भूमंडल में अनेक जीवों को शुद्ध मार्ग को दिखाते हुए विचरते रहे । आपने एकादशांगि की और बारह उपांग की प्रतियां को अपने हाथ से कईबार शुद्ध किया । इस भीविजयदानसूरिजी की क्रिया, स्वभाव और आचार कुरानता को देखने वाले लोग भीसुधर्मास्वामी की उपमा को देते थे । एक दिन की बात है कि श्रीविजबंदानसूरिप्रभु मरुदेश को अलंकृत करते हुए क्रमशः 'अजमेरुदुर्ग' (लौकिक पुष्कर तीर्थके निकट) M पधारे इस दुर्ग में रहने वाले बिनप्रतिमा के शत्रु 'लुका' नामक कुमति के रागी लोगोंने क्रुर ग्राशय और द्वेष बुद्धि से दुष्ट व्यन्तर भूत-पिशाच वाला मकान विजयदानसूरिजी को ठहरने के लिये दिखाया। सूरीश्वरने भी अपने शिष्य मण्डल के साथ उति मकान में निवास किया । उस मकान में रहने वाले दुष्ट देवाने मनुष्याको मारने की चेष्टा वे शुरू की । थे अनेक प्रकारके विभत्सरूपों को धारण करके उस समुदाय के साधुओं को डराने लगे । एकदिन यह बात साधुओं ने अपने चाचार्य महाराज को निवेदन की । श्राचार्य महाराज ने अपने मनमें विचार किया कि जैसे पानी के प्रवाह से वन्दि का नाश होता है वैसे पुरुष के प्रभाव से यह विघ्न भी प्राप ही सब शान्त हो जायँगे । उस रोज रातको साधु लोग आवश्यक क्रिया - पौरसी आदि करके सो गये । किन्तु हमारे सूरीश्वरजी निद्रा न लेकर सुरि मंत्रका ध्यान करने लगे । उस समय श्रीविजयदान सूरीश्वर के सामने धीट होते हुए, हास्य करते हुए,' रुदन करते हुए, पृथ्वी पर जोर से गिरते हुए, अनेक प्रकार के विरुद्ध शब्द करते हुए, नाना प्रकार की क्रिड़ाओं को खेलते हुए और बाल चेष्टाओं को फैलाते हुए वे देवता लोग भाने लगे । किन्तु उन देवों की सभी चेष्टाएं सूरीश्वर के सामने व्यर्थ होगई ।
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विजयप्रशस्तिसार। सूरीश्वर अपने ध्यान में ऐसे निमग्नथे कि इन क्रिया से किंचिम्मात्र भी विचलित नहीं हुए और बराबर अपना शुद्ध भाव धारण किये मासन पर विराजते रहे । जब नगर पासी अब लोगों को यह विश्वास हुआ कि सूरिश्वर के प्रभाव व्यन्तरों का सर्वदा के लिये विघ्न दूर होगया। तब लोग मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे "अहो! इन मुनिराजों का कैसा प्रभाव है ? कैसा तपस्तेज है ? सभी लोग रागी होगए । जैसे सर्प अपनी कंचुकी को शीघ्र त्याग कर देता है उसी तरह वही लोगों ने कुमति-कदाग्रह को त्याग करके विशुद्ध मार्ग को अंगीकार किया।
भीविजयदानसूरीश्वर ने गुजरात पत्तन नगर-गान्धार बंदरमहीशानक-विश्वल मगर एवं मरु देश में नारदपुरी, शिवपुरी मा. दि नगरों में, तथा मेदपाट (मेवाड़) में घाटपुर, चित्रकुट दुर्ग मादि में, इसी प्रकार मानव देश में दध्यालयपुर आदि स्थानों में अनेक जिनर्षियों की प्रतिष्ठा कराई । साथही साथ अपने उपदेशसे हजारों जीपों को प्रतिबोधित किया। ऐसे ही अनेक कार्यों को करते हुए श्रीविजयदानसूरीश्वर पृथ्वीतल में विचरते रहे । कहना परमावश्यक है कि श्रीविजयदानसूरि गच्छ के नायक, धुरंधर प्राचार्य होने पर भी प्राप त्याग-पैराग्य में भी किसी से कम नहीं थे। इस बातकी प्रतीति इसी से ही होती है कि माप घत-दुग्ध. दधि-गुड़-पक्कान-तैठ ये छः विकृतिओं में से सिर्फ घतही को ग्रहण करते थे । कहिये । कैसा वैराग्य है ? कैसी त्याग वृत्तिहै। अब यह प्रकरण यहां ही समाप्त करके, आगे के प्रकरणमें श्रीविजयदानसूरीश्वर के पट्टधर श्रीहीरविजयसूरि जी इत्वादे का वर्णन किया गया है।
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तीसरा प्रकरण ।
तीसरा प्रकरण। (हीरविजयसूरि का जन्म, दीक्षा, पण्डितपद, उपाध्यायपद,
प्राचार्यपद इत्यादि) . भीहीरविजयसरि का जन्म सुप्रसिद्ध गुजरात देश के भूषणरूप प्रल्हादपुर (पालनपुर ) में हुआ था। प्रल्हादपुर के विषय में एक पेसी कथा है:
"प्राचीनकाल में एक प्रल्हाद' नामका राजा हुआ था। उस राजाने श्रीकुमारपाल राजाकी बनवाई हुई सुवर्णमयी भीशान्तिनाथभगवान की प्रतिमा अग्नि में गलादी । और उसकी वृष बनाकर मच्चलेश्वर के सामने स्थापित किया। अब इस पापसे राजाको महादुष्ट-एका रोग उत्पन्न हुआ। इस रोग के कारण राजा का तेज लावण्य इत्यादि जो कुछ था सब नष्ट होगया । राजा ने अपने नाम से प्रल्हादपुर (पालनपुर) नामका ग्राम बसाया। इसके बाद श्री शान्तिनाथप्रभुकी मूर्तिको गलादेनेले जो पाप लगाया उसकी शान्ति के लिए राजा ने अपने नगर में श्रीपार्श्वनाथप्रभु का भीप्रल्हादनविहार' नामका चैत्य बनवाया। इस मन्दिर के बनवाने के पुण्य से राजा का रोग शान्त होने लगा। और कुछ दिनों के बाद राजा ने अपने असली रूप तथा गवण्य को प्राप्त किया । सारे नगर के लोग इस पार्श्वनाथप्रभुदर्शन से सर्वदा अपने जन्म को कृतार्थ करने लगे।" . इसी नगर में एक 'कुंरा' नामका श्रेष्ठी रहताथा । यह सापुरुष श्रेष्ट बुद्धि, दया-दाक्षिण्य-निर्लोभता-निर्मायिता-इत्यादि सद्गुणों से अलंकृत था। इतना ही नहीं यह सेठ ब्रह्मचारी गृहस्थों में एक शिरोमणि रत्न था। इस महानुभावको एक 'नाथी' नाम की बड़ी
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विजयप्रशस्तिसार । मुशीला की थी । यह पतिव्रता अपने पति के साथ मांसारिक सुखों को मानन्द अनुभव करती थी। इस धर्म परायणा माथीदेवी ने उत्तम गर्भ को धारण किया । जिस प्रकार शुक्ति में मुक्ताफल दिन-प्रतिदिन बढ़ता है। उसी प्रकार गर्भवती का गर्भ भी दिन परदिन बढ़ने लगा । इस उत्तम गर्भ के प्रभाव से शेठ के घर में अद्धि-समृद्धि की अधिक वृद्धि हो गई। __ नवमास पूरे होने के अनन्तर सं० १५५३ के मार्गशिर्ष सुदीर के दिन इस देवीने उत्तमोत्तम लक्षणोपेत पुत्र को जन्म दिया। शेठ ने इस पुत्रके जन्मोत्सव में बहुत ही उत्तमोत्तम कार्य किये । शेठ के वहां कई दिनों तक मंगलगीत होने लगे । याचकों को अनेक प्रकार से दान दिए । सारे नगर के भावात वृद्ध बाब प्रसन्न मन होकर उस महोत्सव में सम्मिलित हुए । 'उत्तम पुरुषों का जन्म किस को भानंद देने वाला नहीं होता है ? चन्द्रमा की कला के समान दिन प्रतिदिन यह प्रतिभाशाली बालक बढ़ने लगा । जो लोग इसको देखते थे वो यही कहते थे कि यह भारतवर्ष का अपूर्व तेजस्वी हीरा होगा । इस बालक की माता ने स्वप्न में 'हीरराशी' ही देखीथी । पुत्र के उत्तमोत्तम लक्षण भी छिपे हुए नहीं थे। अर्थात वह हीरे की तरह चमकता था । बस कहना ही क्या था? सब लोगों ने मिल कर इसका नाम भी 'हीरा' रख दिवा । लोग चिको 'हीरजी' करके पुकारते थे । काल की महिमा अचिंत्य है। हुमा क्या? हमारे हीरजी भाइके माता पिताने थोड़े ही दिनों में सम्यक् माराधना पूर्वक देवलोक को अलंकृत किया । कुछ दिन व्यतीत होने के बाद हीरजी भाइ अपने माता-पिता का शोकदूर करके अपनी बहन को मिलने के विचार से श्रीमणहिलपाटक (मणहिलपुर पाटन ) गये । बहन अपने भाइसी सुन्दर प्राकृति को
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तीसरा प्रकरण । देख कर बहुत ही हर्षित हुई। वा मधे प्रेम का पान करने लगी। .. प्रिय पाठक ! भव देखिये क्या होता है ?।
इधर मुनिपुङ्गव सद्गुणनिधान भीविजयदानसूरीश्वरजी भी उसी नगर में विराजमान थे। जन्म संस्कार से हमारे हीरजीभाई का साधुपर पूर्ण प्रेम था । एक रोज हारजीभाइ उपाश्रय में चले गए । सूरीश्वर को नमस्कार करके एक जगह बैठगए । तब सूरि जी ने इन्हीं के योग्य बहुत ही मनोहर धर्म देशना दी । 'निकटमघीपुरुषों के लिये थोड़ी भी देशना बहुत उपकार कारक होती है।' बस ! उपदेश सुनतेही हीरजी को संसारसे विरक्तभाव पैदा होगया। हर्ष प्रकर्ष से गद गद होकर अपनी बहन के पास आकरके बड़े वि.. नय भाव से कहने लगेः: "हे लोदरि ! हे बहन ! मैंने आज संसार सागरसे तारने वाली
और अपूर्व सुमको देनेवाली श्रीविजयदानसूरीश्वर महाराज के मुलाबिंद से धर्म-देशना सुनी है। अब मैं उन गुरूजी से अवश्य बक्षिा ग्रहण करूंगा। मतपय हे प्रिय बहन ! तू मुझे आशादे"। : इस बाक्य को सुनते ही बहन का कलेजा भर आया और वह प्रभुमुखी होती हुई अपने लघु बन्धु को बड़े प्यार से कहने लगी। । हे प्रिय बन्धो ! हे कोमल हृदयी वत्स ! तेरे लिये दीक्षा बडेही कष्ट से सेवन करने योग्य है । भाई ! दीक्षा लेने के बाद धूप-जाड़ा सहन करना पड़ेगा। खुलाशिर रखना पड़ेगा। केश का लुञ्चन करना पड़ेगा। नंगे पांव से चखना पड़ेगा। घर.२ भिक्षा मांगनी पड़ेगी। अनेक प्रकारकी तपस्यामों का सेवन करना पड़ेगा। बाइस परिसहों को सहना पड़ेगा। इस लिये अभी तेरे लिये दीचा योग्य नहीं है । तू प्रथम तो एक सुरस्त्री जैसी पदमणी स्त्री के साथ शादी करले । उनके साथ में अनेक प्रकार के सांसारिक सुखों को
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विजयप्रशस्तिसार । भोग ले । वत्स ! जैसे लता को वृक्ष प्राधार है वैसे मेरे लिय तू ही प्राधार है"।
ऐस २ मधुर बचनों से समझाने पर भी हीरजी अपने विचार में निश्चल रहा और उसने धंद्यकी तरह वैराग्य वचनरूपी औषधि से अपनी बहन के हठरूपी रोग को दूर किया। - इसके बाद हीरजी उपाश्रय में आकर वंदनापूर्वक गुरु महाराज से कहने लगा-'हेभगवन् ! आपके पास मैं क्लेश को नाश करने वाली दीक्षा ग्रहण करने आया हूं । मेरी इच्छा है कि आपसे मैं दीक्षा ग्रहण करूं । प्राचार्यवर्य इस बालक के कोमल बचनों को सुनते ही हर्षित होगये । क्योंकि कहा भी है कि
- 'शिष्यरत्नस्य प्राप्तौ हि हर्ष-उत्कर्षभाग् भवेत् ।
शिष्यरत्न की प्राप्ति में बड़े लोगों को भी हर्ष होता है । सामुद्रिक शास्त्र में कहे इए उत्तम लक्षणों को देख करके तपगच्छनायक श्रीविजयदानसूरिजीने निश्चय किया कि यह बालक होनहार गच्छनायक देख पड़ता है। अस्तु ! इसके बाद अतुल द्रव्य खर्च करके एक बड़ाभारी दीक्षा महोत्सव किया गया । खान पान नाटक चेटक इत्यादि बड़ी धूमधामके साथ एक सुंदर रथ में बैठाकर नगर के समस्त मनुष्यों से वेष्ठित इस कुमार को नगर के मध्य में हो करके लेचले। इस प्रकार ले बड़े समारोह के साथ वनको जाते हुए बालक को दर्शक लोग
आश्चर्य में होकर देखने लगे। नियत किए हुए स्थान में सं० १५६६ कार्तिक कृष्ण द्वितीया के दिन शुभमुहूर्त में हीरकुमार ने श्रीविजयदान सूरीश्वर के पास दीक्षा ग्रहणकी । गुरु महाराजने इसका नाम हीरहर्ष' रक्खा। इसके बाद यह मुनि ज्ञान-दर्शन चारित्रकी आराधना सम्यकप्रकार से करते हुए, गुरुचरणाबिंद की सेवा में लवलीन रहते हुए गुरुवर्य के साथ में हर्षपूर्वक विचरने लगे।
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तीसरा प्रकरण । अब हीरहर्षमुनि, प्राणाति पात-मृषावाद अदत्तादान-मैथुन और परिग्रह विरमणरूप पांच महाव्रतों को,र्यासमिति-भाषासमिति एषणासमिति-निक्षेपणासति-पारिष्टापनिकासमिति रूप पांच समिति को,मनगुप्ति-बचनगुप्ति-कायगुप्ति रूप तीनगुप्ति को सम्यकप्रकार से पालन करने लगे । आपने थोड़े ही समय में अपने गुरु महाराज से स्वशास्त्र का सम्पूर्ण अभ्यास कर लिया और जैनसिद्धान्त के पारगामी होगए । एक दिन गुरुवर्य श्रीविजयदानसूरिजी अपने. अन्तः. करण में सोचने लगे कि " यह हीरहर्षमुनि बड़ाबुद्धिमान है, तार्किक है, अतएव यह अगर शैवादिशास्त्रों को जानने वाला होजाय तो बहुत ही उत्तम हो । जगत में यह अधिक उपकार कर सकेगा, जैन शासन का उद्योत भी विशेषरूपेण कर सकेगा।" इस विचार को मुनि महा. राज ने केवल मन ही मात्र में न रक्खा, किन्तु इसको कार्य में लाने की भी कोशिश की । पाप ने शीघ्र हीरहर्षमुनि को दक्षिण देश में जाने की प्रेरणा की । क्योंकि उस समय में दक्षिण में शैवादि शास्त्रों के वेचा अच्छेर पण्डित उपस्थित थे। हीरहर्ष तो तय्यारही थे। केवल माझा की ही देरी थी। भीविजयदानसूरीश्वर ने श्रीधर्मसागरगणि प्रमुख चार मुनिराजों के साथ में हीरहर्ष को दक्षिण देशकी ओर भेजा । दक्षिा स देश में एक देवगिरिनामका किला था । वहां जाकर नि पांचों ऋ. षियों ने निवास किया । इस देवगिरि में रह कर इन्होंने चिन्तामण्यादि
शैवादि शास्त्रों का प्रखर पाण्डित्य थोड़े ही दिनों में प्राप्त किया। कार्य सिद्धि होने के बाद ये लोग तुरन्तही गुजरात देश में लौट पाए । जिस समय यह गुजराज आए उस समय गुरुवर्य श्रीविजयदानसूरि, गुजरात में नहीं थे किन्तु मरुदेश में बिहार कर गये थे । अत एव गुरु महाराज के दर्शन करने में उत्सुक भीहीरहर्षमुनि ने भी मरुदेश प्रति प्रस्थान किया । थोड़े ही दिनों में नारदपुरी, जहां श्रीविजयनदानसूरी
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विजयप्रशस्तिसार श्वर विराजते थे, आ पहुंचे । बस ! कहना ही क्या ? बड़े विद्वान् और विनयवान् शिष्य के आने से गुरुमहाराज को अत्यन्त हर्ष प्राप्त भया । हीरहर्ष के लिए तो कहनाही क्या ? इस महानुभाव को तो गुरुमहाराज को देखते ही हर्ष के अनु निकलने लगे । तात्कालिक बनाये हुए १०८ श्लोक का पाठ करके, बद्धाञ्जलीपूर्वक, विधि सहित हरिहर्ष ने गुरुमहाराज को बंदना की। चन्द्र को देख करके जैसे समुद्रकी उर्मिये उल्लास को प्राप्त होती है। वैसे ही पुत्र समान, वि. खुदकलासम्पन्न शिष्य को देख २ कर गुरुवर्य महाराज हर्षित होने लगे।
कुछ समय बाद उसी नारदपुरी नगरी में सं-१६०७ में शुभदिन को देख करके भीऋषभदेवप्रभु के प्रसाद में गुरुमहाराज ने इन हीर. हर्ष को सभा समक्ष विद्वद् ' पद दिया । इस पद को पालन करते हुए केवल एकही वर्ष हुआ कि नारदपुरी के समस्त श्रीसंघने तपगच्छाचार्य श्रीविजयदानसूरि महाराज से प्रार्थना की ' हे प्रभो हम लोगों की यह प्रार्थना है कि श्रीहरिहर्ष पण्डित को ' उपाध्याय' पद दिया जाय तो बहुतही उत्तम बात है। गुरुमहागज के मनमें तो यह बात थी ही और संघने विनति की । सूरिजी महाराज के विचार और भी पुष्ट हुए। इसके बाद सं० १६०८ मिती माघ शुक्ल पञ्चमी के दिन नारदपुरी ही में भीसंघ के समक्ष श्रीवरकाणा पार्श्वनाथकी शाक्षी में, भीनेमिन नाथ भगवान के चैत्य में गच्छ में उपस्थित समस्त साधुओं की अनु. मति सहित श्रीहरिहर्ष पण्डित 'उपाध्याय' पद पर स्थापित किए गये।
उपाध्याय पद पर नियत होने के पश्चात् सूरिजीने सोचा कि श्रीतपागच्छ का आधिपत्य हीरहर्षोपाध्याय को होगा। ऐसा विचार करके आपने सूरिमन्त्र का अराधन करना प्रारम्भ किया । जब पूरे तीन
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तीसरा प्रकरणा ।
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माल होगये, तब सूरिमंत्र का अधिष्ठायक देवता अत्यन्त हर्षपूर्वक भीसूरिमहाराज के सन्मुख प्रत्यक्ष होकरके कहने लगा:-' हे प्रभो ! हरिहर्ष नामक वाचक आपकी पाटपर स्थापन होने योग्य है'। बस ! इतनाही कह करके वह अन्तर्द्धन होगया ।
देवता का उपरोक्त बचन सुन करके सूरिजी को अत्यन्त हर्ष हुआ | आपने अपने मन में विचार किया कि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस देवताने मेरेही अभिप्राय को स्पष्ट रूपसे कहा सूरीश्वर ने आ करके यह बार्ता अपने मंडल में प्रकाश की । समस्त ने यही कहा कि "जैली आपकी इच्छा हो, साधुमण्डल वैसे ही कार्य होगा' । इसके बाद सं० १६१० मिती मार्गशिर्ष शुक्ल दशमी के दिन शुभमुहूर्तमें महोत्सव पूर्वक 'शिरोही' नगर में चतुर्विध संघकी सभा के समक्ष परमगुरु श्रीविजयदानसूरीश्वर ने तपगच्छ के साम्राज्यरूप वृक्षक बीज भूत श्रीहीरहर्ष वाचक कों 'प्राचार्य' की पदवी दी । सूरिपद होने के समय भीहीरहर्षोपा ध्यायका नाम 'श्रीहीरविजयसूरि' रक्खा गया ।
प्रियपाठक ! देख लीजिये ! श्राचार्य पदवीयोंकी कैली परिपाटी थी ? । भाग्यवान् पुरुष पदवी को नहीं चाहते हैं किन्तु पदवीएं भाग्यवानों को चाहती है । खेद का विषय है कि आजकल के लोग पदवीयों के पीछे हाथ पसारे घूमते-फिरते हैं । गृहस्थों के सैकड़ोंहजारों रुपये नष्ट करवा देते हैं । फिर भी पदवी मिली तो मिली नहीं तो लोक में अप्रतिष्ठा होती है। क्या दो-चार पण्डितों को किसी प्रकार प्रसन्न कर लिया और इसी रीति से कोई भी टाइटल पाकर कृतकृत्य होजाना ही यथार्थ पदवी पाना है १ ऐसा नहीं है, यदि उच्च पद पर बैठने की इच्छा है तो पक्षी परमात्मा के घर की लेने की
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विजयप्रशस्तिसार।
कोशिश करनी चाहिथे। बिन्तु ठीक है ! निर्नाथ जैन प्रजा में वर्तमान समय में जो न हो सो थोड़ा है। ... ... .'शिरोही नगर से विहार करते हुए श्रीविजयदानसूरि महा
राजने श्रीहीरविजयसूरि को पतन (पारण ) नगर में चातुर्मास करने की प्राशा दी । और आप स्वयं कोकण देश की भूमि को पवित्र करते हुए सूरत बन्दर पधारे।
चौथा प्रकरण।
(श्रीविजयसेनसूरि की दीक्षा, उपाध्याय-प्राचार्यपर, 'मेघनी'
आदि सत्ताईस पण्डितों का लुपाकमत त्यागना, और सुरत में दिगम्बर पण्डित, श्रीभूषण के साथ शास्त्रार्थ करके उसको परास्त करना
इत्यादि) इधर 'जयसिंह' बालक अपनी माता के साथ अपने मामा के यहां एश-आराम से दिवस व्यतीत कर रहा है। समस्त लोगों को आनंद दे रहा है। एक रोज यह बालक अपनी माता से कहने लगा "हे.जननि ! हे मातः ! अब मैं अपने पिता 'कमा' ऋषि की तरह जन्म-मरणादि व्यपत्तियां को नाश करने वाली दीक्षा ग्र. हण करने की इच्छा बाला हूं, अर्थात् जो मार्ग मेरे पिता ने लिया है वही मार्ग में लेना चाहता हूं"।
इन वाक्यों को सुन करके माता कहने लगी " हे बालक! तू अभी बहुत छोटा है। लोहमार की तरह विषम बोझे वाली और शारीरिक सौख्य को ध्वंस करने वाली दीक्षा अभी तेरे बोग्य नहीं
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चौथा प्रकरंगा ।
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है । हे पुत्र ! तीक्ष्ण तलबार की धारपर चलना सुगम है । किन्तु दीक्षा ले करके उसको पालन करना बड़ा कठिन है । हे सुकुमार ! अभी तू एक मनोहर रूपवाली कन्या के साथ बिवाह करके गृहस्था वस्था का समस्त सुख भोगले । देवांगना तुल्य सुंदर स्त्री के साथ देवता की तरह समस्त सुखों का अनुभव करले " ।
इस प्रकार माताके बचनों को सुनता हुआ ' जयसिंह' बालक बोला " हे मातः ! आलनोपकारी श्रीमहावीर देवने मुक्तिमार्ग में निबद्ध बुद्धि वाले पुरुषों के लिये तो गृहस्थावस्था महा पापका कारण दिखलाया है । अतएव मुझे तो ऐसे अगारवास की इच्छा नहीं है । वह स्त्री और वह नाटक-चेटक, सज्जन पुरुषों को वर्ष दायक नहीं होते हैं। मैं समस्त प्राणियों में अद्भुत अभयदान को देने की इच्छा करता हूं । हे अम्बे ! समाधियुक्त मन वाले महात्मा पुरुषों के मार्ग में चलने का मेरा बिचार है और उस मार्ग में संसार सम्बन्धी दुष्कर्म - व्यापार - प्रयासादिरूप आपत्तिएं सर्वदा नहीं है । 'अतएव मेरी तो यही इच्छा है कि तुम भी शीघ्रतया उत्सुक मन होजा । अर्थात् संयम स्वीकार करने में मेरी सहायता कर । इन वाक्यों को सुनकर और बालक का निश्चय बिचार जान कर एक दिन इस बालक को साथ में ले करके कोडिमदेवी ने सुरत जाने के लिये प्रस्थान किया । मार्ग में जगह २ देवदर्शन - गुरुदर्शन करते · हुए, त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा करते हुए और भावचारित्र को धारण करते हुए बहुत दिन व्यतीत होने के बाद यह लोग सूरतबन्दर में जापहुंचे । इस समय सूरत बन्दर में श्रीबिजयदानसूरीश्वर - बिराजते थे । अपने सुकुमार वयस्क बालक को साथ लेकर कोडिम देवी ने गुरु महराज को विधि पूर्वक प्रणाम किया । विनीत भावले हाथ जोड़कर कहने लगी । मेरी यह इच्छा है कि इस बालक के
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विजयप्रशास्तिसार । सहित आपके पास चरित्र ग्रहण करूं । आप हम दोनोंपर अनुग्रह करिये" । देवी के इस बचन को सुनकर और मनोहर प्राकृति युक्त बालक को देखकर गुरु महराज अपने प्रतःकरण में हर्षित हुए । इस ' जयसिंह ' बालक के मुख माधुर्थ में गुरु महाराज की दृष्टि बार २ स्थिति पूर्वक पड़ने लगी। इस बालक के प्रत्येक शरीर. बचन और गति इत्यादि को शास्त्रोक्त रीत्या देखकर गुरु महाराज ने सोचा कि यह बालक इस जगत में प्रभावशाली पुरुष होगा । पराक्रमी और अपूर्व कार्यों को करने वाला होगा। __ यह विचार करते हुए आपने दीक्षा देने का विचार निश्चय रक्सा । भाद्धवर्ग एक बड़ा भारी अठाह महोत्सव बड़ी धूम धाम से किया। जिसका वर्णन इस लेखनी की शक्तिसे बाहर है । दीक्षा के दिन अनेक प्रकार के प्राभूषणों से अलंकृत 'जयसिंह' कुमार हस्तिपर प्रारोहण होकर, शहर के समस्त मार्गों में परिभ्रमण करता हुमा और अतुलदान को देता हुआ गुरु महराज के पास पाया । नियत किये हुए स्थान में सं० १६१३ मिती ज्येष्ठ शुक्लए: कादशी के दिन शुभ मुहूर्त में ' जयसिंह कुमार' और उनकी माता कोडिमदेवी को दीक्षा दीगई । गुरु महाराजने 'जयसिंह' का नाम 'जयविमल' रक्खा । दीक्षा देने के अन्तर सूरीश्वर ने यह चातुमास सूरत में ही किया । यद्यपि इस समयमें जमसिंह (जयविमल) मुनि ही वर्ष के थे तथापि अपनी शुद्ध बुद्धि से उन्हों ने बज्रस्वामी की तरह शास्त्राध्ययन कर लिया । अर्थात गुरु महराज से कितनेही शास्त्र पढ़ लिये। . एक दिन भीविज़दानसूरीश्वर ने बिचार किया कि यह जयविमल विनयादि गुणोंसे विभूषित है, तीक्षणबुद्धि वाला है, उसम लक्षण पड़े हैं अतएव यह मुनि हीरविजयसूरि के पास में विशेष योग्यता
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चौथा प्रकरण। प्राप्त करेगा' बस्न । यही विचार हढ़ करके महाराज ने जयविमल को गुजरात जानेके लिये प्राक्षा दी। विहार करते हुए जयविमलको उ. त्तमोत्तम लाभ सूचक शकुन हुए । आप जगह२उपदेश दानको करते. हुए बहुत दिनों मे गुजरात जा पहुँचे । गुजरातमें भी अणहिलपुर पाटन, कि जहां भीहीरविजयसूरि जी बिराजते थे वहां गए । नगर में प्रवेश करने के समय भी जयविमल को बहुत कुछ अच्छ२ शुकन हुए । प्राचार्य श्रीहरिविजयसूरिजी के पाद पंकजमें नमस्कार करने के समय बड़े हर्ष पूर्वक जयविमल के मस्तकपर श्रीहरिविजय सूरिजी ने अपना हाथ स्थापन किया । इस लघुमुनि को देख कर समस्त मुनिमण्डल और शहर के लोगों को चित अपूर्व मानन्द अभिव्याप्त हो गया । सर लोग उनकी ओर देखने लगे । 'जयवि. मत' मुनि विनय पूर्वक श्रीहरिविजयसूरिजी से विद्या को ग्रहण करते हुए विचरने लगे। .
इधर भीविजयदानसूरिजी सुरत बन्दर से विहार करते हुए और अनेक जीवों को प्रतिबोध करते हुए 'श्रीपटपल्ली' नगरी में पाए। यहां पर मापने अपना अंत समय जाना । संयमरूपी शिखर में ध्वजतूल्य, और पाप को नाश करने वाली आराधना को किया
और अरिहंतादि चार शरणों का ध्यान करते हुए, और चार माहारों के त्याग रूप अनशन को करके श्रीविजयदानसूरीश्वर ने सं० १६२१ वैशाख शुक्ल द्वादशी के दिन देव लोक को भूषित किया । इस स्वर्गवासी सूरीश्वरकी भक्ति में लीन इस नगर के श्रीसंघने गुरु पादुका की स्थापना रूप एक स्तूप भी निर्माण किया ।
अब तपागच्छ रूपी आकाश में हीरविजयसूरि रूपी सूर्य का प्रकाश फैलने लगा। मारे गच्छका कार्य प्रापही में शिर पर पापड़ा।
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विजयप्रशस्तिसार । एक समय में हीरविजयसूरि की इच्छा सूरिमंत्र की प्राराधना करने की हुई, विहार करते हुए आप 'डीसा' शहर में पधारे जहां बड़े प्रास्तिक और धर्म-प्रिय लोग रहते थे। इस नगर में साधुस. मुदाय को पढ़ाने का, योग वहनादि क्रियाओं को कराने का और व्याख्यान इत्यादिके देने का कार्य श्रीजयविमल के ऊपर नियत करके श्रीहरिविजय सुरिजी ने त्रिमासिक सुरिमंत्र का ध्यान करना प्रारम्भ किया । एक दिन ध्यानारूढ़ सूरिमंत्र में तलालीन सूरिजी को जान कर सूरिमंत्रका अद्भुत अधिष्ठायक देवता सरिकी सामने उपस्थित हुवा और बोला “ हे भगवन् ! आपकी पाट श्रीजयविमलगणि के योग्य है । " इस प्रकार की देव बाणी को सुन कर प्राचार्य बहुत प्रसन्न हुए। हीरविजयसूरि जी जब ध्यान से मुक्त हुए तब इन्हों ने यही विचार किया कि-जय विमल नामके शिष्यशेखर को अपनी पाट पर स्थापन करना चाहिये । यह विचार आपने साधु-साध्वीभावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघके समक्ष सूचित किया। क्योंकि जब तक मानने वालों की रुचि और श्रद्धा न हो, तब तक भारीसे भारी पदवी हो तो भी उससे कुछ कार्य नहीं निकल सकता। प्राचीन काल में आज कल के समान नियम नहीं था कि चाहे कोई माने चाहे न माने, पर पदवी का विशेषण नाम में अवश्यही लगाया जाय गा । अब तो यह चाल है कि पदवीधर अपने को पदीयोग्य समझता है बस वह लम्बेर पद अपने नाम में लगा ही खेगा। चाह कोई उसकी माने या न माने । इससे बढ़ कर शोक की क्या घात होगी? धन्य है ऐसे महात्मामों को कि जो सच्चे पदवी धर होने पर भी अपने को कभी आपसे 'मुनि' शब्द का विशेण भी नहीं लगाते हैं।
हीर विजयसूरि जी के विचार का समस्त संघने सानंद अनु.
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चौथा प्रकरण |
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मोदन दिया। इसके बाद ' डीसा ' नगर से आपने शिष्यमण्डल के साथ विहार किया ।
जयसिंह मुनिने श्रीहीर विजयसूरिजी से स्व-परशास्त्र भी अपने . स्वाधीन कर लिए । इन्हों ने व्याकरण सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ पढ़ने के साथ ही काव्यानुशासन - काव्यप्रकाश-वाग्भट्टलिंकार - काव्यकल्पलताछन्दानुशासन- वृत्तरत्नाकर श्रादि ग्रन्थों का भी अभ्यास किया । न्याय शास्त्र में स्याद्वादरत्नाकर - ( यह ग्रन्थ अणहिलपुरपाटन में राजा सिदराज जयसिंह के समक्ष ' कुमुदचन्द्र ' नाम के दिगम्बर आचार्य के साथ बिवाद करके 'जयवाद' प्राप्त करने वाले श्रीदेवसूरि ने बनाया है) अनेकान्त जयपताका रत्नाकरात्रतारिका प्रमाणमीमांसा न्यायाबतारस्याद्वादकलिका, एवं सम्मतितर्कादि जैन न्यायग्रन्थ तथा तत्वचिंतामारीकिरणावली प्रशस्तपादभाष्य इत्यादि अन्य शास्त्रों का अभ्यास करके दिग्गज पाण्डित्य को प्राप्त किया । श्रीहीरविजयसूरि विहार करते हुए जब स्तम्भतीर्थ पधारे, तब नगर में रहती हुई एक 'पुनी' नामकी भाविका ने बहुत द्रव्य का व्यय करके सुन्दर रचनापूर्वक श्रीजीने. श्वर भगवान् की प्रतिष्ठा करवाई। इस नगर के लोग ' जयबिमल के पारिडत्य को देख करके चकित होगये । ' योग्य पुरुषकी योग्यता पहचानना और योग्य का योग्य सत्कार करना, यह भी सज्जन लोग अपना परम धर्म समझते हैं ।' ' जयविमल' की योग्यता को देख करके समस्त श्रीसंघने सूरिजी से प्रार्थना की कि 'महाराज ! बड़े विद्वान्र तेजस्वी जयचिमल मुनीश्वर को ' पण्डितपद' प्रदान करना अच्छी बात है' । ' इष्टं वैद्योपदिष्टं ' इस न्यायानुसार सूरीश्वर ने अपना वि चार दृढ़ किया । इसके वाद सं० १६२६ मिती फाल्गुन शुक्ल दशमी के दिन त्यागी वैरागी और विद्वान् 'जयत्रिमल ' को आपने 'पारस' उपाधि से भूषित किया ।
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- . • विजयप्रशस्तिसार । .: कुछ दिन के पश्चात् स्तम्भतीर्थ से सूरीश्वर ने अपने शिष्य मण्डल के सहित विहार किया। और विहार करते हुए अहम्मदावाद सापहुंचे । अहमदाबाद के समीपवर्ती अहम्मदपुर नाम के शाखापुर में आपने निर्विघ्नसे चातुर्मास समाप्त किया। एक दिन भीहीरविजय. सूरिजी रात्रि में पोरसी पढ़ाकर गच्छविषयक चिंता करते हुए सोगये । उस समय एक अधिष्ठायिक देव आकरके कहने लगा 'हेसूरीश्वर ! इस जयविमल पण्डितको ‘पट्टप्रदान करने में आपकी क्यों अनु. त्सुकता मालूम होती है ? हे पूज्य ! यह पट्टधर श्रीमहावीर परमामाकी पाटपरंपरा में एक 'दिवाकर ' होगा, इतने शब्द कह करके वह देव अदृश्य होगया। - इसके पश्चात् बाचक-उपाध्याय पण्डित-गितार्थ प्रमुख समस्त. मुनिगण ने नमूता के साथ प्राचार्य महाराज से प्रार्थना की 'हेप्रभो ! श्रीसंघ की इच्छा श्रीजयविमल पण्डित को 'प्राचार्य ' पद पर स्था. प्रन करने की है । और वह इच्छा जैसे बने शीघ्र कार्य में परिणत होनी चाहिये ।' देववाणी संघवाणी और अपना अभिप्राय यह तीनों की ऐक्यता होने से प्राचार्य महाराज ने कहा " एपमस्तु !" तदनन्तर अहम्मदाबाद के श्रीसंघ के अत्याग्रह से, सूरिजीमहाराजने शहर में प्रवेश किया । प्रवेश होने के बाद ही 'आचार्य' पदबी के निमित्त एक महोत्सव श्रीसंघकी तर्फ से आरम्भ हुआ । इस समय में इस नगर के नगर शठ, गृहस्थ धर्मप्रतिपालक, श्रेष्ठी 'श्रीमूलचन्द्र' ने विचार किया कि-न्यायोपार्जित द्रव्य के फल अहत्प्रतिष्ठा करना, जिनचैत्य, जिन पूजा, गुरुभक्ति और शानप्रभावना ही धर्मशास्त्रों में कहे हुए है । अतएव उन फलों को शक्त्यनुसार मुझको भी प्राप्त करना योग्य है । मैने श्रीशत्रजयतीर्थ में श्रीऋषभदेव भ. गवान के प्रसाद की दक्षिण और पश्चिम दिशा में एक चैत्य बनवाया
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चौथा प्रकरणा। है। उसी प्रकार यह अवसर भी मुझे अपूर्व ही प्राप्त हुआ है। इस लिए इस कार्य में भी कुछ लक्ष्मी का व्यय करके योग्य फल प्राप्त करू । ऐसा अवसर पुनः नहीं प्राप्त होता है।
जिस के अन्तःकरण में ही ऐसे भाव उत्पन्न हो गए, वो क्या नहीं कर सकता है । इस श्रेष्ठीने इस समय में दान शालाएं खुल- . वा दी । स्वामीवात्सल्य करना प्रारंभ किया। मंगलगीत गाने बालों को बैठा दिया । घरघोडे निकालने प्रारम्भ किए । कहां तक कहा जाय ?। इन्होंने बहुत द्रव्यों को लगा कर इस महोत्सव की अपूर्व शोभा बढ़ा दी । इस प्रकार के महोत्सव पूर्वक संवत् १६२८ मिती फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन शुभ मुहूर्त में 'जयविमल' को प्रथम उपाध्याय पद पर स्थापन करके तुरन्त ही 'आचार्य' पद दिया गया। इस नव रिका नाम श्रीहीरविजय सूरीश्वर ने 'भीर विजयसेनसूरि' रक्खा । इस 'प्राचार्य' पदरी के समय में और भी बहुत से मुनिराजों को पदवीएं मीली । जैसे कि श्री विमलहर्ष पण्डित को 'उपध्याय' पद , पद्मसागर-लब्धिलागर श्रादि को 'पण्डित' पद इस्यादि । इस महोत्सव पर उपस्थित समस्त देशों के लोगों को एक-एक रुपये की प्रभावना की गई, और याचक लोगों को भी द्रव्य-वस्त्रादि से दान दिया गया। ___यह दोनों गुरू शिष्य (प्राचार्य) श्रीतपागच्छ रूपी शकर के प्रतिभाशाली चक्र को चलाने वाले हुए । प्राचार्य पदवी होने के बाद कुच्छ रोज तो आपका वहां ही रहना हुआ । तदन्तर लोगों को धर्मोपदेश देते हुए विचरने लगे । जिस समय में यह दोनों विद्वान सूरि धर्मोपदेश करते हुए विचरने लगे, उस समय कुतीर्थयों का प्रचार अनेक स्थानों से उठ गया और उनकी स्वार्थ लीलय की महिमा अधिकांश में कम हो गयी।
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विनयत्रशस्तिसार |
जिस समय में श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी, श्रीविजयसेनसूरी श्वर के साथ में गुजरात देश में विचरते थे। उस समय में एक अभूतपूर्व बात देखने में आई ।
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लुम्पाकमतका अधिकारी मेघजी नाम का एक विद्वान् था स्वयं शास्त्र देखने से जिन प्रतिमा को देख कर अपने अन्धत्व को दूर करने की वाञ्छा थी । श्रीदीरविजयसूरि प्रभृति इस बात को सुन करके बड़े हर्षित हुए। और इस बात को सुन करके श्रीविजय सेनसूरि इत्यादि पुनः अहम्मदाबाद पधारे। श्रीसूरीश्वरों के आने के बाद 'मेघजी' ऋषि अपने सत्ताइस पण्डितों के साथ, श्री सूरिजी के सन्मुख उपस्थित हुआ । लुपाक मनको त्याग करके श्रीसूरीश्वर के सत्योपदेश को उसने ग्रहण किया । सूरीश्वर ने इन 'मेघजी ऋषि' आदि की इच्छा से इन लोगों को बड़े महोत्सव के साथ नवीन शैक्षत्व में स्थापित किया । मेघजी ऋष आदि श्रीश्रा चार्य के साथ में शास्त्राध्ययन को करते हुए, बड़े विनयभाव ले रहने लगे। इससे लोगों को और हो आनंद होने लगा ।
कुछ समय के उपरान्त अहमदाबाद से विहार करके आचार्यउपाध्याय - पंडित एवं मेघजी आदि समस्त मण्डल के साथ में बिचरते हुए श्रीहरिविजयसूरिजी 'अणहिलपुर' पाटन आए । आपने चातुर्मास भी यहां ही किया । चातुर्मास समाप्त होने के बाद सं-१६३० मिती पोष कृष्ण चतुर्दशी के दिन अपने पाटघर श्रीविजयसेनसूरि को गच्छ की सारणी-वारणा
'पडिचोयणा प्रदान अर्थात् गच्छ ऐश्वर्य के साम्राज्य की आज्ञा (अनुमति) दी | इस कार्य के ऊपर इस नगर के लोगोंने बड़ा भारी उत्सव किया । जिस अवसर पर मरु - मालव- - मेदपाठसौराष्ट्र-कच्छ - कोकण आदि देशों से हजारों लोक एकत्रित
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चौथा प्रकरण । हुए थे । श्रीविजयसेनसूरि गच्छ की समस्त अनुज्ञा अर्थात् गच्छ सम्बन्धी समस्त अधिकार प्राप्त करके और भी अधिक शोभाय. मान हुए । जिस समय हीरविजयसूरिजी ने विजयसेनसूरिको गच्छ संबन्धि अनुज्ञा दी उस समय में हीरविजयसूरिजी ने यही शब्द कहे "हे महानुभाव ! इस गच्छका आधिपत्य और गच्छकी अनुशा के साथ में तेरा संबन्ध हो" और आजन्मपर्यन्त गच्छ को तेरा वि. योग कदापि न हो । विजयसेनसूरि के गच्छकी अनुज्ञा को प्राप्त करने के बाद चारित्र के मूल बीज रूप गच्छ की सम्पत्ति दिन प्रति. दिन बढ़ने लगी।
एक दिवस गच्छ का पूर्ण प्रबन्ध निर्वाह करने में कुशल और सर्व प्रकार के विचार करने में समर्थ अपने शिष्य (प्राचार्य) को देख करके श्रीहीरविजयसूरि अपने मनो मन्दिर में विचार करने लगे कि यह बिजयने नसूरि यदि मेरेसे पृथक् बिहार करे तो बहुत देशों के भव्यों को पवित्र करने में भाग्यशाली बन सके और उसकी पदवी का गौरव भी बढ़ सके । इस प्रकार के विचार का निश्चय करके आपने भीबिजयसेनसूरि को पृथक बिहार करने की प्राज्ञा दी। इस पाझारूपी माला को अपने कण्ठ में धारण करके श्रीवि.. जयसेनसूरि विचरने लगे। बिचरते २ किसी रोज'चम्पानेर' न. गर को इन्हों ने प्राप्त किया। इस नगर में एक 'जयवंत' नाम का श्रेष्ठी रहता था। इसने बहुत द्रब्य का ब्यय करके श्रीविजय. सेनसूरिके पास सं० १६३२ बैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन प्रतिष्ठा करवाई। ___ यहां से विहार करके सूरीश्वर 'सुरतबन्दर' आए । नगर के लोगों ने एक बड़ा प्रवेशोत्सव किया । चातुर्मास यहां ही किया। सूरीश्वर की कीर्ति चारों भोर फैल गई। यहांपर एक 'भीभूषण'
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३० . विजयप्रशस्तिसार । नाम का पंडित रहता था । उसको सूरि महोदय की यह कीर्ति बड़ी असह्य हुई । एक दिन ऐसाही हुआ कि इस नगर के समस्त श्री. संघ तथा श्रीमिश्र आदि अनेक अन्यमतानुयायी पखितों की सभा में श्रीविजयसेनसूरिका 'भीभूषण' पण्डित के साथ शास्त्रार्थ हुआ। कहना ही क्या है। शेर के सामने शृगाल कहां तक जोर कर सकता है ? थोड़े ही प्रश्नोत्तरों में श्रीभूरण, पण्डित, मूक हो. गए । प्राचार्य महाराज की बिजय हुई। श्रीभूषण पण्डित अनेक जैन पण्डित और ब्राह्मण पण्डितों की सभा में मूर्ख की तरह इसी के पात्र हुए । श्रावक वर्ग एवं नगर के और २ लोगों ने श्रीविजय
नसूरि का अधिक सन्मान किया। . अब आप सुरत बन्दर में अनेक प्रकार से जैन धर्म की विजय पताका को फहराते हुए वहां से बिहार करके पृथ्वी तलको पावन करते हुए पुनः गुजरात के पत्तन नगर में पधारे और चातुर्मास यहां ही किया।
पांचवा प्रकरण। .
हा
(श्रीहीरविजयसूरि और अकबरबादशाह का समागम,
हीरविजयसूरि के उपदेश से अकबर बादशाह का __ 'अहिंसा' पर अनुराग होना और अपने राज्य . . में बारह दिन हिंसा कोई न करे इस प्रकार का फरमान पत्र लिखना
इत्यादि ।) इस समय राजा अकबर, जो कि बड़ा प्रसिद्ध मोगल सम्राट होगया, राज्य करता था। इसकी मुख्य राजधानी 'मामा' नगर
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ZAROO
जगद् गुरू श्री हीर विजय सूरि का अकबर बादशाह को धर्मोपदेश देना।
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पांचवा प्रकरण।
३१ में थी। लेकिन यह राजा अधिकतया 'फतेपुर' (सिकरी ) में रहता था। राजा अकबर का राज्य चारों दिशाओं में फैला हुआ था। यह वही प्रकवर है जो कि हुमाऊ का पुत्र था। एक समय की बात है कि अनेक राजामों से नमन कराता हुआ यह अकबर बादशाह धर्माधर्म की परीक्षा करने लगा । जिससे परलोक की संम्पत्ति प्राप्त हो, उस प्रकार का पुण्य जिस मार्ग में हो उस मार्ग की परीक्षा करने में परीक्षक हुभा। इतना ही नहीं, किन्तु प्रत्येक दर्शन के धर्म गुरुमों से मिलना भी इसने भारम्भ किया । राजा मकबर बौद्धादि पांच दर्शनों के धर्म गुरुओं से साक्षात कर चुका, किन्तु अपने २ मतके अभिप्रायों को स्पष्ट रूप से स्थापित करके
आत्मा का प्रियमार्ग बतानेवाला इन पांचो दर्शनों के गुरुओं में मे किसी को नहीं पाया । जब राजा ने कोई भी मनोश मुनिको यथार्थ रूप में नहीं देखा तब उदास होकर चुप बैठा।
एक दिन 'अतिमेतखान' नामक किसी पुरुष से राजाने सुना कि इस जगत् में मनोहर भाकृति वाले, सत्यवचन को कहने वाले, महा बुद्धिमान, समस्त शास्त्र के पारगामी 'श्वीहीरविजयसूरि' नामके मुनीन्द्र हैं । सूर्य को तरह वह भी एक प्रतिभाशाली पुरुष है । इस . प्रकार की जब प्रशंसा सुनी तब राजा ने बड़े उत्साह से पूछा कि " वह इस बस्त कहां हैं?" अतिमेतखान ने कहा कि महाराज! घे सूरीश्वर इस बख्त गुजरात देश में भव्यजीवों को मुक्ति मार्ग दिखा रहे हैं। इस प्रकार निष्कपट बचन सुन करके राजा बहुतही प्रसन्न हुमा । तदनन्तर राजाने भीहीरविजयसूरीश्वर को बुलाने के लिए एक पत्र लिख कर अपने ‘मेवड़ा' नामक मनुष्यों के हाथ 'अकमिपुर में स्थित श्रीवस्त्रान नामक शाही के पास भेजा। उन्होंमे जाना कि भीहीरविजयसूरि इस समय गन्धारबन्दर में हैं।
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विजयप्रशस्तिसार । पेसा जान करक उन्ही लोगों को वहाँ भेज दिया। जब यह लोग वहां पहुँचे तो उनके मुखसे राजा अकब्धर का बुलावा सुन कर सूरीश्वरादि सब कोई परमासन्न हुए । राजा का पत्र पढ़ा । और इस के बाद सूरश्विर ने वहां जाने का विचार निश्चय रखा।
चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी के दिन शुभ मुहूर्त में श्रीसूरीश्वर ने गन्धारबन्धर से बिहार किया। 'स्थानर में, नगर२ में उत्तमोत्तम महोत्लवपूर्वक राजा-महाराजाशेठ शाहूकार सभी से परम सन्मानित होते हुए और जिज्ञासुओं को संसार सागर से पार उतरने का मार्ग दिखाते हुए और स्वस. मुदाय को ज्ञानाभ्यास कराते हुए, गुजरात, मेवाड़-मालवा आदि देशों में होकर श्रीमुनिराज श्रीफतेपुर ( सीकरी), कि जहां अकब्बर बादशाह रहता था, वहाँ पधारे। .
सं-१६३६ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के रोज प्रातःकाल में सूरीश्वर ने पुर प्रवेश किया। इस प्रवेशोत्सव के समय में लोगो ने बहुत कुछ दान किया । इन लोगों के दानों में 'मेडता' के रहने वाले 'सरदारांग' नामक श्रावक ने जो दान किया वो सबसे बढ़ कर था। नगर प्रवेश के पश्चात् सूरीश्वर ने विचार किया कि-अय पहिले अकबर बादशाह से मिलना अच्छा है । राजा को मिलने का समय निश्चय करके सैद्धान्तिक शिरोमणि, वाचक श्रीविमज वर्ष गणि-अष्टावधान शतावधानादि शक्ति धारक याचक श्रीशान्ति चन्द्रगणि-पंण्डित सहजसागरगणि-पण्डित सिंहविमरतगणिवक्तृत्व कवित्वकलावान् पण्डित हेमविजयगणि-वैयाकरणचूडामणि पण्डित लाभविजयगणि और गुरुप्रधान श्रीधनविजयगणि प्रमुम्न तेरह मुनि तथा श्रीथानसिंघसा-श्रीमानसिंघसा-कल्याण सा आदि अनेक श्राद्ध वर्ग को साथ लेकर श्रीहीरविजयसूरीश्वर
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पांचवा प्रकरण। भीमब्बरबादशाह की राजसभा में पधारे । इन विद्वमण्डलीको देखते हुए सारी सभा हर्षित होगई। स्वयं अकबरबादशाह ने वि. नयपूर्वक सामने जाकर के सुस्वागत पूछने के साथ श्रीहीरविजय. सूरीश्वर के पादद्वय में नमस्कार किया । इस समय की शोभा को कौन वर्णन कर सकता है ? नमस्कार करने के समय में श्रीसूरीश्वरने, सकलसमृद्धि को देने वाली किन्तु यावत् मोक्षफल को देनेवाली ‘धर्मलाभः' इस प्रकार की प्राशिष देकरके राजा को सन्तुष्ट किया । (जैनमुनि लोग किसीको आशिष देते हैं तब 'धर्मलाभोऽस्तु ' यही शब्द कहते हैं । )
अकब्बरवादशाह की राजसभा में जिस समय हीरविजयसूरि जी पधारे और जब अकबरबादशाह की भेट हुई, उस समय क्या हुआ ? इस विषय में जगद्गुरु काव्य के प्रणेता पक श्लोक से कहते हैं कि:
चंगा हो गुरूजीतिवाक्यचतुरो हस्ते निजं तत्करं कृत्वा सूरि वरान्निनाय सदनान्तर्वस्त्ररुद्धाङ्गणे । तावच्छ्री गुरवस्तु पादकमलं नारोपयन्तस्तदा । वस्त्राणामुपरीति भूमिपतिना पृष्ठाः किमेतद् गुरो । अकबरने पूछा-"गुरुजी ! चंगे तो हो ?” फिर उनका हाथ पकड़ कर उन्हें महलों के भीतर लेगया । और विछौने पर विठाना चाहा,परन्तु सूरीश्वरने वस्त्रासन पर पैर रखने से इनकार किया। इस पर अकबर को प्राश्चर्य हुआ । और सूरिमहोदय से उसने इसका कारण पूछा । जैन शास्त्रों में इस तरह बिस्तर पर बैठने की आक्षा नहीं है, इत्यादि बाते जब अकबरने सुनी तब उसे और भी आश्चर्य हुआ। ..
अकबरबादशाह के नमस्कार करने के बाद, शेखुजी-पाहुड़ी
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विजयप्रशस्तिसार । और दानीबार नाम के तीन पुत्र एवं सभा माए हुए समस्तलोगों में भूमि स्पर्श करके नमस्कार किया। समस्त सभा के शान्त होने के बाद 'मेवड़ा' नामके एक पुरुषने सूरीश्वर के प्राचारादि नियम जैसे कि-नित्य एक ही दफे माहार करना, सूर्य की विद्यमानता ही में विचरना, याचना किप हुए स्थान में निवास करना, एक महीने में कम से कम ६ उपचास अवश्य करना, आठ महीने भूमि पर सोरहना, गरम पानी पीना, इक्का-गाड़ी-आदि किसी वाहन में न बैठना, इत्यादि बहुत से नियम सुनाये । इस नियमों को सुनते ही लोगों के रोम हर्षित होगये।
प्रिय पाठक ! क्याही प्राचार्य की प्राचारविशुद्धता थी? शा. सन के रक्षक, प्रभावशाली और धुरंधर आचार्य होने पर इस प्रकार की उन तपस्या करना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ? किन्तु यह कहना चाहिये कि उन महात्मा के अतःकरण में सम्पूर्ण वैराग्य भरा हुआ था । वह यह नहीं समझते थे कि अब हम प्रा. चार्य होगये हैं, अब तो हमे हरजगह शास्त्रार्थ करने पड़ेंगे । धादिओं के साथ वाद विवाद करने पड़ेंगे । इस लिए जीभर के पुष्ट पदार्थ रोज उड़ावें । किन्तु उन महात्मापुरुर्षों में इस प्रकार के स्वार्थ का लेश भी नहीं था। पाठक ! उनलोगों के रोमर में वैराग्य भरा हुआ था। वह लोग जो उपदेश देते थे वह सच्चे भाव से देते थे और इसी लिए तो उन लोगों का उपदेश सफल होता था। उन लोगों का ‘धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय' ऐसा सिद्धान्त नहीं था। साथही साथ वह यह भी समझते थे कि यदि हम सच्चे प्राचार में नहीं रहेंगे । यदि हम जैसा उपदेश देते हैं वैसा बर्ताव नहीं करेंगे तो हमारी संतति कैसे सुधरेगी? हमारी संतति पर कैसे अच्छा प्रभाव पड़ सकता है?
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पांचवा प्रकरण।
३५ इसके उपरान्त राजा और सूरीश्वर दोनों क्षमापति एकान्त स्थान में विचार करने को बैठे । इस अवस्थामै स्थिर बुद्धि होकर राजा में भीहरिविजय सूरीश्वर से 'ईश्वर का स्वरूप' पूछा । सूरी. श्वरने भी बड़ी गंभीरता के साथ परमात्मा का स्वरूप, जिस तरह सिद्धसेनदिवाकर-कलिकाल सर्वज्ञ भीहेमचन्द्राचार्य प्रभु आदि पूर्वाचार्यों ने वर्णन किया है उसके अनुसार आपने भी कथन कहकर राजा को समझाया। इस विवेचन को आदर पूर्वक सुनता हुआ राजा भत्यन्त तुष्टमान-प्रसन्न हुआ । इसके पश्चात् राजा ने अपने राज्य में रक्ने हुए जैनागम, (अंगोपांग-मूलसूत्रादि) तथा भागवत-महाभारत-पुराण-रामायणादि जो शैवशाख थे वह सब श्रीसूरीश्वर को दिखलाए । और विनय पूर्वक कहा कि-"यह सब पुस्तके आप ग्रहण करिये"। इस प्रकार के वाक्य कह कर वह ग्रंथ सूरीश्वर को भेट करने लगा । राजा का बहुत प्राग्रह होने पर भी सरिजी ने स्वीकार नहीं किये । तब राजाने स्याग किये धुए पुस्तकों में भी मुनिराज का निर्ममत्व देखकर अपने मनमें विचारा कि "महो ! यह मुनिमतंगज पुस्तक को भी ग्रहण नहीं करते हैं तो मैं जो धन-काञ्चन देने को विचार कर रहाहूँ उन सध पदार्थों को यह कैसे ग्रहण करेंगे।" जब पुस्तक सूरीश्वर ने नहीं प्रहणी तब सब पुस्तके अलग रस्त्रवादी अर्थात् राजा खुन इनसे मुक्त होगया। वह सब पुस्तके मकबर बादशाह' के नाम से माना के एक भंडार में भेज दी गाँ। . राजाने बड़े समारोह के साथ सूरीश्वर को उपाश्रय में पहुँचा. था। जब शाहीमन्दिर से विदा होकर मुनीपुङ्गव राजद्वार प्रतो. स्ली में होते हुए चलने लगे, उस समय की शोभा को देख करके भास्तिक लोग मन में कहने लगे, क्या आज महावीर जन्म राशी
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४ . विजयप्रशस्तिसार । सं 'भस्म नामका दुग्रह उतरा है ? । इस समय में राजा ने अनेक याचकों को दान दिये । और गीत-वादित्र की भी सीमा नहीं रक्सी।
कुछ काल 'फतेपुर में ही रह करके वहां से विहारं कर सूंरीश्वर आगरा पधारे । आगरा बादशाह की राज्यधांनी थी। चा. तुर्मास आपने पाने में ही किया । अकबर बादशाहने अपनी सभा में इन शब्दों में सूरीश्वर की प्रशंसा की कि “धर्मकर्तव्य रूप क्रिया में मोर सत्य भाषण करने में तत्पर ऐसे किसी अन्य मुनि को मैने आज तक नहीं देखा है " आने में रहे हुए गुरु महाराज की अद्भुत महिमा को सुन करके राजा अतीव हर्षित हुमा । उ-. सने पर्युषणा पर्व के दिवसों में अपने राज्य में डुग्गी पिटवाकर यह
आशा प्रचारित करा दी कि प्रजा का कोई मनुष्य जीव हिंसा ने करे।
चातुर्मास समाप्त होनेपर कुशावर्त देशमें पधारकर 'शौर्यपुर' नगर में श्रीसूरिजी नेमीश्वर की यात्रा करने को चले । यात्रा करके पुनः मागरे में पधारे। यहां पर आपने श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की। तदन्तर यहां से बिहार करके पुनः फतेपुर (सिकरी) पधारे। जहां कि अकबर बादशाह रहता था।
गुरू महाराज का अपने नगर में भागमन सुन करके बादशाह अकबर बड़ा हर्षित हुआ और उसने मिलने की अभिलाषा प्रगट की । सूरीश्वर भी पुनः राजाको धर्मोपदेश देने को उत्सुक हुए । जप राजाने सूरीश्वर को बुलाने के लिये प्रादमी भेजे नब सामान्य मुनियों को उपाश्रय में ही रख करके केवल सात विद्वानों को साथ में लेकर मुनिराज राज दरबार में पधारे । इस समय सूरीश्वर ने बहुत प्रसन्न होकर राजा को उपदेश दिया । इस उपदेश का यहां
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पांचवां प्रकरया |
३७ तक प्रभाव पड़ा कि :- राजाने अपने राज्य में बारह दिन तक (भावण वदी १० से भादों सुदी ६ तक ) समस्त जीवों को अभयदान देने का फरमान पत्र लिख दिया और इस फरमान पेत्र का प्रचार अपने कर्मचारियों से सारे राज्य में करा दिया ।
अकबर के इस फरमान का अनुबाद मालकंन साहब ने अपनी पुस्तक में दिया है । हम ज्यों का त्यों प्रकाशित करते हैं:
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IN THE NAME OF GOD, GOD IS GREAT. "FIRMAN OF THE EMPEROR JALALODEN MAHOMED AKBAR SHAH, PADSHA, GHAZEE.
"Be it known to the Moottasuddies of Malwa, that as the whole of our desires consist fu the performance of good actions, and our virtuous intentious are constantly directed to one object that of delighting and gaining the hearts of out subjects, etc. "We on hearing mention made of persons of any religion or faith, whatever, who pass their lives in sanctity, employ their time in-spiritual devotion, and are alone intent on the contemplation of the Deity, shut our eyes on the external forms of their worship, and considering only the intention of their hearts, we feel a powerful inclination to admit them to our association, from a wish to do what may be acceptable to the Deity. On this account, having heard of the extraordinary holiness and of the severe penances performed by Hirbujisoor and his disciples, who reside in Guzerat, and are lately come from thence, we have ordered them to the presence, and they have been ennobled by having permission to kiss the abode of honour.
tr
After having received their dismissal and leave to proceed to their own country, they made the
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विजयप्रशस्तिसार।
following request: – That if the King, protector of the poor, would issue orders that during the twelve days of the month Bhodon, called Putchoossur ( which are held by the Jains to be particularly holy), no cattle should be slaughtered in the cities where their tribe reside, they would thereby be exalted in the eyes of the world, tue lives of a number of living animals would be spared, and the actions of His Majesty would be acceptable to God; and as the persous who made this request come from a distance, and their wishes were not at variance with the ordinances of our religion, but on the contrary were similar in effect with those good works prescribed by the venerable and holy Mussalman, we consented, and gave orders that during those twelve days called Putchoossur, no animal should be slaughtered.
___" The present Sunnud is to endure for cver, and all are enjor ined to obey it, and use their endeavours that no one is molested in the performance of bis religious ceremonies.
Dated the "th. Jumad-ul-Sani, 992, Hijirah
इसके उपरान्त सूरीश्वर के उपदेशसे कारागार से कैदी लोगों को छोड़ दिया। तथा दृढ़ पञ्जर से पक्षी समूहों को भी छोड़ दिया । राजा ने सूरीश्वर के सामने यह भी कहा कि इस भूमि में जहां तक मेरा आधिपत्य है वहांतक कोई पुरुष मीन मकरादि ज. तचर प्राणियों को भी नहीं मारेगा । यह कहकर राजा ने 'सीकरी के पास 'डाबर' नामका सरोबर जो कि तीन योजन प्रमाण का था, बंद कराया । इस सरोवर से राजा को बहुत द्रव्य की आमदनी होती थी।
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छठा प्रकरण । . उपयुक्त वारह दिनके सिवाय ' नवरोज का दिन '-' रविवार का दिन ' 'फरबरदिन महिने के .पहिले अठारह दिन''अधीज महिना सारा' इत्यादि दिनों में भी कोई हिंसा न करे, ऐसा फर• मान पत्र अपने राज्य में प्रचार किया था। तथा इस समयमें राजा ने श्रीहरिविजयसूरि जी को 'जगद्गुरु ' एसी उपाधि दी थी। यह सब बात ग्रन्थान्तरों से ज्ञात होती हैं।
इस प्रकार बहुत से कार्यों को कराते हुए श्रीसूरीश्वर ने इस साल का चातुर्मास फतेपुर में ही किया । यहांपर चातुर्मास करले से बादशाह को भी बहुत कुछ लाभ की प्राप्ति हुई।
छठवांप्रकरण।
(विजयसेनसूरि व उनके शिष्यका खरतरगच्छ वालों से शास्त्रार्थ, खरतरगच्छ वालों का परा जय होना और राजा खानखान से विजय
सेनसूरिकी मुलाकात-इत्यादि) इधर पूज्यपाद श्रीविजयसेन सूरीश्वरजी भ्रमर की तरह प्रामानुग्राम विचरते हुए, दो चातुर्मास अन्यत्र करके तृतीय चातुर्मास पचन में करने की इच्छा से सं-१६४२ के वर्ष में पुनः पत्तन'नगर में
यहाँ पाने के बाद पाचक धर्मसागर के बनाए हुए " प्रवचन पर" में सवारगम्य बालों से घरीघर का शास्त्रार्थ हुआ। बह विषाद लगातार चौदहरोज तक राजा की सभा होता रहा। अन्तमें चौदवे दिन सूरिशेखर श्रीविजयसेनसूरि का जय और बरतरगच्छ के आचार्य का पराजय हुआ । स्वरतरगच्छ वाले बड़े रुष्ट होगए ।
A.A
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विजयप्रशस्तिसार । इस शास्त्रार्थ में खरतरगच्छ वालों की जब दाल न गली तब अ. हमदाबाद जाकर के कल्याणगज नामक एक नृपाधिकारी का प्रा. भय लेकर खरतरगच्छ वालों ने श्रीविजयसेनसूरि के एक शिष्य के साथ में वड़ा भारी विवाद उठाया । यह विवाद भी 'खान खान' वामक महाराजेन्द्र की सभा में सामन्तादिक राजलोक तथा नगर के बड़े २ लोगों के सामने हुमा। इस बिबाद में भी अनेक शास्त्रों में प्रवीण, बुद्धिमान और तेजस्वी शिष्य ने कल्याणराज का और
औष्ट्रिक मतके अनुयायी संघ का बिभ्रम दूर कर दिया। इस प्रकार जय को प्राप्त करने वाले मुनि का बड़ा सत्कार किया और बड़ी जयधनि के साथ सब शास्त्र धूम धाम से अपने स्थान पर लाए गए । जैसे जल में तेलका बिंदु फैल जाता है, उसी तरह यह जय ध्वनि चारों ओर फैल गई। रवि के उदयसे कोक पक्षी तो मानंदित होता है । किन्तु उलूक को तो अप्रीति ही होती है। एवं रीत्या इस जैन शासन की उन्नति से तपगच्छीय श्रीसंघ को तो बड़ा आनंद हुआ किन्तु अन्य कुतीर्थियों को बड़ाही हार्दिक कष्ट हुमा । इस जय ध्वनिने जब हमारे श्रीषिजयपेनसूरीश्वर के कर्ण में प्रवेश किया, तब इस सूरीश्वर का अन्तःकरण बड़ाही प्रसन्न हुवा । प्रापने शीघ्र अहमदाबाद माने का विचार किया और पत्तन नगर से बिहार करके लोगों को उपदेश देते हुए आप थोड़े ही दिनों में अहमदाबाद पधारे।
आपके आगमन से नगरके समस्त लोग आनंदित हुए । लोगों ने शहर के सम्पूर्ण मार्ग में अच्छी २ सजावटें की। बड़ी धूमधाम के साथ सूरीश्वर का प्रवेशोत्सव किया । इस प्रवेशोत्सव में राजा ने भी हाथी, घोड़े, रथ आदि बहुतसी सामग्री सामिल की । इस अभूतपूर्व बरघोड़े के साथ श्रीविजयसेनसूरीश्वर ने नगर के सर
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छठा प्रकरणा।
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मस्त लोगों को दर्शन देते हुए उपाय को अलंकृत किया । भाद धर्ग की स्त्रियों ने सुवर्ण की चौकियों पर हीरा माणिक, मोती इ. स्यादि के साथीए और नंदावर्त वना२करके बड़ी श्रद्धा से सूरीश्वर की पूजा की । श्राद्ध वर्ग ने अतुल द्रव्य का ब्यय करके शान पूजा प्रभावना इत्यादि किए। श्रीसंघ में स्वामी वाल्सल्य होने लगे। सूरी. श्वर की धर्मदेशना से हजारों लोग कर्मक्षय करने लगे और सूरी श्वर के प्रताप से इनकी कीर्ति भी चारों ओर फैल गई।
इस कीर्ति को सुन कर श्रीखानखान राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और श्रीसूरीश्वरमहाराज के दर्शन करने की उसकी प्रबल इच्छा हुई। उसने आदर सत्कार के साथ अपने सेवकों को भेज कर सूरीश्वर को राजसभा में बुलाये । सूरीभर भी अपने बिद्वान् शिष्यों को साथ लेकर सभा में पधारे । वहां जाकर सूरिजीने समयोचित श्रीसर्वशभा. षित धर्मप्रकाश किया। इस धर्मोपदेश को सुनते ही सारी सभा प्रसन्न होगई । और धर्मोपदेश को सुनकर राजा को यही कहना पड़ा कि "इस कलियुग में यदि कोई धर्म मार्ग प्रशस्य है तो यही मार्ग है जो श्रीसूरीश्वरजीने प्रकाश किया है" । राजा के मुखार्षिद से इस प्रकार के वचन निकलने से श्रीसूरीश्वर की महिमा की कोई सीमा ही नरही । राजा के प्रत्याग्रह से सूरीश्वर ने इस सालका चातुर्मास इस राजनगर में ही किया । इसले राजा के मन में बहुत ही गौरव उत्पन्न हुआ। .
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BAN
विजयप्रशस्तिसार । सातवों प्रकरण ।
... ( श्रीविजयदेवसूरि का जन्म, दीक्षा, विजयसेनसूरि की . कहुई प्रतिष्ठायें तथा हीरविजयसूरि और विजयसेन
सूरि का समागम ।) राजदेश नामक देशके भूषण समान' इलादुर्ग' (इडर ) नामकी नगरी में एक 'स्थिरा' नामका भेष्ठी रहता था । इस श्रेष्ठी की एक 'रुपाई' नामकी भार्या थी जो बड़ी सुशीला एवं पतिनता थी । इस प. तिप्राणा अबला के गर्भ से सं० १६३४मिती पौषशुक्ला त्रयोदशी के दिन एक पतिभाशाली और उत्तमगुण सम्पन्न बालक का जन्म हुमा । माता पिता ने बड़े समारोह के साथ इस बालक का नाम 'वास' रक्खा । बालक क्रमशः बालपन को त्याग करके जब बड़ा हुमा तब एक दिन उसके पिता का अनशनादि करके मुसमाधिपूर्वक देहान्त होगया।
पिता के देहान्त होजाने के बाद इस बैराग्यवान् बालक ने अपनी माता से कहा:-मै शिवमुख को देनेवाली दीक्षा को ग्रहण करने की उत्कट इच्छा रखता हूं, अतएव आप मुझे मामा दीजिए।" पुत्र के इस दृढ़ता के बचनों को सुन करके माता ने यह कहा कि "हेनन्दन ! मैं भी तेरे साथ में बही मोक्षसुख को देनेवाली दीक्षा ग्रहण करूंगी। अपने को अनुमति देने के साथ स्वयं माता का दीक्षा लेने का विचार सुनकर पुत्र और भी अधिक आनन्दित हुआ। माता ने यही वि. चारा कि जैसे रत्न जो होता है वह सुवर्ण के साथ ही में शोभा को धारण कर सकता है । वैसे यह मेरा पुत्र भी जब गुरू की सेवा में रहेगा तव ही योग्यता को प्राप्त करेगा' वस! यही विचार का निपूचय करके माता अपने पुत्र के साथ इलाडूर्ग (इडर) से चलकर
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सातवां प्रकरण ।
अहमदाबाद को गई जहां कि भीविजयसेनसूरि विराजते थे । इस पुत्र की 'सौम्याकृति' और विस्ताणलोचन आदि उत्तम चिन्हों को देख कर सूरीश्वर ने मन में विचार किया कि यह बालक भविष्य में समस्त संघ को संतोष करने वाला होगा । जब सूरीश्वर ने यह भी सुना कि माता के साथ में यह वालक भी दीक्षा लेने वाला है, तब तो कहना ही क्या था ? सारे संघ में आनन्दर फैलगया। इसके बाद सूरीश्वर ने शुभमुहूर्त में सं-१६४३ मिती माघ शुक्ल दशमी के दिन माता और पुत्र दोनों को दीक्षा दी । सुरीश्वर ने इस दीक्षित मुनिका नाम 'विद्याविजय' रक्खा।
पाठक इस बातका विचार कर सकते हैं कि इस नववर्ष के बा. लक के अन्तः करण में दीक्षा लेन का विचार होना और माता का प्राशा देना कैसी आश्चर्य की बात है ? क्या यह बातें सिवाय पूर्व जन्म के संस्कार के हो सकती है ? कभी नहीं ? ___ छोटी ही अवस्था में मुनि विद्या विजयने निष्कपट होकर, व. विनय पूर्वक गुरु महाराज से विद्याभ्यास कर लिया । दीक्षा हो जाने के बाद यहां पर एक महिषदे' नाम की धाविका रहती थी। उस के घरमै फाल्गुन शुक्ल एकादशी के रोज सूरीश्वर ने जिनबिंव की प्रतिष्ठा की। इस समय में गन्धारवन्दर से 'इन्द्रजी' नाम के शेठ प्राचार्य को वन्दना करने को भाये थे । इन्होंने सूरिजी से विनति की कि-'श्रीमहाबीरस्वामी की प्रतिष्ठा करवा करके मै अपने जन्म को सफल करना चाहता हूं । प्रतएव आप अपने चरण कम से गन्धार बन्दर को पवित्र करिए '। इस बिनति को स्वीकार करके महमदाबाद से बिहार करके भीविजयसेनसूरि गन्धारबन्दर में पधारे । यहाँ पर पधार करके मापने दो प्रतिष्ठाएं की। एक सं. १६४३ मिती ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन 'इन्द्रजो' शेठ के घर में
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विजयप्रशस्तिसार । 'महावीर स्वामी की और दूसरी ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी के दिन ‘धनाई' नाम की श्राविका के मन्दिर में । सूरीश्वर ने चातुर्मास स्तम्भ तीर्थही में किया।
अब इधर भीहीरविजयसूरीश्वर ने अनुक्रम से श्राग्रा फतेपुर. अभिरामाषाद और पाना इस तरह चार चातुर्मास करके इधर मरु दशको पवित्र करते हुए 'फलोधी' तीर्थ की यात्रा करके श्री नागपुरमे पधारे । और वहाँ ही चातुर्मास किया। चातुर्मास समाप्त होने के बाद श्रीसूरीश्वरने गुजरात जाने का विचार किया । जय गुजरात में बिचरते हुए श्रीविजयसेनसृरिणी ने यह बात सुनी कि गुरु वर्य गुजरात पधारते हैं तब वह अत्यन्त खुश हुए और गुरु वर्य के सामने जाने को प्रस्तुत हुए। श्रीविजयसेनसूरि आदि मुनीश्वरों ने 'शिरोही' आकरके श्रीहरिविजय सूरिजी के दर्शन करके अपनी प्रात्मा को कृतार्थ किया । सिरोही में यह दोनों धुरंधर आचार्यों के पधारने से लोगों को बहुत ही लाभ हुश्रा । कुछ काल शिरोही में गुरु पर्यकी सेवा में रह करके बाद गुरुअाशा रूप माला को कण्ठ में धारण करके श्रीविजयसेनसूरीश्वर ने शिरोहीसे विहार किया।
और पृथ्वीतल को पावन करते हुए आप वजीनाराजी नामक श्राद्ध के वहाँ भईतू प्रतिष्ठा करने के लिये स्तम्भतीर्थ पधारे। ___ गन्धार बन्दर में 'आल्हण” नामक श्रेष्ठी के कुल में 'वजीरा' तथा 'राजीना' नामक दो भाइ बड़े धर्मात्मा रहते थे । वह दोनों प्रेमी बन्धु गन्धार बन्दर से संभात गये । एक दिवस देववसातू इन दोनों भाइयों ने खंभात में आ करके देव भक्ति-गुरु भक्ति-स्वामि वात्सल्य--तथा अन्य प्रकार के दान करके बहुत द्रव्यका व्यय किया । यहां पर इन लोगोंने ऐसे उत्तमोत्तम कार्य किये कि जिससे इन दोनों की कीर्ति देश-देशान्तरों में फैल गई।
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सातवां मकरा |
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जिसका सविस्तर वर्णन करना लेखनी की शक्ति से बाहर है । इसके अनन्तर राजा अकबरबादशाह की राज सभा में और फरेंग के राजा की राजसभा में भी इनके गुणगान होने लगे । इन दोनों महानुभावों ने धर्म-अर्थ- काम इन तीनों पुरुषार्थों को अपने प्राधीन कर लिया |
एक रोज़ निष्पाप - निष्कपट स्वभाव युक्त यह दोनों भाइ मापस में विचार करने लगे कि अपने द्रव्य से देव गुरु कृपा से सब कुछ कार्य हुए। अब जिन भवनमें जिन बिंबकी प्रतिष्ठा करानी चाहिये । क्योंकि जिन भवन में जिनंप्रतिमा को स्थापन कराने से जो फल उत्पन्न होता है उस पुण्यरूपी पुरंप से मुक्ति का सुख मिलता है । यह विचार करके जिनबिंब की प्रतिष्ठा कराने के लिये एक बड़े भारी उत्सव और बड़ी धूमधाम के साथ सं० १६४५ मिति ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन उत्तम मुहूर्त में श्रीविजन सेन सूरीश्वर के हाथ से श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ तथा श्रीमहावीर स्वामी की प्रतिष्ठा करवाई | सप्त फणिधर इस चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा ४१ अंगुल की रक्खी । इस प्रतिमा का चमत्कार चारों ओर फैलने लगा । क्यों कि प्रत्येक पुरुष की मनोकामना इस प्रतिमा के प्रभाव से पूरी होती थी । इसके पश्चात् यहां पर इन दोनों महानुभावोने एक पार्श्वनाथ प्रभुका मंदिर भी बनवाया । इस मंदिर में बारह स्तंभ, छद्वार और सात देवकुलिका स्थापित की गई । इस मंदिर में सब मिला करके २५ जिन बिंब स्थापन कर वाये । सब से बढ़ कर बात तो यह हुई कि इस मंदिर में चढ़ने-उतरने की २५ तो शि. दाँ रखवाई थीं ! मूळ प्रतिहारमें एक बाजू में ३७ प्रांगुल प्रमाण वाली श्रीआदीश्वर भगवानकी प्रतिमा और दूसरी बाजू में ३३ अंगुल प्रमाण वाली । श्रीमहावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान
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विजयप्रशस्तिसार । की गई । इस प्रकार इस मनोहर-म्य मंदिर में श्रीजिनेश्वरों की श्रीविजय सेनसूरीश्वरने प्रतिष्ठा की।
आठवां प्रकरण ।
(अकबर बादशाह का श्रीशनंजयतीर्थ करमोचन पूर्वक फरमान पत्र देना । श्रीविजयसेनसूरि को बुलाना । श्रीविजयसेनसूरिका लाहौर प्रति गमनमार्गमें अनेक राजाओंसे सम्मानित
होना और सुखशांति से लाहोर
__पहुंचना । इत्यादि) अब श्रीबिजयसेनसूरि गन्धार बन्दर से बिहार करके अपने गुरु श्रीहीरविजयसूरि जी के पास आए। इन दोनों प्राचार्यों ने सं० १६४६ की साल का चातुर्मास राजधन्यपुर (राधनपुर) में किया। यहांपर एक दिन श्रीहीरविजयसूरि जी के पास लाहोर से अकबर बादशाह का पत्र माया । उसमें उन्हों ने यह लिख भेजा कि:-" अबसे इस तीर्थ का कर मेरे राज्य में कोई नहीं लेगा । इस प्रकार का मैने निश्चय किया है। अब आपका पवित्र शर्बुजयतार्थ आपको कर मोचन पूर्वक देने में आता है"। इस तरह लिखकर साथही साथ यह भी राजा ने लिखा कि-"माप मेरे ऊपर कृपा करके अपने पट्टधर को यहांपर भेजिये। क्योंकि जब मैंने पहिले
आपके दर्शन किए तब से मैं पुण्य से पवित्र हुमा हूं । अब भाप छपा करके अपना कोई विद्वान् शिष्य मेरे पास भेजिये" इस पत्र को पढ़कर बड़े विचार पूर्वक आपने श्रीबिजयसेनसूरिजी से कहा
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प्राठवा प्रकरण।
४७ कि “ हेस्वच्छात्मन् । भीमकबर बादशाह को मिलने के लिये तू जा । इस राजा की भूमि में स्थिति को फैलाते हुए हम . लोगों को उनकी आमा शुभ फल की देने वाली है । " इस बचनों को सुनतेही श्रीविजयसेनसूरि ने कहा ' जैसी पूज्य की प्रामा!'। बस ! मापने अकबर बादशाह के पास जाने का विचार निश्चय किया । और सं० १६४६ मार्गशिर्ष शुक्ल तृतीया को शुभ मुहूर्त में श्रीहीरविजयसूरि जी को नमस्कार करके मापने लाभपुर (लाहौर) के प्रति प्रमाण भी किया।
मार्ग में चलते हुए पहिले आप पतन (पाटण ) पधारे । यहां पर भावक लोगों ने बड़ा उत्सव किया। यहां के सष मंदिरों के द. शन करके क्रमश देलवाड़ा आदि तीर्थों की पात्रा करते हुए 'शिवपुरी' पधारे । यहांपर 'सुरत्राण' नामक राजा रहता था । सू. रीश्वर का मागमन मुनकर राजा ने अपनी 'शिरोही' नगरी बहुत ही शुशोभित की । और बड़ी भक्ति के साथ दो कोश तक अगमानी करने गया । राजा ने सूरीश्वर का बड़े सरकार के साथ पुर प्रवेश करवाया। यहां पर कुछ दिन स्थिरता करके सूरि जी आगे बढ़े। क्रमशःविचरते हुए और भव्य जीवों को उपदेश देते हुए भीना. रदपुरी' (जोकि अपनी जन्म भूमि थी ) में पधारे । चाहे जैसे म. नुष्य हो और चाहे जैसा जन्म भूमि वाला ग्राम हो, जन्म भूमि में जाने से सबको मानंद होता है । क्योंकि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गा दपि गरीयसी' यह लोकोक्ति बार में प्रचलित है । सुरिजी को भी यहां आने से बहुत मानंद हुमा । यहाँपर सूरिजीने पूर्वावस्था के संम्बन्धि समूह के आग्रह से कुछ समय निवास किया । यहां के लोगों ने बहुत द्रव्य सरचा करके सूरिजी के उपदेश से शामन की प्रभाधना की। वहां बे विहार करके भाप मेदिनीपुर (मेडता)
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જેલ
विजयप्रशस्तिसार ।
पधारे। यहां के राजा ने भी सूरिजी का बड़ा सत्कार किया 1 यहां
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बैराट नगर-महिम नगर आदि नगरों में होते हुए और धर्मोपदेश देते हुए लाहौर से ६ कोश दूर' लुधियाना में पधारे। बह समाचार लाहौर में प्रसिद्ध होगया कि श्रीविजयसेन सूरिजी लोधिज्ञाना पधारे हैं, तब भीअकबर बादशाह के मंत्रियों का अधिपति 'शेख' का भाई 'फयजी' (जोकि दशहजार सेनाका सेनाधिपति था) वह और अनेक लोग गुरु महाराज के दर्शन करने को वहांपर जा. पहुंचे। यहां पर समस्त लोगों के सामने फयजी - सेनाधिपति के आग्रह: से गुरु महराज के शिष्य भीनन्दिविजय नाम के सुनि ने अष्टावधान साधन किए। इस चमत्कार को देख करके सब लोग, चकित होगए । इस चमत्कार से चमत्कृत होता हुआ शेख का भाई फ़यजी अकबर बादशाह के सामने जाकर कहने लगा " हे : राजेश्वर ! भीहीर विजयसूरि लाभपुर में पधारते हैं । अब थोड़ीही. दूर हैं । यह सूरिजी भी गुणों के एक मात्र भण्डारही हैं इनके शि स्य भी बड़ी २ कलाओं को जानने वाले हैं। इव महात्माओं में न न्दिविजय नाम के मुनि अद्भुत हैं ।
इस प्रकार की तारीफ को सुनतेही राजा मुनिजी के दर्शन क रने को उत्सुक हुवा । सूरीश्वर ने अपनी शिष्यमण्डली के साथ आते हुए ' पञ्चकोशी' बनको प्राप्त किया। जहां की राजा का महल था । यहाँ पहिले पण्डित सुरचंद्रगणिके शिष्य श्रीमानुचन्द्र नामके उपाध्यायको भीहीरविजयसूरिने राजा के साथ में धर्म गोष्टी के लिये बैठाया । इस पञ्चक्रोशी वनमें भानुचन्द्र उपाध्याय सामने आए । राजाने अपने नगर निवासियों के साथ हाथी, घोड़े, पयदल यदि सेना और अपने मंत्री वर्गको भी भेजकर सूरीश्वरका बहुतसत्कार किया। इस धूमधाम के साथ सूरिजीने लाहौर शहर के पान
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पाठवा प्रकरण । एक 'गंज' नामक शास्त्रापुर में निवास किया। इसके पश्चात् अष्टा वधानी को देखने की इच्छा से राजाने सुरीश्वर के शिष्यों को अपनी पास बुलाए । गुरु महाराज की आज्ञानुसार श्रीनन्दिविजयादि साधु राजा की राजसभा में गये । इस सभा श्रीनन्दिविजय मुनिने प्राश्चर्यकारी-अद्भुत अष्टावधान को साधन किये । इस चमत्कारी विद्या को देख करके सब लोग मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करन लगे, यहां तक कि स्वयं बादशाह भी अपने मुख कोम शेक सका। . इसके बाद ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन राजा ने बड़े उत्सव के. साथ श्रीसूरीश्वर को नगर प्रवेश करवाया । राजा ने हमार सूरी. श्वर को 'भबजाफजल' नामक प्रसिद्ध नियोमी के मकान में निवास करवाया। इसके बाद राजा ने भीसूरीश्वर को अपनी बैठक में बुलाने के लिये अपने मंत्रियों को भेजा । सूरीश्वर अपना गौरव और धर्म का गौरव समझ करके राजा के मकान में पधारे। राना ने बड़ी नम्रता के साथ श्रीरिजी से पूछा कि " हे गुरवः ! आपके शरीर में और मापके शिष्य मण्डल में अच्छी तरह कुशत. मंगल सुख शान्ति है ? हे महाराज ! श्रीहीरविजयसरि जी कौन देश में कौन नगर में विद्यमान है । वे भी सुख शान्ति से जगत् का उद्धार करने में कटिबद्ध हैं ? वे महात्मा जी वर्तमान कौन २ कार्य में प्राच है ? कृपाकर मुझे सब हाल सुनाइये। ..
तदन्तर सूरिजी ने बड़े मधुर स्वरसे कहा:-हे राजन् ! प्रापके अनुभाव से भूवलय में रहते हुए हमें सब प्रकार से सुख शान्ति प्राप्त है। हे महानुभाव !इस जगत में भापके शासनकाल में स. मस्त प्रकार के भय नट हुए हैं। अतएव प्रापके प्रभाव से सबको शान्ति प्राप्त है। सूरि पुङ्गव, गुरुवर्य श्रीहीरविजयसूरीश्वर जी क.
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विजयप्रशस्तिसार |
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वर्तमान समय में गुजरात देश में बिराजते हैं । वे दयालु महाराज ज्ञान-ध्यान-तप-अप और समाधि से श्रीपरमेश्वर की उपासना करते हैं । हे राजेश्वर ! आपकी समस्त धर्मानुयाइयों के ऊपर प्रिय दृष्टि को देखकर तथा आपका समस्त स्थानों में श्राधिपत्य जानकर श्रीहीरविजयसूरि जी महाराज ने आप को 'धर्मलाभ' रूप आशिष दी है। हे भूपाल ! सकल धर्म की माता 'दया' है । लमस्त पुण्यों में मुनियों के मनकी करुणाही अभीष्ट है । अतएव लमस्त धर्माचरण में दया का ही प्रधान्य है । हे राजन् ! इस प्रकार की कृपा-दया ने वर्तमान समय में समस्त जगत् को व्याप्त किया है । हे भूप ! यह आपकी बहु व्यापक 'दया' से " गुरुवर्य बहुत प्रसन्न हैं । वे गुरुवर्य जी स्वयं भी दया के भण्डार हैं । आपकी दया उनको अभिलषित है। जिस प्रकार धर्म का मूल दया है उसी प्रकार दया के मूल आप हैं । आपका ऐसा महत्व बिचारकर सूरीश्वर जी आपके कल्याणाभिलाषी हैं अर्थात् आपके ऐसे धर्मात्मा राजा का कल्याण हो यही हमारे गुरुवर्य की मनो कामना है ।
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इन बचनों को सुनती हुई सारी सभा अतीव हर्षित होगई । और सब अपने अंतःकरण में यही विचार करने लगे कि ग्रहो इस चतुर पुरुष का कैसा बचन चातुर्य है ? |
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इसके पश्चात् राजाने कहा कि-' हे सूरीश्वर ! श्राज की सभा की यह इच्छा है कि - श्रीनन्दिविजय मुनीश्वर पहिले दिखाए हुए अष्टावधान को साधन करे, तो बहुत अच्छी बात है ' । सूरिजी ने शीघ्र अपने शिष्य को श्राज्ञा दी । नन्दिविजय मुनिने अष्टावधान साधन किये। इस चमस्कारक विद्या से सारी सभा और राजा प्रसन्न होगए । और सम्पूर्ण सभा के सामने इस मुनि घरको 'खु
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नववा प्रकरणा ।
५१ शफहम ' शब्दका विशेषण देकर उनकी अत्यन्त प्रशंसा की । इस समय राजा की अनेक सामग्री के साथ लोगों ने बड़ा उत्सव किया । एवं रीत्या राजसभा में बड़े सम्मान को प्राप्त करके श्रीबिजयले मसूरि अपने शिष्य मण्डल के साथ उपाभय में पधारे ! श्राद्ध वर्ग ने आज से एक अठार महोत्सव प्रारम्भ किया । इस अपूर्व शासन प्रभावना को देखकर अन्यदर्शनी लोग जैनों का एक छत्र राज्य मानने लगे ।
नववा प्रकरण
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( ब्राह्मणों के कहने से राजाका भ्रमित होना, श्रीविजयसेनसूरिके उपदेशसे राजा का भ्रम दूर होना । ‘इश्वर'का सच्चास्वरूप प्रकाश करना और सूरिजी के उपदेशसे बड़े २ छ कार्योका बन्द करना )
इस प्रकार सूरिजी का और राजा का प्रगाढ़ प्रेम दिन परदिन चढ़ने लगा । सूरिजी की महिमा भी बढ़ने लगी । इस जैन धर्मकी महिमा को नहीं सहन करने वाला एक ब्राह्मण एक दिन राजा के पास जा कर वोला:
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"हे महाराज, ये जैन लोग, पाप पुञ्ज को हरण करने वाला - अगत् को बनाने वाला - निरंजन - निराकार - निष्पाप - निष्परिग्रह श्रादि गुण विशिष्ट 'ईश्वर' को मानते नहीं है । और जब वे लोग ईश्वरही को नहीं मानते हैं तो फिर उन का धर्म मार्ग वृथा ही है । क्योंकि जगदश्विर की सत्तारहित होकर ये लोग जो कुछ
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विजयप्रशस्तिसार।
सुकृताचरण करते हैं वह लब निष्फल हो है । प्रतएव ग्राप जैसे राजराजेश्वर के लिये जैनों का मार्ग कल्याकारी नहीं है ।"
बस | ब्रह्मण देवताके इस बचन से ही राजा को बड़ा क्रोध हुआ। एक दिन सूरीश्वर राज सभामे आए, तब राजाने क्रोधको अपने अन्तःकरण में रक्खा और उपर से शान्ति रख करके सूरीश्वर से कहा " हे सूरिजी लोग कहते हैं कि ये आपकी जो क्रियापैहैं वे सब लोगों को प्रत्यय कराने वाली हैं । ममशुद्धि को करने घाती नहीं हैं । अतएव इसके निमित्त से समस्त प्राणियों को ठगने वाले ये महात्मा हैं। क्योंकि ईश्वर को तो मानते नहीं है । हे गुरु धर्यं ! इस प्रकारकी मेरे मनकी शंका आप के वचनामृत से नाश होनी चाहिये ।"
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बादशाह का यह बचन सुनते ही सूरीश्वर समझ गए कि राजाकी स्वयं यह कोपाग्नि नहीं है, किन्तु ब्रह्म देवता की यह फै लाई हुई माया है । अस्तु । सूरीश्वर ने राजा से कहा- हे राजन् ! हमलोग जिस प्रकार से ईश्वर का स्वरूप मानते हैं, उस प्रकार से और किसी मत में ईश्वर का स्वरूप देखा नहीं जाता है | जरा साव धान हो करके आप सुनिए । “जिस ईश्वर के हर्ष - पीयूष से भरपूर नेत्र शान्त-रसाधिक्य को छोड़ते नहीं हैं । जिस का वदन, समस्त जगत् को परमप्रमोद रूप- सम्पत्तिको देता है । जो प्रभु अश्वमेष- मयूरादि किसि वाहन पर बैठते नहीं हैं । जिस को मित्र पुत्र कलत्रादि कोइ भी परिग्रह नहीं है । जिस ईश्वर को तिन जगत् में भूत-भविष्यत् और वर्तमान वस्तु का प्रकाश करने वाला श न सर्वदा पूर्णरूप से विद्यमान है । जिस ईश्वर को काम-क्रोध-मोहमान-माया-लोभ-निद्रा आदि दूषण हैं ही नहीं। जिसके ज्ञान-गुणोवर्ष के आगे सूर्य भी एक खद्योतकी उपमा है । जिस प्रभुका
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नवधा प्रकरया ।
手
नातिशय जीवों के अंतःकरण में प्रगट होकर आशान रूपी अन्ध कार को नाश करता है । पुनः जो ईश्वर जन्म-जरा-मरण-ग्राधिव्याधि-उपाधि से रहित है । जो ईश्वर स्त्री-पुरुष-शत्रु-मित्र क राय-शेठ शाहुकार - सुख-दुःख इत्यादि में सर्वदा समान मन वाला है अर्थात् समभाव ही को धारण करता है । जिस को शब्द रूपरस- गन्ध और स्पर्श रूप पांचों प्रकार के विषयों का अभाव है । जिसने उन्मादादि पांचो प्रमाद को जीत लिया है। और जो इश्वर अठारह दोषों से रहित है । इस प्रकार के चिदात्मा मचित्य स्व रूप-परमात्मा ईश्वर को हम मानते हैं । हे राजन् | जिस अधमं ब्राह्मण ने आप को कहा है कि - जैन दर्शन में परमेश्वर का स्वीकार नहीं किया है । वह सर्वथा असत्यलापी है। क्या उस ब्राह्मण ने 'हनुमान नाटक' का यह निम्न लिखित श्लोक नहीं पढ़ा है:
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो । बौद्धाः बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्मेति मिमांसकाः ॥ अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्त्तेति नैयायिकाः । सोयं वो विदधातु वातिफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ १ ॥
अर्थात- परमात्मा को शैव लोग 'शिव' कह करके उपासना करते हैं । वेदान्ती लोग 'ब्रह्म' शब्द से । प्रमाण में पटु बौद्ध लोग 'बुद्ध' शब्द से । मिमांसक लोग 'कर्म' शब्द से । जैन शासन में रत जैन लोग 'अर्हन्' शब्द से तथा नैयायिक लोग 'कर्ता' शब्द से व्यवहार करते हैं । वही त्रैलोक्य का स्वामी परमात्मा तुम लोगों को बाछित फल देने वाला है ।
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इस श्लोक से यह बात सुस्पष्ट मालूम हो जाती है कि 'खोग परमात्मा को मानते हैं ।
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विजयप्रशस्तिसारः ।
हे राजन् ! वह परमेश्वर जिसको हम अर्हन शब्द से पुकारते हैं, वह दो प्रकार के स्वरूपों में स्थित है । पहिले तो तीर्थवर सः मवसरण में स्थित होते हुए और ज्ञानादि लक्ष्मी के स्थान भूत बिचरते हुए हैं । इस समयमै भगवान को चोतील अतिशय और वाणी के पैंतीस गुण होते हैं । ( सूरीश्वर ने इनका भी स्वासमझाया ।)
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दूसरे प्रकार में अर्थात् दूसरी अवस्था वाले देवका स्वरूप इस तरह है । वह परमात्मा जिसकी आत्मा संसार से उच्छिन्न है, जो सर्वदा चिन्मय और ज्ञानमय है । इसका कारण यह है कि उस अवस्था में उसके पांच प्रकार के शरीरों में से कोई भी नहीं है इसके अतिरिक्त वह ईश्वर अनुपम है अर्थात जिसकी उपमा देने 'के लिये कोई वस्तु ही नहीं है तथा जो नित्य है । ऐसे देव को इम मानते हैं । समुच्चय रूपसे कहा जाय तो अठारह दूषणों से रहित देव को हम मानते हैं - अठारह दूषण ये हैं:
श्रन्तराया दान-लाभ-वीर्य-भोगोपभोगगाः । हासो त्यती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ १॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा च विरतिस्तथा ।
रागो द्वेषश्च नो दोपास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥२॥
दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, रात, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काम, मि ध्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग और द्वेष यह अठारह दूषणों का ईश्वर में अभाव है ।
हे राजन् ! अब आपको विश्वास हुआ होगा कि जैनी लोग जिस प्रकार ईश्वर को मानते उस प्रकार और कोई भी नहीं मा नते हैं । किन्तु अन्य लोग व्यर्थ ईश्वर मानने का दावा करते हैं.।
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नववा प्रकरणा । '
५ ईश्वर को मान करके इसपर अनेक प्रकार का बोझा डाल देना या ईश्वर को मान करके उसके विचित्र प्रकार के स्वरूप बताकर कलङ्कित करना यह क्या ईश्वर को मानना है ? नहीं ! कदापि नहीं यह भक्तो का काम नहीं है। यह काम तो कुभकों का है ।
इस प्रकार बड़े विस्तार से ईश्वर का स्वरूप सुनतेही राजा का चित्त निःसंशय होगया। और अन्य वादियों के मुंह उत्तर गये । इस सभा में सूरिजी की जय होगई। सूरिजी ने वादशाह के समुख ब्राह्मणो को मूक बनाकर यश स्तंभ गाड़ दिया। इसके बाद बादशाह संस्तुति के भाजन होकर सूरीश्वर अपनी शिष्य मण्डल के साथ उपाश्रय में पधारे।
इस समय में सूरीश्वर ने वाचक पद का नन्दिमहोत्सव कर वाया, जिसमें अकबर बादशाह के अबजल फयज नामक मंत्री ने अधिक द्रव्य का व्यय किया । सूरीश्वर ने अकबरबादशाह के साथ धर्मचर्चा करने ही में दिवस व्यतीत किए ।
-अब एक दिन राजा परम प्रसन्न चित्त बैठा था । राजा का चित्त बड़ाही प्रसन्न था । इस समय में सूरीश्वर ने राजा से कहा किः-' हेनुपेश्वर ! आप पृथ्वीपाल हैं । जगत् के सब जीवों की रक्षा करने का दावा रखते हैं । तथापि गो, वृषभ, महीष, महिषी की जो हिंसा आपके राज्य में होती है वह हमें आनन्ददायक नहीं हैं । अर्थात् जगत् का उपकार करने वाले निरपराधी जीवों की हिंसा करना कदापि योग्य नहीं है । दूसरी बात यह कि आप जैसे . सार्वभौम-सौम्य राजा को मृत मनुष्यद्रव्य ग्रहण करना तथा म नुष्य बांधी जाय तब उसका द्रव्य लेलेना यह भी आप की कीर्ति के लिए योग्य नहीं है । अर्थात् ये काम आपकी कीर्ति को हानि पहुंचान बाले हैं । अत एव हे राजन् ! उपर्युक्त कार्य आप
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विजयप्रशस्तिसार। केहिए उचित नहीं मालूम होते हैं। क्योंकि आपने बहुत द्रव्य की उत्पनिक कारणभूत 'दाण' और 'जीजीमा' नामका कर त्याग दिया है तो फिर उपर्युक्त कार्यों में भापको क्या विशेष चिन्ता हो सकता है। : सूरिजीने दिखलाये हुए उपर्युक्त छ कार्य राजाकी तुष्टि को करने वाले हुए । राजा ने अपने अधिकारी देशों में उपर्युक्त छ कार्य बन्द करने की सूचना के माशा पत्र सम्पूर्ण राज्य में भेजवा दिए। - अकबर बादशाह के प्राग्रह से सूरिजी ने इस साल का चा. तुर्मास तो लाहौर ही में किया । जैसे २ प्राचार्य महाराज के साथ में बादशाह का विशेष समागम होता गया तैले २ बादशाह के अंतःकरण में विशेष रूपसे 'दया भाव 'प्रगट होता गया। जैसे चन्द्रकी विद्यमानता में प्रकाश सुशोभित होता है, वैसे श्रीसूरीश्वर की विद्यमानता में लाभपुर (लाहौर ) शहर बहुतही दे. दीप्यमान होता रहा । श्रीबिजयसेनसूरि ने बादशाह की सभा में ३६३ बादिमों को परास्त किया। तथा बादशाह ने प्रसन्न होकर भीविजयसेनसूरि को 'सवाई' का खिताब दिया। यह बातें प्र. स्थान्तरों से ज्ञात होती हैं।
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• दशवा प्रकरण।
दशवांप्रकरण।
(श्रीहीरविजयसूरिजी की सिद्धगिरि की यात्रा, वहाँ से आकर . उन्नतनगर में दो चातुर्मास करना, विजयसेनसूरि का .
पट्टन आना, हीरविजयसूरि का स्वर्गमन और .. ...
. श्रीविजयसेनसूरि का विलाप ।) इधर जब भीविजयसेनसूरि लाहोर में विराजते थे, उस समय में श्रीहीरविजयसूरि पाटन में चातुर्मास करके सकल दुःखों को ध्वंस करने वाली श्रीशचंजयतीर्थ की यात्रा करने को उत्सुक हुए । चातुर्मास समाप्त होने पर बहुत साधु के समुदायसे वेष्टित श्रीसूरीश्वर सिद्धगिरी ( शबंजय ) पधारे । इस समय में सूरिजीके साथ बहुत देशों के श्रीसंघ भी आएथे, जिन्हों ने नानाप्रकार के द्रव्यों से शासन की प्रभावनायें की और देवगुरुभक्ति में सदा तत्पर रहे। । तीर्थाधिराज की यात्रा करने के समय पहिले पहल त्रिलोक के नाथ श्रीऋषभदेव भगवान को तीन प्रदक्षिणा देते हुए आपने मनवचन और काया से स्तुति की। यात्रा करने को आए हुए संघ ने भी अतुच्छ द्रव्य से पूजा प्रभावना करके पुण्य उपार्जन कर लिया। यहां पर थोड़े ही रोज रह करके भीसूरीश्वर ने यहां से अन्य स्थान को विहार किया। ___ उन्नतपुरी के श्रीसंघ के आग्रह से आपका उन्नतपुरी में प्राना हुआ । इस नगर में धर्म का लाभ अधिक समझ कर आपने चातु. मांस भी यहां ही किया । खेद का विषय इस समय यह हुआ कि यहां पर आपके शरीर में किसी असाध्य रोगने प्रवेश किया और इससे आपको यहां पर चातुर्मास भी करना पड़ा।
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विजयप्रशस्तिसार । इधर हमारे भीबिजयसेनसूरि लाहोर से बिहार करने को उत्कंठित हुए। यहां पर आपने बहुत वादियों से जय प्राप्त किया, फिर यहां से विहार करके पृथ्वीतल को पावन करते हुए आप 'महिमनगर' पधारे । आपने यहां चातुर्मास किया। इस अवसर पर आपके पास उन्नतपुरी से एक पत्र भाया । उसमें यह लिखा गयाथा कि-'परमपूज्य श्रीहरिविजयसूरि महाराज के शरीर में व्याधि है, और आप जल्दी । यहाँ आइए ।' पत्रको पढ़ते ही सब मुनिमण्डल के अन्तःकरणों में बड़ा दुःख उत्पन्न हुआ । बस ! शीघ्रही यहां से सब लोग उन्नतपुरी को प्रस्थानित हुए । मार्ग में छोटे बड़े शहरों में लोग बड़े२ उत्सव करने लगे। क्योंकि आप अकबरबादशाह को प्रतिबोध करके बहुत से अच्छे २ कार्य करके आते थे। बहुत दिन व्यतीत होने पर आप पत्तन (पाटन) नगर में पधारे ।
इधर उन्नत नगर में प्रभु श्रीहीरविजयसूरिजीने जाना कि अब भेरा अन्त समय है । ऐसा समझ करके आपने चौरासी लक्ष जीव योनिके साथ क्षमापना और चार शरण रूप, चारित्र धर्म रूप सुन्दर गृहकी ध्वजा की उपमा को धारण करने वाली, क्रिया करली। संलेखना और तपके निर्माण से अपनी आत्मा को तीण बल जान करके श्रीहरिविजयसूरिजी ने अपने सब मुनिमण्डल और श्रद्धालु भावकों को एकत्रित किए। सबके इकट्ठे होने पर आपने अन्तिम उपदेश यह दिया कि:
हे श्रद्धालु मुनिगण! थोड़े ही समय में मेरी मृत्यु होने वाली है। इस मृत्यु से मुझे किसी बात की चिंता नहीं है । क्योंकि इस मरण का भय नाश करने के लिये तीर्थकर जैसे भी समर्थ नहीं हुए । कहा भी है कि
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दशवां प्रकरण । तित्थयरा गणहारी सुरवइणो चकिकेसवा रामा ।
संहरिभा हयविहिणा का गणणा इयर लोगाणं ॥१॥ अर्थात्-तीर्थकर, गणधर, देवता चक्रवर्ती, केशव, राम प्रादि, सभी इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए तब इतर लोगों का कहना ही
जब ऐसी ही अवस्या है तो फिर क्यों मुझे दुःख हो ? हे मुनिगण ! इस संयम की आराधना में भी आप लोगों को को किसी तरह की चिंता नहीं है। क्योंकि पट्टधर श्रीविजयसेनसूरि मेरे स्थान पर मौजूद हैं । धीर, वीर, गंभीर भीविजयसेनसूरि तुम्हारे जैसे पण्डितों के द्वारा मुख्य कर सेवनीय है । (इस अवसर पर समस्त माधुओं ने 'तहति-तहति' करके इस माशा को शिर पर धारण किया)। हे मुनिगण ! भीविजयसेन सूरिकी प्राज्ञा को मानते हुए सब कोइ प्रेम भाव से रहकर परमात्मा वीर के शासन की उन्नति करने में कटिबद्ध रहना।" . बस ! सब साधुमों को इस प्रकार हितशिक्षा दे करके अनशन करने की इच्छा करते हुए सूरीश्वरने कहा कि-"महर्षिों का यही मार्ग है कि आयुष्य के अन्त में भवदुःखको नाश करने वाला अनशन करे" साधु लोग मना करने लगे और दुम्सी होने लगे तब पुनः सूरिजी ने कहा कि-" हे महात्मागण ! मोक्ष के हे. तुभूत कृत्य में आप लोग बाधा मत डालो" इत्यादि वचनों से, अपने शिष्य मण्डल के भाग्रह का निवारण करके माप अनशन करने को प्रस्तुत होगए।
इस क्रिया को देखते हुए शिष्य लोगों से कह लोग मूछित होने लगे। कह लोग केल्पांत करने लगे । सूरीश्वर ने शिष्यों के कल्पांत को हठा करके भीपञ्च परमेष्टिकी साक्षी से मतिउत्सूकता
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विजयप्रशस्तिसार । के साथ अनशन कर लिया। इस समय में भाद्ध धर्ग ने जो महोत्सव किया उसका वर्णन इस लिखनी से होना असम्भव है।
इसके पश्चात् मोक्ष सुख को देने वाला नमस्कार (नवकार) मंत्र का ध्यान करते हुए, मन-वचन-काया से किये हुए पापो की निंदा करते हुए, प्राणि मात्र मैत्री भावको धारण करते हुए, शरीर का भी ममत्व को त्याग करते हुए श्रीहीरविजयसूरीश्वर ने सं-१६५२ मिती भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन इस भवसंबंधी मलीन शरीर को त्याग करके देवयोनि का मनोज्ञ शरीर धार• ण किया। ____ अब श्रीहीरविजयसूरजी इस लोक से चले गए । मापने देव बोक को भूषित किया । श्रीसूरीश्वर का देहान्त होने पर इस नगर के समस्त संघने इस मृत शरीर को अनेक प्रकार के चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों से विलेपन किया । एक विशाला-नामक शिवि. का को बना करके उसमें उस मृत शरीर को स्थापन किया । शोक चित्त वाले हजारों मनुष्यों ने संस्कार भूमि में ले जा कर भन्दनादि काष्ट से उस शरीर का अग्नि संस्कार किया।
इसके उपरान्त इस उन्नत नगर से श्रीसूरीश्वर स्वर्ग गमन के समाचार पत्र ग्राम ग्राम भेजे गये-जब पाटन नगर में श्रीविजय. सेम सूरीजी के पास यह दुःन दायक समाचार आया और जब वे उसे पढ़ने लगे तो उनका हृदय अकस्मात भर आया । सब साधुमण्डल बड़ा दुखी हुमा । पवित्र गुरु महाराज के विरह से खेदकी सीमा रही नहीं । हमारे श्रीविजयसेनसूरिजी सखेद गद गद वाणी से बोलने लगे:-.. - " हे तात । हे कुलीन ! हे अभिजात ! हे ईश ! हे प्रभो ! आप मुझ से बार २ यह कहते थे कि तूं मेरे हृदय में हैं ' यह
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दशवा प्रकरण। सब मजागलस्तनवत्' हो गया । हे प्रभो । मै लाहौर से ऐसा समझ करके निकलाथा कि 'गुरु वर्य के चरण कमल में जाकर सेवा करुंगा। परन्तु हे नाथ आपने तो जरासा भी विलंब नहीं किया। हे स्वामिन् ! आप के मुख कमल के भागे रहने से आप के चरणार्विद में रहने से मेरी जो शोमा थी वह शोभा अब
आपके विरह से 'गगनवल्ली' के समान होगह। . हे भगवन ! अब आपके बिना मैं किसके प्रति महाराज साहेब ! महाराज साहेब ! कहता हुआ विद्याभ्यासी पनूंगा । हे निर्ममेश ! आपके मुख कमल को देखने से मुझे जो रति होती थी वह रति हे प्रभो ! अब किस तरह होगी ? हे प्रभो ! 'तू जा''तू कहे' 'तू माव' 'तू भण' इत्यादि आप के कोमल बचनों से मेरा अं. तःकरण जो फल जाता था अब वह आनंद मुझे कैसे प्राप्त होगा?
और उस कोमल शब्दों से मुझे कौन पुकारेगा ? हे प्रभा । अब प्रापकी आज्ञा के अभाव में मै किसकी प्राज्ञा को अपने मस्तक पर धारण करूंगा ? हे स्वामिन् ! आप के अस्त होनेसे अब कुपातिक लोग बिचारे भव्य जीवों के अंतःकरण में अपने संस्कारों का प्र. धेश कराकर अन्धकार को फैला देंगे। हे प्रभो ! माप जैसे प्रकाशमय स्वामी के अभाव में हमारे भरतक्षेत्र के लोग अब किस प. वित्र पुरुष को अपने अंत:करण में स्थापन करके प्रकाशित होंगे। हे गुरुवर्य ! जैसे कल्पवृक्ष समस्त जनको सुखकर है। वैसे आपका
और अकबर बादशाह का संग समस्त जगत को लाभ दायक था। क्या ! अब मापके विरह से प्रजा को वह सुख फिर कभी भी होने वाला है ? हे कृपानाथ ! आपने कृपारूपी सुन्दरी के साथ अकबर बादशाह की शादी करादी है किन्तु उस दम्पत की जोड़ बिरह रहित न रहो, यही मैं चाहता हूं। हे गुरो ! आपकी कीर्तिलता
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विजयप्रशस्तिसार । जब तक सूर्य चन्द्रमा का प्रकाश है तब तक संसार में रहेगी। क्योंकि आपके वाणी रूप प्रदीप से सोद्यम होकर भीअकबर बाइशाह ने श्रीशत्रुजयार्थ जैनों के हस्तगत किया है । हे विभो ! दीपक के अस्त होने से अन्धवार फैल जाता है वैसे आप जैसे सूर के अस्त होने से अब कुमति लोग अपने अन्धकार को फै. लागे । यही मुझे दुःख है । हे पितः ! आपका उत्कृष्ट चारित्रमापकी संयम पाराधना, सचमुख निवृति पदको ही देने वाली थी। तथापि आप देवगत हुए । इसका कारण इस कलिकाल की महिमा ही है।
हे प्रभो! 'तप-जप-संयम-ब्रह्मचर्य इत्यादि मोक्ष छत्य है। 'साधु धर्म मुझे बहुत प्रिय मालूम होते हैं ' इत्यादि, जो आप क. हते थे वह सब व्यर्थ होगया । क्योंकि आप तो स्वर्ग में चलेगए। यदि आपको तपादि प्रिय ही थे तो स्वर्ग में क्यों माप पधारे। हे मुनीन्द्र ! जो कोई आपका नाम स्मरण करता है । जो व्यक्ति प्रा. पका ध्यान करता है उनको श्राप साक्षात हैं । आप उसी प्रकार श्रद्धालुवर्ग के लिये प्रत्यक्ष हैं जैसे मित्र के लेखातरों को देखकर लोग उसका मिलना प्रत्यक्ष समझते हैं। - इस प्रकार बहुत विलाप करके श्रीविजयसेनसूरि शान्त हुए । और फिर महात्मा पुरुष ने भास्म-सतत्व को निवेदन करते हुए. शोक को भी शान्त किया।
श्रीहीरविजयसूरि जी के देहान्त होने से भीतपगच्छ का स. मस्त कार्य भीविजयसेनसूरिही के शिरपर पापड़ा। दिन प्रति दिन श्रीगच्छ की शोभा भी हीरविजयसूरि के समय ही की तरह बढ़ने लगी ! मिथ्यात्विों का जोर जरा भी नहीं बढ़ सका । जैनधर्म की विजय पताका बड़ी जोर से फहराती ही रही और श्रीहरिविजय.
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ग्यारहवा प्रकरण । . सूरि में जैन शासन की प्रभुता रूप जो लक्ष्मी थी वही श्रीविजय. सेनसूरि ने प्राप्त की।
ग्यारहवां प्रकरण ।
( श्रीविजयसेनसूरि की कीहुई प्रतिष्टाएं । तीर्थयात्राएं । भूमि में
से श्रीपार्श्वनाथ प्रभू का प्रगट होना । श्रीविद्याविजय (वि.. जयदेवसूरि ) को प्राचार्यपद एवं भिन्न २ मुनिराजों
को भिन्न २ पद प्रदान होना इत्यादि)। अब भीतंपगच्छ रूपी भाकाश में सूर्य समान श्रीविजयसेनसूरि भव्य जीवों को उपदेश देते हुए विचरने लगे। श्रीपत्तन न. गर से बिहार करके स्तम्भ तीर्थ ( खंभात )के लोगों के निवेदन से प्रापका खंभात आना हुमा । यहांपर मापका एक चातुमास हुवा। खंभात से विहार करके आप अहमदाबाद पधारे। यहां के लोगों ने बड़ा उत्सव किया। सुना-चांदी के द्रव्यसे सूरीश्वर की पूजा की। यहां एक 'भोटक' नामक भावक, जोकि बड़ा श्रद्धावान था, रहता था। इस महानुभाव ने बड़े उत्सव के साथ श्रीसूरीश्वर हाथ से.जिन बिंब की प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठा के समय में सुरिजी ने पं० लन्धिसागर मुनि को उपाध्याय पद प्रदान किया। यहांपर एक 'वच्छा' नामक जौहरी ने भी सूरीश्वर द्वारा जिन विव की प्रतिष्ठा करवाई। इन प्रतिष्ठानों के अतिरिक्त पंचमहायत अणुव्रत ब्रह्मवत आरोपणादि बहुत से शुभकार्य सूरीश्वरने यहांपर किए । यहांपर सूरिजी के चातुर्मास करने से मारे नगर के लोगों को आनंद का अपूर्व लाभ हुआ। इस समय का सम्पूर्ण वृतान्त
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विजयप्रशस्तिसार । कहने के निमित्त एक बड़े ग्रंथ की आवश्यकता है। मारांश बह कि यह वर्ष भी ऐसा हुआ कि जिससे सारे देश के लोग परम प्र: सन्न रहे । अहमदाबाद शहर में हैं। चातुर्मास समाप्त करके आप कृष्णापुर ( कालुपुर ) पधारे।
एक दिन कालुपुर में विराजते हुए सूरीश्वर ने परम्परा से यह बात सुनी कि:-" शहर में ढींकु' नामक पाटक (पाडे) में श्रीचिं. तामणि पार्श्वनाथ भगवान किसीने भूमि में स्थापन किए हुएहैं"। लोगों की इच्छा प्रभू को बाहर निकालने की हुई । लेकिन राजाशा के बिना कैसे निकाल सकते थे ? इस समय अहमदाबाद में काजी हुसेनादि रहते थे। इनसे मुलाकात करके श्रीसूरीश्वरने भीप्रभु को बाहर निकालने की आज्ञा दिलवाई।" इसके बाद सं० १६५४ में शिष्ट पुरुष को स्वप्न देकरके श्रीप्रभु चिंतामाणिपार्श्वनाथ प्रभु प्रगट हुए । प्रभु के प्रगट होने से चारों ओर मानन्द छागया। भगवान के दर्शन से लोगों की इष्टसिद्धिएं होने लगी। इस प्रतिमा को भीसंघने सिकन्दरपुर में बड़े उत्सव के साथ स्थापन किया।
एक दिवस श्रीसूरिजी अपने शिष्यमण्डल के साथ श्रीपार्श्वनाथ प्रभु के मन्दिर में पधारे और इन्होंने जो प्रभुकी स्तुति की। इसका थोडासा उल्लेख यहां पर किया जाता है। ... "जिसका नाम स्मरण करने से श्वास-भान्दर-श्लेष्म और क्षयादि रोग नाश होजाते हैं। ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रक्षा करो।
'जिसका नाम स्मरण करने से समस्त प्रकार के चोर भाग जाते हैं ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रक्षा करो।
"जिसका नाम स्मरण करने से युद्ध में जय होता है, जिसके नाम स्मरण से भवी प्राणी भय से छूट जाते हैं, जिसका नाम
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ग्यारहवा प्रकरण। स्मरण करने से अपत्य रहित पुरुष भी अद्भुत पुत्र की प्राप्ति क. रता है-ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रक्षा करो। .
"जिसका नाम स्मरण करने वाला पुरुष भनेक प्रकार के घोड़े। हाथी रथ-पदाति प्रादि पदार्थ युक्त राज्य को प्राप्त करता है-ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रक्षा करो।
. " जिसका नाम स्मरण करने से मंत्र-तंत्रादि की विधिपं भी सिद्ध होती है-ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रक्षा करो"। .
" जिसका नाम स्मरण करने के प्रसाध्य विद्याएं भी साध्य होसकती है-ऐसे प्रभु रक्षा करो"।
"जिसके नाम स्मरण से, अनेक तपस्या से प्राप्त होने वाली, अष्टसिद्धि प्राप्त होती है-ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रक्षा करो"। . "जिसके 'मो-ही-भी-अहं श्रीचिंतामणिपार्श्वनाथाय नमः इस प्रकार के मंत्र से सारा जगत् पश होजाता है-ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु रण जगत् की रक्षा करो"।
इस्लादि प्रकार से स्वच्छ और निर्मल हृदय पूर्वक श्रीपार्श्वनाथ प्रभु की स्तषना करके इस प्रभु का नाम सूरीश्वर ने 'श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ' स्थापन किया । श्रीसंघ के भाग्रह से सूरिजी ने चातुर्मास सिकंदरपुर में ही किया।
इस सिकन्दरपुर में एक लहुश्रा' नामक सुश्रावक रहता था, जो बड़ा बुद्धिमान और धनाढ्य था। इस महानुभाव ने अपने द्रव्य से भीशान्तिनाथ प्रभु का एक बिंब बनवाया और उत्सव के साथ भीसूरीश्वर के हाथ से प्रतिष्टा करवा । इस प्रतिष्ठा के स. 'मय भीनन्दिविजय मुनीश्वर को " वाचक" पद दिया गया और 'विद्याषिजयमुनि जी को “ पण्डित " पद । अब सूरिजी की
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विनयप्रशस्विसार । पच्छा सूरिमंत्र की आराधना करने की हुई और इसी विचार से
आपने लाटापल्ली ( लाडोल ) के प्रति विहार भी किया। . नाडोल में भाकर आपने छ विगय (घृत-दुग्ध-दही-तेल-गुड़
और पक्वान्न ) का त्याग किया। छह-अट्ठमादि तपस्या करना मा. रंभ की। तथा पठन-पाठनादि का कार्य अपने शिष्यों को दे करके बचनोच्चार करना बन्द करके ध्यानानुकूल वेष तथा शरीरावयवों को रख करके आप सूरिमंत्रका स्मरण करते हुए ध्यानमें बैठ गए। ... संपूर्ण ध्यान में प्रारूढ होते हुए अब तीन मास पूरे हो गए तब एक यक्ष बद्धाञ्जली होकर,सूरिजी के सामने आ खड़ा हुआ।
और कहने लगा 'हेप्रभो ! हे भगवन् ! आप पण्डितवर्य श्रीविद्या. विजय जी को स्वपट्ट पर स्थापन करो। यह विद्वान मुनि प्रापही के प्रतिबिंब रूप हैं।' बस ! इतने ही शब्द कर वह अन्तर्ध्यान हो गया । हुन बचनों को सुनते हुए सूरीश्वर बहुत प्रसन्न हुए । जब सरिजी ध्यान में से बाहर निकले अर्थात् ध्यान से मुक्त हुए तब लोगों ने बड़ा उत्सव किया। इस सालका चातुर्मास आपने लाडो. लही में किया। इसके उपरान्त यहां से विहार करके पृथ्वी तलको पवित्र करते हुए आप इडर पधारे । वहां एक बड़ा गढ़ है, यहां पर आकर श्रीऋषभदेवादि प्रभु के, दर्शन करके सब मुनि गण कृतकृत्य हुए । यहां से आप तारंगाजी तीर्थ की यात्रा करने को पधारे । तारंगा में श्रीअजितनाथ प्रभुकी यात्रा करके फिर सौराष्ट्र देश में पधारे । सौराष्ट्र देश में आते ही आपने पहिले पहल तीर्थाधिराज श्रीशत्रजप की यात्रा की । और यहां से 'ऊना' पधारे । ऊनामें जगद्गुरु श्रीहरिविजय सूरीश्वरकी पादुका की उपासना करके पुनः सिद्धाचल को (शत्रुञ्जय) पधारे । यात्रा कर. . के खंभात के श्रीसंघ के अत्याग्रह से आप का खंभात पाना हुआ।
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ग्यारहवा प्रकरण । खंभात में आपने गंभीर वाणी से देशना देनी भारम्भ की । इस देशना में मुख्य विषय भगवत्प्रतिष्ठा-तीर्थ यात्रा-और बड़े बड़े उत्सों से शासन प्रभावना' आदि रकने थे। सूरीश्वर के उपदेश से प्रति श्रद्धावान्-धनवान्-बुद्धिमान् श्रीमल्ल' नामक भावक के मनमें यह विचार हुआ कि 'लक्ष्मलिता का यही फल है कि यह सुकृत में लगाई जाय । क्योंकि जिस समय इस संसार से हम चले जायेंगे, उस समय खाली हाथही जायेंगे। न तो भाकाम आवेगा, न पिता, न माता और न लक्ष्मी । लक्ष्मी वही सार्थक है जो इस हाथ से धर्म कार्यों में लगाई जायगी' बस ! यही विचार करके 'श्रीमल्ल' ने प्राचार्य पदवीका महोत्सव करना निश्चय किया। - गुजरात-मारवाड़-मालवा आदि देशो में कुंकुम पत्रिकाएं भेजवा दी गई। इस महोत्सव के ऊपर अनेक देश के श्रावक इकडे होने से यह नगर पञ्चरंगी पाघ से सुशोभित होने लगा।
श्रीमल्ल भावक ने महोत्सव मारंभ किया। अपने यहां पर एक सुन्दर मण्डप की रचना की । शहर के समस्त राजमार्ग साफ करवाए । सुगन्धित जल से नगर में छिड़काव हो गया। घर घर में नए तोरण बांधे गए । घरकी दिवाले रंग बिरंग से सुः शोभित की गइ । वृक्षों के ऊपर ध्वजा-पताकाएं लजाइ गई । देव-मन्दिर भी अत्युत्तम रीति से सजाए गए । देखते ही देखते में सम्पूर्ण नगर अमरापुरी की उपमा लायक बन गया। : आचार्य पदवी के दिन 'भीमल्ल ' शेठ अपने भ्रातृपुत्र शोभचन्द को साथ में लेकर, पञ्चवर्ण के वस्त्र धारण करके अनेक प्र. कार के आभूषणो से अलंकृत होकर श्रीसूरिजीके पास आए और इस तरह प्रार्थना करने लगेः- .
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विजयमशस्तिसार ।
हे पूजपाद ! सूरि पदकी स्थापना का समय निकट आया है आप कृपा करके मेरे घरको पवित्र करिये " ।
इसके पश्चात् तुरन्तही श्रीसूरीश्वर अनेक साधु-साध्वी-भाचक भाविका के वृन्द के साथ वहां पधारे जहां कि आचार्य पदवी देने के लिये मण्डप की रचना हुई थी। सं० १६५६ मिती बैशाख' शुक्ल ४ सोमवार के दिन उत्तम नक्षत्र में श्रीविद्याविजय मुनीश्वर को. 'सूर' पद अर्पण किया गया। इस नए सूरिजी का नाम श्रीविजयदेवसूरि ' रक्खा गया ।
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श्रीमल्ल' नामक भावक ने इस समय अभूतपूर्व दान किया । वाद्यादि सामग्रियों की तो सीमाही नहीं थीं। बाहर से आए हुए अतिथियों को उत्तमोत्तम भोजन देकर स्वामिवात्मय किया गया । इस उत्सव के समाप्त होने के भीतरही श्रीसंघ के आग्रह से श्रीसूरीश्वर ने श्री मेघविजयमुनि जी को उपाध्याय पद दिया । इसके बाद थोड़ेही दिनों में 'कीका' नामक ठक्कुर के यहां श्रीप्रभुप्रतिमा की प्रतिष्ठा की और उसी समय विजयराज मुनीश्वर को भी उपा ध्याय पद दिया गया । इस तरह ' श्रीमल्ल ' और ' कीका ' ठक्कुर ने समस्त संघ को संतुष्ट किया ।
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इसी शहर में चातुर्मास पूर्णकर सूरिजी फिर महिलपुर पा टन पधारे। इस नगर में चातुर्मासान्त में श्रीविजयसेनसूरि की इच्छा श्रीविजयदेवसूरिजी को गच्छ की समस्त आज्ञा देने की हुई । इस कार्य के निमित्त महानू परीक्षक पं० सहसवीर नामक श्रावक ने एक बड़ा उत्सव किया । इस उत्सव पूर्वक सं० १६५७ मिती पौष वदी ६ के दिन उत्तम मुहूर्त में श्रीबिजयदेवसूरीश्वर को सं पूर्ण सिद्धान्त संबन्धी वाचना देने की तथा तपगच्छ का अधिप
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बारहवा प्रकरणा ।
स्वात्मिक आशा दी गई। इतनाही नहीं बल्कि उस आशा रूपी नगरी: के किल्लेभूत उत्तम सूरिमंत्र भी अर्पण किया गया ।
अब महिलपुर पाटण से विहार करके सूरिजी भीसंकेश्वरः जी पधारे। यहां पर भीसंगेश्वरजी पाश्र्वनाथ की यात्रा की और नयविजय नामक मुनि को लुंपाकमत स्याग करा कर गुरु शिष्य का आभयण करते हुए उपाध्याय पद अर्पण किया । इस समय अनेक घोड़े - हाथी-उंट पैदल वगैरह आईवर के साथ मार घाड देश से महान् संघपति हेमराज, भीसंघकी साथ में शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा को जाते हुए भीसंखेश्वर में आकर बड़े उत्सव के साथ मुनीश्वरों का दर्शन करने को थोड़े रोज ठहर गए ।
यहां से विहार करके प्रामानुब्राम बिचरते हुए, भव्य प्राणियों को वीर परमात्मा की वाणी का लाभ देते हुए सुरीश्वरजी अहमदा बाद पधारे ।
बारहवा प्रकरण ।
( अनेक प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा । तेजपाल नामक श्रावक का बडा भारी संघ निकालना । रामसैन्य तीर्थ की यात्रा । मेघराज मुनिका कामत त्याग करना । तीर्थाधिराजकी यात्रा और श्रीविजयदेवसूरिजी का पृथक् विचरना इत्यादि )
अहमदाबाद के भावकों ने श्रीसूरीश्वरजी की वाणीले अपूर्व लाभ उठाया। इधर प्रतिष्ठा पर प्रतिष्ठा होने लगी । एक पुण्यपा ल नामक श्रावक ने ५१ अंगुल प्रमाण की श्रीशीतलनाथ स्वामी की प्रतिमा की, तथा उनके भाइ ठाकर ने ७५ अंगुल प्रमाण की
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विजयप्रशस्तिसार ।
श्रीसंभवनाथ स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई । इसी के साथ २ एक नाकर नामक श्रावक ने भी ५१ अंगुल प्रमाण की श्रीसंभवनाथ स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई । इस अवसर पर स्तम्भतीर्थ के रईस वजश्रा (ब्रजलाल) नामक श्रावक मे ( जिसने की पहिले भी श्रीपार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा करवाह थी ) एक पार्श्वनाथ प्रभु की तिरसठ अंगुल प्रमाण की मूर्ति बनबाकर प्रतिष्ठा करवाई ।
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इस पार्श्वनाथप्रभु की महिमा अपूर्वही होने लगी । जो व्यक्ति स्वर्ग और मोक्ष को देने वाले इस पार्श्वनाथप्रभु के नाम-मंत्र का सर्वदा अपने अन्तःकरण में स्मरण करने लगा, उसको श्राधिव्याधि-विरोध - समुद्रभय-भूत-पिशाच - व्यन्तर-चोर आदि सभी प्रकार के भय नष्ट होने लगे । बात भी ठीक है । 'भीपाइ नाथाय नमः इस मंत्र में ही इस प्रकार की शक्ति स्थापित है । पूर्वाचार्योंने भी यही कहा है कि:प्राधिव्याधिविरोधिवारिधियुधि व्यालस्फटालोरगे । भूत प्रेतमलिम्लुचादिषु भयं तस्येह नो जायते ॥ नित्यं चेतसि ' पार्श्वनाथ ' इति हि स्वर्गापवर्गप्रदं । सन्मन्त्रं चतुरक्षरं प्रतिकलं यः पाठसिद्धं पठेत् ॥ १ ॥ इसके सिवाय चातुर्मास समाप्त होने के पश्चात् 'सिंघजी नामक श्रेष्ठीने अजितनाथ प्रभुकी प्रतिमा स्थापित करवाई।' श्रीपाल ' नामक जहरीने ६७ अंगुल प्रमाण की पार्श्वनाथकी, प्रतिमा प्रतिष्टित करवाई। जिसका नाम 'जगद्वल्लभ' रक्खा । एवं स्तम्भ तीर्थ के रईस तेजपाल नामक भावक ने ६६ अंगुल प्रमाण की आदीश्वर भगवान् की प्रतिमा स्थापित करवाई । पट्टण नगर निवासी तेजपाल सोनीने ४७ अंगुल प्रमाण की भीसुपार्श्वनाथ प्रभुकी प्रतिमा
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बारहवा प्रकरण । निम्मित कराई । इन ऊपर कहीं प्रतिमाओं और अन्य अनेक प्रतिमानों की प्रतिष्ठा भीविजयसेन सूरीश्वर ने अपने हाथ से की।
इस साल में भीसूरीश्वर के उपदेश से श्रीतेजपाल सोनी ने संघपति होकरके तीर्थयात्रा करने को संघ निकाला । हजारों मनुष्य को साथ लेकर श्रीगुरु माझा प्राप्त कर संघपति यात्रा के लिये चले । मार्ग में जहां २ श्रावक का घर आता था, वहां २ प्रत्येक घर में एक २ 'महिमुन्दिका' देते थे । पहिले पहल इस संघ ने तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा की । इसके पश्चात् मीरोही-राणपुर नारदपुरी-वरकाणा आदि तीर्थोकी यात्रा करके मारवाड में स्थित प्रायः समस्त तीर्थों की यात्रा करके सारासंघ अपने देश में आया । अपने नगर पाने के बाद संघपतिने श्रावक के प्रत्येक घरमें एक २ लाइडू और रुपये युक्त पकर थाल की प्रभाव. ना की । यह सब प्रभाव भीविजयसेनसूरिजी का ही था । क्योंकि तीर्थ यात्रा-स्वामिभाईकी भक्ति मादि शासन प्रभाधना के कार्य करने से कैसे २ फलकी प्राप्ति होती है ? यह सब गुरु महाराज के उपदेश से श्रेष्टी ने जाना था। · भीविजयसेनसूरि जी के अहमदाबाद में रहने से लोगों को धर्मोपदेश का अपूर्व लाभ हुआ। लोगों ने धर्मकार्यों में द्रव्य व्यय करने में जरा भी संकोच न किया। इस उदार चरित का पूरा ब.
न करना कठिन है। सं० १६५६ के एकही चातुर्मास में श्रावकों ने 'एक लक्ष' महि मुन्दिका व्यय किए। . इसके बाद सूरीश्वर की इच्छा राधमपुर जाने की हुई। यहां से चलकर पहिले श्रीसंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा करके सूरीश्वर ने राधनपुर के समीपभूमि को प्राप्त किया । नगर के भावकों ने बड़े उत्साह के साथ सूरिजी का सामेला किया। ...
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विजयप्रशस्तिसार। : यहां के लोगों को भी धर्मदेशना का अपूर्व लाभ मिला । सूरि जी के समुदाय की, ज्ञान-ध्यान-तप-संयमादि क्रियाओं का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता था कि उनको देखते ही लोगों को धर्मकी भोर अभिरुचि हो जाती थी। भापके सत्संग से उपधान मालारोपणचतुर्थव्रत-बारहवत भादि अनेक प्रकार के नियम श्रावकों ने प्रहण किए थे। इसी तरह सारा चातुर्मास सूरीश्वर जी के वारक्षित लास लेही समाप्त हुआ।
कुछ काल पहिले श्रीहीरविजयसूरीश्वर के समय में (सम्बत १६२६ के सात में ) रामसैन्य नामक नगर की भूमि में से एक म. नोहर श्रीऋषभदेव भगवान की प्रतिमा निकली हुई थी। यहां के श्रावकों ने इस प्रतिमा को इसी स्थान में एक भूमिगृह में स्थापन की थी। इस बात की प्रसिद्धि जगत में पहले ही से फैल चुकी थी।
इस तीर्थ की यात्रा करने के लिये राधनपुर का भीसंघ श्रीसूरीश्वर के साथ में चला । क्रमशः चलते हुए बहुत दिन व्यतीत होनेपर इस तीर्थ में वह संघ प्रापहुंचा । श्रीऋषभदेव भगवान के दर्शन करके सब लोग कृतकृत्य हो गए । श्रीसंघ ने भी बहुत द्रव्य का व्यय करके स्थावर-जंगम तीर्थ की अच्छी तरह भक्ति की। यहां की यात्रा करने से लोगों को अपूर्व भाव उत्पन्न हुए। फिर लौट करके सब लोग राधपुर पाए । सूरीश्वर आदि मुनिवर भी उस समय वहां पधारे। । राधनपुर में सूरीश्वर के पाने के बाद अनेक शुभ कार्य हुए। जिनमें 'बासणजोट ' नामक भावक का बड़े उत्साह के साथ एक नए मंदिर की प्रतिष्ठा कराना, एक मुख्य कार्य था। कुछ दिन यहांपर ठहर करके फिर आप 'बड़ती' नगर में गए । यहां श्री
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बारहवा प्रकरण। विजयदानसूरि और श्रीहीरविजयसूरि के दो कीर्ति स्तंभ बड़े ही पाश्चर्यकारीये । इसकीति स्तम्भके भागे प्रत्येक भाद्रशुक्ल एकादशी के दिन वटपल्ली और पत्तन नगर के लोग इकट्ठे होकरके बड़ा सत्सव करते हैं। यहां आकरके विजयसेनसूरि ने इस कीर्ति स्तम्भ के सामने गुरुपयों की स्तवना की। यहां से बिहार करके पत्तन नगर के श्रावकों के प्राग्रह से पाप पत्तन पधारे। ' दूसरी ओर, इस पत्ननगर में विराजते हुए श्रीविजयदेवसूरि के वागविलास से उत्साहित होकर लुकामत का स्वामी मुनि मेघराज (जो पहिले पहल लुकामत को त्याग करने वाले मेघजी ऋषि का प्रशिष्य था) के मनमे अपने मतको त्याग करने की इच्छाहुई । वह भी. विजयसेनसूरिजी के चरण कमल में आया। विजयसेनसूरिजी की देशना सुनने से इन महानुभावकी श्रद्धा और भी पक्की हुई । इसके बाद मुनि मेघराज ने लुका मत को त्याग किया और श्रीतपागच्छरूप वृक्ष की शीतल छाया में रहने लगा। बड़े समारोह के साथ तपागच्छ में यह दीक्षित किए गये। - एक दिन इस पत्तननगर के एक 'कुमरगिरि' नामक पुर के भाचकबर्ग ने अतीव आग्रहपूर्वक विनति की- हेवपालु महाराज ! माप के चरणकमल से हमारा छोटा पुर पवित्र होना चाहिये।' लाभ का कारण देख करके मुनिवरों ने आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा के दिन इस पुर में प्रवेश किया। इस पुर में चातुर्मास करने से यहाँ के लोगों को धर्म कृत्य करने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। पत्तननगर के लोग भी इस उपदेश का लाभ सर्वदा ले सकते थे। . . चातुर्मास समाप्त होने पर श्रीसूरीश्वरजी श्रीसंस्लेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा को पधारे । पुनः भीसंघ के आग्रह से आपका पचननगर
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विजयप्रशास्तिसार। पाना हुआ यहां पर फाल्गुण चातुर्मास रह करके आपने स्तम्भ तीर्थ जाने के लिए प्रयाण किया।
इस प्रकार पृथ्वी तलको पावन करते हुए चाणसमा राजनगर-' आदि की यात्रा करते हुए आपने स्तम्भतीर्थ में प्रवेश किया । आपके उपदेश से यहां के लोगों ने भी प्रतिष्ठादि बहुत से कार्य किये । भार वकों के आग्रह से चातुर्मास की स्थिति सूरिजी ने यहांही की। चातुर्मास व्यतीत होने के बाद आपने अकबरपुर नामक शाखापुर में प्राकर चातुर्मास किया । तदनन्तर बिहार करके आप गन्धारपुर में पधारे।
गन्धार बन्दर में भी आपने बहुतसी प्रतिष्ठाएं की, और उपदेश द्वारा लोगों को लाभ प्रदान किया। यहां से आप विहार करके भूगु. कच्छ-रानेर आदि होते हुए तापीनदी को नाबसे उल्लंघन करके सु. रत पधारे। यहांपर भी प्रतिष्ठाएं की और चातुर्मास की स्थिति समाप्त करके बिहार किया। स्तम्भ तीर्थ आदि स्थानों में होते हुए श्रीविजयदेवसूरि के सहित भाप श्रीसिद्धाचल जी पधारे । वहांपर एस समय स्तम्भ तीर्थ-राजनगर-पत्तन-नवीन नगर-द्वीप बन्दिर
आदि नगरों से संघ आए हुए थे। इन लोगों को भी सूरिजी के उपदेश से बहुत लाभ मिला । यहां से भीविजयसेनसूरि जी ने द्वीप बन्दर के लोगों के आग्रह से द्वीप बन्दर की ओर प्रयाण किया और गु. जरात के लोगों के आग्रह से श्रीविजयदेवसूरि को गुजरात में विचरने की आज्ञा दी।
जिस प्रकार कस्तूरी की सुगन्धि फैलाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। यह पापही से फैलजाती है। उसी प्रकार सूरीश्वर जी की यश-कीर्ति चारों ओर फैलगई । सौराष्ट्र देशमें विचरने से लौरा'ट्रदेश के लोग अपने २ ग्रामों में लेजाने के लिये नित्य प्रार्थना करते
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ही रहते थे। सूरिजी का आना द्वीपबन्दर के पास उन्नत नगर में हुआ। उसी स्थानपर परम पूज्य-प्रातःस्मरणीय गुरुवर्य भीहीरविजयसूरिजी का देहान्त हुया था। वहां आपने सबके प्रथम अपने गुरु वयं की पादुका के दर्शन किये । और उसके बाद फिर उन्नत नगर में प्रवेश किया।
दीपबन्दर से 'मेघजी' नामक एक व्यवहारी और 'लाडकी' ना. , मकी उसकी शीलवती भार्या, यह दोनों उन्नत नगर में सूरिजी के द. .र्शनार्थ आए । बहां आकर उन्होंने भीसूरीश्वर के हाथ से प्रतिष्ठा क - रबाई । यहाँपर भी नवीन प्रतिष्ठानों की धूम मचगई । एक 'अमूला' नामकी भाविका ने प्रतिष्ठा करवाई। दूसरी द्वीप मन्दिर निवासी का. लीदास' नामक श्रावक ने भी करवाई।
श्रीसंघ के प्राग्रह से चातुर्मास मापने यहांही किया। चातुर्मास पूर्ण होने के बाद आप ' देवपत्तन पधारे। इस नगर में अमरदत्त, विष्णु और लालजी नामक तीन बड़े धनिक रहते थे। इन तीनों ने बड़े समारोह के साथ श्रीसूरीश्वर के हाथ से तीन प्रतिष्ठाएं करवाई। यहां से बिहार करके आप भीदेवकुल पाटक(देलवाड़ा) पधारें । यहां भी 'हीरजी' नामक भाषक के घर में एक प्रतिष्ठा की और दूसरी शोभा नामकी भाविका के घर में। ..
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विजयप्रशस्तिसार ।
तेरहवां प्रकरण । (कषितान-कलास-पादरी युक्त फरंगी समुदाय की प्रार्थना । श्रीनन्दिविजयका द्वीपमन्दिर जाना । गिरनारजी की यात्रा । स्वयं श्रीसूरीश्वर का द्वीपमन्दिर पधारना । संखेश्वर की यात्रा । ग्रामानुग्राम विचरना और .
अन्तिम उपसंहार)। जिस समय में भी विजयसेनसूरीश्वरजी देवकुल पाटक में विराजते थे । उस समय में द्वीप बन्दर के फिरंगी लोग, अपने कपतान ( अधिकारी विशेष ) कलाम ( अमात्य विशेष ) पादरी (धर्म गुरु ) इत्यादि के साथ श्रीसृरिजी के पास प्राकर प्रार्थना करने लगे:
"हे गुरुत्तंस ! हे निर्मल हृदय ! आप द्वीप बन्दिर पधार कर हम जैसे अन्धकार में पड़े हुए लोगों का कुछ उद्धार करिए । कदाचित आप स्वयं न मानके तो किसी एक उत्तम चेले को भेज करके हमारे हदयों को शान्त करिये।"
इस प्रकार फिरंगी लोगों के प्रत्याग्रह से सुरीश्वर ने अपने नन्दिविजय नामक चमत्कारी मुनिको द्वीप बन्दर भेजा । भीनन्दिविजबकी कला कौशल्य और चमत्कारिक विद्यामों से लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। लोगों ने भीनन्दिविजय मुनीश्वर का बहुतही सत्कार किया। आपने यहां पर तीन रोज ठहर करके व्याख्यान द्वारा जी. वादि नव तत्वों का उपदेश करके लेागो के अन्तःकरणों में बहुत ही प्रभाव डाला । भीसंघ के साथ तीन दिन रह कर भाप पुनः गुरु महाराज के पास भागए । एक दिन मापने श्रीनेमनाथ प्रभु
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तेरहवा प्रकरण। की यात्रा के लिये विहार किया। साथ में द्वीप बन्दर का भीसंघ भी पता । बहुत दिन व्यतीत होने पर प्राप गिरनार जी पहुंचे। इस समय गिरनार में 'खुरम '. राज्य करता था। यह राजा स्वभाष ही साधुनों के प्रति बड़ा फर स्वभाव रखताथा । किन्तु भीविजवसेनरिजी के तपस्तेज से यह भी शान्त हो गया । कहां तक कहा जाय ? । राजा ने सुरीश्वर का बड़ा ही पवार विषा । एक दिन भीसंघ के साथ में सब लोग गिरि पर पढ़े और श्रीसिद्धराज जयसिंह के महामंत्री 'सज्जन श्रेष्ठी' द्वारा निर्माण किये हुए 'पृथिवी जय' नामक प्रासाद में विराजमान भी मेमीमाथ की मनोहर प्रतिमा के दर्शन करके सब लोग कृतकृत्य हुए । अनेक प्रकार से मुनिवरों ने भाव पूजा और बंधने द्रव्यादि से पूजा की । वहां पर कुछ दिन ठहर कर सब लोग देवपत्तन पाए । यहां से द्वीप बन्दिर का संघ गुरुवंदन करके स्वस्थान पर चला गया । देवपचनमें सूरीश्वरने दो चातुर्माम करके बड़े उत्सव के साथ दो प्रतिष्ठाएँ की । इसके उपरान्त यहां से विहार करके देलवाडे में पधारे। यहां मानेपर वह फिरंगी लोग बो भीनन्दिवि. जय जी को प्रार्थना करके पहले अपने द्वीप बन्दर में ले गये थे उन्होंने यह विचार किया-'श्रीगुरु महाराज वर्तमान देवकुला पाटक में पधारे हुए हैं। तथा जिन के प्रभावसे यहां का संघ वात्रा के लिये गत वर्ष में गया था, वह भी सकुशल पहुंच गया है। अत एव उस एपकारी महात्मा का पुनः दर्शन करना चाहिये।'..
इस प्रकार विचार करके फिरंगी लोग देवकुलपाटक में प्रार', और श्रीगुरु महाराज से प्रार्थना करने लगेः__ " हे गुरो ! इस जगत में हितकारी कार्यों के करने में दक्ष आप ही हैं। मापही आषाढ़ के मेघ की तरह इस जगतके वाल..
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*विनयाशक्तिसार । तारन छपमा हमारे साम्राज्य में स्थित डीप बन्दर में आप समास्मिा और हमारे मनोस्थों को पूर्ण करिये।".
। इस प्रकार की सस्याग्रहपूर्ण प्रिनतिको मुनकर मूरिजी मरे विचार किया कि फिरंगी लोगों का इसना माह है। द्वीपहिरके भीसंघ का मानह तो पहिले से ही है। मायावहां पर जाना उचित है। वहां जाने से धर्म-धनका लाभ तो अपने को होगा। और अन्य जीवों को भी बोधि प्राप्त रूप लाभ होगा। फिर रस बन्दर में अभीतक किसी प्राचार्य का जाना नहीं हुआ है इत्यादि बाते मोच करके भीषिजयसेनसूनि द्वीप बन्दिर पधारे ।
मार्ग में द्वीपाधिपति फिरंगी ने 'मचुआ' नामक वाहन को भेजा और उसमें बैठ करके भाष पार उतरे । गुरु महाराज के पुर प्रदेश के समय फिरंगी लोगों ने तथा श्रीसंघ ने बड़े उस्लाहो प्रायअवर्णनीय महोत्सव किया। मिष्य ब्याख्यान वाणी होने लगी। सबलोग सूरीश्वर के उपदेश रूपी अमृत से अपनी तृषाको शान्त करने लगे। एक दिन फिरंगी खोगों की मुख्य सभा में भी जोर और सूरीश्वर ने सत्य धर्म का प्रति प्रदान किया । अर्थात् इ. होने यह बात सिद्ध करके दिखाया कि-अदि को भी मोक्षमार्ग को साधन कराने वाला धर्म है तो वह जैन धर्म ही है। लोगों के अन्तःकरण में इस बातका निश्चय होगया । समस्त लोग-मास्वयं युक्त होकर यह कहने लगे:-"महा! सूरीश्वर जी का कैसा प्रभाव है कि फिरंगी से प्राचार विहीन लोग भी इसके उपदेश से संतुष्ट होमए। महात्मानौ के जातुर्य की क्या बात है।" कुछ दिन रहकर देवकुल पाटक में भाकर सूरीश्वर ने चातुर्मास किया। ...चातुर्माण होने के पश्चात् 'नवानगर' के कितनेही अधिकारी वो मस्याग्रह से माप" भाणवाड होते हुए नवानगर पधारे।
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सोश्वर के दर्शन करने के लिये 'जाम' राजा भी कभी बाबा करता था। चातुर्मास यहां ही किया। ..: तदन्तर भनेक नगरों के भीध के साथ सूरिनी श्रीसंस्कार पार्श्वनाथ की यात्रा करने को पधारे। यहां की यात्रा के प्राफ अहमदाबाद पधारे । भीविजयदेवमूरि जी ने भी साफ के सापही अहमदाबाद में चातुर्मास किया। .. इस वर्ष में अहमदाबाद में बड़ा भारी, यह कार्य शुमा वियहां की जाति में एक बारह वर्ष से विरोध चला पाता था। जो कि किसी से भी नष्ट नहीं हुआथा। वह विरोधभी सूरीश्वरकी उपदेश वापी से नष्ट हुआ और सब लोगों में ऐक्य होगया। . शिष पाठक! सर्वदा उपदेश का प्रभाष तबाह होता कि जय उपदेशक स्वयं उस तरह का माचरण करता हो । यदि स्वयं उपा देश करने वाला प्रशान्तिका उत्पादक है, तो उनके उपदेश का प्र. भाष लोगोंपर जरा भी नहीं हो सकता है । इसी लिये उपदेशकों को चाहिये कि वह प्रथम स्वयं शान्ति-प्रिय बने ।. ..चातुर्मास उतारने के बाद सूहीश्वर नो दो प्रतिष्ठा माघ मास में और दो बैशाख में करवाई। फिर दोनों सूरीश्वर पृथ्वी तलको पवित्र करने लगे।
उपसंहार । पवित्र प्रातःस्मरणीय जगदुपकारी महात्मानों को यह संक्षिप्त जीवनी " श्रीविजनप्रशस्ति काव्य" के आधारपर लिखी गई है। इसकी समाप्ति के प्रथम इतना कहना परमावश्यक है कि श्री. विजयसेनसूरीश्वर के राज्य में प्रधान पट्टधर विजयदेवसूरि थे।
आप शासन भारको वहन करने में अत्यन्त निपुण थे। इनमें म. तिरिक्त पाउ“ उपाध्याय" पदधारी, और सैकड़ों मुनि “पडित,
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विजयप्रशस्तिसार । पदवी धारकथे। इस पवित्र समूह में अनेक व्याकरण शाख के पारगामी, कितने तर्क शास्त्रमै वृहस्पति तुल्य थे। और कितनेही माशुचवि तथा व्याख्यान देने में पाचस्पति होरहे थे । गणधर-श्रुत केवरीकतसूत्र, भोपांगादिमें तथा बहुत से गणितशास्त्र, ज्योतिष, साहित्य छन्दानुशासन,लिंगानुशासन, धर्मशास्त्र आदि सब विषयों के जानने वाले पैकड़ों साधु भीसूरिजी महाराज के साम्राज्य में थे। - भीसूरिजी महाराज के उपदेश से भीशत्रुञ्जय-भीतारंगा-भी. विद्यानगर-भीराणपुर-भीमारामणपुर-पत्ननगर में पंचासर पा. श्र्वनाथ-भीनारंगपुरीयपार्श्वनाथादि के तीर्थ का इत्यादि बहुत से तीर्थोशार हुए । प्रतिष्ठाएं तो बहुतसी जीवन चरित्र में दिखाई गई हैं । भीमेश्वर प्राम में श्रीपार्श्वनाथ का शिखरबंध मन्दिर का निर्माण भी सूरीश्वर ने करवाया था। - नगर २ में स्थान२ में राजा महाराजाओं के अतुच्छ महोत्सवों से पूजित श्रीहीरविजयसूरि और भोविजयसेनसरि पुण्य प्रभावसे इस चरित्र को पढ़ने वाले पाठकों को उत्तमोत्तम गुणों की प्राप्ति हो, यह इच्छा करता हुमा इस पवित्र चरित्र को यहांही समाप्त करता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
सूचना ' "भीहीरविजयसूरि, मकबर बादशाह को धर्मोपदेश दे रहेहैं," इस भाव की फोटु जिसको चाहिए, वह 'श्वेताम्बर मोसवाल जैन लायब्रेरी, चौक लखनऊ' इस पतेसे मंगवाते । केबीनाइट ) फूललारश).
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________________ जैन-शासन / (पाक्षिक पत्र ) यह पत्र हरपूर्णिमा तथा अमावास्या को प्रकट होता है / इस पत्र में ऐतिहासिक, नैतिक एवं धार्मिक विषय के लेख प्रकाशित हुआ करते हैं / गुजराती के साथ हिन्दी भाषा में भी प्रायः लेख रहते हैं। वार्षिक 2) ग्राहक होने वाले को चाहिए कि अपना, नाम, गांव इत्यादि पूरा पता साफ अक्षरों में लिख भेजें। श्रीयशोविजयनग्रन्थमाला (संस्कृत मासिक पुस्तक) भीयशोविजय जैनग्रन्थमाला मासिक में एकसौ पृष्ठ संस्कृत और प्राकृत के निकाले जाते हैं / जिसमें न्याय, केश तथा महाकाव्य के ग्रन्थ क्रमशः प्रकाशित होते हैं / डाक महसूल के साथ वार्षिक 8) प्रथम से लेने में आते हैं / नमूना का अंक किसी को भेजने में नहीं आता है। शास्त्रविशारद जैनाचार्य-श्रीविजयधर्मसूरिजी कृत 1. जैनतत्त्वदिग्दर्शन (हिन्दी भाषा ) 2. जैनशिक्षादिग्दर्शन 3. (गुजराती) 4. पुरुषार्थदिग्दर्शन (हिन्दी भाषा) 040 5. आत्मोन्नतिदिग्दर्शन (गुजराती) 6. अहिंसादिग्दर्शन- (हिन्दी) 0-40 (बंगला) 0-40 विजयप्रशस्तिसार (हिन्दी) 06-0 पताः-शाह-हर्षचन्द्र भूराभाई / अंग्रेजी कोठी-बनारस-सिटी, 002.0 0.2-0 0.2.0 0.06