________________
पांचवा प्रकरण।
३५ इसके उपरान्त राजा और सूरीश्वर दोनों क्षमापति एकान्त स्थान में विचार करने को बैठे । इस अवस्थामै स्थिर बुद्धि होकर राजा में भीहरिविजय सूरीश्वर से 'ईश्वर का स्वरूप' पूछा । सूरी. श्वरने भी बड़ी गंभीरता के साथ परमात्मा का स्वरूप, जिस तरह सिद्धसेनदिवाकर-कलिकाल सर्वज्ञ भीहेमचन्द्राचार्य प्रभु आदि पूर्वाचार्यों ने वर्णन किया है उसके अनुसार आपने भी कथन कहकर राजा को समझाया। इस विवेचन को आदर पूर्वक सुनता हुआ राजा भत्यन्त तुष्टमान-प्रसन्न हुआ । इसके पश्चात् राजा ने अपने राज्य में रक्ने हुए जैनागम, (अंगोपांग-मूलसूत्रादि) तथा भागवत-महाभारत-पुराण-रामायणादि जो शैवशाख थे वह सब श्रीसूरीश्वर को दिखलाए । और विनय पूर्वक कहा कि-"यह सब पुस्तके आप ग्रहण करिये"। इस प्रकार के वाक्य कह कर वह ग्रंथ सूरीश्वर को भेट करने लगा । राजा का बहुत प्राग्रह होने पर भी सरिजी ने स्वीकार नहीं किये । तब राजाने स्याग किये धुए पुस्तकों में भी मुनिराज का निर्ममत्व देखकर अपने मनमें विचारा कि "महो ! यह मुनिमतंगज पुस्तक को भी ग्रहण नहीं करते हैं तो मैं जो धन-काञ्चन देने को विचार कर रहाहूँ उन सध पदार्थों को यह कैसे ग्रहण करेंगे।" जब पुस्तक सूरीश्वर ने नहीं प्रहणी तब सब पुस्तके अलग रस्त्रवादी अर्थात् राजा खुन इनसे मुक्त होगया। वह सब पुस्तके मकबर बादशाह' के नाम से माना के एक भंडार में भेज दी गाँ। . राजाने बड़े समारोह के साथ सूरीश्वर को उपाश्रय में पहुँचा. था। जब शाहीमन्दिर से विदा होकर मुनीपुङ्गव राजद्वार प्रतो. स्ली में होते हुए चलने लगे, उस समय की शोभा को देख करके भास्तिक लोग मन में कहने लगे, क्या आज महावीर जन्म राशी