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पहला प्रकरणं ।
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पिता को एक पुत्र की लालशा थी, वह संपूर्ण पूरी हो गई है । पि ताने अभी तो पुत्रका सुख कुछ भी नहीं लिया है । केवल उस के मुखचन्द्र का दर्शन मात्र किया है। ऐसी अवस्था में 'कमा ' सेठ क्या सोचते हैं ? " मुझे एक पुत्र की इच्छा थी सो धर्म के प्रसाद ले पूर्ण हुई है । पुत्र अवस्था के लायक होने आया है । अब मैं इस असार संसार को त्याग करके मोक्ष को देने वाली दीक्षा को ग्रहण करूं " देखिये ! पाठक : कैसी संतोष वृत्ति है ? उत्तम जीवों के तो यही लक्षण हैं? सेठ को इस असार संसार से विरक्तभाव पैदा हुआ ।
एक दिन की वात है-' कमा' सेठ ने बड़ी गंभीरता के साथ अपनी धर्म पत्नी से कहा कि - " हे प्रिये ! हे भायें ! तुम्हें एक पुत्रं हुआ है, अब तुम संतोष वृत्ति को धारण करो । मैं अब तुम्हारी अनुमति से तपगच्छनायक गुरुवर्य श्रीविजयदानसूरश्विर के पासदीक्षा ग्रहण करूंगा । " पति के यह वचन कोडमदेवी को तड़ित पात समान लगे । इन बचनों को सुनकर सतीओं में शंखर समानं कोडीमदेवी बोली कि - " हे स्वामिन् ! हे ईश ! जैसे बिना चन्द्रम की रात्रि सुख दायक हो नहीं सकती है, वैसे आपके विना अज्ञान में रही हुई मैं क्या करूंगी ? मेरी क्या गति होगी। १ सतीनों को माता शरण नहीं है | पिता शरण नहीं है । पुत्र शरण नहीं है । और भाई भी शरण नहीं । किन्तु सतीओं के लिये तो एक पति हों शरण है । अतएव हे स्वामिन् ! आप के साथ में हमारा भी मनुष्यं जन्म का फल, तपस्या का आचरण ही होना उचित है । अर्थात यह 'प्राण प्रिय ' जयसिंह ' बालक के साथ मैं भी आपके प्रसाद से श्रापके साथ में तपस्या और व्रत अंगीकार करूंगी " ।
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इस प्रकार के विलाप युक्त वचनों को सुन करके सेठ ने कहा कि " हे भार्ये ! जैसे सर्प कंचुकी को छोड़ देता है वैसे ही मैं भी