Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 69
________________ विजयप्रशस्तिसार । के साथ अनशन कर लिया। इस समय में भाद्ध धर्ग ने जो महोत्सव किया उसका वर्णन इस लिखनी से होना असम्भव है। इसके पश्चात् मोक्ष सुख को देने वाला नमस्कार (नवकार) मंत्र का ध्यान करते हुए, मन-वचन-काया से किये हुए पापो की निंदा करते हुए, प्राणि मात्र मैत्री भावको धारण करते हुए, शरीर का भी ममत्व को त्याग करते हुए श्रीहीरविजयसूरीश्वर ने सं-१६५२ मिती भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन इस भवसंबंधी मलीन शरीर को त्याग करके देवयोनि का मनोज्ञ शरीर धार• ण किया। ____ अब श्रीहीरविजयसूरजी इस लोक से चले गए । मापने देव बोक को भूषित किया । श्रीसूरीश्वर का देहान्त होने पर इस नगर के समस्त संघने इस मृत शरीर को अनेक प्रकार के चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों से विलेपन किया । एक विशाला-नामक शिवि. का को बना करके उसमें उस मृत शरीर को स्थापन किया । शोक चित्त वाले हजारों मनुष्यों ने संस्कार भूमि में ले जा कर भन्दनादि काष्ट से उस शरीर का अग्नि संस्कार किया। इसके उपरान्त इस उन्नत नगर से श्रीसूरीश्वर स्वर्ग गमन के समाचार पत्र ग्राम ग्राम भेजे गये-जब पाटन नगर में श्रीविजय. सेम सूरीजी के पास यह दुःन दायक समाचार आया और जब वे उसे पढ़ने लगे तो उनका हृदय अकस्मात भर आया । सब साधुमण्डल बड़ा दुखी हुमा । पवित्र गुरु महाराज के विरह से खेदकी सीमा रही नहीं । हमारे श्रीविजयसेनसूरिजी सखेद गद गद वाणी से बोलने लगे:-.. - " हे तात । हे कुलीन ! हे अभिजात ! हे ईश ! हे प्रभो ! आप मुझ से बार २ यह कहते थे कि तूं मेरे हृदय में हैं ' यह

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