________________
sans
दशवा प्रकरण। सब मजागलस्तनवत्' हो गया । हे प्रभो । मै लाहौर से ऐसा समझ करके निकलाथा कि 'गुरु वर्य के चरण कमल में जाकर सेवा करुंगा। परन्तु हे नाथ आपने तो जरासा भी विलंब नहीं किया। हे स्वामिन् ! आप के मुख कमल के भागे रहने से आप के चरणार्विद में रहने से मेरी जो शोमा थी वह शोभा अब
आपके विरह से 'गगनवल्ली' के समान होगह। . हे भगवन ! अब आपके बिना मैं किसके प्रति महाराज साहेब ! महाराज साहेब ! कहता हुआ विद्याभ्यासी पनूंगा । हे निर्ममेश ! आपके मुख कमल को देखने से मुझे जो रति होती थी वह रति हे प्रभो ! अब किस तरह होगी ? हे प्रभो ! 'तू जा''तू कहे' 'तू माव' 'तू भण' इत्यादि आप के कोमल बचनों से मेरा अं. तःकरण जो फल जाता था अब वह आनंद मुझे कैसे प्राप्त होगा?
और उस कोमल शब्दों से मुझे कौन पुकारेगा ? हे प्रभा । अब प्रापकी आज्ञा के अभाव में मै किसकी प्राज्ञा को अपने मस्तक पर धारण करूंगा ? हे स्वामिन् ! आप के अस्त होनेसे अब कुपातिक लोग बिचारे भव्य जीवों के अंतःकरण में अपने संस्कारों का प्र. धेश कराकर अन्धकार को फैला देंगे। हे प्रभो ! माप जैसे प्रकाशमय स्वामी के अभाव में हमारे भरतक्षेत्र के लोग अब किस प. वित्र पुरुष को अपने अंत:करण में स्थापन करके प्रकाशित होंगे। हे गुरुवर्य ! जैसे कल्पवृक्ष समस्त जनको सुखकर है। वैसे आपका
और अकबर बादशाह का संग समस्त जगत को लाभ दायक था। क्या ! अब मापके विरह से प्रजा को वह सुख फिर कभी भी होने वाला है ? हे कृपानाथ ! आपने कृपारूपी सुन्दरी के साथ अकबर बादशाह की शादी करादी है किन्तु उस दम्पत की जोड़ बिरह रहित न रहो, यही मैं चाहता हूं। हे गुरो ! आपकी कीर्तिलता