Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 68
________________ दशवां प्रकरण । तित्थयरा गणहारी सुरवइणो चकिकेसवा रामा । संहरिभा हयविहिणा का गणणा इयर लोगाणं ॥१॥ अर्थात्-तीर्थकर, गणधर, देवता चक्रवर्ती, केशव, राम प्रादि, सभी इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए तब इतर लोगों का कहना ही जब ऐसी ही अवस्या है तो फिर क्यों मुझे दुःख हो ? हे मुनिगण ! इस संयम की आराधना में भी आप लोगों को को किसी तरह की चिंता नहीं है। क्योंकि पट्टधर श्रीविजयसेनसूरि मेरे स्थान पर मौजूद हैं । धीर, वीर, गंभीर भीविजयसेनसूरि तुम्हारे जैसे पण्डितों के द्वारा मुख्य कर सेवनीय है । (इस अवसर पर समस्त माधुओं ने 'तहति-तहति' करके इस माशा को शिर पर धारण किया)। हे मुनिगण ! भीविजयसेन सूरिकी प्राज्ञा को मानते हुए सब कोइ प्रेम भाव से रहकर परमात्मा वीर के शासन की उन्नति करने में कटिबद्ध रहना।" . बस ! सब साधुमों को इस प्रकार हितशिक्षा दे करके अनशन करने की इच्छा करते हुए सूरीश्वरने कहा कि-"महर्षिों का यही मार्ग है कि आयुष्य के अन्त में भवदुःखको नाश करने वाला अनशन करे" साधु लोग मना करने लगे और दुम्सी होने लगे तब पुनः सूरिजी ने कहा कि-" हे महात्मागण ! मोक्ष के हे. तुभूत कृत्य में आप लोग बाधा मत डालो" इत्यादि वचनों से, अपने शिष्य मण्डल के भाग्रह का निवारण करके माप अनशन करने को प्रस्तुत होगए। इस क्रिया को देखते हुए शिष्य लोगों से कह लोग मूछित होने लगे। कह लोग केल्पांत करने लगे । सूरीश्वर ने शिष्यों के कल्पांत को हठा करके भीपञ्च परमेष्टिकी साक्षी से मतिउत्सूकता

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