Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 67
________________ विजयप्रशस्तिसार । इधर हमारे भीबिजयसेनसूरि लाहोर से बिहार करने को उत्कंठित हुए। यहां पर आपने बहुत वादियों से जय प्राप्त किया, फिर यहां से विहार करके पृथ्वीतल को पावन करते हुए आप 'महिमनगर' पधारे । आपने यहां चातुर्मास किया। इस अवसर पर आपके पास उन्नतपुरी से एक पत्र भाया । उसमें यह लिखा गयाथा कि-'परमपूज्य श्रीहरिविजयसूरि महाराज के शरीर में व्याधि है, और आप जल्दी । यहाँ आइए ।' पत्रको पढ़ते ही सब मुनिमण्डल के अन्तःकरणों में बड़ा दुःख उत्पन्न हुआ । बस ! शीघ्रही यहां से सब लोग उन्नतपुरी को प्रस्थानित हुए । मार्ग में छोटे बड़े शहरों में लोग बड़े२ उत्सव करने लगे। क्योंकि आप अकबरबादशाह को प्रतिबोध करके बहुत से अच्छे २ कार्य करके आते थे। बहुत दिन व्यतीत होने पर आप पत्तन (पाटन) नगर में पधारे । इधर उन्नत नगर में प्रभु श्रीहीरविजयसूरिजीने जाना कि अब भेरा अन्त समय है । ऐसा समझ करके आपने चौरासी लक्ष जीव योनिके साथ क्षमापना और चार शरण रूप, चारित्र धर्म रूप सुन्दर गृहकी ध्वजा की उपमा को धारण करने वाली, क्रिया करली। संलेखना और तपके निर्माण से अपनी आत्मा को तीण बल जान करके श्रीहरिविजयसूरिजी ने अपने सब मुनिमण्डल और श्रद्धालु भावकों को एकत्रित किए। सबके इकट्ठे होने पर आपने अन्तिम उपदेश यह दिया कि: हे श्रद्धालु मुनिगण! थोड़े ही समय में मेरी मृत्यु होने वाली है। इस मृत्यु से मुझे किसी बात की चिंता नहीं है । क्योंकि इस मरण का भय नाश करने के लिये तीर्थकर जैसे भी समर्थ नहीं हुए । कहा भी है कि

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