Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 28
________________ चौथा प्रकरंगा । २१ है । हे पुत्र ! तीक्ष्ण तलबार की धारपर चलना सुगम है । किन्तु दीक्षा ले करके उसको पालन करना बड़ा कठिन है । हे सुकुमार ! अभी तू एक मनोहर रूपवाली कन्या के साथ बिवाह करके गृहस्था वस्था का समस्त सुख भोगले । देवांगना तुल्य सुंदर स्त्री के साथ देवता की तरह समस्त सुखों का अनुभव करले " । इस प्रकार माताके बचनों को सुनता हुआ ' जयसिंह' बालक बोला " हे मातः ! आलनोपकारी श्रीमहावीर देवने मुक्तिमार्ग में निबद्ध बुद्धि वाले पुरुषों के लिये तो गृहस्थावस्था महा पापका कारण दिखलाया है । अतएव मुझे तो ऐसे अगारवास की इच्छा नहीं है । वह स्त्री और वह नाटक-चेटक, सज्जन पुरुषों को वर्ष दायक नहीं होते हैं। मैं समस्त प्राणियों में अद्भुत अभयदान को देने की इच्छा करता हूं । हे अम्बे ! समाधियुक्त मन वाले महात्मा पुरुषों के मार्ग में चलने का मेरा बिचार है और उस मार्ग में संसार सम्बन्धी दुष्कर्म - व्यापार - प्रयासादिरूप आपत्तिएं सर्वदा नहीं है । 'अतएव मेरी तो यही इच्छा है कि तुम भी शीघ्रतया उत्सुक मन होजा । अर्थात् संयम स्वीकार करने में मेरी सहायता कर । इन वाक्यों को सुनकर और बालक का निश्चय बिचार जान कर एक दिन इस बालक को साथ में ले करके कोडिमदेवी ने सुरत जाने के लिये प्रस्थान किया । मार्ग में जगह २ देवदर्शन - गुरुदर्शन करते · हुए, त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा करते हुए और भावचारित्र को धारण करते हुए बहुत दिन व्यतीत होने के बाद यह लोग सूरतबन्दर में जापहुंचे । इस समय सूरत बन्दर में श्रीबिजयदानसूरीश्वर - बिराजते थे । अपने सुकुमार वयस्क बालक को साथ लेकर कोडिम देवी ने गुरु महराज को विधि पूर्वक प्रणाम किया । विनीत भावले हाथ जोड़कर कहने लगी । मेरी यह इच्छा है कि इस बालक के

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