Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 43
________________ ३४ विजयप्रशस्तिसार । और दानीबार नाम के तीन पुत्र एवं सभा माए हुए समस्तलोगों में भूमि स्पर्श करके नमस्कार किया। समस्त सभा के शान्त होने के बाद 'मेवड़ा' नामके एक पुरुषने सूरीश्वर के प्राचारादि नियम जैसे कि-नित्य एक ही दफे माहार करना, सूर्य की विद्यमानता ही में विचरना, याचना किप हुए स्थान में निवास करना, एक महीने में कम से कम ६ उपचास अवश्य करना, आठ महीने भूमि पर सोरहना, गरम पानी पीना, इक्का-गाड़ी-आदि किसी वाहन में न बैठना, इत्यादि बहुत से नियम सुनाये । इस नियमों को सुनते ही लोगों के रोम हर्षित होगये। प्रिय पाठक ! क्याही प्राचार्य की प्राचारविशुद्धता थी? शा. सन के रक्षक, प्रभावशाली और धुरंधर आचार्य होने पर इस प्रकार की उन तपस्या करना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ? किन्तु यह कहना चाहिये कि उन महात्मा के अतःकरण में सम्पूर्ण वैराग्य भरा हुआ था । वह यह नहीं समझते थे कि अब हम प्रा. चार्य होगये हैं, अब तो हमे हरजगह शास्त्रार्थ करने पड़ेंगे । धादिओं के साथ वाद विवाद करने पड़ेंगे । इस लिए जीभर के पुष्ट पदार्थ रोज उड़ावें । किन्तु उन महात्मापुरुर्षों में इस प्रकार के स्वार्थ का लेश भी नहीं था। पाठक ! उनलोगों के रोमर में वैराग्य भरा हुआ था। वह लोग जो उपदेश देते थे वह सच्चे भाव से देते थे और इसी लिए तो उन लोगों का उपदेश सफल होता था। उन लोगों का ‘धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय' ऐसा सिद्धान्त नहीं था। साथही साथ वह यह भी समझते थे कि यदि हम सच्चे प्राचार में नहीं रहेंगे । यदि हम जैसा उपदेश देते हैं वैसा बर्ताव नहीं करेंगे तो हमारी संतति कैसे सुधरेगी? हमारी संतति पर कैसे अच्छा प्रभाव पड़ सकता है?

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