Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 61
________________ ই विजयप्रशस्तिसार। सुकृताचरण करते हैं वह लब निष्फल हो है । प्रतएव ग्राप जैसे राजराजेश्वर के लिये जैनों का मार्ग कल्याकारी नहीं है ।" बस | ब्रह्मण देवताके इस बचन से ही राजा को बड़ा क्रोध हुआ। एक दिन सूरीश्वर राज सभामे आए, तब राजाने क्रोधको अपने अन्तःकरण में रक्खा और उपर से शान्ति रख करके सूरीश्वर से कहा " हे सूरिजी लोग कहते हैं कि ये आपकी जो क्रियापैहैं वे सब लोगों को प्रत्यय कराने वाली हैं । ममशुद्धि को करने घाती नहीं हैं । अतएव इसके निमित्त से समस्त प्राणियों को ठगने वाले ये महात्मा हैं। क्योंकि ईश्वर को तो मानते नहीं है । हे गुरु धर्यं ! इस प्रकारकी मेरे मनकी शंका आप के वचनामृत से नाश होनी चाहिये ।" · बादशाह का यह बचन सुनते ही सूरीश्वर समझ गए कि राजाकी स्वयं यह कोपाग्नि नहीं है, किन्तु ब्रह्म देवता की यह फै लाई हुई माया है । अस्तु । सूरीश्वर ने राजा से कहा- हे राजन् ! हमलोग जिस प्रकार से ईश्वर का स्वरूप मानते हैं, उस प्रकार से और किसी मत में ईश्वर का स्वरूप देखा नहीं जाता है | जरा साव धान हो करके आप सुनिए । “जिस ईश्वर के हर्ष - पीयूष से भरपूर नेत्र शान्त-रसाधिक्य को छोड़ते नहीं हैं । जिस का वदन, समस्त जगत् को परमप्रमोद रूप- सम्पत्तिको देता है । जो प्रभु अश्वमेष- मयूरादि किसि वाहन पर बैठते नहीं हैं । जिस को मित्र पुत्र कलत्रादि कोइ भी परिग्रह नहीं है । जिस ईश्वर को तिन जगत् में भूत-भविष्यत् और वर्तमान वस्तु का प्रकाश करने वाला श न सर्वदा पूर्णरूप से विद्यमान है । जिस ईश्वर को काम-क्रोध-मोहमान-माया-लोभ-निद्रा आदि दूषण हैं ही नहीं। जिसके ज्ञान-गुणोवर्ष के आगे सूर्य भी एक खद्योतकी उपमा है । जिस प्रभुका -

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