Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 62
________________ नवधा प्रकरया । 手 नातिशय जीवों के अंतःकरण में प्रगट होकर आशान रूपी अन्ध कार को नाश करता है । पुनः जो ईश्वर जन्म-जरा-मरण-ग्राधिव्याधि-उपाधि से रहित है । जो ईश्वर स्त्री-पुरुष-शत्रु-मित्र क राय-शेठ शाहुकार - सुख-दुःख इत्यादि में सर्वदा समान मन वाला है अर्थात् समभाव ही को धारण करता है । जिस को शब्द रूपरस- गन्ध और स्पर्श रूप पांचों प्रकार के विषयों का अभाव है । जिसने उन्मादादि पांचो प्रमाद को जीत लिया है। और जो इश्वर अठारह दोषों से रहित है । इस प्रकार के चिदात्मा मचित्य स्व रूप-परमात्मा ईश्वर को हम मानते हैं । हे राजन् | जिस अधमं ब्राह्मण ने आप को कहा है कि - जैन दर्शन में परमेश्वर का स्वीकार नहीं किया है । वह सर्वथा असत्यलापी है। क्या उस ब्राह्मण ने 'हनुमान नाटक' का यह निम्न लिखित श्लोक नहीं पढ़ा है: यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो । बौद्धाः बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्मेति मिमांसकाः ॥ अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्त्तेति नैयायिकाः । सोयं वो विदधातु वातिफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ १ ॥ अर्थात- परमात्मा को शैव लोग 'शिव' कह करके उपासना करते हैं । वेदान्ती लोग 'ब्रह्म' शब्द से । प्रमाण में पटु बौद्ध लोग 'बुद्ध' शब्द से । मिमांसक लोग 'कर्म' शब्द से । जैन शासन में रत जैन लोग 'अर्हन्' शब्द से तथा नैयायिक लोग 'कर्ता' शब्द से व्यवहार करते हैं । वही त्रैलोक्य का स्वामी परमात्मा तुम लोगों को बाछित फल देने वाला है । " इस श्लोक से यह बात सुस्पष्ट मालूम हो जाती है कि 'खोग परमात्मा को मानते हैं ।

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