Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 59
________________ ५० विजयप्रशस्तिसार | 1 " वर्तमान समय में गुजरात देश में बिराजते हैं । वे दयालु महाराज ज्ञान-ध्यान-तप-अप और समाधि से श्रीपरमेश्वर की उपासना करते हैं । हे राजेश्वर ! आपकी समस्त धर्मानुयाइयों के ऊपर प्रिय दृष्टि को देखकर तथा आपका समस्त स्थानों में श्राधिपत्य जानकर श्रीहीरविजयसूरि जी महाराज ने आप को 'धर्मलाभ' रूप आशिष दी है। हे भूपाल ! सकल धर्म की माता 'दया' है । लमस्त पुण्यों में मुनियों के मनकी करुणाही अभीष्ट है । अतएव लमस्त धर्माचरण में दया का ही प्रधान्य है । हे राजन् ! इस प्रकार की कृपा-दया ने वर्तमान समय में समस्त जगत् को व्याप्त किया है । हे भूप ! यह आपकी बहु व्यापक 'दया' से " गुरुवर्य बहुत प्रसन्न हैं । वे गुरुवर्य जी स्वयं भी दया के भण्डार हैं । आपकी दया उनको अभिलषित है। जिस प्रकार धर्म का मूल दया है उसी प्रकार दया के मूल आप हैं । आपका ऐसा महत्व बिचारकर सूरीश्वर जी आपके कल्याणाभिलाषी हैं अर्थात् आपके ऐसे धर्मात्मा राजा का कल्याण हो यही हमारे गुरुवर्य की मनो कामना है । 1 इन बचनों को सुनती हुई सारी सभा अतीव हर्षित होगई । और सब अपने अंतःकरण में यही विचार करने लगे कि ग्रहो इस चतुर पुरुष का कैसा बचन चातुर्य है ? | ! इसके पश्चात् राजाने कहा कि-' हे सूरीश्वर ! श्राज की सभा की यह इच्छा है कि - श्रीनन्दिविजय मुनीश्वर पहिले दिखाए हुए अष्टावधान को साधन करे, तो बहुत अच्छी बात है ' । सूरिजी ने शीघ्र अपने शिष्य को श्राज्ञा दी । नन्दिविजय मुनिने अष्टावधान साधन किये। इस चमस्कारक विद्या से सारी सभा और राजा प्रसन्न होगए । और सम्पूर्ण सभा के सामने इस मुनि घरको 'खु

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