Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 49
________________ विजयप्रशस्तिसार । इस शास्त्रार्थ में खरतरगच्छ वालों की जब दाल न गली तब अ. हमदाबाद जाकर के कल्याणगज नामक एक नृपाधिकारी का प्रा. भय लेकर खरतरगच्छ वालों ने श्रीविजयसेनसूरि के एक शिष्य के साथ में वड़ा भारी विवाद उठाया । यह विवाद भी 'खान खान' वामक महाराजेन्द्र की सभा में सामन्तादिक राजलोक तथा नगर के बड़े २ लोगों के सामने हुमा। इस बिबाद में भी अनेक शास्त्रों में प्रवीण, बुद्धिमान और तेजस्वी शिष्य ने कल्याणराज का और औष्ट्रिक मतके अनुयायी संघ का बिभ्रम दूर कर दिया। इस प्रकार जय को प्राप्त करने वाले मुनि का बड़ा सत्कार किया और बड़ी जयधनि के साथ सब शास्त्र धूम धाम से अपने स्थान पर लाए गए । जैसे जल में तेलका बिंदु फैल जाता है, उसी तरह यह जय ध्वनि चारों ओर फैल गई। रवि के उदयसे कोक पक्षी तो मानंदित होता है । किन्तु उलूक को तो अप्रीति ही होती है। एवं रीत्या इस जैन शासन की उन्नति से तपगच्छीय श्रीसंघ को तो बड़ा आनंद हुआ किन्तु अन्य कुतीर्थियों को बड़ाही हार्दिक कष्ट हुमा । इस जय ध्वनिने जब हमारे श्रीषिजयपेनसूरीश्वर के कर्ण में प्रवेश किया, तब इस सूरीश्वर का अन्तःकरण बड़ाही प्रसन्न हुवा । प्रापने शीघ्र अहमदाबाद माने का विचार किया और पत्तन नगर से बिहार करके लोगों को उपदेश देते हुए आप थोड़े ही दिनों में अहमदाबाद पधारे। आपके आगमन से नगरके समस्त लोग आनंदित हुए । लोगों ने शहर के सम्पूर्ण मार्ग में अच्छी २ सजावटें की। बड़ी धूमधाम के साथ सूरीश्वर का प्रवेशोत्सव किया । इस प्रवेशोत्सव में राजा ने भी हाथी, घोड़े, रथ आदि बहुतसी सामग्री सामिल की । इस अभूतपूर्व बरघोड़े के साथ श्रीविजयसेनसूरीश्वर ने नगर के सर

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